लोकतंत्र का भविष्य एवं लोकसभा के चुनाव

देश इस समय २०१९ के लोकसभा के चुनावों की गरमी में तप रहा था। पड़ोसियों के ही नहीं, सारे विश्व की आँखें भारत में आम चुनाव के नतीजों की ओर लगी थीं। ‘साहित्य अमृत’ का जून मास का अंक आपको मिलने के पहले चुनाव के नतीजे जनता के सामने आ चुके होंगे। कौन जीतेगा और अगली सरकार किसकी होगी, हम इस कयास में नहीं पड़ना चाहते हैं। चुनाव की सातवीं कड़ी अभी बाकी है। चुनाव के सातवें पड़ाव पर पहुँचते-पहुँचते देश में राजनीतिक माहौल विकृत हो गया है। छठे पड़ाव में पश्चिम बंगाल में जिस प्रकार हिंसा और पारस्परिक आरोप-प्रत्यारोप का जो वातावरण बना, वह एक प्रजातंत्रात्मक देश के लिए अशोभनीय एवं शोचनीय है। इस स्तंभ में हम निरंतर गिरती हुई राजनैतिक संवाद की भाषा की आलोचना समय-समय पर करते रहे हैं। लोकतंत्र के भविष्य के लिए हम इसको एक गंभीर चुनौती मानते हैं। चुनावी ऊँट किस करवट बैठता है, यह २३ जून की संध्या तक स्पष्ट हो जाएगा। अगली सरकार के बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी। इस समय प्रार्थना यही कर सकते हैं कि १९ जून के अंतिम चुनावी पड़ाव में जनता द्वारा शांतिपूर्वक मतदान हो सके। चुनाव निष्पक्ष हों, अहिंसक वारदातों से बचा जा सके, यही हर नागरिक की कामना है। जिस प्रकार की अवांछनीय और हिंसक घटनाएँ पश्चिम बंगाल में घटित हुईं, वे हमारे लोकतंत्र की छवि पर एक काला धब्बा हैं। यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या यह वही बंगाल है, जिसके विषय में गोपाल कृष्ण गोखले ने बडे़ गौरव से सौ साल पहले कहा था कि ‘जो बंगाल आज सोचता है, पूरा देश कल सोचेगा।’ बंगाल ही आधुनिक भारत का जन्मदाता है। भारतीय नवजागरण अथवा नवोत्थान का प्रारंभ बंगाल से हुआ था। हमारे स्वराज्य के युद्ध के मार्ग में बंगाल ही समूचे देश का पथ-प्रदर्शक बना। क्या अब वह उदाहरण ममता बनर्जी के नेतृत्ववाली पश्चिम बंगाल की सरकार के अंतर्गत संभव है?

सात कडि़यों वाला चुनाव अप्रत्याशित था। चुनाव कराने का दायित्व चुनाव आयोग को है। चुनाव आयोग आकलन करता है, तारीखें निश्चित करने के पहले कि शांतिपूर्ण चुनाव में क्या बाधाएँ आ सकती हैं, कहाँ और कितनी हिंसक गतिविधियों की आशंका है। शांति बनाए रखने के लिए रक्षादल कब और कैसे पहुँचाए जा सकते हैं। साधारणतया यह दायित्व राज्य सरकार की पुलिस का है। दुर्भाग्यवश जनता को उसकी निष्पक्षता में विश्वास कम होता जा रहा है। दूसरे, स्थानीय पुलिस को अपने दैनिक अन्य कर्तव्यों का निर्वाह भी करना होता है। अतएव चुनाव के समय केंद्र के रक्षाबलों की आवश्यकता होती है। साधारणतया वे जिला अधिकारी के आदेशानुसार आवश्यकता होने पर कहाँ रखे जाएँ, तय होता है। जम्मू-कश्मीर और उत्तरी-पूर्वी राज्यों में आतंकवाद की जटिल समस्या है। उसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन संविधान ने चुनाव आयोग को अधिकार दिया है कि चुनाव की प्रक्रिया के दौरान किसी प्रकार की आशंका हो तो वे अधिकारियों का भी बदलाव कर सकते हैं। १९५१ से लेकर आजतक के सब चुनावों को हमें देखने का अवसर मिला है। अधिकारियों और पुलिस के बढ़ते राजनीतीकरण की वजह से इस तरह की शिकायतों में इतनी बढ़ोतरी हुई है, जैसा कभी सोचा नहीं गया था। इससे भी चुनाव आयोग का काम बढ़ गया है। प्रारंभ में चुनाव पर्यवेक्षकों की आवश्यकता नहीं होती थी, क्योंकि स्थानीय अधिकारियों में लोगों का विश्वास था। राज्य सरकारों को यह सब नागवार लगता है। पश्चिम बंगाल के पंचायत के चुनाव की धाँधली के कारण चुनाव आयोग को अधिक सतर्कता बरतनी पड़ी। रिगिंक और अनियमितताएँ पहले भी होती थीं, पर बडे़ स्तर पर नहीं। मीडिया की उपस्थिति भी इतनी नहीं थी। हर नागरिक वोट का महत्त्व भी धीरे-धीरे समझने लगा है। इससे चुनावी माहौल में वैसे भी बहुत गंभीरता आ रही है।

भारतीय चुनाव आयोग अपनी दक्षता और निष्पक्षता के लिए जाना जाता है। पहले एक मुख्य चुनाव अधिकारी होता था। टी.एन. सेशन के कार्यकाल में पी.वी. नरसिंहाराव की सरकार ने कानून में परिवर्तन कर तीन सदस्यों का आयोग बना दिया। टी.एन. सेशन को अपने अधिकार क्षेत्र के उल्लंघन पर सर्वोच्च न्यायालय से डाँट भी खानी पड़ी थी, क्योंकि संविधान सब अधिकारियों से अपनी समीओं में रहकर कार्य करने की अपेक्षा करता है। बढ़ते हुए राजनीतिक वातावरण में चुनाव आयोग की आलोचना शुरू हो गई। प्रधानमंत्री मोदी की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण विरोधी दलों में कोई गठबंधन हो, इसकी आवश्यकता सब दल समझ रहे थे। पर वे किसी प्रकार की रूपरेखा तय नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों में इस दलों का आपसी टकराव था। सब विरोधी दल कहने लगे कि लोकसभा चुनाव के बाद इस विषय में निर्णय करेंगे। रोज समाचार-पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भाजपा और कांग्रेस को छोड़कर फेडरल फ्रंट बनाना चाहते थे। ममता बनर्जी भी इससे सहमत बताई गईं। दूसरी ओर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू इक्कीस-बाईस दलों के महागठबंधन की कोशिश में थे। प्रगति किसी दिशा में नहीं दिखती है। आंध्र प्रदेश में विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं। वहाँ उनकी पार्टी का चुनावी भविष्य डाँवाँडोल बताया जा रहा है। गुजरात के विधानसभा चुनाव के बाद और कर्नाटक में कांग्रेस तथा देवगौड़ा की पार्टी की सरकार बनने के बाद विरोधी दलों की एकजुटता का प्रश्न बडे़ जोरों से उठा, पर अभी तक टाँयटाँय फिस्स, कोई नतीजा नहीं। सबसे बड़ा कारण यह कि प्रधानमंत्री पद के अनेक प्रत्याशी हैं—ममता बनर्जी, मायावती, देवगौड़ा और पवार। राहुल गांधी को तो डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन ने प्रधानमंत्री के पद का दावेदार पहले ही घोषित कर दिया। अब गुलाम नवी आजाद कह रहे हैं कि कांग्रेस महागठबंधन के चुने गए किसी और दल का समर्थन कर सकती है। कांग्रेस के प्रवक्ता का दावा है कि कांग्रेस सबसे पुरानी देशव्यापी पार्टी है, अन्य विरोधी दलों की तुलना में उसके सांसद सबसे अधिक आने की संभावना है, अतएव प्रधानमंत्री कांग्रेस का ही होना चाहिए। राहुल गांधी ने कुशलता और आक्रामकता के साथ प्रदर्शन चुनावों में किया है। शरद पवार ने कहा था कि अब वे चुनाव लड़ेंगे। अंत में अपने स्वयं के दल और परिवार में फूट होने के बाद कहा, वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। बडे़ राजनैतिक घाघ हैं पवार। प्रधानमंत्री बनने की लालसा अभी छोड़ी नहीं है। ‘आप’ के केजरीवाल ने तो अपनी पार्टी और अपनी असलियत स्वयं दिखा दी है। दिल्ली में भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा जाए, यह केजरीवाल और राहुल गांधी के बीच का हास्यास्पद तमाशा सबने देखा। केजरीवाल का कोई सिद्धांत नहीं, उनको केवल एकछत्र सब अधिकार चाहिए। आप के एक प्रत्याशी के बेटे ने तो सार्वजनिक कर दिया कि उसके पिता ने टिकट के लिए ६ करोड़ रुपए केजरीवाल को दिए हैं। नई राजनीति प्रारंभ करने का छलावा कर राजनीति को और गंदा करने में ही केजरीवाल प्रसन्न है। आप के भविष्य पर तो प्रश्नचिह्न है ही। केजरीवाल का विश्वास केवल बयानबाजी में है। नाच न आवे आँगन टेढ़ा; जो कानूनी अधिकार दिल्ली सरकार के हैं, उनका उपयोग कर दिल्ली के विकास में सहयोग करने की जगह उन्होंने केंद्र से टकराव का रास्ता अपनाया। बेतुकी व बेबुनियादी बातें कहने में माहिर हैं। उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि इंदिरा गांधी की तरह उनकी हत्या उनके अंगरक्षकों द्वारा होने का उन्हें डर है। उनकी महारथ नरेंद्र मोदी को बुरा-भला कहने और ऊलजलूल वक्तव्य देने में है। मायावती ने भीमसेना के अध्यक्ष चंद्रशेखर को कहना शुरू किया कि वह भाजपा की बी टीम है। उसने निश्चय किया कि भीमसेना और वह स्वयं चुनाव नहीं लड़ेंगे। मायावती अपनी पार्टी के अस्तित्व का प्रश्न है। २०१४ के चुनाव में बसपा का एक भी प्रत्याशी लोकसभा में नहीं जा सका। ऐसे में तो उनका नेतृत्व भी खतरे में पड़ गया। यही कारण है कि सब प्रकार की अवमाननाओं और निरादर बरदाश्त कर उन्होंने अखिलेश यादव से बुआ-भतीजे का रिश्ता निकाला। राष्ट्रीय लोकदल भी इसमें शामिल हो गया। पर कांग्रेस से कोई समझौता नहीं हो सका। अतएव कांग्रेस अलग-थलग उत्तर प्रदेश में है अकेले अपने बलबूते पर। उत्तर प्रदेश के चुनावों के नतीजों का असर अगली लोकसभा में कौन सरकार बनाने में सक्षम होगा, इसका निर्णय हो सकता है। प्रश्न जनता के सामने है कि क्या विपक्षी दल, जिनके अपने-अपने स्वार्थ हैं, आकांक्षाएँ हैं, टकराव है, एक ऐसी सरकार बना सकते हैं, जो अपने दायित्व को पूरा कर सकने में समर्थ हो। राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण देश के भविष्य के लिए घातक हो सकता है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या मायावती और अखिलेश यादव के अनुयायी अपने-अपने वोटों का ट्रांसफर गठबंधन के प्रत्याशियों के लिए कहाँ तक करा पाएँगे। पश्चिम बंगाल में ३० वर्ष शासन के उपरांत अब भाजपा के बढ़ते प्रभाव से सी.पी.एम. का वजूद भी खतरे में है। पूर्व सी.पी.एम. मुख्यमंत्री ने कहा है कि सी.पी.एम. समर्थक धीरे-धीरे भाजपा में जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन विचित्र है। केवल गेस्ट हाऊसवाली घटना से नहीं, दोनों दलों में जमीनी स्तर पर जबरदस्त विरोध है। दलितों को यादवों से शोषण और उत्पीड़न की शिकायत सबसे अधिक है। अतएव मैनपुरी से मुलायम सिंह को अधिकतम वोटों से जिताने की सभा में मायावती और मुलायम सिंह का मिलना दोनों के हाव-भाव से सहज ही पता लग रहा था। यादवों में चाचा शिवपाल अखिलेश और रामगोपाल के विरोध में है। अखिलेश यादवों, मुसलमानों और जाटवों के मतों पर अपने को आश्वस्त मानते हैं। ममता और मायावती स्वयं या उनके गुर्गे प्रधानमंत्री के पद के लिए अपने-अपने नेता की दावेदारी पेश करते रहते हैं। काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती है। समय-समय पर दोनों ने ही राहुल को प्रधानमंत्री के पद के लिए अपरिपक्व कहा है। विरोधी दल पूर्ण विश्वास प्रकट कर रहे हैं और डंके की चोट पर कह रहे हैं कि मोदी का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और उनकी सरकार बनेगी। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का दावा है कि वे और अधिक सीटें जीतकर सरकार बनाएँगे। कौन विजयी होता है और सरकार किसकी बनती है, यह रहस्य मतदान मशीनों में छिपा है और देश के समाने २३ मई की शाम तक उद्घाटित होगा। यदि नरेंद्र मोदी और एन डी ए को स्पष्ट बहुमत नहीं दिखाई देता है, तब माननीय राष्ट्रपति की भूमिका महत्त्वपूर्ण रहेगी।

पश्चिम बंगाल में अमित शाह के रोड शो के समय जो उत्पात हुआ, उसके लिए कौन उत्तरदायी है, इस विवाद में जाना संभव नहीं है। यह सब समुचित जाँच के बाद ही पता लगेगा। किंतु जो लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में विश्वास करते हैं, वे ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति की तोड़-फोड़ करेंगे, यह बात गले नहीं उतरती है। हमारे बहुत सम्मानीय महापुरुषों की न नसलवादियों ने पहले तोड़फोड़ की। उनमें से ईश्वरचंद्र विद्यासागर भी थे। वे विद्या के ही नहीं, करुणा के सागर भी थे। चुनावी दंगल में इस प्रकार के कृत्य सर्वथा निंदनीय हैं।

कभी लगता था कि चुनाव के मामले में कुछ विरोधी दल एक पेशकश कर रहे हैं। वे चुनाव में हारने के बहानों की खोज में हैं। पहले चुनाव आयोग पर आरोप लगाया गया कि सात चरणों का चुनाव भाजपा के कहने पर किया गया है, उनके फायदे के लिए। प्रशासनिक कठिनाइयों को उन्होंने नकार दिया। ये दल ई.वी.एम. का विरोध काफी समय से करते आ रहे हैं। जब वे स्वयं जीतते हैं, उनका दल जीतता है तो ई.वी.एम. ठीक हैं। जब भाजपा जीतती है तो रिगिंक का आरोप शुरू करते हैं। कपिल सिब्बल ने यह नाटक इंग्लैंड में भी शुरू करवाया। एक विशेषज्ञ को दिखाया गया, जो यह साबित करने की कोशिश कर रहा था कि कैसे रिगिंग की जाती है, पर वह देखनेवालों को संतुष्ट नहीं कर सका। कपिल सिब्बल तो एक नया शोषा छेड़ते रहते हैं, जैसे यदुरप्पा की तथाकथित डायरी का। साथ-साथ यह भी कहते हैं, वे आरोप नहीं लगा रहे, केवल बता रहे हैं, जिसकी जानकारी पहले से सबको है, और जिस आरोप को कर विभाग ने सही नहीं माना है। वे सोचते हैं, कीचड़ उछालो, कुछ-न-कुछ तो दूसरे को लगेगा ही। ई.वी.एम. के मामले में शरद पवार ने तो पराकाष्ठा कर दी, जब कहा कि यदि उनकी बेटी सुप्रिया हारती है, तो साबित हो जाएगा कि ई.वी.एम. में रिगिंग की जा सकती है। शरद पवार के अनुसार मानो ईश्वर की व्यवस्था है कि उनकी बेटी सुप्रिया सदैव वारामती से जीतेगी। शीर्ष न्यायालय ने परची की जाँच व्यवस्था हर पोलिंग बूथ पर पाँच प्रतिशत कर दी, पर विरोधी दलों को उससे भी संतोष नहीं हुआ। वे कम-से-कम ५० फीसदी पर यह व्यवस्था चाहते थे, पर शीर्ष न्यायालय ने उनकी माँग को नकार दिया। अब सब रोष चुनाव आयोग पर है। उसको भाजपा के कब्जे में बताया जा रहा है। सब पूर्व चुनाव कमिश्नरों ने इस बात की ताईद की कि ई.वी.एम. के चुनाव की प्रक्रिया दोषरहित है, पर फिर भी इन दलों को तसल्ली नहीं। मजे की बात है कि जो लोग वैधानिक संस्थाओं के कमजोर हो जाने का दोष मोदी सरकार पर लगा रहे हैं, चुनाव आयोग की छवि को बिगाड़ने के लिए वे ही दोषी हैं। ममता, मायावती और राहुल ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाए हैं। चुनाव आयोग के पास मानहानि का दावा करने का अधिकार नहीं है। जो भी चाहे, कुछ भी कह सकता है, आरोप लगा सकता है। इतने बडे़ चुनाव में, इतनी शिकायतों में कभी-कभी चुनाव आयोग गलती कर सकता है। कभी फैसले में देरी हो सकती है। उनको दुरुस्त करने के रास्ते हैं, पर संस्था की गरिमा तो बनाए रखनी ही होगी। शायद चुनाव आयोग ने प्रारंभ में अत्यंत आत्म-नियंत्रण से व्यवहार किया, उसका खामियाजा उसको भुगतना पड़ रहा है। शीर्ष न्यायालय ने जब उसके दायित्व और अधिकारों का ध्यान दिलाया तथा उसे लगा कि परिस्थितियाँ बन रही हैं कडे़ कदम उठाने की। पश्चिम बंगाल में उसने जब ऐसा किया तो ममता बरस पड़ीं। अन्य विरोधी दलों ने ममता का ही समर्थन किया। ये सब राजनीति से ही प्रेरित हैं। ममता बनर्जी का चुनाव आयोग पर बिफरना समझा जा सकता है। टीएमसी का बना-बनाया खेल बिगड़ रहा है। टीएमसी की धाँधली पर किसी प्रकार का अंकुश उन्हें पसंद नहीं है। चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इशारे पर कार्य कर रहा है, आदि उनके आरोप हैं। अन्य विपक्षी दल भी अपने-अपने ढंग से यही आरोप मढ़ रहे हैं। सब कठिनाइयों के होते हुए भी चुनाव आयोग को निर्णय शीघ्र और निर्भयता से लेने चाहिए। निर्णयों से सबको तो संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। तीन सदस्यों के आयोग में एक सदस्य ने कुछ विषयों में अपना मतभेद बताया। हम समझते हैं, उनकी राय को काररवाई के रिकॉर्ड में शामिल करने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे दो अन्य सदस्यों का मत ही चुनाव आयोग का निर्णय माना जाएगा। इस व्यर्थ के वाद-विवाद से चुनाव को बचना चाहिए था। यह स्पष्ट है कि राहुल गांधी, ममता बनर्जी और मायावती आदि का अनर्गल प्रलाप चुनाव आयोग के विरुद्ध अवांछनीय है। चुनाव आयोग को भी शीघ्रता और निष्पक्षता से अभाव-अभियोगों को दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए, और आगे के लिए सबक लेना चाहिए ताकि आयोग की विश्वसनीयता पर किसी प्रकार का धब्बा नहीं लगने पाए।

काफी समय तक कांग्रेस ने सस्पेंस बनाए रखा कि प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में प्रवेश करेंगी। वैसे वे राजनीति में तो बहुत पहले से थीं, पर उनका क्षेत्र सीमित था। अब वह कांग्रेस की जनरल सेके्रटरी हैं और उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों की उनकी विशेष जिम्मेदारी है। उन्होंने प्रयागराज से वाराणसी की यात्रा मोटरबोट द्वारा की। जगह-जगह जनता से मिलीं, मंदिरों में पूजा की, किंतु इस सबमें कृत्रिमता अधिक दिखाई देती थी। ऐसा नहीं लगता था कि जो वह कर रही हैं, उसमें उनकी रुचि या विश्वास वास्तव में है। रोड शो और रैलियों में लोग कुतूहलवश आते हैं, उससे यह कहना कि वे कांगे्रस को मत देंगे ही, यह सोचना सही नहीं होगा। फिर एक और सस्पेंस बनाया गया कि क्या वह मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ेंगी? वह स्वयं कहती रहीं कि यह कांग्रेस अध्यक्ष के आदेशों पर निर्भर है। जैसा कि बहुत लोगों का विचार था, उन्होंने चुनाव के मैदान में न उतरने का निर्णय लिया। अच्छा ही हुआ, क्योंकि पूरे परिवार की आय और जायदाद का विवरण देने में उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। राबर्ट वाड्रा के आर्थिक मामले पहले से ही काफी विवादग्रस्त हैं। अतएव चुनाव न लड़ने का निर्णय समझदारी का ही काम रहा।

इस चुनाव में जितने भद्दे-भद्दे अपशब्दों का प्रयोग किया गया, वह चिंता का विषय है। मोदी के लिए जिस तरह की गालियाँ दी गईं, उनका तसकरा उन्होंने स्वयं किया। प्रधानमंत्री चोर है, मोदी का मुँह फीका पड़ गया, उनका सीना सिकुड़ गया है, यह सब मोदी के पिता और माता के बारे में कुछ नहीं कहा, किंतु मोदी उनके पिता, नानी तथा प्रपितामह के विषय में अनुचित शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं। उधर पुनः नरेंद्र मोदी के लिए नीच शब्द का प्रयोग किया, जिसके लिए उनको निलंबित किया गया था। इस राजनीतिक नोक-झोंक में संवेदनहीनता कितनी है कि १९८४ के सिख हत्याओं के बारे में कह दिया कि ‘जो हुआ सो हुआ’। बाद को उन्होंने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की। ममता ने थप्पड़ मारने की बात कही, मोदी को हटाओ, देश से निकालो, जेल से आ जाएगा आदि-आदि। मायावती ने तो उन्हें बार-बार अयोग्य, भ्रष्ट आदि-आदि कहा। हम इस विवाद में जाना अनावश्यक समझते हैं। हो सकता है कि चुनाव की अभद्र भाषा तथा आरोपी और अत्यारोपों को कोई खोजकर एकत्र करे, ताकि भविष्य में लोगों को पता चले कि राजनीतिक विवाद या संवाद की भाषा कितनी विकृत हो गई थी और कितनी वैयक्तिक कटुता का वातावरण उत्पन्न हो गया था। सभी दलों के सदस्यों की अभद्र भाषा अत्यंत आपत्तिजनक है। एक तरफ ममता बनर्जी तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री ही मान रही हैं। मायावती की शब्दावली भी कम निंदनीय नहीं है। प्रियंका गांधी वाड्रा ने उनको दुर्योधन बताया है। विपक्षी दलों ने चुनाव नरेंद्र मोदी को हटाने पर केंद्रित कर दिया है, भाजपा अथवा एन.डी.ए नहीं। इसके लिए भाजपा के प्रत्याशियों की भी कम जिम्मेदारी नहीं है। भाजपा के कुछ प्रत्याशियों और सदस्यों ने कभी-कभी और कहीं-कहीं अनाप-शनाप वक्तव्य दिए तथा भाषा कैसी संतुलित होनी चाहिए, उसकी अनदेखी क्षुब्ध करती है। पंजाब कांग्रेस में मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह और उनके एक मंत्री सिद्धू में रस्साकशी बराबर चल रही है। बी.जे.पी. में भी कई प्रदेशों में दरारें पड़ीं, पर जान पड़ता है, पार्टी अध्यक्ष ने समय रहते उनका समाधान निकाल लिया। हम सदैव से कहते रहे हैं कि संभाषण की भाषा में नियंत्रण होना चाहिए, जो एक सभ्य समाज के लिए अनिवार्य है। कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों का एक ही मकसद है कि किसी प्रकार से एन.डी.ए. की सरकार, खासकर मोदी को हटाना है।

जीत किसी की भी हो, चुनावी परिदृश्य हमारे लोकतंत्र के लिए कई चुनौतियाँ खड़ी करता है। हम एक स्वस्थ और ईमानदार समाज की कल्पना करते हैं, किंतु इस चुनाव में अधिकारियों ने जगह-जगह सबसे अधिक धन जप्त किया है, जो मतदाताओं में वितरण के लिए रखा गया। चुनाव आयोग ने करोड़ों रुपए खर्च किए, बड़ा सुविचारित कैंपेन चलाया, ताकि अधिक से अधिक मतदाता अपना मत देने आएँ किंतु फिर भी बहुत से स्थानों पर मतदाताओं का प्रतिशत बहुत कम रहा। पढे़-लिखे और शहरी इलाकों में भद्र कहलानेवाले लोग क्या लोकतंत्र में मतदान का महत्त्व समझते हैं? इस चुनाव में जैसी और जितनी हिंसा व उत्पात हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ। आयाराम और गयाराम का बोलबाला रहा। दल-बदलुओं को प्राथमिकता मिली—दलों के पुराने, मँजे हुए सदस्यों की तुलना में। क्या इससे दलीय व्यवस्था, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है, उसको नुकसान नहीं पहुँचेगा और क्या सिद्धांतहीन राजनीति प्रोत्साहित नहीं होती है। हिमाचल के पं. सुखराम और उनके परिवार की कलाबाजियाँ लोकतंत्र पर तमाचा हैं। यही नहीं, चुनाव के बाद पता लगेगा कि बाहुबलियों और अपराधी तत्त्वों का बोलबाला अगली लोकसभा में कम नहीं होगा, शायद बढे़ ही। इससे यह भी सिद्ध हो गया है कि शीर्ष न्यायालय के आदेश कि राजनैतिक अपराधियों के मामलों का शीघ्र निपटारा होना चाहिए, केवल कहने भर को रह गया है। उनका वर्चस्व अभी भी है। कांग्रेस के मैनीफेस्टो में बहुत से लोकलुभावने आश्वासन दिए गए हैं। अन्य दल भी इस मामले में ज्यादा पीछे नहीं हैं। क्या उनके कार्यान्वयन के लिए साधन उपलब्ध हैं? उनका संभावित प्रभाव पूरी अर्थव्यवस्था पर क्या होगा, इस पर विचार किया गया है। कहीं हम सर्वसाधारण को आत्मनिर्भर बनाने की जगह परांमुख तो नहीं बना रहे हैं। जन-कल्याण के नाम पर उन्हें हर कार्य सरकार ही करेगी, यह भावना तो नहीं पैदा कर रहे हैं। कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य स्वावलंबन और जनता की पहल तथा प्रयास की अवहेलना नहीं हो सकती। क्या हम जनता में आत्मसम्मान और स्वावलंबन की भावना को प्रोत्साहित कर रहे हैं। परोक्ष और अपरोक्ष रूप से जातियों और कुछ समुदायों की तुष्टीकरण की नीति को ही बढ़ावा तो नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस के घोषणा-पत्र में राहुल गांधी ने सरकारी नौकरियों में तीस प्रतिशत महिला आरक्षण का वादा किया है, पर संसद् में उनका तैंतीस प्रतिशत प्रतिनिधित्व, जो सब दलों का वादा है, वह क्यों नहीं पूरा हो रहा है। राजनीति में व्यक्ति विशेष की भूमिका होती है, पर क्या पार्टी व्यवस्था बौना बन जाएगी। क्या राजनीति राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के आसपास ही केंद्रित रहेगी। क्या इतना विशाल देश एक व्यक्ति या एक परिवार के इर्दगिर्द ही सिमट जाएगा? क्या इससे दल व्यवस्था, जो लोकतंत्र की रीढ़ है, कमजोर नहीं होगी? दलों की निरंतरता का क्या होगा? आज तो राजनैतिक कटुता पैदा हुई है, उसका असर अगली सरकार के कामकाज पर कैसा पडे़गा, क्या यह विचार का सवाल नहीं है? क्या आनेवाली संसद् का कार्य सुचारू रूप से चल सकेगा या उसका स्थान नित्य शोर-शराबा और कार्य स्थगन रहेगा। यही नहीं, जिस प्रकार की भाषा और व्यवहार देखा गया, उसका नई पीढ़ी पर क्या असर होगा। क्या उनकी सम्मान भावना राजनीतिज्ञों, लोकतंत्रात्मक प्रणाली पर अटल रहेगी या केवल राजनीति से वितृष्णा ही पैदा होगी। प्रगति तभी होती है, जब सभी दलों में एक हद के बाद आम सहमति हो और जनहित तथा उनके कल्याण के मुद्दे पर सभी का सहयोग प्राप्त हो। इन सब विषयों पर अगली सरकार को और सर्वसाधारण को गंभीरता से विचार करना है। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता सब नेताओं से सर्वोपरि है। नरेंद्र मोदी की छवि को खंडित करने में यह ध्यान रखना होगा कि कहीं, प्रधानमंत्री अगली सरकार को चाहे किसी का भी हो, बहुत गंभीर आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से जूझना होगा। देश में अकाल की छाया बढ़ती जा रही है, खासकर खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं। इन सबके समाधान के लिए आपसी सहयोग अपेक्षित है। ‘सबका साथ सबका विकास’ के लिए उचित वातावरण का निर्माण आवश्यक है। इन सब मुद्दों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर भलीभाँति विचार करना आवश्यक होगा, यदि हम देश को, जहाँ हर प्रकार की भिन्नताएँ हैं, आपसी सौहार्द, विकास, न्याय और समुन्नति के मार्ग पर ले जाना चाहते हैं। राजनीति में आज आत्म-मंथन अनिवार्य होता जा रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय फिर विवाद की चपेट में

शीर्ष न्यायालय पुनः विवाद के घेरे में है। संविधान ने न्यायपालिका को एक विशेष स्थान प्रदान किया है। हम सब न्यायपालिका की गरिमा और स्वायत्तता के समर्थक हैं। न्यायपालिका हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की संरक्षक है। अतएव सभी को चिंता होती है, जब वह किसी विवाद से ग्रस्त हो जाती है। चार जजों की अप्रत्याशित प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ऐसी स्थिति पैदा हो गई और बहुत दिनों तक यह विवाद चलता रहा, जिससे न्यायपालिका की छवि को धक्का ही लगा। चार जजों में तीन जज सेवा से निवृत्त हो गए हैं, केवल जस्टिस रंजन गोगोई बाकी हैं और वे शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हैं। दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट के एक स्टाफ ने उनके विरुद्ध सेक्सुअल मोलेस्टेशन या छेड़छाड़ का परिपत्र शीर्ष न्यायालय के सभी जजों को भेजा। इस स्टाफ की सेवा कुछ समय पहले उसके विरुद्ध कुछ शिकायतें होने के कारण समाप्त कर दी गई थी। स्टाफ का १९ अप्रैल का शिकायती परिपत्र और हलफनामा समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुआ। उसकी जानकारी सबको हो गई। प्रतिक्रिया में मुख्य न्यायाधीश ने अपने समेत तीन जजों की एक पीठ घोषित की। उसमें उन्होंने बडे़ रोषपूर्ण एवं भावनात्मक ढंग से अपना पक्ष रखा। भावनाओं में उद्वेलित हो उन्होंने आरोप को झूठा बताते हुए अपना पक्ष रखा, अपने बैंक बैलेंस आदि का जिक्र किया। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ महत्त्वपूर्ण मुकदमों को वे सुन रहे हैं, उससे वे झिझकते नहीं। उसके बाद उन्होंने अपने को पीठ से अलग कर लिया। जस्टिस अरुण मिश्रा व जस्टिस एन.वी. रमन दो जजों की पीठ ने अपना निर्णय दिया कि मामले की जाँच की जाएगी। शिकायतकर्ता ने बेंच के एक जज की मुख्य न्यायाधीश से मित्रता की बात कही। जस्टिस रमन ने इस आक्षेप को नकारते हुए अपने को आंतरिक जाँच से अलग कर लिया। पीठ ने आदेश न देकर मीडिया से कहा कि मामले की नजाकत देखते हुए इस पर और वाद-विवाद नहीं होना चाहिए, किंतु तब तक तो यह मामला सबकी जानकारी में आ चुका था। कुछ संपादकीय भी निकले, लेख प्रकाशित हुए कि निष्पक्ष और पारदर्शी जाँच होनी चाहिए। कुछ आलेख भी समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुए। केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि आरोप बेबुनियाद हैं। न्यायालय में अटॉर्नी जनरल ने भी कहा और वित्तमंत्री जेटली, जो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ एडवोकेट हैं, ने अलग से अपनी राय व्यक्त की। जिन जज जस्टिस रमन महोदय से शिकायतकर्ता को एतराज था, उनकी जगह जस्टिस बोबडे़ ने ली, जो जस्टिस गोगोई के बाद सबसे वरिष्ठ जज हैं। जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी, दो महिला सुप्रीम कोर्ट के जज भी पीठ में सदस्य नियुक्त हुए। शिकायतकर्ता ने अपनी शिकायत पेश की, पर उसने प्रार्थना की कि उसको अपनी बात प्रस्तुत करने के लिए एक एडवोकेट या मित्र की सहायता मिलनी चाहिए, पर पीठ ने इस प्रार्थना को यह कहते हुए कि नकार दिया आंतरिक जाँच, इन हाउस इनक्वारी में इसका प्रावधान नहीं है। शिकायतकर्ता का यह कहना था कि प्रोसीडिंग्स को लिखा भी नहीं जा रहा था, और उसे कोई प्रतिलिपि उसकी नहीं दी गई। सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल ने एक वक्तव्य में बताया कि तीन जजों की कमेटी ने शिकायत को बेबुनियाद करार दिया है। यह रिपोर्ट जस्टिस अरुण मिश्रा की तीन जनों के पैनल को सौंप दी। जस्टिस मिश्रा शीर्ष न्यायालय में जस्टिस बोबडे़ के बाद हैं। शिकायतकर्ता का कहना है कि जजों की रिपोर्ट ने जो निष्कर्ष निकाला है, वह उसके साथ अन्याय है।

जब यह मामला शीर्ष अदालत के सामने आया था तो उसने कहा था कि निवर्तमान जज जस्टिस ए.के. पटनायक अलग जाँच करेंगे कि किसी षड्यंत्र के अंतर्गत शिकायतें जजों के विरुद्ध आती हैं और क्या बेंच बैठाने में, बैंच फिक्सिंग में कोई हेराफेरी होती है। एक अधिवक्ता श्री बेंस ने अर्जी और हलफनामा प्रस्तुत किया कि शीर्ष न्यायालय पर दवाब बनाने का एक षड्यंत्र चल रहा है, उनके पास सबूत हैं और वे पेश करेंगे। इस प्रकार वह मामला प्रशासनिक व्यवस्था की जाँच का हो गया। पैनल का खयाल था कि बैंच फिक्सिंग की जस्टिस पटनायक की जांच इन हाउस इन्क्वारी के साथ चल सकती है, पर जस्टिस पटनायक ने कहा कि वे इन हाउस इन्क्वारी के निष्कर्ष के बाद ही जाँच प्रारंभ करेंगे। ज्ञात नहीं है कि वह जाँच शुरू हुई है या नहीं।

इन हाउस या आंतरिक प्रक्रिया जजों के विरुद्ध शिकायत आने के लिए तय की गई थी। मुख्य न्यायाधीश, शीर्ष न्यायालय के विरुद्ध क्या होगा, इसकी कल्पना नहीं थी और कोई व्यवस्था भी निश्चित नहीं की गई थी। अतएव जाँच के लिए आंतरिक पैनल द्वारा जाँच कराना तय हुआ था। बहुत से विशेषज्ञों का कहना है कि इस पूरे प्रकरण में प्रारंभ से ही गलत काररवाई हो रही है। जब मुख्य न्यायाधीश गोगोई के विरुद्ध शिकायत थी तो उन्हें आरोपी होने के कारण निर्णय पूरे शीर्ष न्यायालय के जजों पर छोड़ देना चाहिए था, स्वयं एक बेंच बैठाने का फैसला करना अटॉर्नी जनरल को बुलाना, स्वयं उसमें शामिल होना न्याय प्रक्रिया के खिलाफ था। शिकायत होने पर उनको कम-से-कम छुट्टी पर चले जाना चाहिए था, ताकि कोई कह न सके कि न्याय प्रक्रिया उनकी उपस्थिति से प्रभावित हो रही है। महिला वरिष्ठ विधिवेत्ताओं ने और भी कई मुद्दे उठाए। वरिष्ठ एडवोकेट का कहना है कि पैनल की रिपोर्ट सार्वजनिक न की जाए, यह आर.टी.आई. आने के पहले का निर्णय था। जस्टिस गोगोई ने एक महिला एडवोकेट का एन.जी.ओ. था, उसके विरुद्ध विदेश से बिना सरकारी आज्ञा के धन लिया गया। जाँच निलंबित की। जस्टिस गोगाई ने आदेश दिया कि जाँच स्थगित नहीं रहनी चाहिए। इससे एक और जटिलता पैदा हो गई। यह अलग बात है कि जनता में यह भावना है कि वैसे दूसरों को पारदर्शिता बरतने के मामले में शीर्ष न्यायालय आगे रहता है, परंतु अपने विषय में वह इस खुलेपन और पारदर्शिता से सदैव हिचकिचाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को कि आर.टी.आई. शीर्ष न्यायालय पर लागू है, जिसे शीर्ष अदालत ने स्थगित कर दिया है। इस प्रकार के और भी उदाहरण हैं। हम सभी हमाम में नंगे हैं। न्यायाधीश अतिमानव नहीं है। पद की गरिमा और दायित्व उन्हें महामंडित करता है। जो उपदेश दूसरों के लिए है, वह उन्हें अपने पर भी लागू करना चाहिए, खासकर प्रशासनिक मामलों में।

चूँकि इन हाउस इन्क्वारी या आंतरिक जाँच प्रशासनिक व्यवस्था का भाग है, और चूँकि पैनल ने अपना निष्कर्ष दे दिया है। समाचार है कि शिकायतकर्ता न्यायिक व्यवस्था का सहारा लेना चाहती है। कानून के अंतर्गत चाहे कोई कितना बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है। आगे दिखाई देगा कि इस प्रकरण में विधि किस प्रकार याचिकाकर्ता को न्याय देने में सफल होगा। जब तक कानून की नजर में आरोपी दोषी नहीं घोषित होता, किसी को दोषी नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न यही है कि इस संवेदनशील मामले का निपटारा कैसे होता है, इससे सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा और गरिमा का प्रश्न जुड़ गया है। इस मामले में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए.पी. शाह ने एक साक्षात्कार में कहा है कि यह मामला उसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट को हर्ट करेगा, जैसा आपातकाल में ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शुक्ला का मामला अभी तक शीर्ष न्यायालय को हर्ट करता रहा है। आशा है कि इस अग्नि परीक्षा में शीर्ष न्यायालय खरी उतरेगी। हम सभी चाहते हैं कि मामले में न्याय हो, और शीर्ष न्यायालय की विश्वसनीयता एवं गरिमा अक्षुण्ण रहे।

गांधी साहित्य के कुछ मूल्यवान प्रकाशन

महात्मा गांधी की १५०वीं वर्षगाँठ के आयोजन के समय गांधीजी के बहुपक्षीय जीवन, उनके विचारों और कार्यों के विषय में बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। यह स्वाभाविक है, अपेक्षित है। गांधीजी के शताब्दी समारोह के अवसर पर भी भारत में बहुत अच्छी पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। उससे थोड़ा कम साहित्य उनकी १२५वीं जन्मजयंती के समय निकला था। कई पुस्तकें आलोचनात्मक भी निकलीं। यह भी स्वाभाविक है। गांधीजी वाद-विवाद, वार्त्तालाप, संवाद में विश्वास रखते थे। जिनका गांधीजी के विचारों, में साम्य नहीं था वे उनकी सोच, उनकी आलोचना भी तर्कपूर्वक करते थे। उनको भी दोष नहीं दिया जा सकता, उनकी चर्चा भी समय-समय पर होगी। आखिर गांधीजी का संपूर्ण जीवन सत्य की खोज को समर्पित था। अपनी अपूर्ण आत्मकथा को ही उन्होंने ‘मेरे सत्य के साथ प्रयोग’ की संज्ञा दी थी। पर सबसे बड़ी आवश्यकता है कि उनके लेखों और भाषणों को पढ़ा और समझा जाए, जो उन्होंने कहा, उसकी पृष्ठभूमि क्या थी। नवजीवन प्रेस की स्थापना उन्होंने इसी उद्देश्य से की थी। गांधीजी की विरासत को सँजोए रखने और प्रचारित करने में वह निरंतर कार्यरत है। और अनेक भाषणों में गांधीजी की प्रेरणा से ही श्री जमनालाल बजाज तथा श्री घनश्याम दास बिड़ला के प्रयास व सहयोग से १९२५ में ‘सस्ता साहित्य मंडल’ की स्थापना हुई थी। उद्देश्य था कि हिंदी में सामाजिक जागृति, चरित्र-निर्माण को ध्यान में रखते हुए कम मूल्य में पुस्तकें प्रकाशित हों, समाज के सभी वर्गों और उम्रवालों के लिए सस्ता साहित्य मंडल इस लक्ष्य से प्रेरित होकर सतत प्रयत्नशील है। इस दिशा में इसकी विशद देन है। बड़ी मात्रा में विविधतापूर्ण गांधी साहित्य इस मंडल द्वारा उपलब्ध कराया गया है। वह प्रगतिवादी है। छोटी और बड़ी पुस्तकें मंडल प्रकाशित कर रहा है। अब गांधी साहित्य कॉपीराइट से मुक्त है और अनेक प्रकाशन उसे छाप रहे हैं। अधिक-से-अधिक लोगों का उनकी विचारधारा से परिचय हो, यह तो आवश्यक है, पर यह भी उतना ही जरूरी है कि गांधीजी के लेखन की शुचिता और विश्वसनीयता में कमी नहीं आनी चाहिए। व्यापारिक लाभ के लोभ से उस पर आँच नहीं आनी चाहिए।

सस्ता साहित्य मंडल के गांधी संबंधी कुछ प्रकाशन आए हैं, जिनका हम उल्लेख करना चाहेंगे। सुधी पाठकों को स्मरणा होगा कि १९३९ में गांधीजी के इकहत्तरवें जन्म दिवस पर डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (बाद को देश के राष्ट्रपति) ने ‘गांधी अभिनंदन ग्रंथ’ का संपादन किया था। देश-विदेश के अनेक विद्वानों और राजनैतिक हस्तियों ने गांधीजी के बारे में अपने विचार व्यक्त किए, फ उनका संकलन किया गया। गांधीजी की उस समय तक वैश्विक मान्यता स्थापित हो चुकी थी। अभिनंदन ग्रंथ अंग्रेजी में था और संपादक महोदय की अनुमति प्राप्त होने के बाद मंडल ने कोशिश की कि अंग्रेजी संस्करण के साथ ही हिंदी संस्करण का भी विमोचन हो। शीघ्रातिशीघ्र अनुवाद की व्यवस्था को गई, फिर भी कुछ त्रुटियाँ रह गईं, लेकिन दोनों संस्करणों का लोकार्पण एक साथ हो सका। दूसरे संस्करण में उनको सुधारा गया। १९४६ तक मंडल ने तीन और संस्करण निकाले। ग्रंथ में गांधीजी की अपनी प्रतिक्रिया भी शामिल है। हिंदी संस्करण के लिए नेहरूजी से भी अनुरोध किया गया। उन्होंने भी हिंदी में ही लिखकर अपनी आस्था को व्यक्त किया। यह अत्यंत सुंदर प्रकाशन है, जो सस्ता साहित्य मंडल ने गांधीजी के १५०वें जन्मदिवस के समय प्रकाशित किया है। यह ऐतिहासिक व सराहनीय ग्रंथ साधारण नागरिकों को भी अब उपलब्ध है। शिक्षालयों और जन-पुस्तकालयों में तो यह उपलब्ध होना ही चाहिए।

एक और पुस्तक है, ‘गांधीजी स्मृति लेखों का आलोक’, जिसका संकलन और संपादन डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल ने किया था। इस पुस्तक में गांधीजी के बृहद लेखन में से डॉ. पालीवाल ने गांधीजी द्वारा अपने सहयोगियों, राजनेताओं तथा अन्य क्षेत्रों में देश-विदेश के प्रख्यात व्यक्तियों के बारे में जो विचार प्रकट किए हैं, उनका चयन कर संकलित किया है। डॉ. पालीवाल की विद्वत्ता और कार्यक्षमता से साहित्य जगत् परिचित है। यह पुस्तक अत्यंत उपादेय है, हमारी नई पीढ़ी में आत्मविश्वास का संचार करने के लिए, जब वे आज सर्वत्र जनजीवन, मूल्यों और नैतिक आचरण का क्षरण ही देख रहे। डॉ. पालीवाल की दूसरी पुस्तक है, ‘हमारे समय में गांधी’, जिसमें कतिपय समय-समय पर लिखे उनके लेख संकलित हैं। ये लेख अत्यंत विचारशील और विवेचनात्मक हैं, जो हमें ‘गांधीजी आज के समय में क्यों प्रासंगिकता हैं’ विषय पर प्रकाश डालते हैं। दो आलेखों की ओर हम विज्ञ पाठकों का ध्यान विशेषतया आकर्षित करना चाहेंगे, ‘गांधी, लोहिया और आंबेडकर; वैचारिक क्रांति’ तथा ‘उत्तर आधुनिकता और गांधी’। बहुत से भ्रम और मिथक आज समाज में कुछ लोगों ने पाल रखे हैं, उनका निराकरण करने में यह संकलन समर्थ और अर्थवान है। किसी ने सही कहा है कि गांधीजी ने पूर्व भूतकाल का नहीं, आगे आनेवाले काल का इतिहास लिखा है। खेद है कि दोनों पुस्तकें डॉ. पालीवाल के जीवनकाल में उपलब्ध न हो सकीं।

 

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

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