दिल्ली-तीर्थ-दर्शनम्

दिल्ली-तीर्थ-दर्शनम्

स्वास्थ्य-कारणों से इस बार बाहर कहीं तीर्थयात्रा पर जाना संभव न हो सका, तो रविवार में अवकाश के दिनों में कई किस्तों में दिल्ली के तीर्थ-स्थलों के दर्शन किए। इससे पहले कि आपको दिल्ली के प्रमुख तीर्थ-स्थलों पर लेकर चलूँ तो दिल्ली के बारे में भी कुछ जान लेना जरूरी है। वर्तमान में तो दिल्ली भारत गणराज्य की राजधानी, केंद्र शासित क्षेत्र के साथ-साथ देश के चार बडे़ महानगरों में से एक है। वास्तव में दिल्ली एक लघु भारत ही है, जहाँ हर संप्रदाय, पंथ और प्रांत के लोग रहते हैं। इसके दक्षिण-पश्चिम भाग में अरावली पर्वत-शृंखला तथा पूरब दिशा में यमुना नदी है, जिसके किनारे यह नगर बसा है। खुदाई में प्राप्त प्रमाणों से यह सिद्ध हुआ है कि प्रारंभिक सिंधु घाटी सभ्यता यहाँ पनपी। दिल्ली नगरी ने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे। इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी सात बार उजड़ी और फिर बसी, इसलिए दिल्ली एक पौराणिक तथा ऐतिहासिक नगर भी है।

महाभारत काल में इसका नाम ‘इंद्रप्रस्थ’ था। अपनी सुंदरता तथा वैभव में यह देवताओं की ‘साकेतपुरी’ से बढ़कर थी। पांडवों ने इसे अपनी राजधानी बनाया। ‘पृथ्वीराज रासो’ में तोमर राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसी ने ‘लाल कोट’ का निर्माण कराया तथा महरौली में स्थित गुप्तकालीन लौह-स्तंभ को वही दिल्ली लेकर आया था। संभवतः सन् ९०० से १२०० तक दिल्ली पर तौमर राजाओं का शासन रहा। पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का अंतिम हिंदू सम्राट् माना जाता है। सन् १२०६ के बाद यह दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी। क्रमशः यहाँ खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश के अलावा अन्य राजवंशों ने शासन किया। मुगल बादशाह अकबर ने न जाने क्यों दिल्ली को बिसराकर आगरा को अपनी राजधानी बनाया; परंतु अकबर के पोते शाहजहाँ ने सत्रहवीं सदी में इसके चहुँओर चहारदीवारी बनवाकर, इसे पुनः आबाद कर अपनी राजधानी बनाया, जिसे तब ‘शाहजहाँनाबाद’ कहा जाता था; परंतु आज इसे ‘पुरानी दिल्ली’ के नाम से जाना जाता है।

पुराकाल में दिल्ली उत्तर दिशा में स्वरूप नगर, दक्षिण में रजोकरी, पश्चिम में नजफगढ़ तथा पूरब में यमुना नदी तक विस्तृत थी। अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया और कलकत्ता को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन सन् १९११ में पुरानी दिल्ली के दक्षिण में अंग्रेज वास्तुकार एडविन लुटियन द्वारा नई दिल्ली का निर्माण करवाकर राजधानी को यहाँ स्थानांतरित कर दिया गया। आजादी के लिए चले लंबे संघर्ष के बाद सन् १९४७ में इसे स्वतंत्र भारत की राजधानी बनाया गया।

पर्यटन की दृष्टि से दिल्ली बेमिसाल है। भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली महानगर में करीब बारह सौ धरोहर स्थल घोषित किए हैं, इनमें से १७५ स्थल तो राष्ट्रीय धरोहर स्थल हैं। यहाँ महाभारतकालीन, मुगलकालीन, ब्रिटिशकालीन अनेक इमारतें एवं पवित्र स्थल देश-विदेश के पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। पहले मैं आपको कालकाजी मंदिर लिये चलता हूँ।

कालकाजी मंदिर दिल्ली के कालकाजी क्षेत्र में अरावली पर्वत-शृंखला की सूर्यकोट पहाड़ी पर स्थित है। यह मंदिर देश के प्राचीनतम सिद्धपीठों में गिना जाता है। इसे ‘जयंती पीठ’ भी कहा जाता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि असुरों के बढ़ते आतंक से तंग आकर देवताओं ने भगवती देवी से असुरों का संहार करने की प्रार्थना की, तो माता पार्वती ने अपनी भृकुटी से ‘महाकाली’ को प्रकट किया और राक्षस ‘रक्तबीज’ को मारने का आदेश दिया। महाकाली ने मार-काट मचाते हुए राक्षस के रुधिर को अपनी लपलपाती जिह्वा से चाटकर जमीन पर नहीं गिरने दिया। देवी महाकाली के रौद्र रूप को शांत करने के लिए भगवान् शंकर ने आद्यशक्ति महाकाली के आगे साष्टांग होकर विनती की। तब माता काली ने उन्हें मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया। बदलते समय के साथ भी इस कालकाजी मंदिर की पवित्रता और मान्यता अक्षुण्ण रही। लोक मान्यताओं में यह पांडवकालीन मंदिर है। कहा जाता है कि पांडव भाइयों ने यहाँ आकर माँ काली की पूजा की थी। ऐसा भी माना जाता है कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में मराठा शासकों ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। यह भी मान्यता है कि देवपिता ब्रह्मा के कहने तथा समस्त देवताओं के आग्रह पर माता काली यहाँ अपने भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी कर रही हैं। इसलिए भी इसे ‘मनोकामना सिद्धपीठ’ कहा जाता है। बीते पुराकाल में नाथ-संप्रदाय के बाबा बालकनाथ ने इस स्थान को अपनी तपस्थली के रूप में चुना। तत्कालीन अकबर शाह के पेशकार रहे राजा मिर्जा केदार ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। तब से लेकर आज तक इस मंदिर में महंत-परंपरा का निर्वहन हो रहा है।

वर्तमान में हम जो मंदिर देख रहे हैं, इसकी बनावट पहाड़नुमा है, जो सूर्यकोट पर्वत की याद दिलाती है। इसका निर्माण शामलट थोक ब्राह्मण और थोक जोगियन की जमीन पर किया गया, जो कालका मंदिर के पुजारी हैं। मंदिर के बीचोबीच गोलाकार गुंबद में माता काली स्वयं विराजमान हैं। इस मंदिर की बारह पक्षीय संरचना के कारण चारों ओर से माँ के दर्शन किए जा सकते हैं। मंदिर का निर्माण संगमरमर तथा काले पुमिस पत्थरों से किया गया है। मंदिर के साथ-साथ ही बारह पक्षीय बरामदा भी है। यहाँ नित्य महाकाली की मूर्ति का दूध से अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के बाद प्रातः छह बजे तथा सायंकाल में साढे़ सात बजे आरती होती है। दर्शनार्थियों के लिए मंदिर प्रातः से देर रात्रि तक खुला रहता है। विगत पाँच-छह दशकों में मंदिर के आसपास बहुत सी धर्मशालाओं का निर्माण हुआ है। चैत्रीय और शारदीय नवरात्रों के अवसर पर यहाँ भक्तों की भारी भीड़ उमड़ने के कारण मेला जैसा लगा रहता है। मंगलवार और शनिवार को भी यहाँ दर्शनार्थी बड़ी संख्या में आते हैं। इस मंदिर की मान्यता जन-जन में आज भी बनी हुई है। यहाँ भली प्रकार से दर्शन कर अब मैं सामने कमल मंदिर की ओर निकल रहा हूँ।

कमल मंदिर (लोटस टेंपल) एकदम सामने ही दिख रहा है। यह दिल्ली में नए बने मंदिरों में बड़ा दर्शनीय है। यह बहाई उपासना-स्थल है। बहाई सन् १८४४ में प्रवर्तित ईरान का एक अलग धर्म है, जिसकी स्थापना बहाउल्लाह नामक संत ने की थी। संत बहाउल्लाह को ईश्वर का कार्य करने के जुर्म में तत्कालीन शासकों ने लगभग ४० वर्षों तक जेल में रखकर असहयनीय कष्ट दिए। बहाई धर्म का मानना है कि दुनिया के सब धर्मों का मूल एक ही है। इस मंदिर का उद्घाटन २४ दिसंबर, १९८६ को हुआ और १ जनवरी, १९८७ को यह जनता के दर्शनार्थ खोल दिया गया। इस मंदिर का वास्तु कमल के आकार में होने के कारण इसे ‘कमल मंदिर’ यानी लोटस टेंपल कहा जाता है। इस मंदिर में स्थित विस्तृत और कलात्मक घास के मैदान, धवल-दूधिया विशाल भवन, ऊँचे गुंबदवाला प्रार्थनाघर आदि पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र हैं। सबसे बड़ा आकर्षण तो यह है कि इसमें किसी तरह की कोई मूर्ति नहीं है। मंदिर ‘अनेकता में एकता’ सिद्धांत को यथार्थ रूप देता है। इस मंदिर में नौ द्वार तथा नौ कोने हैं। माना जाता है कि नौ सबसे बड़ा अंक है। यह उपासना मंदिर चारों ओर से नौ बडे़ जलाशयों से मंडित है। प्रातः और सायं सूर्य की लालिमा में धवल-दूधिया रंग की यह संगमरमरी इमारत बड़ी अद्भुत लगती है। यह अद्भुत स्थापत्य कनाडा के प्रसिद्ध वास्तुकार फरीबर्ज सहबा की कल्पना की उपज है। इस मंदिर को बनाने के लिए मार्बल ग्रीस से मँगवाया गया था। इस मंदिर में संगमरमर की सत्ताईस खड़ी पँखुडि़याँ, जिन्हें तीन और नौ के आकार में बनाया गया है। इसमें प्रवेश के नौ दरवाजे, जो ४० मीटर के हैं। सामने के पूरे हॉल में लगभग २४०० लोग एक साथ आ सकते हैं।

मंदिर के सूचना-केंद्र के सभागार में ४०० व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं। इसके अलावा दो छोटे सभागृह और भी हैं। यहाँ हर घंटे में पाँच मिनट की प्रार्थना सभा आयोजित की जाती है। पुस्तकालय में बहुत से शोधार्थी और धार्मिक पुस्तक-प्रेमी नीम शांति के बीच पुस्तकें पढ़ने में निमग्न हैं। यहाँ आकर अपूर्व शांति का अहसास हो रहा है। हजारों पर्यटक नित्य यहाँ इसके दर्शन करने आते हैं। आइए, अब भैरव मंदिर की ओर चलते हैं।

भैरव मंदिर दिल्ली में प्रगति मैदान पास तथा पांडवों के किले के पीछे स्थित है। इन्हें किलकारी बाबा भैरोंनाथजी कहा जाता है। यहाँ ऊँचे प्रवेशद्वार पर यही नाम लिखा हुआ है। सभी जानते हैं कि भैरव को भगवान् शिव का अवतार माना गया है, अतः वे शिव स्वरूप ही हैं। भैरव के कई रूप प्रसिद्ध हैं, इनमें से दो नाम अति प्रसिद्ध हुए हैं—काल भैरव तथा बटुक भैरव या आनंद भैरव। पांडवकालीन यह भैरव मंदिर सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला तथा सभी संकटों का नाश करनेवाला है। रविवार भैरव का दिन माना गया है, सो आज रविवार को यहाँ भक्तों की अपार भीड़ है। मैं देख रहा हूँ, यह मंदिर उत्तर भारत की मंदिर निर्माण शैली में सफेद संगमरमर से बनाया गया है। अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी संगमरमर की हैं। भैरवजी की प्रतिमा में मुख तथा बड़ी-बड़ी आँखें दिखाई दे रही हैं। यहाँ की यह भैरवजी की प्राचीन मूर्ति अत्यंत ऊर्जावान है। इस मूर्ति की एक विशेषता यह बलाई जाती है कि यह एक कुएँ के ऊपर स्थापित है। न जाने कब से एक छिद्र के द्वारा पूजा-अर्चना तथा भैरव के अभिषेक का जल कुएँ में चला जाता है; चमत्कार ऐसा है कि यह कुआँ अभी तक भरा नहीं है। सामने दिख रही नीलम की आँखोंवाली बटुक भैरव की मूर्ति, जिसके पार्श्व में त्रिशूल तथा सिर के ऊपर छत्र शोभायमान है, इतनी भारी है कि साधारण व्यक्ति इसे उठा भी नहीं सकता है।

लोक में ऐसा प्रचलित कि जब पांडव हस्तिनापुर से आकर यहाँ खांडवप्रस्थ (इंद्रप्रस्थ) में बसे तो अपनी इंद्रप्रस्थ नगरी को सब संकटों से मुक्त रखने के लिए पांडुपुत्र भीमसेन इस मूर्ति को अपने कंधे पर रखकर काशी से लेकर आए थे। भैरवजी आना तो नहीं चाहते थे, पर इस शर्त के साथ आने को तैयार हुए—‘भीमसेन, पूरे रास्ते में मुझे कहीं जमीन पर रख दोगे तो मैं वहाँ से उठूँगा नहीं, सोच लो।’ लंबा रास्ता चलते हुए कुंतीपुत्र थकावट और लघुशंका से व्याकुल हो गए। उन्होंने किले से बाहर स्थित कुएँ की जगत पर भैरवजी को रख दिया। शर्त के अनुसार भैरव बाबा फिर वहाँ से हिले नहीं। उन्होंने भीमसेन को समझाया—‘हे महावीर! निराश मत होओ, यहीं पर मुझे स्थापित कर दो। मैं यहाँ रहकर तुम सब पांडवों तथा यहाँ आनेवाले अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करूँगा।’ उसी समय से ये बटुक भैरव यहाँ विराजमान हैं और यहाँ आनेवाले अपने भक्तों का कल्याण कर रहे हैं। ‘ॐ हृं बटुकाय आपदुद्धाराय कुरु कुरु बटुका यहृं।’ इस मंत्र के जाप से भैरव को प्रसन्न किया जा सकता है। अन्य प्रसाद सामग्री के साथ-साथ यहाँ शराब भी भैरव को चढ़ाई जाती है। भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति में भी इनकी उपासना फलदायी होती है। जहाँ-जहाँ भी देवी-मंदिर हैं, वहाँ भैरव भी विराजमान हैं। भैरव पूर्ण रूप से परात्पर शंकर ही हैं। रविवार को भक्तों की भीड़ को देखते हुए मंदिर प्रातः ५ बजे से रात्रि १० बजे तक दर्शनार्थ खुला रहता है। अब मैं आपको कनाट प्लेस स्थित प्राचीन हनुमान मंदिर के दर्शनार्थ लिये चलता हूँ।

हनुमान मंदिर (कनाट प्लेस) बहुत प्राचीन मंदिर है। महाभारत ग्रंथ में वर्णन आया है कि पाँचों पांडव देवताओं की संतान थे। पांडवों में द्वितीय भीम को हनुमानजी का भाई माना जाता है। दोनों ही वायुपुत्र कहे जाते हैं। बताया जाता है कि इंद्रप्रस्थ नगरी की स्थापना के समय इस नगरी में सुख-शांति के लिए पांडवों ने पाँच हनुमान मंदिरों की स्थापना की थी। यह मंदिर उन्हीं में से एक है। ऐसी मान्यता है कि भक्तिकालीन संत तुलसीदासजी ने अपनी दिल्ली यात्रा के समय इस मंदिर में दर्शन किए थे। उसी प्रवास में उन्होंने यहाँ ‘हनुमान चालीसा’ की रचना की थी। वर्तमान मंदिर की यह जो इमारत दिख रही है, इसका निर्माण आमेर के राजा मानसिंह प्रथम (१५४०-१६१४) ने करवाया था। राजा जयसिंह द्वितीय (१६८८-१७४३) ने जंतर-मंतर बनवाते समय इस मंदिर का विस्तार किया। समय के साथ-साथ इसमें सुधार तथा जीर्णोद्धार का कार्य होता रहा। यह बहुत ही जीवंत मंदिर है। यहाँ बाल हनुमान की पूजा होती है। अन्य मंदिरों से अलग इसकी एक विशेषता यह है कि यहाँ १ अगस्त, १९६४ से ‘श्रीराम जय-जय राम’ का अखंड जाप दिन-रात अनवरत होता आ रहा है। यह जाप गिनीज बुक ऑफ रिकोर्ड्स में भी सबसे लंबे जाप के रूप में दर्ज हो चुका है।

मंदिर में ऊपर-नीचे शिव-परिवार, विष्णु आदि अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के गर्भगृह में बाल हनुमान की स्वयंभू प्रतिमा दक्षिणमुखी है। मंदिर के शिखर पर अर्धचंद्र के साथ किरीटकलश भी शोभित है। इस अर्धचंद्र की भी एक कहानी है। कहा जाता है कि जब रामभक्त तुलसीदासजी दिल्ली आए थे, तब मुगल सम्राट् अकबर ने उन्हें दरबार में कोई चमत्कार दिखाने को कहा। हनुमानजी की कृपा से तुलसीदासजी ने सम्राट् को संतुष्ट कर दिया। तब अकबर ने प्रसन्न होकर इस मंदिर के शिखर के लिए इस्लामी चंद्रमा तथा किरीटकलश समर्पित किया। इसी कारण कई मुसलिम आक्रांताओं ने इस इस्लामी चाँद का मान रखते हुए मंदिर को कोई हानि नहीं पहुँचाई। मंगलवार को यहाँ भक्तों की अपार भीड़ होती है। दर्शनार्थियों की लंबी-लंबी कतारें लग जाती हैं। यहाँ बूँदी तथा लड्डू का प्रसाद चढ़ता है। हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ भजन संध्या के साथ-साथ भंडारे लगते हैं। चूँकि कनाट प्लेस में हैं, तो अब गुरुद्वारा बँगला साहिब के लिए निकलते हैं।

गुरुद्वारा बँगला साहिब तो मैं कई बार आ चुका हूँ। यह गुरुद्वारा कनाट प्लेस के पास बाबा खड्ग सिंह मार्ग पर स्थित है। यह ऐतिहासिक गुरुद्वारा है। इतिहास में दर्ज है कि सत्रहवीं सदी में यहाँ पर जयपुर के राजा जयसिंह का एक बँगला हुआ करता था, जिसे ‘जयसिंहपुरा पैलेस’ कहा जाता था। उन्हीं दिनों खालसा पंथ के आठवें गुरु हरकिशन सिंह दिल्ली प्रवास पर आए तो इसी बँगले में ठहरे थे। उस समय दिल्ली में चेचक तथा हैजा महामारी का रूप ले चुके थे। इन बीमारियों के कारण सैकड़ों लोग काल का ग्रास बन चुके थे। गुरुजी बीमारों की सेवा करने लगे। अपने आवास के कुंड से मरीजों को शुद्ध जल देते तो यह जल आरोग्यवर्धक हो जाता, मरीजों को स्वास्थ्य लाभ होता। गुरुजी दिन-रात मरीजों से घिरे रहते। इस तरह गुरुजी भी इस महामारी की चपेट में आ गए और ३० मार्च, १६६४ को गोलोकवासी हो गए। इस घटना के बाद राजा जयसिंह ने उस कुंड के स्थान पर एक ताल यानी सरोवर का निर्माण कराया। बाद में २२५×२३५ फीट का वर्तमान तालाब भक्तों के चंदे से बनवाया गया। यह तालाब आज बड़ी श्रद्धा का केंद्र है।

पहले-पहल सन् १७८३ में सरदार भगेल सिंह ने दिल्ली में नौ सिख मंदिरों यानी गुरुद्वारों का निर्माण कराया। बँगले के स्थान पर निर्माण होने के कारण इसे ‘बँगला साहिब गुरुद्वारा’ कहा जाता है। ऊँचे भव्य प्रवेशद्वार के बाईं ओर अब एक शानदार फब्बारा है। इसके साथ लंबी गैलरी से आगे बढ़ते हुए दाईं ओर ठीक सामने बहुत ऊँचा ध्वज-स्तंभ और सामने ही मुख्य गुंबद में गुरुग्रंथ साहिब शोभायमान हैं। यहाँ भक्तों के बैठकर गुरुबानी तथा कीर्तन सुनने के लिए विशाल हॉल में कालीन बिछे हैं। यहीं सामने जाकर भक्त लोग गुरुग्रंथ साहिब के सामने मत्था टेकते तथा अरदास करते हैं। इसके एकदम दाएँ वह पवित्र सरोवर स्थित है। इसके स्वच्छ जल में रंग-बिरंगी मछलियाँ किलोल कर रही हैं। अन्य पवित्र स्थलों की तरह गुरुद्वारे में जूता उतारकर तथा सिर ढँककर अंदर जाना चाहिए। द्वार पर ही जूता स्टैंड है तथा सिर ढकने के लिए स्कार्फ निशुल्क मिलते हैं। दर्शनार्थियों तथा विदेशी पर्यटकों के लिए यहाँ पर निशुल्क गाइड भी उपलब्ध हैं।

पवित्र सरोवर से जब बाईं ओर आगे बढ़ते हैं तो प्रसाद (कड़ाह प्रसाद) लेत हुए जाते हैं, जो शुद्ध देसी घी का बनाया जाता है। बाईं ओर ही कुछ सीढि़याँ उतरकर एअरकंडीशंड लंगर हॉल हैं, साक्षात् अन्नपूर्णा, जहाँ सैकड़ों नहीं तो हजारों भक्त नित्य भोजन करते हैं। भोजन से पूर्व पाँच मिनट हरिकीर्तन ‘सतनाम-सतनाम वाहे गुरुजी’ कराया जाता है। जैसे ही पहली पंगत लंगर चखकर उठती है, तुरंत सफाई होकर दूसरी पंगत बैठ जाती है, सेवादार स्टील की थालियाँ परोसकर बडे़ प्रेम से भोजन कराते हैं। यहाँ लंगर में गाढ़ी दाल, चावल, रोटी बड़ी स्वादिष्ट होती है। भोजन के बाद जूठी थाली यथास्थान रखते हैं। लंगर भवन में अलग-अलग अनेक स्त्री-पुरुष भोजन बनाने, रोटियाँ सेंकने, बरतन साफ करने के कार्य में निस्स्वार्थ भाव से लगे देखे जा सकते हैं। कोई ऊँचा नहीं, कोई नीचा नहीं, सब एक गुरु के बंदे। गुरुद्वारा जैसी निस्स्वार्थ सेवा अन्यत्र देखने में नहीं आती। यहाँ कोई भी दर्शनार्थी अपनी इच्छानुसार सेवा कार्य ले सकता है।

इस गुरुद्वारा परिसर में एक आर्ट गैलरी, आवास, हायर सेकेंडरी स्कूल, बाबा बघेल सिंह म्यूजियम, पुस्तकालय तथा एक अस्पताल भी संचालित होता है। इसी में यात्री निवास, मल्टीलेबल पार्किंग तथा टायलेट की सुविधा भी है। स्वर्ण सा चमकता गुरुद्वारे का शिखर दूर से ही अपनी ओर आकर्षित करता है। यहाँ पर आकर एक अलग ही सुकून और संतुष्टि होती है, दोलायमान चित्त एकदम शांत हो जाता है। यहाँ एक बार आकर बार-बार आने को मन करता है। यहाँ से बाहर निकलने के लिए अशोक रोड की ओर भी एक द्वार है। इसी से अब मैं बाहर निकल रहा हूँ।

आज मैं झंडेवाला मंदिर में दर्शन करने आया हूँ। यह मंदिर करौल बाग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय कार्यालय केशवकुंज के एकदम निकट ही है। यह प्राचीन देवी मंदरों में गिना जाता है। कहा जाता है कि मुगल काल में सम्राट् शाहजहाँ ने यहाँ देवी प्रार्थना के रूप में झंडा अर्पित किया था, इसलिए इसे झंडेवाला मंदिर कहा जाने लगा। अरावली पर्वत-शृंखला यहाँ से होकर गुजरती है। लोक में ऐसा प्रचलित है कि बद्री नाम के अपने एक भक्त को माता ने स्वप्न में प्रेरणा देकर यहाँ जमीन में अपने मूर्ति रूप के बारे में बताया। पहाड़ी की खुदाई कर मूर्ति को निकाला गया और फिर उसी स्थान पर इस मंदिर का निर्माण हुआ। वर्षों तक बद्री भगत ने माता की सेवा की तथा मंदिर का विस्तार किया। धीरे-धीरे पहाड़ी पर भी बसावट बढ़ती गई और आज यह मंदिर चारों ओर फैली पॉश कॉलोनियों के बीच में है। मंदिर के निचले हिस्से में सामने ही माता की सुसज्जित पूर्ति विराजमान है। रोजाना अनेक भक्त यहाँ दर्शन करने आते हैं।

शारदीय और चैत्र नवरात्रों में माँ के भक्तों की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। इनमें कन्याओं, माताओं की संख्या अधिक होती है। इन अवसरों पर मंदिर ही नहीं, आस-पास का क्षेत्र विद्युत् लडि़यों एवं दीप-मालिकाओं से लकदक करता रहता है, तब यहाँ की शोभा देखते ही बनती है। मंदिर की चारों दिशाओं में भक्तों की लंबी कतारें लग जाती हैं। पुलिस, मंदिर प्रशासन एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के वालंटियर व्यवस्था में मुस्तैदी से जुटे रहते हैं। इस समय माता का शृंगार तथा शोभा अलौकिक जान पड़ती है, भक्त पलक झपकाना भी भूल जाते हैं। माता के जयकारों तथा भजनों से पूरा वातावरण आध्यात्मिक हो जाता है। दिल्ली शहर में इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। यहाँ माता को दंडवत् कर अब मैं आपको बिरला मंदिर ले जा रहा हूँ।

लक्ष्मीनारायण मंदिर (बिड़ला मंदिर) हर बडे़ शहर में मिल जाएगा। दिल्ली में यह राम मनोहर लोहिया अस्पताल के पास मंदिर मार्ग पर स्थित है। चूँकि इसका निर्माण उद्योगपति बिड़ला घराने ने कराया, इसलिए लोग इसे बिड़ला मंदिर कहते हैं। असल में यह मंदिर भगवान लक्ष्मीनारायण को समर्पित है, अतः इसे लक्ष्मीनारायण मंदिर भी कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि पहले-पहल इस मंदिर का निर्माण जयपुर के राजा उदयभानू सिंह ने कराया था; उसके बाद सन् १७९३ में राजा पृथ्वी सिंह ने इसका जीर्णोद्धार कराया। अपने समय के समाजसेवी तथा उद्योगपति बलदेवदास बिड़ला तथा उनके पुत्र जुगल किशोर बिड़ला ने एक रुपए की प्रतीक राशि देकर राजा साहब से इसे खरीद लिया और सन् १९३३ में पं. विश्वनाथ शास्त्री के निर्देशन में लगभग १०० कुशल शिल्पियों द्वारा इसका विस्तार तथा निर्माण कार्य शुरू हुआ। छह साल बाद १९३९ में महात्मा गांधी ने इस शर्त पर इसका उद्घाटन किया कि यह बिना किसी जाति भेदभाव के सबके लिए खुला रहेगा। इस मंदिर के मुख्य शिल्पकार श्रीशचंद्र चटर्जी थे।

मंदिर का वास्तु नागर शैली में निर्मित पूर्वमुखी है। यह मंदिर करीब साढे़ सात एकड़ में फैला है। इसका सर्वोच्च शिखर १६० फीट ऊँचा है। इसके निर्माण में कई जगह का संगमरमर उपयोग में लाया गया है। मंदिर का बाहरी हिस्सा संगमरमर तथा लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है। मंदिर में तीन ओर दो मंजिला बरामदे हैं। इसके मूल भगवान् विष्णु यानी नारायण और उनकी पत्नी लक्ष्मी हैं। इसके अलावा शिव परिवार, सिद्धि विनायक गणेश, भगवान कृष्ण, पवनपुत्र हनुमान, देवी दुर्गा तथा भगवान बुद्ध भी स्थापित हैं। मूर्तियों की नक्काशी देखते ही बनती है। दीवारों पर रामायण तथा महाभारत की कथाएँ चित्रित हैं तथा गीता के उपदेश अंकित हैं। बाहरी दीवारों पर अनेक ऐतिहासिक एवं धार्मिक विभूतिया खूबसूरती से उकेरी गई हैं। मंदिर में इन सबका दर्शन करते हुए पीछे की ओर निकल जाते हैं, जहाँ पहाड़ी पर पेड़-पौधे, सुंदर बाग-बगीचों के बीच फव्वारे लगे हैं। यह बड़ा रमणीक स्थान है। यहीं पास में गीता भवन है। रामनवमी, दीपावली तथा कृष्ण जन्माष्टमी पर्व यहाँ विशेष रूप से मनाए जाते हैं, तब यहाँ पैर रखने को भी जगह नहीं होती। अब मैं आपको चाँदनी चौक लिये चलता हूँ।

शीशगंज गुरुद्वारा साहिब दिल्ली के ऐतिहासिक गुरुद्वारों में से एक है। यह पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने चाँदनी चौक में स्थित है। इसका इतिहास शहादतों से भरा हुआ है। इतिहास में उल्लेख है कि जब हिंदुओं पर औरंगजेब के अत्याचार ज्यादा बढ़ गए तो बहुत सारे कश्मीरी पंडित गुरु तेगबहादुरजी की शरण में आए और अपनी पीड़ा बयान की। उस समय गुरुजी के पुत्र गोविंद राय (बाद में गुरु गोबिंद सिंह) दस वर्ष के थे। सबकुछ देखते-सुनते हुए उन्होंने कहा, ‘‘पिताजी, इस समय के हालात किसी महान् व्यक्ति की शहादत माँग रहे हैं, और आज आपसे महान् कौन है, जो यह शहादत दे सके।’’ पुत्र की समझदारी भरी बातें सुनकर गुरुजी बडे़ खुश हुए। अपने पाँच शिष्यों के साथ वे सम्राट् औरंगजेब को समझाने के लिए दिल्ली आए। पर अत्याचारी औरंगजेब ने शिष्यों के साथ गुरुजी को गिरफ्तार कर कारागार में डाल दिया और उन्हें इसलाम धर्म कबूल करने के लिए कहा। अमानुषिक अत्याचारों के बाद भी गुरुजी अपना धर्म बदलने को राजी न हुए तो धर्मांध औरंगजेब ने ११ नवंबर, १६७५ को उन्हें मौत की सजा सुनाई। इसी जगह पर जल्लाद ने गुरुजी का शीश धड़ से अलग कर दिया।

उसी समय यहाँ स्थित कोतवाली में गुरुजी के वफादार शिष्यों भाई मतीदास, सतीदास, भाई दयाराम को भी मौत के घाट उतार दिया गया और किसी का भी मृत शरीर न उठाने का सख्त आदेश कर दिया। उसी रात जोरों की आँधी-बरसात आई, जैसे कुदरत का क्रोध फूट पड़ा हो। तब गुरुजी का एक शिष्य लखी शाह बनजारा अँधेरे में गुरुजी के शव को उठाकर ले गया। दूसरे शिष्य जैता ने गुरुजी का सिर उठा लिया और शीघ्र ही अपने घर में आग लगाकर गुरुजी का अंतिम संस्कार कर दिया, जहाँ आज का गुरुद्वारा रकाबगंज स्थित है। पिता की शहादत के बाद गोबिंदराय खालसा पंथ के दसवें और अंतिम गुरु बने। समय गुजरने के साथ सन् १७८३ में बघेल सिंह ने दिल्ली पर हमला कर शाह आलम द्वितीय को हरा दिया और दिल्ली के तख्त पर कब्जा कर लिया। तब राजा बघेल सिंह ने गुरुजी की याद में यहाँ गुरुद्वारा बनवाया और इसका नाम ‘गुरुद्वारा शीशगंज साहिब’ रखा गया।

लेकिन वर्तमान में जो यह भव्य भवन दिख रहा है, इसका निर्माण १९३० में हुआ। एकदम सामने विशाल और खुला हॉल है। बीचोबीच चमकदार पीतल का एक मंडप है, जिसमें पवित्र गुरुग्रंथ साहिबजी विराजमान हैं और एक सेवादार बड़े तन्मय होकर चँवर डुला रहे हैं। यहीं पर गुरुबानी का गान हो रहा है। यहाँ की शोभा देखते ही बनती है। यहाँ मैं अनेक बार दर्शन कर चुका हूँ। गुरुग्रंथ साहिब के सामने आते ही हाथ श्रद्धा से जुड़ जाते हैं और मस्तक नत हो जाता है। यहाँ असीम शांति तथा गहरी आध्यात्मिक अनुभूति होती है। इसी परिसर में अंदर की ओर, जिस वृक्ष के बीचे गुरुजी अपने कारावास के समय बैठते थे, उसका एक तना सुरक्षित रखा गया है; साथ ही कारावास में गुरुजी ने नहाने के लिए जिस कुएँ के जल का उपयोग किया, वह कुआँ भी इस गुरुद्वारे में आज भी है।

गुरुद्वारे के सामने ही भाई मतीदास, सतीदास चौक है, जहाँ गुरुद्वारा आनेवाले श्रद्धालु मत्था टेककर उनकी शहादत को नमन करते हैं। गुरुद्वारा शीशगंज सभी आधुनिक सुविधाओं से संपन्न है। बाहर से आनेवाले तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए इसमें २५० कमरे तथा २०० लॉकर उपलब्ध हैं। इसके ठीक सामने ही जहाँ एक सिनेमा हॉल हुआ करता था, उसे गुरुद्वारा समिति ने खरीदकर इसमें मल्टीस्टोरी भव्य इमारत का निर्माण कराया है। यह बहुत भीड़भाड़वाला क्षेत्र है, हजारों दर्शनार्थी यहाँ नित्य दर्शन करने आते हैं, सैकड़ों लोगों को नित्य लंगर में भोजन कराया जाता है। यहाँ पुनः मत्था टेक अब मैं इसी पंक्ति में दो-ढाई फर्लांग दूर गौरीशंकर मंदिर में दर्शन के लिए निकल रहा हूँ।

गौरीशंकर मंदिर शैव संप्रदाय के सबसे पुराने मंदिरों में गिना जाता है। इतना ही नहीं, गुनी-ग्यानी तो इसे पूरे ब्राह्मांड का केंद्र बताते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सन् १७६१ में एक मराठा सैनिक अप्पा गंगाधर ने कराया था। वह भगवान् शिव का परमभक्त था। यहीं पर एक युद्ध के दौरान वह बुरी तरह घायल हो गया और बचने की कोई आशा न रही, तब उसने अपने इष्ट भोलेनाथ से प्रार्थना की और स्वस्थ हो जाने के बाद उनका एक मंदिर बनवाने का प्रण किया। घाव इतने गहरे थे कि उसके बचने की कोई उम्मीद न थी; लेकिन भाग्य और भोलेनाथ की कृपा से वह पूर्ण स्वस्थ हो गया, तब उसने यहाँ (चाँदनी चौक) इस मंदिर का निर्माण कराया। आज भी इस मंदिर की छत के पिरामिड के निचले भाग में ‘अप्पा गंगाधर’ नाम खुदा हुआ है।

लंबे अंतराल के बाद, वर्तमान में मंदिर का जो वास्तु दिख रहा है, सन् १९५९ में इसका पुनर्निर्माण सेठ जयपुरा ने करवाया। मंदिर के पार्श्व में भगवान शिव, माता पार्वती, गौरी पुत्र गणेश और कार्त्तिक की भव्य मूर्तियाँ विराजमान हैं। हाँ, भगवान शिव और पार्वती की मूर्ति के ठीक सामने शिवलिंग शोभायमान है। जैसा कि शिव मंदिरों में विधान है, तिपाई पर रखे एक चाँदी के कलश से पवित्र जल शिवलिंग पर बूँद-बूँद सतत गिर रहा है। यहाँ अकसर भंडारे होते ही रहते हैं। यहाँ भी दंडवत् प्रणाम कर अब मैं इससे थोड़ा आगे और लालकिला के ठीक सामने दिगंबर जैन मंदिर में आ गया हूँ।

दिगंबर जैन मंदिर का वास्तु लाल पत्थरों का बना है, इसलिए इसे ‘लाल मंदिर’ भी कहते हैं। यह मंदिर जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को समर्पित है। हालाँकि यहाँ पर पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा भी स्थापित है। मुगल काल में मंदिरों के शिखर बनाने की इजाजत नहीं थी, अतः पहले इस मंदिर का कोई शिखर नहीं था, स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इस मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। इतिहास में उल्लिखित है कि बादशाह शाहजहाँ (१६२८-५८) ने जब दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और इसकी चहारदीवारी बनवाकर शाहजहाँनाबाद नाम से शहर आबाद किया, तब चाँदनी चौक बाजार को आबाद करने के लिए कुछ अगवाल-जैन व्यापारियों को व्यापार के लिए यहाँ आने का आह्वान किया। उसने चाँदनी चौक तथा दरीबाँ में उन्हें रहने का स्थान दिया। परंतु इससे पूर्व मुगल सेना में बलभद्र जैन नाम के एक अफसर थे। उन्होंने यहाँ स्थित मुगल छावनी में अपने टैंट के अंदर पूजा के लिए तीर्थंकर की एक मूर्ति रखकर छोटा सा मंदिर बना लिया था। सन् १६५६ में उसी स्थान पर एक जैन मंदिर का निर्माण हुआ, तब इसे ‘उर्दूमंदिर’ कहा जाता था, क्योंकि यह उर्दू बाजार इलाके में स्थित था। चूँकि यह मुगल छावनी इलाके में स्थापित किया गया था, तो इसे ‘लश्करी मंदिर’ भी कहा जाता था। पूजा के समय मंदिर में घंटा, घडि़याल, नगाड़ा आदि बजाकर अर्चना व आरती की जाती थी। जब औरंगजेब बादशाह बना तो उसने मंदिरों में किसी भी तरह के वाद्य आदि बजाने पर पाबंदी लगा दी। तब ऐसा चमत्कार देखा गया कि मुगल सेना के कुछ अफसर तथा सैनिक रोजाना मंदिर से आती नगाड़े की आवाज सुनते। अंततः यह समाचार जब औरंगजेब तक पहुँचा तो वह भी यह चमत्कार देखने के लिए मंदिर पर आया और उसने भी नगाडे़ की आवाज सुनी। तब उसने अपना वह आदेश वापस ले लिया।

मंदिर परिसर में ठीक सामने गर्वोन्नत कलात्मक और नक्काशीदार ‘मान स्तंभ’ खड़ा है। मंदिर के खंभे तथा बरामदे की नक्काशीदार जालियाँ शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं। प्रथम तल पर सामने ही २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर की प्रतिमा शोभायमान है। यहीं पर पहले तीर्थंकर ऋषभदेव, साथ ही पारसनाथजी की मूर्तियाँ विराजमान हैं। सन् १९३१ में यहाँ एक दिगंबर संत आचार्य शांति सागरजी महाराज पधारे थे। यहाँ आकर असीम शांति की गहन अनुभूति हो रही है। अन्य मंदिरों की तरह यहाँ भी चमडे़ का सामान अंदर नहीं ले जा सकते। इस मंदिर परिसर में ही बहुत प्रसिद्ध पक्षियों का एक अस्पताल भी है। अस्तपाल की इस इमारत का निर्माण सन् १९५७ में आचार्य देशभूषण महाराज की देखरेख में हुआ, परंतु पक्षी अस्पताल तो १९३० में ही शुरू हो गया था। विगत ६० वर्षों में यहाँ १५ हजार पक्षियों का इलाज किया जा चुका है। मंदिर के अंदर ही जैन पुस्तकालय में विपुल जैन धर्म साहित्य उपलब्ध है। हालाँकि बाहर सड़क पर भारी चिल्ल-पों मची रहती है, पर मंदिर के अंदर बडे़ आनंद और सुकून की अनुभूति होती है। अब मैं मरघटवाले हनुमान बाबाजी के मंदिर की ओर निकल रहा हूँ।

मरघटवाले हनुमानजी का मंदिर रिंग रोड पर, निगम बोध घाट के सामने यमुना के किनारे स्थित है। चूँकि यहाँ यमुना बाजार पास ही स्थित है, इसलिए इसे ‘यमुना बाजार हनुमान मंदिर’ भी कहा जाता है। कश्मीरी गेट अंतरराज्यीय बस अड्डा तथा पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन भी पास ही हैं। यह हनुमान मंदिर भी उन पाँच मंदिरों में से एक है, जो इंद्रप्रस्थ नगरी में पांडवों ने बनवाए थे। इस मंदिर के बारे में बताया जाता है कि लंका में राम-रावण युद्ध के दौरान लक्ष्मणजी मूर्च्छित हो गए। उनकी मूर्च्छा दूर करने के लिए हनुमानजी जब संजीवनी बूटी लेकर लौट रहे थे, तब उन्होंने इस स्थान पर रुककर थोड़ा विश्राम किया। उस समय यमुना के किनारे यहाँ श्मशान में मुरदों का अंत्येष्टि संस्कार होता था। जब हनुमानजी यहाँ पहुँचे तो इधर चारों ओर फैली बुरी आत्माएँ भाग खड़ी हुईं। हनुमानजी शुद्ध हृदय, विघ्न विनाशक, भूत-पिशाचों को भगानेवाले तथा भगवान के भक्त ठहरे, सो यह स्थान पवित्र एवं कल्याणकारी बन गया।

इस घटना के कुछ समय बाद पत्थर की एक छवि (पिंडी) जमीन में से उभर आई, इसीलिए कहा जाता है कि मरघटवाले हनुमानजी की प्रतिमा स्वयंभू है, यानी मरघटवाले हनुमान बाबा यहाँ स्वयं प्रकट हुए। यमुना भी अब यहाँ से काफी दूर चली गई है और इसके किनारेवाले श्मशान को आज ‘निगम बोध घाट’ कहा जाता है, जहाँ चिताओं की आग कभी बुझती नहीं है। मैं देख रहा हूँ कि मूर्ति मंदिर में जमीन से सात-आठ फीट नीचे है। आज भी यहाँ एक चमत्कार देखा जाता है कि यमुना नदी में जब पानी चढ़ता है, तब मंदिर में अपने आप पानी आ जाता है और बाबा की मूर्ति कंधे तक यमुना जल में डूब जाती है और जैसे-जैसे यमुना का पानी उतरता है, वैसे-वैसे मंदिर का पानी भी उतर जाता है। कहा जाता है कि वर्ष में कम-से-कम एक बार यमुनाजी हनुमानजी का दर्शन-स्पर्श करने आती हैं। बाबा की मूर्ति को देखकर लगता भी है कि उनके दाहिने हाथ में संजीवनी पर्वत है और बाएँ से जैसे वे जमीन को छू रहे हैं।

यहाँ मरघटवाले बाबा की मूर्ति में एक अनोखा तथा विस्मित कर देनेवाला तेज है। इनके स्मरण मात्र से भक्तों को ब्रह्मचर्य व्रत पालन, चरित्रवान्, बल-बुद्धि विकास का एहसास होता है। बाबा की मूर्ति के चहुँ ओर ऐसा तेजोवलय है कि इनके आगे विनत होते ही सात्त्विक भावनाएँ उमड़ने लगती हैं। मूर्ति से नजर हटती ही नहीं, मन इनके आकर्षण में ऐसा बँध जाता है कि बस बाबा को अपलक देखते ही रहें, इस आनंद को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, बस महसूस किया जा सकता है। सुबह-शाम मंदिर ‘मरघटवाले बाबा की जय’ के नारों से गुंजायमान रहता है। मंगलवार-शनिवार को यहाँ भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। कई-कई घंटे में बाबा के दर्शन हो पाते हैं। हनुमान जयंती का पर्व यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, इस दिन यहाँ झाँकियाँ भी निकाली जाती हैं। इस अवसर पर मंदिर भक्तों के लिए प्रातः से रात्रि तक खुला रहता है। मंदिर के पीछे के भाग में एक उद्यान है, जिसे ‘हनुमान वाटिका’ के नाम से जाना जाता है। दिल्ली में इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। अब मैं आपको छतरपुर स्थित कात्यायनी शक्तिपीठ में माता के दर्शनार्थ लिये चलता हूँ।

कात्यायनी शक्तिपीठ को छतरपुर मंदिर भी कहा जाता है। अक्षरधाम मंदिर बनने से पहले इसे दिल्ली का सबसे बड़ा मंदिर होने का गौरव प्राप्त था। मंदिर का पूरा परिसर लगभग ७० एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। इसे मंदिर न कहकर मंदिरों की शृंखला कहना ज्यादा ठीक रहेगा, क्योंकि यह मंदिर तीन भागों में बँटा हुआ है और छोटे-बडे़ आकार के इसमें बीस मंदिर सम्मिलित हैं। जहाँ आज यह मंदिर है, वहाँ पहले प्रसिद्ध संत बाबा नागपाल की कुटिया हुआ करती थी। वे यहाँ कर्नाटक से आए थे। माता कात्यायनी को समर्पित यह मंदिर बाबा नागपाल ने सन् १९७४ में बनवाना शुरू किया। यह मंदिर भारत की प्राचीन संस्कृति तथा वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। बाबा नागपाल की मृत्यु तो सन् १९९८ में ही हो गई, पर मंदिर का निर्माण कार्य निरंतर चलता रहा।

माता कात्यायनी माँ दुर्गा का ही एक रूप हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में कात्यायन नाम के एक ऋषि थे। एक बार ऋषि ने माता दुर्गा की घोर तपस्या की। ऋषि की एकनिष्ठ तपस्या से माँ दुर्गा प्रसन्न हुईं और ऋषि को दर्शन देकर वरदान माँगने के लिए कहा। ऋषि ने साष्टांग हो और तनिक सकुचाते हुए कहा कि ‘माता, मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप मेरे घर में मेरी पुत्र बनकर जन्म लें। मैं आपका पिता बनने का गौरव प्राप्त करना चाहता हूँ।’ माता ने तथास्तु कहा। समय आने पर आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को माता ने ऋषि कात्यायन की पुत्री के रूप में जन्म लिया। कात्यायन के घर में जन्म लेने के कारण माँ का यह अवतार ‘कात्यायनी देवी’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। दशमी के दिन माता ने महिषासुर का वध करके भक्तों को उसके आतंक से मुक्त किया।

कात्यायनी शक्तिपीठ परिसर में दिखाई दे रहे सभी मंदिर संगमरमर से बनाए गए हैं। मंदिर में सब जगह जाली का काम है, जिसे ‘वेसारा वास्तुकला’ कहा जाता है। देवी कात्यायनी की मूर्ति एक बडे़ भवन (हॉल) में स्थापित है। इस भवन में प्रार्थना हॉल से भी प्रवेश कर सकते हैं। सोने के मुलम्मे से बनी माता की मूर्ति अपने रौद्र स्वरूप में है, जिनके एक हाथ में चंड-मुंड का सिर तथा दूसरे में खड्ग लिये हैं। आकर्षक पोशाक, अलंकरणों तथा सुंदर विशेष फूलों से सजी माता भक्तों के सब दुःख हरनेवाली प्रतीत हो रही हैं। श्रद्धालु माता को अपलक निहारते रह जाते हैं। आँखें बंद होकर श्रद्धा से हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं। सच में बड़ा अलौकिक दृश्य है। माँ के मुख से असीम करुणा बरस रही है। यहाँ आकर व्यक्ति सब दुनियादारी भूल जाता है। यहाँ पर असीम शांति और प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसे शब्दों में बता पाना संभव नहीं है। गूँगे का गुड़ जो है।

माता का शृंगार हर रोज अलग-अलग रूपों में होता है। शृंगार के लिए खास तरह के फूल दक्षिण भारत से मँगवाए जाते हैं। शृंगार प्रातः तीन बजे प्रारंभ हो जाता है। माता के दरबार के निकट ही बाबा नागपाल का चमत्कारी कक्ष है, जहाँ पर उनकी समाधि की नित्य पूजा की जाती है। बाबाजी के कमरे में उनकी मोम की बनी मूर्ति स्थापित है, जो एकदम वास्तविक लगती है। बराबर के एक कमरे में चाँदी की बनी कुरसियाँ तथा मेज है; दूसरे कमरे में शयनकक्ष है, जिसमें चाँदी की नक्काशीदार शानदार टेबल, बिस्तर तथा ड्रेसिंग टेबल है। मंदिरों की इस शृंखला में शिव मंदिर, माँ कात्यायनी मंदिर, माँ महिषासुरमर्दिनी मंदिर, माँ अष्टभुजी मंदिर, झर्पीर मंदिर, मार्कंडेय मंदिर, बाबा की समाधि, नागेश्वर मंदिर तथा त्रिशूल तो है ही, सबसे आकर्षण की केंद्र है—१०१ फीट ऊँची भव्य हनुमानजी की मूर्ति। माता दुर्गा के नौ रूपों के बीच दिव्य शिवलिंग भी स्थापित है। मंदिर परिसर में कई सुंदर बाग, घास के उद्यान मंदिर को चार चाँद लगा रहे हैं।

इस मंदिर की खास बात यह है कि इस परिसर में कोई एक बार प्रवेश कर ले, तो फिर वह मंदिर में चारों ओर ही घूमता रह जाता है, मालूम ही नहीं पड़ता कि मंदिर की शुरुआत कहाँ से और कहाँ पर मंदिर से बाहर निकलना है। क्योंकि मंदिरों को इस तरीके से बनाया गया है कि किसी भी दिशा में जाने पर मंदिर का अंतिम छोर नजर नहीं आता है। मंदिर की दूसरी विशेषता है, प्रवेश द्वार पर चहुँ ओर अपनी भुजाएँ फैलाए खड़ा विशाल वृक्ष। भक्तों की ऐसी आस्था बन गई है कि इस वृक्ष पर धागा या चूडि़याँ बाँधने से मनोकामना पूर्ण होती है, सो यहाँ असंख्य धागे और चूडि़याँ बँधी नजर आती हैं। यहीं पर एक भेंटपात्र भी रखा हुआ है। नवरात्रों में यहाँ भक्तों की इतनी भीड़ आती है कि इन सबको नियंत्रित करने के लिए सर्पाकार लंबी-लंबी कतारों में आगे बढ़ाया जाता है। मंदिर के पूरे परिसर में गंदगी का नामोनिशान नहीं है। दाईं ओर एक विशाल इमारत में नित्य भंडारा चलता है। बडे़ हॉल में सैकड़ों लोग बैठकर एक साथ भोजन करते हैं। नवरात्रों में तो यह संख्या लाखों में पहुँच जाती है। वैसे तो हर रोज यहाँ दर्शकों का आना-जाना लगा रहता है; परंतु नवरात्रों में मंदिर की शोभा तथा दर्शकों की भीड़ देखते ही बनती है। मंदिर इतना विशाल है कि इसे चार-छह पृष्ठों में लिखे बिना न्याय नहीं हो सकता। माता के दर पर पुनः-पुनः मत्था टेक अब मैं आपको अक्षरधाम मंदिर लिये चलता हूँ।

अक्षरधाम मंदिर दिल्ली में यमुना के किनारे एक अनोखा सांस्कृतिक तीर्थ है। यह मंदिर ज्योतिर्धर भगवान स्वमीनारायण को समर्पित है। इसे भारत ही नहीं, दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मंदिर होने का गौरव प्राप्त है। इस नाते यह मंदिर २६ दिसंबर, २००७ में गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज हो चुका है। सन् २००५ में इस मंदिर का निर्माण श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था के पूज्य प्रमुख स्वामी महाराज ने करवाया। पूज्य स्वामीजी ने १९७१ से २००७ तक दुनिया के पाँच महाद्वीपों में ७१३ मंदिरों का निर्माण कराया। दुनिया में सर्वाधिक हिंदू मंदिर बनवाने का पुरस्कार भी इस मंदिर संस्था को प्राप्त है। यह मंदिर १०० एकड़, अर्थात् ८६३४२ वर्ग फीट परिसर में फैला है। यह ३५६ फीट लंबा, ३१६ फीट चौड़ा तथा १४१ फीट ऊँचा है। इसमें बनाए गए १० द्वार दस दिशाओं के प्रतीक हैं। ग्यारह हजार से ज्यादा कारीगरों ने पाँच वर्ष तक अपनी दिन-रात की मेहनत से इसे यह रूप दिया। मंदिर में कुल मिलाकर २८७० सीढि़याँ हैं। पूरे मंदिर को पाँच मुख्य भागों में विभाजित किया गया है।

इस विशालकाय मंदिर में २३४ अद्भुत नक्काशीदार खंभे, नौ अलंकृत गुंबद, बीस शिखर तो हैं ही, बीस हजार विभिन्न मूर्तियाँ भी हैं, जिनमें प्राचीन ऋषि-संतों की प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं। मंदिर का वास्तु गुलाबी, सफेद संगमरमर तथा बलुआ पत्थरों के संयोजन से बना है। इस मंदिर निर्माण की सबसे अद्भुत विशेषता है कि इसमें स्टील, लोहे और कंक्रीट का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया गया है। परंपरागत भारतीय शैली में बनाया गया ‘भक्ति द्वार’ भक्ति एवं उपासना के २०८ स्वरूपों को दिग्दर्शित करता है। ‘मयूर द्वार’ में परस्पर जुडे़ हुए नृत्यरत ८६९ भव्य मयूर तोरण एवं कलामंडित स्तंभों पर दर्शित हैं। यह अपने आप में शिल्पकला की द्वितीयोनास्ति कृति है। ‘सहजानंद शो’ यानी वाटर शो में सायंकाल को जीव के जन्म-मृत्यु के चक्र को बड़ी सरलता एवं सहज ढंग से समझाया जाता है। २४ मिनट के इस शो में केनोपनिषद् से चुनी गई कहानियाँ प्रदर्शित होती हैं, जिसमें रंग-बिरंगी किरणें, पानी के नीचे की लपटें, प्रकाशित पानी की तेज धारें आदि सब आकर्षक होते हैं।

इसी में ‘नीलकंठ यात्रा’ के तहत छह से अधिक कहानियों पर बनी फिल्म दिखाई जाती है। ‘संस्कृति विहार’ के अंतर्गत नाव में सवार होकर बारह मिनट में भारतीय संस्कृति की वैभवशाली-गौरवशाली विरासत की दस हजार वर्षों की यात्रा बडे़ अलौकिक ढंग से दिखाई-समझाई जाती है, जिसमें वैदिक काल से लेकर तक्षशिला तक एवं प्राचीन खोजों के युग आदि का आह्लादकारी एवं मन को गौरवान्वित करनेवाला अनुभव होता है। ‘भारत उपवन’ के अंतर्गत पीतल की सुंदर मूर्तियों के साथ करीने से सजाए गए नयनाभिराम बगीचे तथा घास के मैदान इस पूरे परिसर को आकर्षित व आनंदित बनाते हैं। ‘अभिषेक मंडप’ में नीलकंठ वर्णी मूर्ति का जलाभिषेक किया जाता है, जिसमें भजन व प्रार्थनाएँ होती हैं। दर्शनार्थी भी मूर्ति का जलाभिषेक कर सकते हैं।

मंदिर को भली प्रकार देखने-समझने में छह-सात घंटे लगते हैं। सोमवार को मंदिर बंद रहता है। मंदिर में प्रवेश निशुल्क है, परंतु अंदर दिखाए जानेवाले शोज का टिकट लगता है। हाँ, इन शोज को देखे बिना यह यात्रा अधूरी और फीकी ही रहती है। मंदिर में मोबाइल आदि लेकर अंदर नहीं जा सकते। मंदिर दर्शन करने पर आध्यात्मिक के साथ-साथ एक अविस्मरणीय सांस्कृतिक यात्रा भी हो जाती है। वैसे तो इस मंदिर की विशालता एवं भव्यता एक अलग लेख की माँग करती है, स्थानाभाव के कारण इस यात्रा को बेहद संक्षेप में बताया गया है। दिल्ली आगमन हो तो इस मंदिर के दर्शन करना न भूलें।

दिल्ली के तीर्थ-दर्शन करते हुए मुझे तो आह्लादकारी गौरव-बोध हुआ। आप यह न समझ लें कि दिल्ली में इतने ही तीर्थ-स्थल हैं। इनके अलावा और भी बेहद दर्शनीय तीर्थस्थल यहाँ हैं।

जी-३२६, अध्यापक नगर,
नांगलोई, दिल्ली-११००४१
दूरभाष : ९८६८५२५७४१
प्रेमपाल शर्मा

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