RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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भारतीय परंपराओं में वृक्ष-पूजाभारतीय संस्कृति एवं परंपराओं में पेड़ों को विशिष्ट महत्ता प्रदान की गई है। पेड़ हमारी संस्कृति के संरक्षक भी माने जाते हैं। हमारे साधु-संतों और महात्माओं ने पेड़ों की छत्रच्छाया में ही साधना करते हुए ज्ञान प्राप्त किया था। भारत भूमि पर वृक्षों, वनों, पौधों और पत्तों को देवतुल्य मानकर पूजा जाता रहा है। प्रत्येक मांगलिक अवसर पर घरों के दरवाजों पर कनेर, आम, अशोक और केले के पत्तों से सजावट होती रही है। विशेष पर्वों और उत्सवों पर वृक्षों की पूजा-अर्चना की जाती है। परंपरा से आशय उस परिपाटी से है, जो निश्चित सांस्कृतिक मूल्यों के निर्वाह तथा उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे-ही-आगे हस्तांतरित करने के उद्देश्य से समाज में निश्चित अवसर पर निश्चित विधि से अपनाई जाती है। हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों और वेदों में भी उल्लेख है कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जलपान करे, शुद्ध अन्न-फल भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले-कूदे व कृषि करे, तब ही वेद प्रतिपादित उसकी आयु ‘शतं जीवेम् शरदः शतम्’ हो सकती है। हिंदू धर्म में तो कई देव मंदिरों में पेड़ को भी देवता का प्रतीक माना जाता है। पीपल, तुलसी, वट वृक्षों की पूजा-अर्चना पर्यावरण सुरक्षा की ही परिचायक है। हमारे धर्मशास्त्रों में महामनीषियों ने वापी, पाली और जलाशय बनाकर वहाँ वृक्षारोपण करना किसी यज्ञ के पुण्य से कम नहीं माना है। ऋषि आश्रमों में यज्ञ-हवन आदि में समिधा का प्रयोग होता है, वह भी वृक्षों की देन है, जिसे पवित्र मानकर उपयोग किया जाता है। वृक्ष एक ओर जहाँ हमारे जीविकोपार्जन के साधन हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे जीवन के भी आधार हैं। वृक्षारोपण और जलाशय निर्माण को पुनीत कार्य माना जाता है। हमारे राजा-महाराजाओं ने प्रजा की सुख-सुविधा के लिए न केवल सड़कों का ही निर्माण कराया बल्कि इनके किनारे छायादार वृक्ष व जलाशयों की व्यवस्था भी की थी। सम्राट् अशोक ने समूचे राज्य में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जगह-जगह फलदार व छायादार वृक्ष लगवाकर वन्य जीवों और जीव-जंतुओं को आश्रय प्रदान किया। वृक्ष हमारे जीवन के सहचर हैं, हमारा जीवन वृक्षों के अस्तित्व पर निर्भर है। वृक्षों की छोड़ी गई प्रश्वास हमारी श्वास है। वृक्षों के मूल, तना, पत्र, पुष्प, फल हमारे जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। वृक्षों की छाया हमें शीतलता प्रदान करती है। वृक्ष मेघों को आकर्षित कर हमारे लिए प्राकृत जल की व्यवस्था करते हैं—वृक्ष पुराण। भारतीय समाज में पेड़ों की पूजा व नदियों को माँ का दर्जा देना प्रकृति संरक्षण का परिचायक है। गंगा, यमुना, सरस्वती आदि पवित्र नदियों का उल्लेख शास्त्रों में पूज्य भाव से है। रामायण में कांड, महाभारत में पर्व और श्रीमद्भागवत में स्कंध शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ क्रमशः तना, पोर और प्रधान शाखा से है। कण्व की पुत्री शकुंतला का पूरा बचपन वृक्षों की छाया तले ही व्यतीत हुआ। उसकी विदाई के समय वृक्षों की पत्तियों से आँसू टपक रहे थे। उसने वृक्षों से गले मिलकर विदा ली थी। रामायण काल में राम का वनों में निवास करना और वृक्षों को अपना आश्रय बनाना उनके प्रकृति पे्रम का ही सूचक है। लंका में अशोक वाटिका में सीता का ठहराव वृक्षों की महत्ता प्रतिपादित करता है। वृक्ष व वनस्पति रुद्र के रूप में मानी गई है, क्योंकि ये विषैली गैस पीकर अमृतमयी गैस निकालते हैं, अतः वृक्षों को सींचना नीलकंठ महादेव को जल चढ़ाना ही माना गया है। विष्णु पुराण में उल्लेख किया गया है कि सौ पुत्रों की प्राप्ति से भी बढ़कर एक वृक्ष लगाना और उसका पालन-पोषण करना पुण्य माना गया है। चरक संहिता में प्राकृतिक औषधियों व जड़ी बूटियों का चिकित्सकीय दृष्टि से उपयोग बताया गया है। नीबू, आँवला, पपीता, सेव, पालक, चंदलाई आदि शरीर के लिए पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक हैं। मत्स्य पुराण में दस पुत्रों, बावडि़यों एवं पुत्रों से बढ़कर एक वृक्ष माना गया है। वृक्षों के प्रति विशेष पे्रम से पे्र्ररित होकर राम ने दंडकारण्य, इंद्र ने नंदनवन, कृष्ण ने वृंदावन, सौनकादि ऋषियों ने नैमिषारण्य तथा पांडवों ने खांडव वनों का निर्माण किया था। वर्षा का अह्वान, भूस्खलन का बचाव, प्राणवायु का दान और जीव-जंतुओं का संरक्षण आदि कार्य भी वृक्षों द्वारा की संपादित होते हैं। हमारी सांस्कृतिक परंपराओं में प्रकृति प्रेम की अनेक गाथाएँ भरी पड़ी हैं, जिनके क्रियान्वयन से मानव जीवन को सुखी, समृद्ध बनाने हेतु प्रकृति प्रदत्त साधनों के संरक्षण की व्यवस्था बनाई गई है। हमारी परंपराओं में वृक्षों की पूजा का विशेष महत्त्व रहा है, जो पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को सुखी व स्वस्थ बनाने की दिशा में सफल है। वृक्ष पूजा की परंपरा में कार्तिक मास में महिलाएँ पीपल व वट वृक्ष की पूजा कर पानी सींचती है तो पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है। कदंब के पेड़ के नीचे परिवार सहित भोजन किया जाए तो परिवार फलता-फूलता है। जिस घर में तुलसी की पूजा होती है, उस घर में यमराज प्रवेश नहीं करता है। प्राचीन काल में प्रत्येक शिवालय के पास विल्व पत्र का वृक्ष लगाया जाता था, जिसकी पत्तियाँ शिवजी को अर्पित होती है। तुलसी एकादशी के दिन तुलसी के पौधों की अपनी पुत्री के समान विवाह की रस्म संपन्न की जाती है। शास्त्रवेत्ताओं का कथन है कि पथ पर वृक्षारोपण करने से दुर्गम फल की प्राप्ति होती है, जो फल अग्निहोत्र करने से भी उपलब्ध नहीं होता। वह मार्ग पर पेड़ लगाने से मिल जाता है। ब्रह्मांड पुराण में लक्ष्मी को ‘कदंब वनवासिनी’ कहा गया है। कदंब के पुष्पों से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। वृहदारण्यक उपनिषद् में पुरुष को वृक्ष का स्वरूप माना गया है। पद्म पुराण में भगवान विष्णु को पीपल वृक्ष, भगवान् शंकर को वटवृक्ष और ब्रह्माजी को पलाश वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। घर में वास्तु दोषों को नष्ट करने के लिए तुलसी का पौधा सक्षम है। माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए घर में श्वेत आक, केला, आँवला, हरसिंगार, अशोक, कमल आदि का रोपण शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। आंध्र प्रदेश में तो नीम के पेड़ को राज्य वृक्ष माना गया है। शास्त्रानुसार ईशान कोण में आँवला नैऋत्य में इमली, आग्नेय में अनार, वायव्य में बेल, उत्तर में कैथ व पाकर, पूर्व में बरगद, दक्षिण में गूगल और गुलाब तथा पश्चिम में पीपल का वृक्ष लगाना शुभ माना गया है। तुलसी को विष्णुप्रिया, केला को बृहस्पति और संतानदाता तथा पीपल को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के निवास के रूप में पूजा जाता है। चंदन भक्त और भगवान के माथे की शोभा है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को ‘आँवला नवमी’ कहते हैं। कहते हैं कि पीपल के पेड़ को नियमपूर्वक जल चढ़ाया जाए तो शनि का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है। चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की दशमी को ‘दशामाता’ कहा जाता है। स्त्रियाँ इस रोज पीपल पूजा करती हैं। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को स्त्रियाँ वटवासिनी का व्रत रखती हैं। वटवृक्ष को जल से सींचती हैं। हरियाली अमावस्या और बसंत पंचमी आदि पर्वों पर व्रत-उपवास के साथ वनस्पति पूजा होती है। छत्तीसगढ़ के रतनपुर क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में आम के पेड़ से आम तोड़ने से पहले उसके विवाह की विधि संपन्न की जाती है। बढ़ती जनसंख्या और भौतिकवादी व्यवस्थाओं के फलस्वरूप वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। प्रकृति से निर्दयतापूर्वक छेड़छाड़ की जा रही है, अतः आज प्रदूषण की भयावही समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। गांधीजी ने कहा था, ‘‘प्रकृति सभी जीवों का भरण पोषण तो करती है किंतु एक भी लालची की तृष्णा शांत करने में अक्षम है।’’ पीपल बरगद को ब्राह्मण माना जाता था। उन्हें काटना ब्रह्म हत्या के समान माना जाता है। जिन पेड़ों पर पक्षियों के घोंसले हों तथा देवालय और श्मशान भूमि पर लगे पेड़ों को काटना शास्त्रानुकूल नहीं है। साथ ही दूधवाले वृक्ष, जैसे बड़, पीपल, बहेड़ा, हरड़, नीम आदि को काटने पर पाप का भागीदार होता है। किसी कारण से वृक्ष काटना ही हो तो वृक्ष पर निवास करनेवाले जीव-जंतुओं से क्षमा-प्रार्थना करते हुए अन्यत्र वृक्षारोपण की व्यवस्था की जानी चाहिए। जोधपुर जिले की खेजड़ली ग्राम में संवत् १७८० में ३६३ वीर-वीरागंनाओं ने अपने सिर कटवाकर मरुस्थल में खेजड़ी के वृक्षों की रक्षा की थी। आज भी विश्नोई संप्रदाय के लोग खेजड़ी के पेड़ की सुरक्षा हेतु समर्पित हैं। पेड़ों को नष्ट होने से बचाने के लिए ही ओरण, डोली तथा गोचर व्यवस्था की परंपरा का विकास हुआ था। ओरण एक संरक्षित वन है, जो किसी देवस्थान से जुड़ा होता है। डोली किसी मठ या मंदिर के पुजारी को व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में दी जाती है, ताकि वन संरक्षण होता रहे। बढ़ती जनसंख्या और भौतिकवादी व्यवस्थाओं के फलस्वरूप वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। बढ़ते हुए सड़कों के जाल, उद्योगों की स्थापना, बाँधों के निर्माण तथा रेलवे लाइनों के विस्तार के कारण वृक्षों की अपार कटाई हो रही है; अतः नष्ट हो रहे वृक्षों के स्थान पर नए वृक्षारोपण पर ध्यान दिया जाए तथा कानूनों का कठोरता से पालन किया जाना आवश्यक हैं, अन्यथा वह दिन दूर नहीं है, जब प्रकृति प्रकोप से पूरा प्राणि-जगत् प्रभावित हो जाएगा और हमारे अस्तित्व को खतरा उत्पन्न होगा। अतः वृक्षों के बचाव हेतु सभी को कृत-संकल्प होना चाहिए। पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी |
अप्रैल 2024
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