भिखमंगों का देश

भिखमंगों का देश

हमारे देश में दान की बहुत प्रतिष्ठा है। एक जमाना था कि राजा उदार मन और खुले हाथ से दान देते थे। ब्राह्मण को तो कुछ करने-धरने की दरकार ही नहीं थी। बस राजा के द्वार जाकर उसे आशीर्वाद देता, उसकी मनोकामना की पूर्ति के लिए यज्ञ-हवन जैसा कुछ आयोजन करता और मुट्ठी भर स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर घर लौट जाता। हमें संदेह है कि हो न हो, इसी ठग-विद्या के विशेषज्ञ ने दान की महत्ता स्थापित की होगी, दूसरों की कमाई हड़पने के वास्ते। ‘भय बिनु होय न प्रीति’ जैसी उक्ति भी इसमें समाहित है। ब्राह्मण को दान या भिक्षा न देना पाप है। ऐसा पापी ब्राह्मण के शाप का सुपात्र है। वह सिर्फ  शाब्दिक श्राप से उसे चूहा या छछूँदर बनाने में समर्थ है। यदि नहीं बनाता है तो यह उसकी महानता है।

इस संदर्भ में रामायण-महाभारत से हम तुलनात्मक रूप से अज्ञानी हैं। हमें ध्रुव भाई ने इस विषय में ज्ञान देते हुए बताया कि महाभारत के पात्रों में अवैध संतानों की बहुतायत है। हमने उनसे कर्ण की दानवीरता के विषय में जिज्ञासा जताई थी। उनके अनुसार कर्ण सूर्य के पुत्र थे और अर्जुन इंद्र के। इंद्र को आशंका थी कि कर्ण के कवच-कुंडल अर्जुन को धनुर्धारियों के युद्ध में पराजित करने में ही नहीं, प्राण हरने में भी सक्षम हैं। उन्होंने ब्राह्मण का स्वाँग धरा और कर्ण से भिक्षा के बहाने उनके कवच-कुंडल माँग लिये। ब्राह्मण के माध्यम से इंद्र द्वारा की गई साजिश को कर्ण ने भाँपकर भी अपनी दानवीरता को प्रसिद्धि को पुष्ट करते, निभाते, तत्काल अपने कवच-कुंडल समर्पित कर दिए उन्हें। इंद्र कथा से स्पष्ट है कि ब्राह्मण को दान-पुण्य का लक्षण है और पुत्र-मोह जब देवताओं में प्रचलित है तो इनसानों में क्यों न हो?

भिक्षा, भीख, दान, पुण्य की आस्था समय के साथ कम नहीं हुई है, उलटे बढ़ती जा रही है। इसका एक सुखद परिणाम है कि लाभ अब बाह्मणों तक सीमित नहीं है, इसमें आज दूसरी जातियों की ही प्रमुखता है। पहले के सामंत-तंत्र के राजा दानी थे। आज पारिवारिक प्रजातंत्र के प्रतिनिधि भी। दोनों में एक समान तत्त्व हैं। दोनों ने जनता के पैसे उड़ाकर अपनी दरियादिली साबित की है। हमें समझ आ गया है कि कर्ण को दान में श्रेष्ठ क्यों कहा जाता है? उन्होंने अपने शरीर को लहूलुहान कर कुंडल नोंचकर दान कर दिए।

इधर भीख का चलन भी बढ़ा है। हमारा ताल्लुक नगर-महानगर के तिराहे-चौराहों से ही नहीं है। वहाँ तो वृद्ध, अधेड़, बच्चे सब ही मानवीय दान-प्रवृत्ति का शोषण करते नजर आते हैं। इसमें औरत-आदमी दोनों सम्मिलित हैं। कोई जबरन कार की स्क्रीन साफ  करने के प्रयास में जुटा है तो कोई लोकप्रिय पत्र-पत्रिका बेचने के। कोई महिला बाहर से आकर दिल्ली में भटक गई है तो किसी का बच्चा ज्वरग्रस्त है। सबको पैसे की तलाश है। पैसे पाकर भी न कोई घर जाता है, न बच्चे का इलाज करवाता है। कहीं पोल न खुले तो भीख के क्षेत्र में परिवर्तन हो जाता है। इस चौराहे से उस चौराहे को। जैसे कोई अफसर एक जिले में घूस खाने की अति करे तो दूसरे में बदल जाए। ऐसे अफसर समर्थ हैं। उनके साथ बहुमत है। सचिवालय प्रशासन का लोकतंत्र है। यहाँ सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। कौन किस पर और क्यों काररवाई करे? सबका यही प्रेरक वाक्य है कि “हम भारत के, भ्रष्ट हमारे।” हिम्मत हो सरकार में तो कर्मचारियों पर काररवाई करे। जिला-सचिवालय सब ठप कर देंगे।

इन भिखमंगों को देखकर हमें कभी-कभी अंग्रेजी उपन्यासकार डिकैंस के डेविड कॉपरफील्ड फॉर ऑलिवर ट्विस्ट जैसे उपन्यासकारों की याद आती है। कैसे बच्चों से गैंग बनाकर भीख का कारोबार चलता है? औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक काल की ये कथाएँ जैसे भारत में दोहराई जा रही हैं। कभी-कभी मन में प्रश्न उठता है कि क्या भारत में भी भिखारियों के योजनाबद्ध गैंग सक्रिय हैं? इन पर भी डिकैंस के किसी खलनायक का नियंत्रण है? उसी के आदेश पर इनका चौराहा आवंटित या परिवर्तित होता है? हम इस विषय पर सोचते हैं, पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ हैं। न हम डिकैंस के विशेषज्ञ हैं, न औद्योगिक क्रांति के। इस विषय का कोई विद्वान् किस्म का इनसान ही, भारत से तुलना कर, कोई नतीजा निकालने का भ्रम पालकर दूसरों को भ्रमित करेगा, वह भी गहन अध्ययन के दावे के साथ।

हम तो इतना जानते हैं कि हमें तो बनी-बनाई औद्योगिक क्रांति मिल गई, बैठे-ठाले। हम अब भले ‘मेड इन इंडिया’ के बारे में सजग हैं नहीं पहले तो हम कच्चे माल का निर्यात और बने सामान के आयात पर ही निर्भर रहे हैं। भिक्षा का महत्त्व अब देश में हर जाति-उपजाति तक विस्तृत है। सरकार का शासक दल अपनी चहेती जाति को उसके वोट के बदले आरक्षण की भीख देता है। यह एक आसान विधि है सत्ता में आने की। इसे तथाकथित सामाजिक समरसता के आधार पर किया जाता है और जो हासिल होती है, वह केवल सामाजिक कटुता है। फिर भी देशहित का नाम लेकर, सियासी आका शत-प्रतिशत आरक्षण का लुभावना स्वप्न देखते हैं।

कुछ प्रेम के पुजारी होते हैं, कुछ वोट के भिखारी। कहने को, उनकी प्राथमिकता जन-सेवा है। करने को वह घर-सेवा करते हैं। उनकी पूरी कोशिश करोड़ों जोड़कर अपनी दो-तीन पीढ़ियों का आर्थिक प्रबंधन है। कोई भी देखे तो सराहे। उनकी प्रशंसा करे। “चुनाव पहली बार जीता पर तब से फीता लेकर नफे की कमाई नाप रहा है।” जनसेवा के लिए हर प्रार्थी के हर संभव-असंभव काम के लिए फीस लेकर संबद्ध मंत्री को चिट्ठी लिखी है। विधानसभा में प्रश्न पूछे हैं पैसा लेकर। उस पर तुर्रा यह कि स्वयं की जनसेवा की डींगें हाँकता है, “है कोई विधायक, जिसने इतना काम किया है?” उसकी चमचा टोली ताली बजाती है इस उपलब्धि पर। “सर, कुछ लोग कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाना चाहते हैं सदन में।” “बिल्कुल, हम उठाएँगे प्रश्न उनकी ओर से। रेट तो आपको पता ही है।” चमचा टिप्पणी करता है, “सर, आप ऐसा जनहित का पारखी मिलना मुश्किल है।” वाह-वाह के समवेत स्वरों से उसका सेवा केंद्र उर्फ घर का दफ्तर गूँज उठता है।

कौन कहे, दान-चंदे का धन भी बैंक का ऋण हो? हमें शक होने लगा है कि जो सामने से नजर आता है, वह सच नहीं होता है? जो स्वयं को दानवीर कर्ण का समकक्ष समझते हैं, वह जनता का पैसा जनता को ही दे रहे हैं? गनीमत है कि कुछ दे तो रहे हैं। कुछ तो बिना सुविधा दिए, उसका दावा करने में सक्षम हैं और इसी बहाने कमाने तथा छवि बनाने में। अब हमारा विश्वास है कि समाज में कुछ छोटे तो, कुछ बड़े भिखारी हैं। चौराहे-तिराहे के छोटे हैं, कोठियों के वासी बड़े। इससे कौन इनकार कर सकता है कि भिक्षक सभी हैं?

उद्योगपतियों के बारे में हमें एक अनूठा अनुभव है। हम एक पाँच सितारा होटल के पोर्च में खड़े अंदर की गतिविधियाँ निहार रहे थे। अंदर जाकर कुछ खाने-पीने पर जेब का प्रतिबंध है, पर ताक-झाँक में तो कोई खर्चा नहीं है। इतने में देखा कि एक प्रसिद्ध उद्योगपति अंदर से आ रहे हैं, एक अन्य सज्जन के साथ। सिर पर साफा लगाए और यूनिफॉर्मधारी एक मुच्छड़ गार्ड ने उन्हें जोरदार सैल्यूट ठोककर ‘टिप’ कमाई। उद्योगपति के फोटू से हमने उन्हें पहचाना। वह एक लोकप्रिय समाचार-पत्र के भी स्वामी थे। अखबार फिल्मी गपशप और सियासी अफवाहों के लिए जाना जाता है। उसका उपयोगी पक्ष उद्योगपति के मंदिर-धर्मशाला निर्माण तथा दान-दक्षिणा की सच्ची-झूठी खबरें छापना है। किस अनाथालय या महिला आश्रम को दानी उद्योगपति ने कितनी आर्थिक सहायता की? किस मंदिर में उन्होंने भूखे-नंगों को भंडारा खिलाया और कपड़े बाँटे? कौन-कौन सामाजिक हस्तियाँ उनके दर्शन को पधारीं? इस अखबार को पड़ोसी के दड़बे के दरवाजे से सुबह-चुराकर पढ़ना अपनी आदत बन चुकी है। इसी ने हमें उद्योगपति के भद्दे-मोटे थोबड़े से परिचित कराया है।

जो दृश्य हमने देखा तो हम आश्चर्य में पड़ गए। पोर्च में एक मर्सिडीज आकर रुकी और उद्योगपति ने स्वयं दरवाजा खोलकर साथ के सज्जन को ‘थैंक यू’ कहकर उसमें बिठाया। हमारे लिए अनजाना अपरिचित जरूर कोई नामी-गिरामी हस्ती होगा, वरना धनपति उसको इतना सम्मान क्यों देते? हमने मुच्छड़ गार्ड से जिज्ञासा जताई। उसने अपने महत्त्व से प्रेरित होकर मूँछ खुजाई। हमें लगा कि मुच्छड़ शायद जूँ-गुस्त है और फिर उत्तर दिया, “साहब के साथ ऐसे-वैसे थोड़े ही आते हैं। कई फिल्मी सितारे, कभी राजनेता पधारते हैं। यह जो हैं, वह तो एक राष्ट्रीयकृत बैंक के चेयरमैन हैं, कभी चाय, कभी डिनर पर काफी आना-जाना होता है।” यह बेमेल मेल-जोल अपने पल्ले नहीं पड़ा। बैंक के चेयरमैन में ऐसा क्या आकर्षण है कि उनकी इतनी खातिरदारी हो? फिल्मी सितारों में ग्लैमर है, जनसेवक में उपयोगी जनसंपर्क पर बैंक से जनता के पैसे के अलावा और क्या है?

वह तो हमारे एक जानकार मित्र ने बताया कि आपको कुछ पता भी है? यह जो बड़े उद्योगों के स्वामी हैं, वह अपनी जेब से तो कोई प्रोजेक्ट-फैक्टरी नहीं लगाते हैं। सब बैंकों का पैसा है। इसीलिए बैंक के चेयरमैनें की महत्ता है। इनका रिश्ता अजीब है। बैंक दाता है, धनपति याचक। उन्हें स्पष्ट रूप से कहें तो भिखारी भी कह सकते हैं। भीख का एक नया पक्ष हमें समझ आया। इसमें दोनें का पारस्परिक हित है। एक को ब्याज मिलता है, दूसरे को करोड़ों का कर्ज। पैसेवाला निजी पैसा दाँत से पकड़ता है, वहीं जन-धन से नए-नए उद्योग लगाकर मुनाफा कमाता है। कौन कहे, दान-चंदे का धन भी बैंक का ऋण हो? हमें शक होने लगा है कि जो सामने से नजर आता है, वह सच नहीं होता है? जो स्वयं को दानवीर कर्ण का समकक्ष समझते हैं, वह जनता का पैसा जनता को ही दे रहे हैं? गनीमत है कि कुछ दे तो रहे हैं। कुछ तो बिना सुविधा दिए, उसका दावा करने में सक्षम हैं और इसी बहाने कमाने तथा छवि बनाने में। अब हमारा विश्वास है कि समाज में कुछ छोटे तो, कुछ बड़े भिखारी हैं। चौराहे-तिराहे के छोटे हैं, कोठियों के वासी बड़े। इससे कौन इनकार कर सकता है कि भिक्षक सभी हैं?

धनोपार्जन के धंधे ही नहीं, सरकारें भी भीख पर निर्भर हैं। कुछ की विश्वबैंक पर निर्भरता है तो कुछ की अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पर। कुछ ब्रिक्स से याचक की मुद्रा अपनाते हैं तो कुछ सहयोगी देशों से। सरकार का यह उधार तथा कथित विकास योजनाओं के लक्ष्य की आपूर्ति के लिए होता है। इनसे देश की तरक्की हो न हो, कुछ व्यक्तियों की तरक्की जरूर होती है। उनके घर भरते हैं। पीढ़ियों के खर्च-पानी का प्रबंध करनेवाले के गुण गाए जाते हैं। ऐसे खानदानी या तो रक्षा-सौदों में लिप्त हैं या फिर सियासत में अथवा आयात-निर्यात में। यह हर प्रकार की छूट लेने के विशेषज्ञ हैं। सियासी विरासत के वारिस अपने पुरखों की पूँजी ठिकाने लगाते हैं। कभी रईस घरों के बच्चों के लिए कहा जाता था कि वे चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। जीवन में जोड़ की गणित सीखते थे और धंधे में मुनाफा। इसके अतिरिक्त उनके लिए कुछ रुचिकर भी कम ही होता था।

इसी प्रकार हमारे देश में पारिवारिक प्रजातंत्र के पुश्तैनी उत्तराधिकारी पुश्त-दर-पुश्त सत्ता की कुरसी लेकर जन्म लेते हैं। वह योग्य हों या अयोग्य, सबों में एक समानता है। सब गरीबों के हित-चिंतक, दलितों के देवता व पिछड़ों के पोषक हैं। वास्तविकता में उनका न दलितों से संबंध है, न पिछड़ों से। न उन्होंने गरीबी झेली, न हल-बैल देखा है। श्रमिकों-मदूजरों से उनका कोई रिश्ता नहीं है। न कभी उन्होंने मेहनत की है, न कभी पसीना बहाया है। उनकी गरमियाँ वातानुकूलित कक्षों में बीतती हैं और शीतलहर के दौरान नियंत्रित तापमान में। सामान्य व्यक्ति की जुगाड़ रोटी की है, उनकी विदेशी चॉकलेट और केक की। अपनी-अपनी तलाश है। किसी को पेट भरने की, किसी की विदेशी पक्वान्नों की। ऐसों की और आम आदमियों में दूर-दूर का रिश्ता नहीं है। फिर भी इन्होंने छवि बनाई है, भारतीय प्रजातंत्र के वास्तविक प्रतिनिधि होने की। सब प्रचार का कमाल है। कुछ इनके भ्रम पर भरोसा भी करते हैं। ऐसे जनतंत्र का भला कैसे होगा, यह ऊपरवाले को भी शायद ही पता हो? फिर भी, बुजुर्ग पीढ़ियों से यही दोहराते रहे हैं। लिहाजा, वह भी यही दोहराते हैं और इन सबके कल्याण की कसमें खाते हैं।

हिंदुस्तान एक जात और धर्म प्रधान देश है। उनके पुरखों ने महल जैसे आवास में जात और धर्म के मुखौटों का संग्रहालय बनाया हुआ है। मंदिर, मसजिद, चर्च व गुरुद्वारों में श्रद्धा प्रदर्शित करने या विभिन्न जातियों को लुभाने में, वह इन्हीं का प्रयोग करते हैं। वास्तविकता यह है कि उनकी कमीशन-धर्म के अलावा और किसी धर्म में न आस्था है, न निष्ठा। उन्होंने न कोई व्यवसाय किया है न धंधा, न नौकरी। फिर भी, चलने को गाड़ी है, उड़ने को जहाज और रहने को फॉर्महाउस। यह सब कमीशन की कृपा है। जब कोई सत्ता में है तो अधिकार से भिक्षा माँगने में समर्थ हैं। उससे किसी ने मोलभाव की जुर्रत की तो ‘डील’ कैंसिल। ग्लोबल स्तर पर कई माल बेचने को आतुर हैं, मनमाना कमीशन देने को भी।

कमीशनखोर का दावा है कि उसने देश की समृद्धि को बढ़ाया है। यदि रक्षा-सौदा है तो सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता हुई है, यदि कुछ और है तो देश का विकास। इससे उसने मुल्क का तो भला ही किया है, विदेशी कंपनी के मुनाफे में हिस्सा बँटाकर। वह भूलता है कि सौदे की कीमत तो देश के ईमानदार कर-दाताओं ने ही चुकाई है। उसके ऐशो-आराम के साधन तो देश ने ही जुटाए हैं। क्या मुल्क की इतनी भीख उनके लिए काफी नहीं है? दरअसल, कमीशनखोरी एक ऐसी लत है, जो ड्रग्स के समान एक बार लगी तो छूटती नहीं है। दिक्कत सिर्फ यही है कि जबरन कमीशन सिर्फ  सत्ता के सहारे ही मिलता है। कइयों की सत्ता की साध का प्रेरणा-स्रोत यही है। उन्हें शौक है कि वह प्रजातंत्र के रक्षक कहलाए, भले ही भक्षक हों, उनके खंड-खंड पाखंड से पूरा देश परिचित है।

भीख मुल्क के विभिन्न वर्गों की समान प्रवृत्ति है। कोई इस पर आरक्षण से अधिकार जमाता है, कोई सब्सिडी से। किसी का अधिकार चंदे पर है तो किसी का दान पर। सब सम्मिलित स्वरों में कहने में समर्थ हैं कि “भीख हमारी, हम भिक्षा के।” शिक्षा के बारे में कोई भी ऐसा न कहता है, न सोचता है। भीख से पूरा देश अपंग बने तो बने। हमारा निश्चय और संकल्प है कि हम भीख को मुल्क की पहचान बनाकर रहेंगे। यों वर्तमान में एशिया, योरोप, अमेरिका और रूस भी इसी विश्वव्यापी मर्ज के मरीज ही नहीं, उससे आक्रांत भी हैं।

9/5, राणा प्रताप मार्ग

लखनऊ-226001

दूरभाष : 9415348438

— गोपाल चतुर्वेदी

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