जलियाँवाला कांड के सौ वर्ष, शहीदों को देश की श्रद्धांजलि

13 अप्रैल को अमृतसर के जलियाँवाला बाग हत्याकांड के सौ वर्ष पूरे हो गए। जलियाँवाला की चर्चा थोड़ी-बहुत भारत के इतिहास में होती रही है, यद्यपि अंग्रेजी शासन का इस पर परदा डालने का अथक प्रयास रहा। 6 से 13 अप्रैल, 1919 के बीच होनेवाली घटनाओं की समाप्ति 13 अप्रैल, 1919 को वैशाखी की शाम को हुई। वैशाखी को ही दशम गुरु गुरुगोविंद सिंहजी ने ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की थी। पंजाब में वैशाखी एक महत्त्वपूर्ण पर्व के रूप में मनाई जाती है और हजारों भक्त, सिक्ख, हिंदू और मुसलमान स्वर्ण मंदिर में माथा टेकने जाते हैं। रॉलेट ऐक्ट के विरोध में महात्मा गांधी ने आंदोलन की घोषणा की थी। आंदोलन शांतिपूर्ण ही था, किंतु ब्रिटिश शासन का मनोबल इतना गिर चुका था कि डिप्टी कमिश्नर (जिला मजिस्ट्रेट) इरविंग माइल्स ने महसूस किया कि वह जनविरोध को काबू में नहीं कर सकेगा। अमृतसर के दो प्रसिद्ध नेता डॉ. किचलू और डॉ. सत्यपाल को डिप्टी कमिश्नर के बँगले पर बुलाकर गिरफ्तार कर अमृतसर से बाहर भेज दिया गया। तब जनता और भड़क गई। जलियाँवाला बाग, जो हरमंदिर साहिब के पास ही है, में एक आम सभा का ऐलान हुआ, जहाँ ब्रिगेडियर डायर अपने फौजी दस्ते के साथ पहुँचा और निहत्थी भीड़ पर बिना चेतावनी दिए गोली चलाने का आदेश दे दिया, जिसमें सैकड़ों पुरुष, महिलाएँ और बच्चे गोलियों के शिकार हुए।

घायलों को अस्पताल ले जाने का कोई इंतजाम नहीं था तथा डर के मारे लोग मृतकों को नहीं ले जा सके। कर्फ्यू लगा दिया गया। एक महिला अपने मृत पति की लाश के साथ बैठी रोती रही। यहाँ हम इस करुण कहानी का जिक्र भर कर रहे हैं, सिलसिलेवार विस्तृत विवरण नहीं दे रहे हैं। अखबारों में खबर छापने पर कड़ी रोक लगा दी गई। अमृतसर में बाहर से आनेवाले लोगों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पर धीरे-धीरे इस हत्याकांड की खबरें बाहर आने ही लगीं। रवींद्रनाथ ठाकुर ने वाइसराय चेम्सफोर्ड को पत्र लिखकर ‘सर’ का खिताब वापस कर दिया। गांधीजी ने ‘कैसर-ए-हिंद’ का मेडल वापस कर दिया। यह पूरे प्रसंग की सिलसिलेवार चर्चा नहीं है। यहाँ हम केवल शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त कर रहे हैं। ध्यातव्य है कि 13 अप्रैल के इस हत्याकांड के बाद पंजाब के कुछ जिलों में मार्शल लॉ यानी फौजी कानून लगाया गया। पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओ’डायर एक निरंकुश शासक था। भारत के निवासियों को वह हिकारत की नजर से देखता था। ओ’डायर और डायर दोनों पंजाब में भय का वातावरण बनाना चाहते थे। उद्देश्य यही था कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ कोई मुँह न खोल सके तथा किसी प्रकार के विरोध की कोई हिम्मत न कर सके। 21 वर्षों के बाद सरदार ऊधम सिंह ने लेफ्टिनेंट गवर्नर ओ’डायर की हत्या बदले की भावना से खुली बैठक में उसी के देश में कर दी।

जलियाँवाला हत्याकांड के जब पचास वर्ष पूरे हुए तो इस कांड पर कई पुस्तकें आई थीं, और उसके बाद भी कुछ अच्छी पुस्तकें आईं। इस समय भी कई शोधपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। हम समझते हैं कि भविष्य में और भी पुस्तकें आएँगी। केवल एक पुस्तक की यहाँ चर्चा करेंगे, जो इस अवसर पर ‘ट्रिब्यून’ अखबार के संपादक राजेश रामचंद्रन ने संपादित की है और रूपा प्रकाशन, दिल्ली ने इसे प्रकाशित किया है। ‘ट्रिब्यून ट्रस्ट’ के अध्यक्ष और पूर्व गवर्नर एन.एन. बोहरा ने एक विस्तृत एवं विचारशील प्रस्तावना लिखी है। ‘ट्रिब्यून ट्रस्ट’ साधुवाद का पात्र है। ‘ट्रिब्यून’ को जलियाँवाला बाग की घटनाओं को उद्घाटित करने का श्रेय जाता है। यही नहीं, रॉलेट ऐक्ट के विरोध में भी संपादकीय प्रकाशित होते रहे थे। ‘ट्रिब्यून’ के तत्कालीन संपादक कालीनाथ रे को गिरफ्तार किया गया। वे काफी कष्ट में रहे। उनको देशद्रोह के आरोप में दो साल की सजा दी गई। मामला प्रिवी कौंसिल तक गया। ‘ट्रिब्यून’ के एक अन्य ट्रस्टी श्री मनोहरलाल भी गिरफ्तार हुए थे। वे बाद में पंजाब सरकार के वित्त सदस्य भी रहे। ‘ट्रिब्यून’ पर भी जुर्माना लगाया गया। ‘ट्रिब्यून प्रकाशन’ को कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ा। पुस्तक का नाम है—‘मारटर्डम टु फ्रीडम’ यानी ‘स्वतंत्रता के लिए बलिदान’। हम विश्वास करते हैं कि ‘ट्रिब्यून ट्रस्ट’ यह पुस्तक हिंदी, गुरुमुखी, उर्दू तथा अन्य भाषाओं में प्रकाशित करने की व्यवस्था कर सकेगा। पूरे प्रकरण को सर्वसाधारण को बतलाने के लिए यह पुस्तक पूरी तरह सक्षम है। इतना ही नहीं, शोध की दृष्टि से भी यह पुस्तक उपयोगी है। ऐसी पुस्तक को सभी सार्वजनिक पुस्तकालयों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पहुँचाया जाना चाहिए। यह राज्य और केंद्र सरकारों का दायित्व है।

पुस्तक के कलेवर को संपादक ने दो खंडों में विभक्त किया है। पहला खंड है—‘शहीदों की स्मृति में’। इसमें आठ आलेख संगृहीत हैं, जो विषय के विभिन्न पक्षों पर प्रचुर प्रकाश डालते हैं। इसमें बोहरा की प्रस्तावना को भी शामिल करना चाहिए। यह केवल एक औपचारिक प्रस्तावना नहीं है, बल्कि संपूर्ण आलेख है। ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ के संपादक बी.जी. हार्नीमन ने भी जलियाँवाला बाग के प्रकरण पर खूब लिखा है। वे भी सरकार के कोपभाजन बने और उन्हें बॉम्बे से इंग्लैंड निष्कासित कर दिया गया। दूसरा खंड है—‘इतिहास के पन्नों से’। इसमें पहले संपादक की टिप्पणी है, जो सामग्री ट्रिब्यून के आर्काइव्ज से ली गई है, उसके संबंध में है। बाकी तत्कालीन संपादक कालीनाथ रे के संपादकीय तथा ‘ट्रिब्यून’ में छपे समाचार एवं सामग्री जनहित में है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और साधारणतया उपलब्ध नहीं है। यह खंड ‘ट्रिब्यून’ की भूमिका को भली-भाँति रेखांकित करता है। अच्छा होता यदि संपादक महोदय अतिरिक्त जानकारी हेतु कुछ पुस्तकों और अन्य दस्तावेजों की एक छोटी सूची दे देते। किंतु यहाँ एक अन्य अभाव जो हमें अखरता है, यह है कि पुस्तक कालीनाथ रे की स्मृति को समर्पित है और उनकेविषय में संपादक महोदय का एक विशद आलेख है, पर उनका चित्र नहीं दिया गया है। ‘ट्रिब्यून’ ने जब अपना कॉलम ‘ट्रिब्यून कंमोमेरेट्स’ शुरू किया था, तो कालीनाथ रे का चित्र भी दिया था। काश, वह चित्र पुस्तक में पुनः दे दिया जाता! कालीनाथ रे के प्रपौत्र पुस्तक के लोकार्पण के समय उपस्थित थे। ‘ट्रिब्यून’ के प्रबंधकों की यह एक सराहनीय पहल है। ‘ट्रिब्यून ट्रस्ट’ के अध्यक्ष और न्यासी, ‘ट्रिब्यून’ के संपादक तथा प्रकाशक को हमारी बहुत-बहुत बधाई।

हिंदी में एक और शोधपरक पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली द्वारा जो आई है, वह मेजर जनरल सूरज प्रकाश भाटिया द्वारा लिखित है, वह हमें देखने को मिली। सर्वसाधारण के साथ-साथ स्कूल-कॉलेजों के लिए भी यह उपयोगी है। हिंदी प्रदेशों में उसके वितरण की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि यह पूरी खूनी कहानी सबको मालूम हो सके। जलियाँवाला बाग के हत्याकांड के उपरांत देश की जनता ही नहीं वरन् ब्रिटिश सरकार को भी आभास हो गया था कि ब्रिटिश हुकूमत अब कुछ ही दिन की मेहमान है।

केंद्र सरकार की ओर से पूरे देश के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए भारत के माननीय उपराष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू, पंजाब के राज्यपाल तथा अन्य गण्यमान्य व्यक्ति जलियाँवाला बाग में उपस्थित हुए। माननीय उपराष्ट्रपति ने इस अवसर पर एक डाक टिकट और सौ रुपए का सिक्का भी जारी किया। अच्छा होता कि यह कार्यक्रम प्रोटोकाल की दृष्टि से अवसर की राजनीति से अलग होता, और पंजाब के मुख्यमंत्री एवं अन्य अधिकारी भी इसमें सम्मिलित होते। कांग्रेस अध्यक्ष अलग से भी उस बात को उठा सकते थे। दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने भी एक आयोजन शहीदों की याद में किया, जो मात्र एक समुदाय का होकर रह गया। अच्छा होता कि दिल्ली सरकार की ओर से एक भव्य आयोजन का प्रबंध होता; हालाँकि मंत्री आदि चुनाव के कारण शायद भाग न ले पाते, परंतु वह दिल्ली की जनता की ओर से जलियाँवाला बाग के शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि तो होती।

पुलवामा और बालाकोट के बाद

14 फरवरी को पुलवामा के घृणित और अति निंदनीय आतंकी हमले के बाद, जिसमें भारत के चालीस जवान शहीद हुए, देश में न केवल गहन आक्रोश था, वरन् यह बात भी गहराती जा रही थी कि पाकिस्तान को जल्द ही सबक सिखाया जाना चाहिए। पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने की इच्छा केवल इकतरफा नहीं हो सकती और पड़ोसी देशों को समझना चाहिए कि भारत की सहन करने की भी एक सीमा है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि ने जनता को आश्वस्त किया कि शहीदों के खून का बदला लिया जाएगा और जितने अपराधी हैं, गुनहगार हैं, उनसे चुन-चुनकर बदला लिया जाएगा। पाकिस्तान ने वही पुराना आलाप शुरू कर दिया कि भारत विश्वसनीय सबूत दे तो वह अवश्य काररवाई करेगा। मसूद अजहर ने स्वयं कहा कि जैश-ए-मोहम्मद द्वारा पुलवामा कांड को अंजाम दिया गया। मसूद अजहर श्रेय लेता रहा, फिर भी पाकिस्तान को और सबूत चाहिए। समुद्री रास्ते से मुंबई में जो आक्रमण पाकिस्तान के आतंकियों द्वारा किया गया था, उसके सबूत के दस्तावेज बार-बार पाकिस्तान सरकार को दिए गए, किंतु वे पाकिस्तान ने ‘अपर्याप्त या भरोसेमंद नहीं हैं’ कहकर नकार दिए। सब जानते हैं कि जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तानी फौज की छत्रच्छाया में पल रहा है और उसे अभी भी संरक्षण प्राप्त है।

वैश्विक शक्ति का जब कुछ दबाव पड़ा तो नाटक किया गया कि मसूद अजहर को हिरासत में लिया गया है, उसके संगठन पर प्रतिबंध लगाए गए हैं; पर तथ्य बिल्कुल इसके विपरीत पाए गए। मसूद अजहर खुलकर जगह-जगह भारत विरोधी भड़काऊ भाषण दे रहा था, पैसे इकट्ठे कर रहा था कि उससे परोपकारी कार्य किए जाएँगे, वंचितों और गरीबों की मदद होगी। वह जिहादियों को तैयार करने में, सैनिक प्रशिक्षण देने में और जम्मू-कश्मीर में लोगों को बरगलाने में सरकारी और गैर-सरकारी धन का इस्तेमाल कर रहा था। अपने प्रशिक्षित जिहादियों की भारत में घुसपैठ करा रहा था और प्रचार कर रहा था कि जम्मू-कश्मीर में सब भारत विरोधी गतिविधियाँ स्थानीय स्वतंत्रता सेनानी कर रहे हैं। पुलवामा कांड ने उसकी कलई खोल दी। दूसरे देशों को एहसास हुआ कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं की जिम्मेदारी पाकिस्तान की है। पाकिस्तान की जमीन से कठमुल्ले आतंकवादियों के गुटों द्वारा भारत में आतंकवादी घटनाएँ कराई जा रही हैं; हालाँकि पाकिस्तान अपने बचाव में कहता रहता है कि वह भी आतंकवाद का शिकार हो रहा है। आखिर जो आततायी आग लगाता रहता है, कभी-कभी उसके हाथ भी उस आग की चपेट में आ ही जाते हैं।

पुलवामा में आतंकवादी घटना के कारण 50 से अधिक देशों ने आतंकवाद से निपटने में भारत के साथ सहयोग करने की बात कही। अंतरराष्ट्रीय जगत् में पाकिस्तान को अलग-थलग पड़ने का आभास होने लगा। इस समय पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बहुत ही खस्ता है, कमजोर है। उसे विदेशी मुद्रा की सहायता अपेक्षित है—यूरोपीय यूनियन, अमेरिका तथा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों से। वहाँ भी दिक्कतें आने लगीं। पाकिस्तान ने वही नाटक दोहराया कि मोहम्मद अजहर हिरासत में है, उसकी गतिविधियों पर रोक लगा दी गई है। यह सब वह बड़े जोर-शोर से प्रचारित करने लगा, परंतु जमीनी हकीकत कुछ और ही है। पाकिस्तान का पूरा शासनतंत्र फौज के कब्जे में है। फौज जानती है कि उसका महत्त्व इस पर निर्भर करता है कि ‘भारत पाकिस्तान को खा जाएगा’, इस भ्रम और भय में जनता को रखा जाए।

सही बात तो यह है कि पाकिस्तान का वजूद, अस्तित्व भारत विरोध पर ही टिका है। भारत तो उसका स्थायित्व चाहता है। उसका विकास दोनों देशों के विकास में है। बहुत सुविचारित और सुयोजित ढंग से मोदी सरकार ने इस परिस्थिति का सामना करने की एक नीति बनाई। स्पष्ट किया कि भारतीय रक्षाबलों को देश की सुरक्षा के विषय में निर्णय लेने की पूरी छूट है। कुछ छोटी-मोटी सुविधाएँ, जो पाकिस्तान को भारत ने दी थीं, वे हटा ली गईं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान तथा उनके सहयोगी बार-बार याद दिलाने की कोशिश करने लगे कि दोनों देशों के पास एटम बम हैं। भारत ने इस धमकी की इस बार पूरी तरह अनदेखी ही की। आखिर एटम बम के इस्तेमाल के कुप्रभाव से पाकिस्तान भी तो नहीं बचेगा। पाकिस्तान के मुकाबले हिंदुस्तान कहीं बड़ा देश है। अपनी गीदड़ भभकी में पाकिस्तान यह भूल ही जाता है।

राजनैतिक स्तर पर मंजूरी के बाद अपनी योजनानुसार भारतीय वायुसेना ने 26 फरवरी को पाकिस्तान के अंदर बालाकोट पर, जो जैश-ए-मोहम्मद का एक बड़ा सैन्य प्रशिक्षण केंद्र है, आक्रमण कर उसे तहस-नहस कर दिया। इस जगह की अहमियत को देखते हुए भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने पूरी जानकारी एकत्र कर ली थी और वायुसेना को उपलब्ध करा दी। बालाकोट का चुनाव इस कारण किया गया कि वह पाकिस्तान की धुर अपनी जमीन पर (जम्मू-कश्मीर द्वारा हथियाए क्षेत्र में नहीं) स्थित है और वहाँ पर पाकिस्तानी नागरिकों और फौजी सैनिकों के चपेट में आने की संभावना भी बहुत कम थी। पाकिस्तान के उड़ी आक्रमण के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने पाकिस्तानी क्षेत्र में सितंबर 2016 को सर्जिकल (लक्षित) स्ट्राइक द्वारा चेतावनी दे दी थी कि भारत जवाबी काररवाई से हिचकेगा नहीं। बालाकोट में भारतीय वायुसेना की आक्रामक काररवाई से पाकिस्तान स्तब्ध रह गया। प्रधानमंत्री ने एटम बम के हौव्वे को खत्म कर दिया। हालाँकि यह एक खतरे से भरा फैसला था, किंतु प्रधानमंत्री मोदी ने साहसिक कदम उठा लिया। डॉ. मनमोहन सिंह मुंबई आक्रमण के बाद ऐसा नहीं कर सके थे। उन्होंने तो पहले कमांडो को आदेश दे दिया था, बताते हैं कि उनके रवाना होने में जब दस-पंद्रह मिनट बाकी थे, तो फिर पहला आदेश निरस्त कर दिया गया।

भारत ने जहाँ आक्रमण किया, पहले पाकिस्तान ने कहा कि वहाँ मदरसा था, आतंकवादियों का सैन्य प्रशिक्षण केंद्र नहीं था और पत्रकारों को वहाँ ले जाने का वादा भी किया। बाद में उस पूरे क्षेत्र की घेराबंदी कर दी गई। यह इस बात का सबूत था कि वहाँ आतंकियों को आक्रमण करने की सैन्य शिक्षा दी जा रही थी। पाकिस्तानी वायुसेना ने दूसरे दिन जवाबी हमला किया, जिसमें एक भारतीय मिग-21 वायुयान ग्रसित हुआ और उसका चालक विंग कमांडर अभिनंदन पाकिस्तान क्षेत्र में उतरा तथा पकड़ लिया गया। उसने पूछताछ में बहुत बहादुरी दिखाई। भारत ने पाकिस्तान को सावधान किया कि उसके साथ बदसलूकी नहीं होनी चाहिए। इसके साथ जेनेवा कन्वेंशन के अनुसार व्यवहार होना चाहिए। प्रधानमंत्री इमरान ने उसके छोड़ने की घोषणा की, फिर घिघियाते हुए दोनों देशों के रिश्तों की गरमी को कम करने की बात कही। स्वदेश वापसी पर विंग कमांडर अभिनंदन का देश में भारी उत्साह के साथ सम्मान हुआ।

दुर्भाग्य से जैसा सर्जिकल स्ट्राइक के बाद हुआ, उसी प्रकार बालाकोट के बाद भी विरोधी दलों ने सबूत देने की बात कही। इस पूरे प्रकरण पर शक-सुबह पैदा करने की कोशिश की गई, लेकिन ‘इंडिया टुडे’ टी.वी. ने एक शानदार स्टिंग ऑपरेशन द्वारा सही तथ्यों का पता लगा लिया। पाकिस्तान में करीब 200 नागरिकों और अधिकारियों को फोन करके कि वे पाकिस्तानी सेना के हेडक्वार्टर्स से बोल रहे हैं, स्थानीय मौलवी से भी बात की। उसने पुष्टि की कि आक्रमण में आतंकवादियों के अलावा करीब चार फौजी मारे गए। मिक्मर के स्टेशन हाउस ऑफिसर को हिदायत दी गई, यह भी पता चला कि किसी को भी पाकिस्तानी एफ-16 हवाई जहाज के गिरने के स्थान पर न जाने दिया जाए। भारतीय सुरक्षा मंत्री ने इस बात का बाद में खुलासा भी किया कि भारत को उस पाकिस्तानी वायुयान चालक के बारे में पूरी जानकारी है। अमेरिका ने ये लड़ाकू विमान पाकिस्तान को इस शर्त पर दिए थे कि उनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं होगा। इधर यह विवाद प्रारंभ हुआ कि बताएँ इसमें कितने लोग मरे? बीजेपी अध्यक्ष ने कहीं 250 कह दिया, शायद इस जानकारी के आधार पर कि करीब 300 आतंकवादी प्रशिक्षण हेतु वहाँ आए हुए बताए जाते थे।

सवाल तो यह है कि अपने लक्ष्य पर हमारा आक्रमण सफल हुआ या नहीं। विदेश सचिव गोखले ने कोई संख्या नहीं बताई थी, उन्होंने कहा कि काफी लोग मारे गए हैं। वैसे एयर चीफ मार्शल बी.एस. धनौवा ने ठीक ही कहा कि उनके अभियान ने अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक पूरा किया, कितने हताहत हुए, वायुसेना उनकी गिनती नहीं करती है। एयर चीफ मार्शल धनौवा ने फिर से कहा कि हमारे जो सामरिक उद्देश्य थे, वे हमने पूरे कर लिये। पुलवामा और बालाकोट के विषय में खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि राहुल गांधी और विरोधी दलों के कुछ नेताओं ने हलकी-फुलकी टिप्पणियाँ कीं। इसका हमारे सैन्यबल के मनोबल पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। हम इन टिप्पणियों के विवेचन और आलोचना में नहीं जाना चाहते हैं। इस समय तो महाभारत में कुंती ने जो पांडवों से कहा, उसे याद रखना चाहिए। कुंती ने अपने पुत्रों को आदेश दिया कि आपस में तुम्हारे कौरवों से भले ही मतभेद हैं, वह अलग बात है। जब बाहरी दुश्मन का प्रश्न हो तो तुम 105 हो, इस भावना से अपना कर्तव्य पूरा करो।

संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के लिए अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के प्रस्ताव को चौथी बार यूएनए की सुरक्षा परिषद् में वीटो कर दिया और प्रस्ताव गिर गया। चीन की इस दुहरी चाल से भारत अपरिचित नहीं था। भारत ने समर्थन करने वाले देशों को धन्यवाद दिया और कहा कि हम अन्य विकल्पों के अनुसार कार्य करते रहेंगे, ताकि भारतीय नागरिकों पर हमला करने वाले आतंकवादियों को न्याय के कठघरे में खड़ा किया जा सके। विचित्र बात है कि इतने समय से सब जानकारी होने पर भी इस मामले को समझने के लिए चीन को और समय चाहिए। चीन के रवैये के प्रति अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन, जो सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हैं, ने अत्यंत अप्रसन्नता प्रकट की, लेकिन उन्होंने पुनः इस विषय पर चीन से बातचीत शुरू की है, ताकि गतिरोध दूर हो सके। उनकी सोच है कि यदि चीन अपना अड़ियल रुख बनाए रखता है तो अन्य विकल्पों पर विचार करना पड़ेगा। एक विकल्प है—मामले पर जनरल एसेंबली में खुली बहस हो और अंत में मतदान। मसूद अजहर का मामला गंभीर होता जा रहा है। पुलवामा और बालाकोट का प्रकरण समाप्त नहीं हुआ है। भारतीय थलसेना प्रमुख ने पुनः पाकिस्तान को चेताया है कि यदि वह फिर माहौल बिगाड़ता है तो उसकी उसे कीमत चुकानी पड़ेगी। भारत में चीन के राजदूत ने आशा व्यक्त की है कि मसूद अजहर के विवाद का शीघ्र ही हल निकलेगा।

अजमेर, ब्यावर और श्रीअरविंद

कुछ समय पहले एक मित्र श्री ओमप्रकाश दानी, जो भारतीय कंपनी सचिव संस्थान के पूर्व अध्यक्ष हैं, ने एक छोटी सी पुस्तक ‘इतिहास एक दृष्टि में : ब्यावर नगर’ देखने को दी। ब्यावर अजमेर जिले का आज एक महत्त्वपूर्ण नगर है। पहाड़ी क्षेत्र और करियों का होने के कारण यहाँ एक ‘मेर रावत’ जाति का बड़ा दबदबा था। स्वभाव से लड़ाकू पड़ोस के जोधपुर और उदयपुर के शासक बहुत कोशिशों के बाद भी इसे अपने कब्जे में नहीं कर सके। अजमेर के रास्ते मेवाड़ तथा गुजरात जानेवाले, चाहे मुसलिम सेना हो अथवा व्यापारी, किसी को ये बख्शते नहीं थे। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक दिनों में यह क्षेत्र अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। प्रशासनिक इकाई के रूप में इसे अजमेर-मेरवाड़ा का नाम दिया गया था। अंग्रेजी शासन को भी इस ‘मेर-रावत’ समस्या का सामना करना पड़ा। अतएव उन्होंने पुराने ब्यावर गाँव के पास एक छावनी स्थापित की और तरह-तरह की सुविधाएँ देकर सिपाहियों की भरती शुरू हुई। वर्ष 1835 में मेरवाड़े का शासन कर्नल डिक्सन के हाथ आया। संभवतः इस ‘मेर-रावत’ समस्या से निबटने के लिए उसने एक अच्छे सभ्य नगर के निर्माण की योजना बनाई।

10 जुलाई, 1835 को प्रातः कर्नल डिक्सन द्वारा इस नगर की नींव रखी गई। यद्यपि डिक्सन पूरे मेरवाड़े का अधिकारी था, परंतु उसको यह स्थान बहुत पसंद आया। वह अधिकतर यहीं रहता था और उसने अपने व्यवहार से अत्यंत लोकप्रियता अर्जित कर ली। इस नगर का नाम ‘नया नगर’ पड़ गया। 1886 में नगर के मध्य ब्यावर निवास में उसकी स्मृति में ‘डिक्सन छतरी’ का निर्माण करवाया। दानीजी की वह जन्मस्थली है, अब वे नोएडा के निवासी हैं। यह पुस्तिका सूक्ष्म रूप में भाँति-भाँति की सूचना देनेवाली डायरेक्टरी के तौर पर तैयार की गई है। पुस्तिका करीब 50 वर्ष पुरानी है। पुस्तिका में नगर एवं वहाँ के खास नागरिकों के कुछ अच्छे चित्र हैं। एक दुर्लभ फोटो श्री मोहनलाल सुखाड़िया की शादी का है, जो ब्यावर में संपन्न हुई थी। पुस्तिका का टाइटल पेज नहीं है। जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। अजमेर जिला परिषद् या ब्यावर नगरपालिका को इस पुस्तिका की अन्य प्रतियों की खोज करनी चाहिए। इतना ही नहीं, प्रयास होना चाहिए कि ब्यावर के ऊपर एक शोधग्रंथ आए।

वैसे अजमेर अपने में एक प्राचीन नगर है। मध्यकाल में सल्तनत और मुगलों की सत्ता का केंद्र रहा। अंग्रेजों ने भी इसकी भौगोलिक महत्ता को देखते हुए राजपूताना, तत्कालीन मध्यभारत तथा गुजरात के रजवाड़ों पर नजर रखने के लिए अजमेर को ही अपनी सत्ता का केंद्र बनाया। अजमेर वास्तव में विकसित होते-होते एक बौद्धिक नगर बन गया। यहाँ भारत के हर प्रदेश के लोग किसी-न-किसी कारण बस गए। इसे ‘कॉस्मोपोलिटन’ क्षेत्र की संज्ञा दी जा सकती है। देश-विभाजन के बाद सिंधी पुरुषार्थियों ने भी अजमेर में अपना बसेरा बनाया। अजमेर के विकास में उनका काफी अवदान है। यहाँ पर हिंदू, जैनियों, बौद्धों और मुसलमानों के श्रद्धास्थल हैं। ईसाई मिशनरियों ने भी यहाँ अपना सघन कार्यक्षेत्र चुना। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंदजी की यह निर्वाण-स्थली है। अजमेर में उनके अनेक अनुयायी थे। ‘परोपकारिणी सभा’ उन्होंने अजमेर में स्थापित की।

दानीजी की पुस्तिका के पन्ने पलटते हुए हमारे मस्तिष्क में बहुत सी स्मृतियाँ उभरने लगीं। चीफ कमिशनर’स प्रदेश के बाद पार्ट सी राज्य का दर्जा संविधानानुसार पाने के बाद राज्यों के पुनर्गठन आयोग की सिफारिश के अनुसार इसका विलय राजस्थान में हो गया। जुलाई 1960 के करीब दो-ढाई साल मैं वहाँ का जिलाधीश एवं कलेक्टर नियुक्त हुआ। अपने कार्यकाल में बहुत अच्छे अनुभव रहे। एक छोटी सी रियासत किशनगढ़, जो अपनी चित्रकला शैली के लिए मशहूर है, वह भी एक सबडिवीजन के रूप में रहे अजमेर जिले में शामिल हो गई।

अजमेर में ब्यावर एक मुख्य नगर है। ब्यावर में टाडगद है, जहाँ कर्नल टॉड ने ‘अपने राजस्थान’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। स्थापना के बाद ब्यावर शीघ्र ही एक व्यावसायिक और औद्योगिक केंद्र भी बन गया। अजमेर और ब्यावर के लोग जन-जागरण की दृष्टि से बहुत आगे रहे। ‘शारदा ऐक्ट’ का श्रेय हरविलास शारदा को है, ताकि बाल-विवाह पर रोक लग सके। उन्होंने स्वामी दयानंद का बृहत् जीवन-चरित्र लिखा। अजमेर का इतिहास एवं राजस्थान के कई यशस्वी सपूतों—राणा सांगा आदि की जीवनियों की रचना की। उनकी पुस्तक ‘हिंदू सुपरियटिटी’ एक अद्भुत ग्रंथ है। अजमेर अपने समय में शिक्षा के एक प्रसिद्ध केंद्र के रूप में जाना जाता था। अजमेर और ब्यावर की ख्याति क्रांतिकारियों के शरणस्थल के रूप में भी रही है, पर उसकी जानकारी कम है। रजवाड़ों में अत्याचार का विरोध करनेवाले अजमेर में आकर स्वयं को सुरक्षित पाते थे। अन्य प्रदेशों के क्रांतिकारी भी आवश्यकता पड़ने पर रजवाड़ों में आते, पर उनको अजमेर के वातावरण में ही संतोष होता था। श्री जयनारायण व्यास की वह शरणस्थली रहा है। अजमेर के बौद्धिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक माहौल से ब्यावर अछूता नहीं रहा।

प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा उदयपुर में दीवान रहे। अजमेर और ब्यावर से उनका गहरा संबंध रहा। वे संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे। वे स्वामी दयानंद के अनुयायी थे। उनके बहुआयामी अवदान की जानकारी आज की पीढ़ी को बहुत कम है। उन्होंने लंदन में ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना की, जहाँ से वीर सावरकर ने अपने सहयोगियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत की। लोकमान्य तिलक की संस्तुति के आधार पर सावरकर को बैरिस्टरी की डिग्री लेने के लिए श्यामजी कृष्ण वर्मा ने एक छात्रवृत्ति प्रदान की थी। श्यामजी के विषय में अलग से लिखना ही उचित होगा। उन्हें ‘क्रांतिकारी आंदोलन का भीष्म पितामह’ कहा जा सकता है। मदनलाल धींगरा, जो सावरकर के अनुयायी थे, उन्होंने कर्जन वाइली को गोली मारी थी। कर्जन वाइली अजमेर में उच्चाधिकारी रहा था। रेलवे स्टेशन के सामने उसका मेमोरियल बना था, जिसको 1960 के दशक में नाम परिवर्तन केबाद अब वह ‘तिलक मेमोरियल’ के नाम से जाना जाता है।

श्यामजी कृष्ण वर्मा मिल्स के मैनेजर रहे। 1892 में औद्योगिक संघ तथा ‘राजपूताना कारन प्रेस’ की स्थापना की थी। पुस्तिका के अनुसार, “इस नगर (ब्यावर) के नौजवानों में देशभक्ति का शंख फूँकना, प्रचार करना, स्वाधीनता संग्राम के लिए नवयुवकों को तैयार करना, क्रांतिकारी प्रवृत्तियों का संचालन करने का सर्वप्रथम श्रेय तब के कृष्णा मिल्स के मैनेजर तथा राजपूताना प्रेस के संस्थापक श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा को प्राप्त हुआ। जिससे सर्वप्रथम प्रभावित हुए सेठ दामोदर दास राठी। क्रांतिकारियों में राव गोपाल सिंह खटवा (1872-1936), विजयसिंह पथिक, अर्जुनलाल सेठी, दामोदरदास राठी के नाम विशेषतया उल्लेखनीय हैं। अलग-अलग प्रदेशों के विषय में जब चर्चा होती है, तो उनके विषय में कुछ जिक्र हो जाता है। इसके अतिरिक्त भी कुछ अन्य विभूतियाँ हैं। हम चाहते हैं कि उनके विषय में राजस्थान के विद्वान् लेखकों के आलेख प्राप्त हों, ताकि उन्हें ‘साहित्य अमृत’ में प्रकाशित कर सकें। हम तो प्रयास करेंगे ही कि जो जानकारी हमें है अथवा जो सामग्री हमारे पास है, उसके आधार पर उनके कार्यों और त्यागमयी जीवन पर प्रकाश डाला जाए, जिससे राजस्थान की लंबी शौर्य परंपरा के बारे में देश के अन्य प्रदेशों के लोग जान सकें। सुधी पाठकों ने देखा होगा कि हमारा प्रयास निरंतर रहता है कि भूली-बिसरी विभूतियों को प्रकाश में लाया जाए।

केसरी सिंह बारहठ, क्रांतिकारी शहीद प्रताप बारहठ के नाम भी जोड़ना चाहूँगा। इनके संपर्क बंगाल के क्रांतिकारियों से थे। प्रताप बारहठ के विषय में कहा जाता है कि मास्टर अमीचंद ने रास बिहारी बोस से परिचय करवाया था। शचींद्र सान्याल ने अपने ‘बंदी जीवन’ (संस्मरण) में प्रताप सिंह बारहठ के विषय में मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा है। 1918 में बरेली जेल में भीषण यातनाओं के उपरांत उनका निधन हो गया। ब्रिटिश सरकार ने उनकी लाश को देने से इनकार कर दिया था। दामोदर दास राठी (1884-1918) क्रांतिकारी गतिविधियों को आर्थिक सहायता देने के लिए विख्यात थे। इसीलिए नगर में वे ‘भामाशाह’ कहलाते थे। श्रीअरविंद को उन्होंने कलकत्ता में एक बड़ी रकम भेजी, इसकी चर्चा तो पाई जाती है। लेकिन इस पुस्तिका में स्वामी कुमारानंद के बारे में लिखते हुए लेखक ने लिखा है—“शुरू में द्विजेंद्र कुमार नाग का महर्षि अरविंद के साथ 1909 में ब्यावर में प्रथम आगमन हुआ। दुबारा स्वामी वेश में 1921 में आए और इस नगर के मजदूरों के बीच अपना कार्यक्षेत्र बनाया। 1947 में ‘राजपूताना, मध्य भारत ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ के प्रधान रहे। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में जिला मंत्री रहे। 1962 में राजस्थान विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए।”

इससे कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं। क्या कभी महर्षि अरविंद अजमेर और ब्यावर आए थे। इसका और कोई साक्ष्य नहीं मिलता है, न उनके अपने लेखन में और न उनकी जीवनियों में। इसकी खोज और स्पष्टीकरण होना चाहिए। अजमेर में कलेक्टर के पद पर कार्य करने के समय स्वामी कुमारानंद अकसर मिलने आते रहते थे। जिले की समस्याओं के अतिरिक्त कभी-कभी सामयिक राजनीति की भी चर्चा हो जाती थी। यह तो हमें ज्ञात था कि हजरत मोहानी के साथ स्वामी कुमारानंद ने अहमदाबाद कांग्रेस में पूर्ण स्वराज की माँग का प्रस्ताव रखा था। गांधीजी अध्यक्ष थे और प्रस्ताव बहुमत से गिर गया। स्वामी या संन्यासी होने के कारण हमने उनके पूर्व जन्म के बारे में कभी पूछताछ नहीं की। अब यह जानना जरूरी है कि क्या द्विजेंद्र कुमार नाग और स्वामी कुमारानंद एक ही व्यक्ति हैं, जो पहले महर्षि अरविंद के साथ 1909 में ब्यावर आए थे और बाद में संन्यास ग्रहण कर स्वामी कुमारानंद के रूप में आए तथा ब्यावर उनकी कर्मभूमि बन गई। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि श्रीअरविंद के 1910 में पांडिचेरी जाने के बाद उनके अनुयायी अन्य दलों में सम्मिलित हुए और कुछ संन्यासी बन गए। बहुतों ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली।

यह खोज होनी चाहिए कि स्वामी कुमारानंद की 1919 और 1921 के बीच क्या गतिविधियाँ रहीं और कहाँ-कहाँ। नूरूल होडा की अलीपुर बम विषयक पुस्तक को देखने पर श्रीअरविंद के साथ जिन अन्य व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया गया था, उनमें एक विजय कुमार नाग का नाम तो है, द्विजेंद कुमार का नाम नहीं मिलता है। क्या ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। वैसे क्रांतिकारी भी पुलिस की निगाह से बचने के लिए अकसर कई नाम रख लेते थे। संभवतः कुछ जानकारी अजमेर और ब्यावर के पुलिस रिकॉर्ड में होनी चाहिए। कुछ कलकत्ता (अब कोलकाता) की पुलिस आर्काइव्ज में भी होनी चाहिए। विधानसभा सदस्यों के विषय में उनसे प्राप्त जानकारी रखी है—स्वामी कुमारानंद ने किस प्रकार का अपना जीवन परिचय वहाँ दिया। इन सबकी जाँच-पड़ताल भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम और आधुनिक भारत के इतिहास के शोधकर्ताओं को करनी चाहिए, ताकि इन प्रश्नों पर कुछ तथ्यात्मक प्रकाश पड़ सके।

‘पुनर्जन्म एवं मृत्यु के बाद क्या?’ एक शोधपरक पुस्तक

मृत्यु की प्रक्रिया क्या है और इसके बाद क्या होता है, यह मनुष्य के कुतूहल का विषय रहा है। जहाँ तक भौतिकवादियों और चार्वाक का सवाल है, उनका कथन है कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं रहता है। शरीर पंचतत्त्व कहें अथवा प्रकृति, उसमें विलीन हो जाता है। कुछ लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। धर्मशास्त्रों और भारतीय दर्शन में इस विषय का अनेक संदर्भों में विवेचन है। स्वीडन के एक दर्शनशास्त्र सोरेन कियगार्ड ने भी इस विषय पर कलम चलाई है। स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अभेदानंद ने तो इस विषय का प्रणयन अपनी दो पुस्तकों में किया है। शीर्ष न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर को इस विषय में अपनी पत्नी के देहांत के उपरांत बहुत उत्सुकता रहती थी। वे उनकी आत्मा से संपर्क बनाने की कोशिश का जिक्र करते थे।

हमारी व्यक्तिगत जानकारी में दो मामले हैं—एक तो हमारे पैतृक गाँव के मोहल्ले का है। एक लड़की जब तीन-चार साल की हो गई तो वह पहले कहाँ थी, कहाँ शादी हुई थी, पुराने परिवार का पूरा विवरण बताती, तब ग्राम निवासियों ने जाकर पता लगाया तो जो कुछ लड़की ने बताया था, वह सब सही पाया गया। दूसरा उदाहरण एक अत्यंत सभ्रांत परिवार का है, जिससे हमारे परिवार का निकट संबंध था। जिस व्यक्ति के पुनर्जन्म की चर्चा हम कर रहे हैं, वे अत्यंत हँसमुख, गौरवर्ण और सर्वप्रिय व्यक्तित्व के धनी थे। एम.ए. और कानून की परीक्षाएँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पास करने के बाद लंदन से उन्होंने श्रम, अर्थशास्त्र और विज्ञान की डिग्री प्राप्त की। एक बड़े औद्योगिक घराने के वे श्रम विभाग के परामर्शदाता हो गए। एक प्रकार से प्रारंभ में विश्वविद्यालय में वे मेरे मेंटर या मार्गदर्शक की तरह रहे। मेरे सरकारी सेवा में आने के तीन-चार वर्ष बाद वे अपने एक मित्र के साथ हमसे मिलने मुरादाबाद आए। दुर्भाग्य से बहुत कम उम्र में हृदयाघात से उनका निधन हो गया। उनकी दो संतानें थीं। उनका पुत्र बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुआ। दूसरी संतान पुत्री का विवाह मध्य प्रदेश के एक पूर्व प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता, जो सांसद भी रहे, के पुत्र से हुआ। उनका पुनर्जन्म अपने जन्मस्थान सराय भीरा (कन्नौज) से दस ग्यारह-मील दूर हुआ। तीन-चार वर्ष के होते ही इस बालक ने अपना पिछला नाम, घर-परिवार, पिता और दो बड़े भाइयों के बारे में बताना शुरू किया। उनकी पूर्व जन्म की दो भौजाइयाँ उनकी लड़की के साथ देखने आईं। उसने तुरंत दोनों भौजाइयों के पैर छुए और जब उससे पूर्व जन्म की लड़की के पैर छूने को कहा गया तो हँसते हुए अपनी पूर्वजन्म की लड़की का नाम लेकर कहा कि अरे, यह तो मेरी बेटी है। बड़ा भावनात्मक क्षण था।

बाद में हमारे पिता ने उसके पिता को सावधान करते हुए कहा कि वह लोगों को पूर्वजन्म के बारे में अपने बेटे से पूछने से मना करें, क्योंकि पुत्र के विकास में यह बाधक होगा। इस बात को अब करीब साठ साल से ऊपर हो गए हैं। मनुष्य की मृत्यु और उसके बाद की उत्सुकता के संदर्भ में दतिया के एक प्रख्यात वकील व विचारक श्री राजेंद्र तिवारी की एक शोधपरक पुस्तक ‘मृत्यु कैसे होती है? फिर क्या होता है?’ को सुधी पाठकों के संज्ञान में लाना चाहता हूँ। पुस्तक ‘प्रभात प्रकाशन’ दिल्ली ने प्रकाशित की है। लेखक ने पुस्तक को तीन भागों में विभक्त किया है—मृत्यु के समय एवं उसके बाद की स्थिति पर जीवात्मा के अनुभव, पुनर्जन्म एवं निष्कर्ष। पुस्तक अत्यंत परिश्रम व खोज के बाद लिखी गई है। लेखक के अनुसार—“मृत्यु के पश्चात् होनेवाली परिस्थिति की जानकारी से सबसे ज्यादा लाभ एवं ज्ञान यह होगा कि व्यक्ति अपने जीवन में ऐसे क्या कर्म करे, जिससे कि मृत्यु के समय व पश्चात् उसे कष्ट न हो।” आगे लेखक का कहना है, “पुस्तक में दिए गए उद्धरणों से यह प्रमाणित होता है कि मृत्यु के बाद मन और स्मृति शेष रह जाती है। शरीर छूट जाता है, परंतु मन और याददाश्त बनी रहती है।”

स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, जीवात्मा एवं आत्मा के अस्तित्व का वर्णन किया है। मृत्यु पश्चात् जीवात्मा में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार निहित रहता है। मृत्यु के पश्चात् भूत-प्रेत की वास्तविकता व उनके अस्तित्व का भी उदाहरण सहित विवरण लेखक ने प्रस्तुत किया है। विद्वान् लेखक राजीव तिवारी का दावा है कि पुस्तक में कपोल-कल्पित विवरण नहीं हैं, बल्कि ऐसे समाचार व घटनाओं का उल्लेख है, जो विषय को प्रमाणित करते हैं। महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराजजी की जीवनी ‘मनीषी की लोकयात्रा’ से एक प्रसंग उद्धृत किया है। परमहंस योगानंदजी की ‘योगी कथामृत’ से उनके गुरु युक्तेश्वर गिरि की मृत्यु के पश्चात् वार्त्ता की भी चर्चा है। जीवात्मा से संपर्क करने के साधन जैसे प्लांचेट क्रिया और आटोमैटिक राइटिंग की भी चर्चा है। प्लांचेट प्रक्रिया का अनुसरण टैगोर और उनके परिवार तथा अन्य पढ़े-लिखे परिवारों में एक समय बहुत प्रचलित था। श्रीअरविंद को आटोमैटिक राइटिंग का अनुभव हुआ था। संक्षिप्त में लेखक ने अंतिम अध्याय ‘प्रश्नोत्तरी’ में भाँति-भाँति के जो प्रश्न और शंकाएँ उठती हैं, उनका निराकरण किया है। पुस्तक में बहुत गंभीरता से विषय को प्रतिपादित किया है, जो प्रशंसनीय है। पुस्तक की प्रस्तावना उच्चतम न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश श्री रमेशचंद्र लाहोटी ने लिखी है। संक्षिप्त किंतु विचारोत्तेजक प्रस्तावना में लाहोटीजी ने विषय का सारतत्त्व भी रेखांकित कर दिया है। पुस्तक को मनोयोग से पढ़ने की आवश्यकता है।

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

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