घर-घर दंगल

घर-घर दंगल

हमें अपनी अज्ञानता पर गर्व है। वह तो भला हो हमारे बेटे का, जिन्होंने हमें गूगल ज्ञान के मार्फत बताया कि कुश्ती या ‘रैसलिंग’ का जन्म भारत में नहीं हुआ है। वरना हमें विश्वास था कि कुश्ती की शुरुआत देशी है। यह पुरातन खेल है, जिसका इतिहास पंद्रह साल पहले की ‘केव पेंटिंग्स’ में समाहित है। कोई जैकब नामक पहलवान भगवान से भी कुश्ती में भिड़ लिये थे। यों होमर से लेकर रामायण, महाभारत तक कुश्ती का जिक्र है। ऐसे हमारी लोककथाओं में भगवान से किसी पहलवान की भिड़ंत का विवरण तो नहीं है। हो तो कैसे हो? भगवान अदृश्य जो ठहरे। पर भीम द्वारा जरासंघ को कुश्ती में हराने का संदर्भ महाभारत में जरूर उपलब्ध है। भीम अपने समय के जाने-माने मल्ल थे। हमें तो अब भी लगता है कि महाभारत के युद्ध का कोई औचित्य नहीं है। भीम और दुर्योधन की कुश्ती करवा देते। जो जीतता, वही इंद्रप्रस्थ पर राज करता। जहाँ तक कृष्ण की गीता का प्रश्न है, वह दंगल के रैफरी होते और वहीं गीता का ज्ञान दे सकते थे।

यों तो पारंपरिक दंगल के स्थान पर फ्री स्टाइल कुश्ती १९०४ से ओलंपिक की शोभा है। भारतीय पहलवानों ने वहाँ बाद में मेडल जीतकर देश में दंगल की लोकप्रियता में खासी अभिवृद्धि दर्ज की है। पहले सीमित अखाड़े और उतने ही कुश्ती के गुरु होते। अब घर-घर में अखाड़ा है, कुश्ती है, दंगल है। यों घर के सदस्य इस तथ्य को नकारते हैं। फिर जैसे पड़ोसी का राज वह उगलते हैं, पड़ोसी भी उनकी दंगल प्रवृत्ति की सार्वजनिक घोषणा करता है, ‘‘हालाँकि किसी गुरु का शिष्य नहीं है, पर दंगल में उसका जोड़ नहीं है। कल ही स्कूटर वाले से बिना बात किराए के मीटर को लेकर भिड़ लिया। उसकी शिकायत थी कि मीटर तेज चलता है। वह तो गनीमत रही कि लोगों ने बीच-बचाव करके मारपीट की नौबत बचा दी। नहीं तो शर्तिया पुलिस केस बनता!’’

उनके घर में अकसर हलचल मची ही रहती है। लगता है कि पति-पत्नी की कुंडली में शर्तिया ‘मांगलिक’ ग्रह खूब मिलते हैं। किसी पंडित ने इन्हें ‘मांगलिक’ समझकर मिला दिया। शादी करवाने के चक्कर में पैसे बनाए होंगे पंडित ने। वह भी अपने अधकचरे ज्ञान का, कमाने को, बखूबी प्रयोग करते हैं। लिहाजा, घर में पति के दफ्तर जाने के पहले और लौटने के बाद खूब झाँय-झाँय मची रहती है। इसे अपवाद ही कहेंगे कि घर में कभी अमन-चैन का माहौल हो। पड़ोसी का आकलन है कि इस गृहयुद्ध में न पुलिस कुछ कर सकती है न फौज। उलटे उनके अनवरत संघर्ष को वह भी देखें तो पलायन करने में ही अपनी खैर जानें। क्या पता, वह भी इसी संघर्ष की टोल के हों?

यों तो पारंपरिक काल और गृहयुद्ध में एक ही अंतर है। एक में शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन है, दूसरे में ताकतवर फेफड़े की क्षमता का। कोई सामान्य इसान इतना चिल्लाए तो वह खाँसना-कराहना शुरू कर दे। वाक्-युद्ध में दोनों आसमान उठाए रहते हैं। जैसे उनके गले में लाउड-स्पीकर ‘फिट’ है। वह यह भूलते हैं कि उनकी चीख-चिल्लाहट मोहल्ले की शांति की शत्रु है। उनके लिए आपसी रार का शोर उतना ही सामान्य है, जितना सुबह उठकर आदतन चाय पीना। इसे हम शाब्दिक हिंसा की उपलब्धि मानते हैं कि चीख-चिल्लाहट ही उतनी प्रबल हो कि मारपीट की जरूरत ही नहीं पड़े। एक की बात दूसरे को इतनी खले कि जवाब देने में यदि वह डैंचरधारी है तो उसका करीने से सजा डैंचर ही उसके हाथ में आ जाए। पर यह भी सच है कि शाब्दिक हिंसा का उत्तर नहीं सूझता तो कमजोर पक्ष हाथापाई पर उतर आता है। यह हाथापाई कभी कभी अस्पताल के जरिए पुलिस की केस डायरी की वारदात तक बन जाती है।

ऐसा हमारे देखते-देखते मोहल्ले में ही श्री और श्रीमती शर्मा के साथ हुआ। दोनों का वाक्-युद्ध पूरे मोहल्ले की चर्चा का विषय था। एक बार नाश्ते पर संघर्ष प्रारंभ हुआ। हर मोहल्ले में कुछ ‘खुफिया’ ऐसे हैं, जो हर घर की खबर रखते हैं। उनमें से एक ने सूचित किया कि शर्माजी की चाँद सफाचट हो चुकी है और उसको ढकने के लिए वह बालोंवाली टोपी प्रयुक्त कर दूसरों को भ्रम में रखे हैं। हुआ यह कि शाम को श्रीमती शर्मा ने जुबान तीर चलाकर शर्माजी को निरुत्तर किया था। रात के भोजन तक सब सामान्य हो चुका था, पर श्रीमती शर्मा याददाश्त में पक्की हैं। उन्होंने शाम की जीत के बाद भी शर्माजी को क्षमादान नहीं दिया था। टोपी उतारकर शर्माजी उसे अपने ही पास रखते थे कि यदि कोई आपात-स्थिति आए तो वह सफाचट सिर के स्थान पर बालदार नजर आएँ। श्रीमती शर्मा ने अपनी खुन्नस में उनकी टोपी छिपा दी। सुबह-सुबह टोपी को नियत स्थान पर न पाकर शर्माजी झल्लाए, पर उन्होंने सोचा कि चाय पीकर आराम से उसकी खोज की जाएगी। उन्होंने अपनी समझ से हर संभव स्थान पर, यानी बिस्तर पर, उसके नीचे तथा आसपास टोपी की तलाश की। पर वहाँ होती तो मिलती, वह तो उनके कपड़ों की अलमारी में किसी ने जान-बूझकर छिपा दी थी। उन्होंने दफ्तर की तैयारी में श्रीमती शर्मा से गुमशुदा टोपी का जिक्र किया यह कहते कि ‘बिना विग’ वह दफ्तर कैसे जाएँगे? श्रीमती शर्मा ने चुप्पी साध ली और ऐसे बैठी रहीं, जैसे उन्हें टोपी और उसके खोने से कुछ लेना-देना नहीं है। इधर शर्माजी मन-ही-मन चिंताग्रस्त थे कि दफ्तर जाने का ही नहीं, उनकी सामाजिक छवि का भी सवाल है।

छुट्टी बचाने वह दफ्तर चले भी जाते, यदि वहाँ आशा न होती। आशा उनकी महिला-मित्र है। वह भी शादीशुदा है, शर्माजी के समान। दोनों अपनी वैवाहिक स्थिति का रोना रोकर कैंटीन में हिल-मिल के लंच ही नहीं खाते, साथ-साथ इंडिया गेट तक टहलते भी पाए गए हैं। पत्नी की चुप्पी से शर्माजी का शक गहरा गया कि टोपी-वारदात में श्रीमती शर्मा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कौन कहे, उन्हीं ने कहीं गायब कर दी हो? उन्होंने दबी जुबान अपनी पत्नी से प्रार्थना की कि टोपी खोजने में उनकी मदद करें। श्रीमती शर्मा उनका नाश्ता और लंच बनाने में बिना किसी उत्तर के लगी रहीं।

एक तो दफ्तर न जाने से आशा से भेंट न होने का दुःख, दूसरे असली सिर दिखा तो जग-हँसाई का भय। उन्हें धीरे-धीरे गुस्सा आने लगा, अपनी स्थिति पर। नाश्ता करते-करते उन्होंने फिर श्रीमती शर्मा पर सीधा आरोप लगाया, ‘‘घर में हमीं दोनों हैं। या तो तुमने छिपाई है टोपी या फिर हमने कहीं फेंक दी है। हमने ऐसा कुछ नहीं किया है, इसलिए शक की सुई तुम्हारी ही तरफ घूमती है। अब भी बता दो, प्लीज, टोपी कहाँ है?’’

श्रीमती शर्मा बुत बनी बैठी रहीं। यकायक शर्माजी अपने आपे के बाहर हो गए। पहले उन्होंने हाथ का कप फर्श पर पटका, फिर उठकर श्रीमती शर्मा का गला पकड़ा। वह भी इस अनपेक्षित आक्रमण से धराशायी हो गई। उनका चश्मा भी आँख से उतरकर गिरा। पर टूटा नहीं। कई चश्मे इनसान के समान बेशर्म भी होते हैं। ‘‘कहीं टोपी तुमने कपड़ों की अलमारी में तो नहीं रख दी।’’ उनका बोल फूटा।

सीधा गिरने से उनका सिर फर्श से टकराया था। उसमें खून झलक रहा था। शर्माजी ने अपनी टोपी पहनी, फिर पत्नी की चोट का निरीक्षण किया। खून देखकर वह कुछ सकपकाए। कहीं यह बवाली महिला चल न बसे? वह डरे कि उन पर गैर-इरादतन हत्या का आरोप न लगे। उन्होंने तुरंत टैक्सी बुलाई और श्रीमती के साथ अस्पताल रवाना हुए। वहाँ डॉक्टर ने थाने को फोन कर पुलिस बुलवाई, क्योंकि शर्माजी सिर के खून की वजह बताने की जगह हकलाने लगे। पत्नी की मरहम-पट्टी करवाकर उसे उन्होंने घर रवाना किया और वह थाने हाजिर हुए।

तब से वह रोज थाने जाते हैं। हर बार थानेदार साहब की वसूली के शिकार होते हैं। पत्नी से मिन्नत-माफी माँगकर उन्होंने यह बयान भी दर्ज करवा दिया है कि ‘‘वह यकायक चक्कर खाकर गिर पड़ी थीं। शर्माजी ने तो उनकी जान बचाई।’’ तब से शर्माजी घर और थाने, दोनों में, जबरन वसूली का कार्यक्रम चालू है। उधर थानेदार केस नहीं बंद कर रहा है, इधर पत्नी रोज नई फरमाइश कर उनकी जेब पर डाका डालने पर उतारू है। कई बार वह आशा के सामने इस शोषण का रोना रो चुके हैं। वह भी उनसे हमदर्दी जताने में पीछे नहीं है। इस त्रासदी से, अब दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर पीड़ा को कम करने के प्रयास में जुटे हैं। फिलहाल प्रेम की पेंगें बढ़ाने के लिए सुरक्षित स्थान की तलाश जारी है।

इधर पारिवारिक दंगल एक आम दुर्घटना है, जैसे लोग लाल बत्ती के बावजूद निकल लें। देखने में आया है, निष्ठावान पुत्र वह तभी तक है जब तक माता-पिता पर उसकी आर्थिक निर्भरता है। एक बार नौकरी लगी और पिता-माता समय के साथ सेवा-निवृत्त हुए, तब से व्यवहार बदलता है। अब भी कुछ गनीमत है। बूढ़े ने इतना पैसा कमाया है। सब बैंक में जमा है। ‘आना तो उसी के पास है’, सोचकर थोड़ा-बहुत लिहाज है। दो फ्लैट भी हैं। एक में बूढ़े-बुढि़या खुद रहते हैं, दूसरे का किराया आता है। बेटा भी अपनी पत्नी के साथ माँ-बाप के यहाँ रहकर किराया बचा रहा है। आयु के बढ़ते माता-पिता कुछ बीमार रहने लगे हैं। वह मन-ही-मन बुजुर्गवार को कोसता है। वक्त-बेवक्त उन्हें अस्पताल ढोता है। उस श्रवणकुमार के मन में कभी-कभी यह खयाल भी आता है कि बूढ़ा इतना सता रहा है, कंबख्त टैं क्यों नहीं बोलता है? यों न माँ ने, न पिता ने उससे अपनी वसीयत की चर्चा की है, पर वह आश्वस्त है। दो बहनों का विवाह हो चुका है। एकमात्र वारिस वे है जब से उसकी बहनों को पिता की बीमारी की खबर लगी है, वे भी अकसर फोन करती रहती हैं और कभी-कभार टपक भी पड़ती हैं। आते वक्त उनका खूब स्वागत होता है और जाते वक्त रो-धोकर विदाई। एक बहन के दो पुत्र हैं, दूसरी के एक बेटा और एक बेटी। दोनों का ‘हम दो, हमारे दो’ का आदर्श परिवार है। नाना-नानी को इनसे बेहद लगाव है।

एक वकील पिता के बचपन के साथी हैं। वसीयत उन्हीं ने बनाई है। आधुनिक श्रवणकुमार ‘चाचा’ से मिलते रहते हैं, पर वसीयत का जिक्र नहीं होता है। अचानक एक दिन पिता को दिल का दौरा पड़ता है और उनका प्राणांत हो जाता है। समाचार की त्रासद गाज गिरते ही घर के बेटी-दामाद पहली फ्लाइट पकड़कर पधारते हैं। स्थानीय रिश्तेदारों का ताँता तो लगना-ही-लगना है। वकील साहब एक प्रकार से घर के सदस्य जैसे हैं। उनका आना-जाना तो होता ही होता है। घर की दोनों बेटियाँ रुक जाती हैं, माँ को साथ और सांत्वना देने के लिए।

उनके पति तेरहवीं तक, फिर आने के लिए, अपने-अपने शहर लौटते हैं। सब अपनी-अपनी व्यस्तताओं में गुम हैं। जब खून के रिश्ते तक लोभ और लालच पर निर्भर हैं तो बाद के बने संबंध कैसे सगे हों? पति की मृत्यु के बाद का सारा खर्चा पत्नी के जिम्मे है। श्रवणकुमार ने तेरहवीं का सारा प्रबंध अपने परिचित ‘केटरर’ को सौंप दिया है, इस निर्देश के साथ कि बिल वह बीस परसेंट बढ़ाकर दे और अतिरिक्त राशि उसे सौंप दी जाए। भुगतान करने को तो माँ है ही। खर्चे के अनुमान से श्रवणकुमार की बहनों का माथा ठनकता है। उनकी माँ को कहीं लूटा तो नहीं जा रहा है? वह अपने भरोसेमंद भाई के केटरर की ज्यादती को बताती हैं। वह आश्वस्त करता है कि कीमत गुणवत्ता के कारण है। पिता के श्राद्ध में क्यों कंजूसी हो?

तेरहवीं के बाद वकील चाचा, परिवार को एकत्र कर, वसीयत को सार्वजनिक करते हैं। बैंक का जितना जमा या फिक्स डिपोजिट है, उसके चार हिस्से होंगे। एक बेटे को और बाकी दो बहनों और उनकी माँ को। फ्लैट का किराया यथावत् माँ के पास आता रहेगा और आवासीय पलैट भी उन्हीं के नाम रहेगा। श्रवणकुमार वसीयत से स्तब्ध हैं। बूढ़ा जाते-जाते चोट कर गया। उसकी बहनों को आभास रहा होगा, तभी बार-बार फेरे करती थीं बीमारी के दौरान। इतनी सेवा के बाद उसे क्या मिला—न फ्लैट की मिल्कियत, न किराए की। आमदनी है तो उसकी माँ की। जो कदम उठा सकता था क्रोध में, वह उसने उठाए। बहनों से अन-बोलाचाली हो गई, जीजाओं से चिढ़। गुस्सा तो माँ पर भी आया। इस प्रकार की वसीयत का विचार उन्हीं का रहा होगा या फिर उन्होंने पति की हाँ में हाँ मिलाई होगी। यह भी सच है कि पिता को अपनी बेटियों से बेहद स्नेह था। फिर भी, माँ इन्हें नाइनसाफी की वसीयत से रोकने में पूरी तरह सक्षम थी, पर चुप रहीं। यह दंगल तो बिना हो-हल्ला और हिंसा के संपन्न हो गया, पर कुछ पारिवारिक दंगलों में मार-पीट भी हो जाती है। संयुक्त परिवारों के विघटन के बाद क्या अब परिवारों की बारी है? कौन कहे, धीरे-धीरे ‘हम दो, हमारे दो’ में यह प्रदूषण फैले? फिलहाल यह एक अपवाद है, पर कब तक? कुछ ज्ञानियों की मान्यता है कि समय के साथ मनुष्य-निर्मित मूल्य भी बदलते हैं। वह आशावादी हैं। उनकी मान्यता है कि उन्नीसवीं सदी के जीवन-मूल्यों में इक्कसीवीं सदी में कुछ-न-कुछ बदलाव तो होना ही होना। समय न जाने कितने परिवर्तनों का मूक साक्षी है, हम दंगल-युग के मुखर। पर उसका अंत भी वक्त के साथ निश्चित है। आजकल तो परिवारों में फ्री स्टाइल कुश्ती है। न पिता को पुत्र बख्शते हैं, न भाई को भाई। कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र इकाई के समान जीवन बमुश्किल ही बिता पाता है। किसी-न-किसी पर निर्भरता एक आयु के बाद अनिवार्य है। इसीलिए संबंधों की होने और निभाने की रवायत है। माँ-बाप ही पाल-पोस के बच्चों को बड़ा करते हैं। खून के रिश्तों का सहारा स्वाभाविक है। युवा सोच में क्या यह प्रौढ़ता आएगी? विद्वानों को भरोसा है कि ऐसा होकर रहेगा।

किसी ‘क्राइसिस’ या क्रांति के दौरान उलट-फेर और अराजकता होनी ही होनी है। पर उसके बाद अमन-चैन भी लौटना है। यही रिश्तों के साथ है। संबंध आज परिवर्तन के चक्रव्यूह में फँसे हैं। उसकी पेचीदगी से दो-दो हाथ कर कभी-न-कभी निकलेंगे और फिर अधिक प्रभावी और टिकाऊ होंगे। कौन कहे, फिर रिश्तों का मंगल-युग भी आकर रहे? पर वर्तमान की बात करें तो दंगल ही दगल है परिवारों में। यही दुखद प्रवृत्ति दुनियाभर में व्याप्त है। रिश्तों का बढ़ता क्षरण शायद हमने यूरोप-अमेरिका से ही आयात किया है। यों रूस भी इससे अछूता नहीं है। यह संसार के इतिहास में परिवार का क्षरण-अध्याय है। समय के साथ-साथ इसमें परिवर्तन की संभावना है। क्या युवा पीढ़ी तात्कालिक लोभ-लालचों से ऊपर उठ पाएगी?

९/५, राणा प्रताप मार्ग
लखनऊ-२२६००१
दूरभाष : ९४१५३४८४३८
—गोपाल चतुर्वेदी

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