हरिहर रूप का रहस्य

हरिहर रूप का रहस्य

र्मिंप्राण भारत के मंदिरों में स्थापित ‘हरिहर’ की कल्पना को सामान्यतः मध्यकाल में तीव्र हो चले शैव और वैष्णव संप्रदाय के विवादों से जोड़ा जाता रहा है। यह माना गया कि इन विवादों को शांत करने की दृष्टि से ही ‘हरिहर’ (विष्णु और शिव) की कल्पना करके ऐसे विग्रहों को मंदिरों में प्रतिष्ठापित किया गया था। सामान्य दृष्टि से यह धारणा प्रासंगिक और उचित ही प्रतीत होती है। मध्यकाल में शिव और विष्णु के उपासकों में अपने-अपने देवों को श्रेष्ठतम सिद्ध करने की होड़ कटुता और शत्रुता की सीमा तक जा पहुँची थी। शैव तो शिव के अतिरिक्त अन्य किसी देव की सत्ता ही नहीं स्वीकारते थे। वे शिव को ही सृष्टि का बीज-मूल तत्त्व मानकर विष्णु और ब्रह्मा की उपेक्षा करते थे। इसके विपरीत विष्णु उपासक दबे स्वर में शिव की महत्ता तो स्वीकार करते, मांगलिक कार्यों ये लेकर मरण-मुक्ति तक उनका वर्चस्व स्वीकार कर उपासना करते। लेकिन विष्णु को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिए शिव को ‘लिंग’ मानकर उस पर चढ़ा प्रसाद तक ग्रहण नहीं करते थे। उन्हें अमंगलवेषी, श्मशानवासी मानकर थोड़ी दूरी बनाए रखना विष्णु उपासकों की प्रकृति में शामिल हो गया था।

शैव और वैष्णव संप्रदायों में उठनेवाले विवाद तेज होते गए। उपासकों के बाद राजा लोग भी इसी रूप में देखे जाने लगे। राजा भी अपने आराध्य देव को प्रतिष्ठित करने के लिए राज्य साधनों का उपयोग करने लगे। वैष्णव राजा के शासन में शिव और शैव मतानुयायी नरेश के राज्य में विष्णु को उचित प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती थी। ऐसे समय हरिहर की कल्पना को इन विवादों की समाप्ति के साथ जोड़ा जाना सहज प्रतीत होता है।

लेकिन ऐसा नहीं था। हरिहर विग्रह का आधार पुराण होने के कारण इसका संबंध सहज ही पौराणिक काल से भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त शैव और वैष्णव संप्रदायों के प्रादुर्भाव से पूर्व का मिली हरिहर प्रतिमाएँ भी इसे आपसी विवाद का प्रतिफल अस्वीकार करती हैं। प्रतिहार काल में दोनों पंथों की विरोधी भावना मिटाने के लिए ‘हरिहर’ विग्रहों की प्रतिष्ठा पर अधिक बल अवश्य दिया गया था। वरना तो हरिहर पुराणों में वर्णित ‘एकेश्वरवाद’ में निहित एक ही शक्ति और त्रिगुण (सृजन, पालन, संहार) का प्रतिनिधित्व करते हैं। शैव-वैष्णव परंपरा तो बहुत बाद की है। बंगाल, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि के संतों ने भी दोनों को मिलाने के प्रयास ही किए थे। कदाचित् राजस्थान में भी प्रतिहार काल में दोनों पंथों की विरोधी भावना मिटाने के लिए इस पर ज्यादा जोर दिया गया हो। लेकिन मूल रूप में इसकी सृष्टि सृजन के मूल स्रोत को प्रदर्शित करने के प्रतीक रूप में ही प्रयोग किया गया था।

शिव और विष्णु पुराण इस एकेश्वरवाद की कल्पना को समझाने में सहायक हुए हैं। पुराणों में अनेक कथाओं के द्वारा दोनों देवों को सृष्टि का मूल आधार और एक-दूसरे का पूरक बताया गया है। विष्णु और ब्रह्मा के विवाद में शिव लिंग रूप में प्रकट होकर उन्हें इसका आदि-अंत ढूँढ़ने की चुनौती देकर दोनों के अहं का शमन करते हैं। स्वयं को सृष्टि का निर्माता मानकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में जुटे विष्णु और ब्रह्मा को लिंगरूपी शिव का आदि-अंत न पाकर अपनी लघुता का आभास हो जाता है।

इसी तरह विष्णु के ‘मोहिनी’ रूप को देखने की इच्छा करने पर एक दिन शिव को अत्यंत रूपवती स्त्री के एकांत दर्शन होते हैं। कामजयी शिव कामोन्मत्त हो उसे पकड़ने के लिए भागते हैं। विष्णु रूपी स्त्री के बचने के प्रयासों को विफल करते हुए ऊर्ध्वलिंगी शिव अंततः उसे पकड़कर आलिंगनबद्ध कर लेते हैं। किंतु मैथुन के लिए उद्यत शिव का वीर्य स्खलन हो जाता है। फलस्वरूप शिव और विष्णु के मानसिक संयोग से भगवान् अयप्पन उत्पन्न हुए। केरल में इन्हें हरिहर का पुत्र मानकर पूजा जाता है।

‘हरिहर’ कल्पना की प्रथम मूर्ति विदिशा में मिली थी। प्रथम शती में निर्मित यह मूर्ति दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है। स्पष्ट है इस कल्पना की मूर्तियाँ कुषाण काल में बनने लगी थीं। ऐसी मूर्तियों के मस्तक तो मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदि में काफी मिले हैं। शैव-वैष्णव विवाद तो इसके सैकड़ों वर्षों के बाद प्रतिहार काल में आरंभ हुआ था।

भारतीय शिल्प कला में ‘अर्धनारीश्वर’ और ‘हरिहर’ की कल्पना साथ-साथ चलती है। अर्धनारीश्वर में शिव के वाम भाग में पार्वती और हरिहर में विष्णु होते हैं। दोनों का ही सृष्टि के सृजन, पालन और विलयन से संबंध है, जल इन दोनों स्वरूपों की दार्शनिक पृष्ठभूमि है।

शिवपुराण में शिव विष्णु से कहते हैं, ‘अहं बीजं, त्वं योनि’। शिव बीज है, विष्णु क्षेत्र है। शिव पुरुष है, विष्णु प्रकृति है। सृष्टि में सृजन और विनाश चक्र अबाध चलता रहता है। विष्णु तो स्त्री के समान जन्म देकर पालन करने का काम करते हैं। सृष्टि के निर्माण और विनाश से उनका कोई संबंध नहीं होता है।

इसके विपरीत शिव दोहरे दायित्वों का निर्वहन करते हैं। एक और वे ‘बीज’ द्वारा सृष्टि करते हैं, दूसरी ओर विनाश भी संपन्न करते हैं। विनाश के बिना सृजन और सृजन के अभाव में विनाश संभव नहीं है। इसी प्रकार एक ओर वे ‘शिव’ हैं, दूसरी ओर ‘महाकाल’ भी हैं। एक ओर मंगलमय और दूसरी ओर अमंगलवेषी हैं। एक ओर भिखमंगा, दूसरी ओर अन्नपूर्णा के पति हैं। एक ओर महाकाल, दूसरी ओर मृत्युंजय हैं।

डॉ. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी के अनुसार सृष्टि में सृजन का आधार ‘लिंग’ है। ‘लयनात लिंग’, जिसमें सब लय हो जाए, वह लिंग है। शिव ‘ऊर्ध्वलिंगी’ हैं। ब्रह्मा और विष्णु ऊर्ध्वलिंगी नहीं मिलेंगे। लिंग के ऊर्ध्व होने की सामर्थ्य के अभाव में ‘पुरुष’ नहीं हो सकता। पंचमुखी शिव के पाँच नामों में एक ‘तत्पुरुष’ उनके ऊर्ध्वलिंगी होने के कारण ही दिया गया है। वह पुरुष जो ‘ऊर्ध्वरत’ है, अर्थात् वीर्यवान है। वीर्य के बिना लिंग ऊर्ध्व नहीं हो सकता। वीर्य ही बीज है। रज क्षेत्र है। वीर्य-रज संयोग जो बिना गर्भधारण नहीं हो सकता; इनके संयोग से ही सृष्टि होती है। इसलिए शिव का एक नाम ‘बीजी’ भी है। वे कहते हैं, ‘अहं बीजी’। वीर्य और रज का दर्शन नहीं होता। दर्शन तो पुरुष और प्रकृति का ही होता है। वीर्य और रज तो अंदर के न दिखाई देनेवाले तत्त्व हैं।

सृष्टि के मूल त्रिदेवों की कल्पना लिंग में साकार होती है। शिवपुराण के अनुसार लिंग के तीन भाग हैं। नीचे ब्रह्म भाग चौकोर, बीच का विष्णु भाग अठपहलू और ऊपर का शिव भाग गोल होता है। ब्रह्म भाग जमीन में लुप्त रहता है। विष्णु और शिव भाग ही जमीन से ऊपर दिखाई देते हैं। सबसे नीचे ‘ऊर्घा’ (योनि) में लिंग प्रतिष्ठित होता है। वह क्षेत्र का प्राकल्य और शिव का स्थिर होना है।

प्रतिहार काल में हरिहर मूर्तियों में कई परिवर्तन आए थे। सृष्टि सृजन की मूल कल्पना के विपरीत विष्णु को पुरुष रूप में प्रदर्शित करने के लिए उनके आयुध चक्र और गदा भी इसमें जोड़ दिए गए। इसी के साथ शिव के त्रिशूल और माला भी मूर्ति में उत्कीर्ण होने लगे।

खुदाई में मिली ग्वालियर के विख्यात ‘हरिहरेश्वर’ मंदिर की अद्भुत प्रतिमा किसी भी तरह चौदहवीं शती के बाद की नहीं है। इस विशाल मूर्ति का निर्माण आधे काले और आधे सफेद पत्थर से किया गया है। पत्थरों में ऐसे छोटे-छोटे टुकड़े तो आम तौर पर मिल जाते हैं। लेकिन इतना विशाल श्वेत-श्याम प्रस्तर खंड तो दुर्लभ की श्रेणी में आता है। इस शिलाखंड के काले भाग में विष्णु बनाए गए हैं, जिनके पास शंख और चक्र उत्कीर्ण हैं। सफेद भाग में बने शिव के हाथों में त्रिशूल और कमंडल हैं। इस मूर्ति में हरिहर कल्पना का विपरीत क्रम है। अर्थात् शिव बाईं ओर, विष्णु दाहिनी ओर हैं। विपरीत क्रम का भारत में अकेला उदाहरण है। भारत से बाहर जावा में प्राप्त हरिहर की एक प्रतिमा में भी यही क्रम देखने को मिलता है।

भारत में हरिहर की अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं। कोटा में प्राप्त हरिहर मूर्ति में शिव चरणों में नंदी और विष्णु चरणों में गरुड़ बने हैं।

उदयपुर के पास जगत की पहाड़ी पर गुप्तोत्तरकाल के हरिहर हैं। इसमें आयुध रूप में हल दिखाया गया है। भरतपुर संग्रहालय में सुरक्षित हरिहर मूर्ति (272/68) में ‘कक्षा पुरुष’ के रूप में हर की ओर त्रिशूल शक्तिधर स्कंद तथा विष्णु की ओर ‘चक्र पुरुष’ है। मूर्ति के पैरों के दोनों ओर बनी छोटी मूर्तियों को ‘कक्षा पुरुष’ और ‘कक्षा सखी’ कहते हैं। पौड़ी-गढ़वाल जिले में पैठानी के राहू मंदिर में भी आठवीं शती की प्रतिमा है। इसमें हरिहर और ‘बैकुंठ’ का सफल संयोजन किया है। इसके तीन हाथों में अक्षमाला, त्रिशूल और शंख तो स्पष्ट दिखाई देते हैं, किंतु चौथा स्पष्ट नहीं है। इसमें मध्य मुख हरिहर का है। जबकि दाहिनी ओर ‘अघोर मुख’ (शिव का विनाशक रूप) और बाएँ हरिहर की ओर वराहमुख उत्कीर्ण है। जोधपुर के पास ओसियाँ के हरिहर मंदिर में शिव के मुख में मत्स्यावतारी विष्णु को दिखाया गया है। इसे ‘भेरुंड’ कहते हैं।

जयपुर के जयगढ़ स्थित हरिहर मंदिर में तेरहवीं शती का विग्रह प्रतिष्ठित है। सन् 1225 में निर्मित इस प्रतिमा के दाहिनी ओर शिव तथा बाईं ओर विष्णु प्रतिष्ठित हैं। विष्णु के चक्र और शंख तथा शिव के त्रिशूल और माला के अतिरिक्त ‘कक्षा पुरुष’ के रूप में गरुड़ और नंदी भी उत्कीर्ण किए गए हैं। कक्षा सखी के रूप में दोनों ओर तीन-तीन अप्सराएँ हैं। इस मूर्ति में एक नया प्रयोग दिखाई देता है। मूर्ति के प्रभामंडल के दोनों ओर शिव और ब्रह्मा के दो छोटे विग्रह भी उत्कीर्ण किए गए हैं। इसमें दाहिनी ओर त्रिशूल के पास शिव तथा बाएँ चक्र के पास ब्रह्मा है। श्वेत संगमरमर की इस मूर्ति का शिल्प-सौंदर्य देखते ही बनता है। सात सौ तिरानबे वर्षों बाद भी इसकी चमक में कोई कमी नहीं आई है।

645, किशोर कुंज, किशनपोल बाजार

जयपुर-302001

दूरभाष : 09462312222

— आनंद शर्मा

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