RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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आधा-अधूराअरमानों का क्या बोलो सब किसके पूरे होते हैं, सपने चाहे कितने देखो कुछ ही पूरे होते हैं। फिर भी उम्मीदों पर ही तो सब आगे बढ़ते हैं, कुछ पाने की इच्छा में ही तो चलते रहते हैं। मंजिल पर जाकर कब शांत हुआ करते हैं, वहाँ पहुँच फिर आगे की ही तो सोचा करते हैं। फिर अपूर्ण अभिलाषाओं पर व्यर्थ व्यथित क्यों होते हैं, जीवन तो हम सबके आधे-अधूरे ही होते हैं। जब जैसा चाहा, वैसा कब किसको मिल पाया, फिर भी ना चाहे मानव मन कब रह पाया। अधूरापन ही तो मानव जीवन की सुंदरता होती है, ना सोचो आधापन, मानव की कोई विवशता होती है। सबकुछ पाकर मानव क्या मानव रह पाएगा, ऐसे में जीवन लक्ष्य क्या शेष रह जाएगा। कुछ कर जाने की ऊर्जा का स्रोत कहाँ से पाएगा, सच में बोलो, ऐसे में लक्ष्यहीन ही तो हो जाएगा। ना पाने का दुःख क्षणभर को अधीर कर देगा, किंतु अभावों का अभाव तो और विवश कर देगा। निज आकांक्षाओं से उत्प्रेरित स्वप्न देखा करते हैं, कब किसको हालात इसमें रोका करते हैं।
बोलो विवश मन, निर्बल होने में देर कहाँ लगती है, हो जाता निर्भर जहाँ भी संबल पाता है। सबके साथ ही तो अकसर ऐसा होता है, दुःख से, अधीरता का ही ज्यादा बोझ होता है। ज्यादा विचलित होकर क्या पा जाओगे, व्यथा, वेदना, चिंता चक्र में फँस जाओगे। ऐसा चलते रहने से तो निर्बल ही हो जाओगे, ना फिर कुछ कर इस दुश्चक्र से बाहर आ पाओगे। कालचक्र जीवन का कैसे भी जो व्यवस्थित कर पाएगा, अलक्ष्य से लक्ष्यों को भी वही तो साध पाएगा। संघर्ष, परिश्रम, मनोरथ से अकसर सब सध जाता है, किंतु कभी-कभार तो, कुछ बेमन का भी हो जाता है। जब जैसा मिल जाए जीवन निधि में संचित करते जाओ, आधा-अधूरा जोड़ कुछ दुर्लभ सा निर्मित कर जाओ। अपने अधूरेपन को अपनाकर आगे बढ़ जाओ, इस आधेपन के संबल से ही, जाओ विजयी हो जाओ। फ्लैट नं.१ ब्लॉक-२१ |
अप्रैल 2024
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