मूँछों की लड़ाई

मूँछों की लड़ाई

थानेदार मलखान सिंह की हालत उस गधे जैसी थी, जो जेठ के महीने में घास की कमी देखकर इसलिए परेशान होता है कि हे भगवान्, अब मैं खाऊँगा क्या? उसके बाद सावन में घास भरे जंगल को देखकर फिर रोता है—हे भगवान्! इतनी सारी घास मैं खाऊँगा कैसे? इसलिए वह ज्यादा घास को जल्दी-जल्दी खाकर खत्म करने के फेर में रहता है।

थानेदारजी पहले जिस जगह पोस्टेड थे, वहाँ खाने को सिर्फ तनख्वाह थी। उनकी परेशानी जायज थी, पुलिस की नौकरी में भी तनख्वाह से घर चला तो थू ससुरी ऐसी नौकरी पर। चलो, वहाँ से किसी तरह जान छूटी। जलालपुर का मलाईदार थाना मिल गया। अब यहाँ माल हर तरफ बिखरा पड़ा था, सो दरोगाजी जल्दी-जल्दी माल बटोरने की फिक्र में थे कि कहीं कुछ बचा न रह जाए।

अपनी पोस्टिंग के हफ्ते भर में उन्होंने इलाके भर में कहर ढा दिया। रिक्शा-ताँगेवालों से लेकर जुआरी-सटोरियों तक सबको लाइन पर ला दिया। सबसे हफ्ते बँधवा लिये, चोर-डाकुओं को अलबत्ता पचास परसेंट कमीशन एडवांस पर बाँध दिया। इतना बढि़या इंतजाम हुआ कि थानेदारजी का कमीशन पहुँचने के बाद ही वारदात फिक्स हो पाती थी। जो इन नियमों का उल्लंघन करता, उसके लिए दरोगाजी की लाठी और हवालात के दोनों मुँह खुले मिलते थे। सारे स्टाफ को सख्त ऑर्डर थे कि शाम को आकर हिसाब दो। हालत यह हो गई कि गर कोई सिपाही से रास्ता भी पूछ लेता तो उसे जेब ढीली करनी पड़ती। थाने में आने के बाद तो हर भेड़ की मुड़ाई तय थी ही। किस्सा कोताह यह कि थानेदार जलालपुर का वह वर्दीधारी गुंडा था, जिसकी दहशत चारों ओर थी।

एक दिन पंडित अलखराम के अखाडे़ का चेला रामधन आधी रात को शहर से गाँव लौट रहा था। सामने से थानेदार की जीप आ रही थी। थानेदार ने रामधन को देखा, उसकी जेब देखी, फिर रात का समय देखा। तीनों का संतुलन बैठाया। कमाई की संभावना तलाशी, फिर धर लिया रामधन को।

‘‘क्यों बे...चोर...कहाँ से चारी करके आ रहा है। स्साले...जल्दी बता वरना लाठी से खबर लूँगा।’’ थानेदार ने कड़कती आवाज में लाठी चमकाते हुए कहा।

‘‘हुजूर, मैं चोर नहीं हूँ। मैं तो बिसनापुर में खेती करता हूँ। शहर से बहन से राखी बँधवाकर आ रहा हूँ।’’ रामधन मिमियाया।

‘‘स्साले...हमको बहकाता है।’’ थानेदार ने कड़कते स्वर में दीवानजी को इशारा किया, ‘‘ऐ दीवानजी, तलाशी लो स्साले की! सारा चोरी का माल जब्त करो।’’

दीवानजी आदेश पालन के लिए जैसे ही आगे बढे़, रामधन समझ गया कि जेब की कमाई गई। यह सोचते ही उसमें पी.टी. ऊषा की आत्मा आ गई और उसने दौड़ लगा दी, पर भला पुलिस के हाथों से कोई बच पाता है। थोड़ी देर में ही रामधन अपनी ‘जेब’ सहित पकड़ा गया। पहले तो थानेदारजी ने उसकी जेब में रखे ‘चोरी’ के माल को जब्त किया। उसके बाद उस पर अपनी लाठी कला के अनुपम प्रयोग किए। उसके पूरे बदन पर भूरे-लाल रंग की पेंटिंग बन गई। थानेदार ने गौर से अपनी इस कलाकृति को देखा, संतुष्ट होकर ड्राइवर को जीप आगे बढ़ाने का निर्देश दिया। जीप आगे बढ़ गई, पर रामधन वहीं पड़ा कराहने का काम संपन्न करता रहा।

अगले दिन यह खबर पंडित अलखराम के अखाडे़ तक पहुँची। पंडितजी का पारा गरम हो गया। रामधन उनका प्रिय शिष्य था, उसके साथ ऐसी हरकत। पंडितजी ने जनेऊ पर हाथ रखकर कसम खाई कि इस थानेदार को सबक सिखाकर रहेंगे, पर कैसे? यह चिंतन का विषय था।

अब थोड़ा पंडित अलखराम का जुगराफिया भी बाँच दिया जाए। पंडित अलखराम बिसनापुर के मुअज्जिज आदमी हैं। अपनी जवानी में डकैती-लूट आदि के धंधे में उन्होंने काफी नाम कमाया था। मजे की बात यह थी कि हर मुहिम के वक्त उनकी जेब में लोडेड तमंचा और हाथों तेल पिली लाठी ही रहती थी। तमंचे का उपयोग हवाई फायर के लिए ही होता था, बाकी के करम लाठी ही संपन्न करती थी। इलाके में मशहूर था कि अलखराम की लाठी के दो हाथ खाकर जो खड़ा रह जाए, वह मानुष कतई नहीं हो सकता। पर वह अतीत था, अब पंडित अलखराम ६५ बरस की पक्की उमरिया को प्राप्त कर चुके थे। बालों में चाँदनी बिखर चुकी थी, चेहरे पर भी मकडि़यों ने जाला बुन लिया था, पर अब भी मूँछें तनी रहती थीं। सीना चौड़ा और कमर सीधी रहती थी। आवाज भी वही कड़क थी और सबसे बढ़कर स्वभाव में निडरता थी।

ऐसे पंडित अलखराम के चेले की दुर्गति, वह भी पुलिसिए के हाथों पिटाई और फिर लुटाई। न...यह नहीं हो सकता। जवानी होती तो रातोरात संगी-साथियों समेत थाने पर धावा बोल देते। उठाते तमंचा, लगाते थानेदार की कनपटिया पर और दबाए देते लिबलिबी। सुबह थाने से ‘राम-नाम सत्त है’ की आवाज ही आती। अखबारों में नाम होता सो अलग। पर का करे, ई ससुरी उमरिया ने धोखा देय दिया। संगी-साथी भी मर-खप गए, कुछ खाँसी-खुर्रा, जोड़ दर्द वगैरह के शिकार हो गए। अब ये अखाडे़ के चेले हैं, इनमें इतनी कुव्वत कहाँ, जो थानेदार पे हमला बोल दें, फिर क्या किया जावे। सोचते-सोचते पंडित अलखराम की रात काली हो गई। सुबह चार बचे जब जुम्मन के मुरगे ने कुकडू-कूँ की, तब जाकर पंडितजी के दिमाग में एक आइडिया आया। पंडितजी की आँखें अँधेरे में भी उल्लू-सी चमक उठीं, फिर वे रजाई ओढ़कर सो गए।

सुबह पंडितजी ने उठते ही पहला काम ननुआ नाई को बुलवाने का किया। ननुआ की नाई की दुकान थाने के सामने ही थी। सो वह एक तरह से बिना तनख्वाह के थाने के हज्जाम थे। थानेदार से लेकर सिपाही तक उन्हीं से हजामत बनवाते थे। ऐसे ननुआ को बुला भेजने के पीछे पंडितजी का जरूर कोई मकसद था। ननुआ आए, पायलागी की, पंडित ने ननुआ के कान में कुछ कहा, ननुआ की आँखें फैल गईं। फिर वे दोनों देर तक जाने क्या फुसफुसाते रहे। पंडित उसे समझाते, वह ना-नुकुर करता, फिर पंडितजी ने उसे पहली बार में अपनी लाठी दिखाई, दूसरी बार में सौ का नोट। ननुआ ने सौ के नोट का चुनाव किया। ‘पायलागू पंडितजी’ कहकर चला गया। पंडितजी उसके बाद हवा में अपनी लाठी घुमाने लगे।

अगले दिन ननुआ नाई बिना बुलाए ही थाने पहुँचे। थानेदारजी की पायलागी की। निवेदन किया, हुजूर...आज कहीं बाहर जाना है, सो सोचा, पहले आपकी हजामत बना दूँ। वैसे सुबह-सुबह आपके दर्शन कर लूँ तो मेरा दिन अच्छा गुजरता है। थानेदार प्रसन्न भए। ननुआ ने हजामत बनानी शुरू कर दी, साथ-ही-साथ बातें भी।

‘‘हुजूर, पूरे जिले भर में आपकी लाठीबाजी की चर्चा होय रही है। लोग कहते हैं कि मलखान सिंह थानेदार जैसा लाठी चलैया पूरे इलाके में ना है।’’

थानेदार के मन ने कई सारे लड्डू एक साथ गटक लिये। मुसकाए के बोले, ‘‘बस शंकरजी की कृपा है, ननुआ! वैसे हम आज तक किसी से हारे ना हैं। दो-चार बार तो मुकाबला करनेवालों को अखाडे़ से ही अस्पताल ले जाना पड़ा है। तब से हमारा नाम हड्डी तोड़ मलखान पड़ गया है।’’

‘‘हुजूर...हमारी बड़ी तमन्ना है कि एक बार आपकी लाठीबाजी का हुनर देखें। हुजूर...ये पिराथना है हमारी। देखियो, ना मत कहना थानेदार जी...।’’ ननुआ ने अपने स्वर में रिरियाहट के साथ मक्खन भी मिला दिया।

‘‘हुम्म, कहते तो तुम ठीक हो ननुआ, पर हमसे लाठी का मुकाबला करेगा कौन? हमारे नाम से ही लोगों के पाजामे चू जाते हैं। हमें तो लगता ना है कि पूरे इलाके में कोई हमारी लाठी के दो वार भी झेल पावेगा।’’

‘‘हुजूर, गुस्ताखी माफ हो तो अरज करूँ। एक आदमी है, जो आपसे थोड़ी देर टक्कर ले सके हैं, पर बस थोड़ी देर ही। वैसे सौ परसेंट जीतोगे तो आप ही, उसके साथ मुकाबला कर लो।’’

‘‘ऐं...।’’ थानेदार चौंके, ‘‘...ऐसा कौन पैदा हो गया इलाके में, जो हमसे टक्कर ले सकै है।’’ फिर गुर्राए, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, ननुआ।’’

‘‘हुजूर, माई-बाप, नाराज न हो। है तो एक...हुजूर, भूल गए पंडित अलखराम को, कहवै हैं कि अपने बखत में उसकी बराबर का लठैत पाँच जिलों में ना था।’’

‘‘हुम्म...पंडित अलखराम, वह पुराना डकैत...सुना तो बहुत है उसकी लठैती के बारे में, पर अब तो वह बूढ़ा हो गया होगा।’’

‘‘हाँ, हुजूर ६५ बरस का होय गया है बुढऊ, पर लाठी अब भी चला लेवै है। मैं तो कहूँ हुजूर, आप उससे मुकाबला कर लो, यकीन मान लो, जीतने पर पूरे इलाके में आपकी लठैती की धाक जम जाएगी।’’

थानेदार ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, ‘‘हुम्म...कहते तो ठीक हो ननुआ। अलखराम को हरा दिया तो पूरे इलाके में धाक तो सच्ची में जम जाएगी, पर कहीं उलटा न हो जाए। कहते हैं बुड्ढा...आज भी जबरदस्त लठैत है।’’ थानेदार ने अपनी चिंता शेयर की।

पर ननुआ ने थानेदार की चिंता यह कहकर मिटा दी कि ‘‘हुजूर, कहाँ आप जैसा घड़यिल जवान और कहाँ वह बुढ़ऊ। आपकी ताकत-फुरती के आगे वो कहाँ टिकेगा। इस उमर में उसके हाड़-गोड़ों में वह फुरती कहाँ होगी। थोड़ी देर में ही कुत्ते-सा हाँफने लगेगा। मेरी मानिए हुजूर...तो अगले हफ्ते ही रामलीला मैदान में लाठीबाजी का मुकाबला रखवा लो। पूरे इलाके में वाह-वाह हो जाएगी।’’

थानेदार चौंका, ‘‘अरे, रामलीला मैदान में क्यों, यहीं थाने के पिछवाडे़ में जो खाली जगह पड़ी है, वहीं कर लेते हैं मुकाबला।’’

‘‘क्या कहते हैं हुजूर, सहर के इतने बडे़ हाकिम का मुकाबला हो और जनता न देखे तो फैदा क्या है? हुजूर...वैसे भी जितनी भीड़ होगी, उतना ही हुजूर का नाम फैलेगा। सोचिए हुजूर, जब जीतने के बाद हजारों लोग आपकी जय-जयकार करेंगे, तब कितना मजा आएगा, सोचिए।’’

थानेदार मलखान सिंह ने सोच लिया। कल्पना में देख भी लिया। पूरे इलाके में थानेदार मलखान सिंह की जय के नारे लग रहे हैं। दूर-दूर तक उनकी लाठीबाजी की चर्चा हो रही है। एस.पी. साहब खुद उन्हें बधाई दे रहे हैं। इतनी सुंदर कल्पना से दरोगाजी का चालीस इंची सीना और फूल उठा। वर्दी फटने को तैयार हो गई। उन्होंने ‘हाँ’ कर दी।

यह ‘हाँ’ उसी रात ननुआ की मार्फत पंडितजी तक ट्रांसफर हो गई।

अगले दिन थानेदार ने पंडित अलखराम को बुलवा भेजा। आखिर उनकी सहमति भी तो लेनी थी। पंडितजी थाने में हाजिर हो गए। थानेदार ने पंडितजी को नजरों से तौला—हुम्म...तो ये है पंडित अलखराम...सर पर सन जैसे सफेद बाल, कटी-फटी सी आवाज, चेहरे पे थकान। इत्ती दूर चलने में ही हाँफे हुए से, ऊपर से खों-खों की आवाज...जो स्पष्ट बुढ़ापे की घोषणा कर रही थी। बस थानेदार ने सोच लिया। इस बुढ़ऊ को तो दो लाठी में चित्त कर देंगे, बस डर है कि बुढ़ऊ कहीं टें ना बोल जाए।

उन्होंने पंडितजी को लठैती का मुकाबला करने की चुनौती दी। पंडितजी ने थोड़ी ना-नुकुर की, ‘‘हुजूर, मैं ठहरा पक्की उमर का आदमी, आप नौजवान छोकरे। हमारा-आपका क्या मेल।’’ पर थानेदार नहीं माने। हारकर पंडितजी बोले, ‘‘ठीक है, हुजूर, मरना तो है ही, आपकी लाठी से मरे तो सीधे स्वर्ग जाएँगे।’’ फिर कुछ सोचकर पूछा, ‘‘हुजूर, शर्त क्या रहेगी।’’

थानेदार मूँछों पर ताव देते हुए बोले, ‘‘रख लो...सौ-सौ रुपए की।’’

पंडित अलखराम नम्रता से बोले, ‘‘हुजूर, मुझ गरीब पर सौ रुपए कहाँ से आए। मैं तो धेले की भी शर्त नहीं लगा सकता।’’

थानेदार बोले, ‘‘तो फिर...शर्त तो होनी ही चाहिए। उसके बिना जीत-हार का क्या मजा?’’

पंडित सोचकर बोले, ‘‘तो हुजूर, शर्त उस चीज की होनी चाहिए, जो हम दोनों के पास हो और जिसे देते हुए हमारे जी पर बहुत जोर पडे़।’’

थानेदार ने खूब सोचा, फिर बोले, ‘‘ऐसी क्या चीज है?’’

पंडित अलखराम बोले, ‘‘मूँछे! मूँछ हमारी भी शान है और आपकी भी। कहिए क्या कहते हैं?’’

थानेदार ने एक बार सोचा और ‘हाँ’ कर दी और फिर मन-ही-मन पंडित अलखराम के मूँछ मुडे़ चेहरे की कल्पना करके हँस पडे़।

रात को फिर ननकू और पंडितजी की मीटिंग बैठी, फिर फुसफुसाहटों के दौर चले, जो अंत तक आते-आते ठहाकों में बदल गए।

रविवार को मुकाबला होना था। उससे पहले ही पूरे इलाके को खबर हो गई। लोगों को बातें करने का मसाला मिल गया। सट्टेबाजी धतु हो गई। थानेदार की मूँछों पर ज्यादा का भाव था। पंडित अलखराम पर भी सट्टा लगानेवाले कम न थे। पूरे इलाके में गहमागहमी थी। इसी बीच पंडितजी के एक चेले की कृपा से एक पोस्टर भी छपकर आ गया, जिस पर एक तरफ थानेदार की तनी मूँछोंवाला फोटो था तो दूसरी तरफ पंडित अलखराम और उनकी लाठी का फोटो था। पोस्टर पर छपा था—

‘‘देखिए-देखिए, इस सदी का सबसे बड़ा लाठी का मुकाबला—थानेदार मलखान सिंह और पुराने लठैत पंडित अलखराम के बीच। जो जीतेगा, उसकी मूँछें ऊँची, जो हारेगा, उसकी मूँछ साफ। देखिए, देखिए...मूँछों की लड़ाई...ठीक १० बजे, दिन रविवार, जगह रामलीला मैदान।’’

अखबारवालों ने भी यह खबर नमक-मिर्च लगाकर छाप दी। जिले के एस.एस.पी., एस.पी. आदि पुलिस के हाकिमों ने भी खबर पढ़ी। उन्हें भी खबर मजेदार लगी, सो उन्होंने थानेदार को फोन करके मुकाबला देखने की मंशा जाहिर कर दी। डी.एस.पी. पांडे ने तो एडवांस में बधाई संदेश भी भेज दिया।

थानेदार परेशान हो गए। जरा से लाठीबाजी के शगल ने जान मुसीबत में डाल दी। उन्हें ननुआ पर बहुत गुस्सा आया, उसी ने उन्हें फँसाया था। उन्होंने ननुआ को तलब किया, उस पर लाठी फटकारने ही वाले थे कि ननुआ ने पैर पकड़ लिये, अभयदान माँगा। थानेदार पिनपिनाए, अफसरों के आने की बात बताई। ननुआ बोले, ‘‘बस हुजूर, इत्ती-सी बात...। ये तो आपके भले की ही बात है। सोचिए, मुकाबले में तो आप जीतेंगे ही, साहब लोग अगर खुश हो गए, आपकी तरक्की कर दी तो...फिर तो आप और बडे़ साहब बन जाएँगे। वो का कहते हैं डी.सी.पी.।’’ बात थानेदार की समझ में आ गई। उस रात उन्होंने सपने में देखा कि वो डी.सी.पी. बनकर लोगों पर रोब गाँठ रहे हैं। अलबत्ता उनकी लाठी सपने में भी उनके साथ ही रही।

मुकाबले का दिन आ गया। सुबह आठ बजे से रामलीला मैदान में भीड़ जमा होनी शुरू हो गई। कस्बा तो कस्बा, आसपास के शहरों के लोग भी उमड़ पडे़। गाँवों से ट्रैक्टरों, बैलगाडि़यों में भरकर लोग आने लगे। दस बजे तक दसियों हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई। पुलिस के बडे़ हाकिम लोग भी पहुँच गए। आखिर मूँछों की लड़ाई थी, उसे देखना तो बनता ही था न।

ठीक दस बजे मुकाबला शुरू होना था। थानेदारजी और पंडित अलखराम अखाडे़ में पहुँच गए। थानेदारजी ने पहले अपने कपडे़ उतारे, बनियान के साथ पाजामा कसा। अपने कसरती बदन का मुजाहिरा कराया। उसके बाद गिनकर पचास दंड-बैठक पेलीं, फिर मूँछों पर हाथ फेरते हुए पंडित अलखराम को देखा। पंडितजी बड़ी शांति से खडे़ थे। उन्होंने तैयारी के नाम पर सिर्फ एक बीड़ी सुलगाई, थोड़ी देर खाँसे और फिर मौका देखकर ननुआ की तरफ बाईं आँख दबा दी।

रैफरी बने डी.एस.पी. साहब ने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के हाथ मिलवाए। लाउड स्पीकर पर लाठी के मुकाबले के नियम समझाए। इन सब कामों से फारिग होकर सीटी बजा दी, मतलब मुकाबला शुरू हो गया। साथ ही भीड़ की चिमगोइयाँ भी शुरू हो गईं—दैया रे...आज जाने किसकी मूँछ मुड़ेंगी...?

उधर दोनों लठैतों ने लाठियाँ चमकाईं। थानेदारजी ने मूँछों पर हाथ फेरा और हँसकर बोले, ‘‘पंडित करो वार, हो सकता है, फिर आप लाठी चलाने लायक ही न रहें।’’ पंडित अलखराम मुसकाए, फिर अपने टूटे दाँतों के बीच से हवा निकालकर बोले, ‘‘हुजूर, आप हाकिम हैं तो पहला बार आपका।’’ थानेदार ने बात मान ली, उठाई लाठी...घुमाई और कर दी...दे दनादन...। पर ये क्या, पंडितजी तो सारे दाँव बचा गए। थानेदार छाती पर मारें तो वहाँ पंडित की लाठी मौजूद, पैरों में मारे तो वहाँ मौजूद...खट...खट...टन...टन...थानेदार पिनक गए, चिल्लाकर बोले, ‘‘पंडित, बहुत हो गया...अब नहीं छोड़ूँगा।’’ पंडितजी मुसकराए, बोले, ‘‘थानेदार, छोड़ना तो दूर, मुझे छूकर ही दिखा दो।’’ आग में घी पड़ गया। थानेदार ने अपनी पूरी जान लगाकर लाठी चलाई, पर पंडित उसे भी फुरती से बचा गए। भीड़ पंडित की फुरती देखकर दंग थी। पहला राउंड खत्म हो गया, पर थानेदार की लाठी पंडित को छू भी नहीं पाई। मजे की बात है कि इस राउंड में पंडितजी ने सिर्फ बचाव किए थे, वार एक भी नहीं किया था।

थानेदार की हालत खस्ता थी। दस मिनट में ही वह पसीने-पसीने हो गए थे। अपनी पूरी कला के प्रदर्शन के बावजूद वह पंडित को छू भी नहीं पाए थे। भीड़ थानेदार पर हँस रही थी। थानेदार का गुस्सा बढ़ रहा था, जैसे ही दूसरा राउंड शुरू हुआ, उन्होंने शुरू से ही तेज हमला करने की ठान ली, पर पंडितजी की फुरती के आगे वह बेबस थे। एक बार तो उनके हाथ से लाठी ही छूटकर गिर पड़ी। पंडितजी हँसकर बोले, ‘‘थानेदार, लाठी उठा लो। सोच लो, आखिरी बार लाठी पकड़ रहे हो।’’ थानेदार की किरकिरी हो रही थी। इतनी भीड़ न होती तो वह इस बेइज्जती की पंडित को ऐसी सजा देते कि उनकी पुश्तें याद रखतीं। आई.पी.सी. की सारी दफाएँ उन पर लगाकर उन्हें जेल में ठुसवा देते, पर क्या करें, मजबूर थे।

थानेदार को सोचता देखकर पंडितजी बोले, ‘‘थानेदार, लो अब मैं वार करूँगा, तुम सँभालो। अभी हल्के वार, फिर भारी वार। लो पहला वार तुम्हारी नाक पर।’’ कहते ही पंडितजी ने लाठी चलाई। दरोगा ने बहुतेरा बचाव की कोशिश की, पर नाक टूट गई। खून का फव्वारा बहने लगा। दूसरे वार में लाठी कमर पर पड़ी। तीसरे वार में दाएँ हाथ की हड्डी शहीद हुई, चौथे वार में थानेदार का पिछवाड़ा टूट गया। कूल्हे की हड्डी ने कड़कड़ का संगीत बजा दिया। थानेदारजी धड़ाम से अखाडे़ में गिर पडे़, ‘‘हाय मर गया, अरे कोई बचा लो इस बुढ़ऊ से। ये तो मार ही डालेगा।’’ उसके बाद रोते-चीखते थानेदार की छाती पर पंडितजी ने अपनी लाठी रख ली। प्रेस फोटोग्राफर ने खट से फोटो खींच ली।

रेफरी ने पंडितजी के हाथ उठाकर उनके जीतने की घोषणा कर दी और थानेदार को अस्पताल पहुँचाने की, पर जैसे ही सिपाही एंबुलेंस में बैठाने लगे, पंडितजी बोले, ‘‘हुजूर, शर्त तो पूरी हुई नहीं। थानेदार की हड्डियाँ ही तो टूटी हैं, मूँछें तो सलामत हैं।’’ इतना कहकर पंडितजी ने ननुआ को इशारा किया। उसने दर्द से कराहते थानेदार की मूँछें साफ कर दीं। भीड़ ने ‘पंडित अलखराम जिंदाबाद’ का नारा लगाया। पंडितजी ने अपनी सफेद मूँछों पर हाथ फेर दिया।

आगे की कहानी सिर्फ इतनी है कि थानेदार मलखान सिंह ने पूरे दो बरस तक अस्पताल में टूटी हड्डियों का इलाज कराया, पर हड्डियाँ सीधी नहीं हुईं। वह आज भी लँगड़ाकर चलते हैं और हाँ, उनके चेहरे से घमंड, क्रूरता आदि के साथ मूँछें भी गायब हो गई हैं। लोग पीठ पीछे उन्हें मूँछकटा थानेदार कहकर चिढ़ाते हैं।

जैसा बुरा हश्र थानेदार की मूँछों का हुआ, वैसा हश्र भगवान किसी का न करे।

जी-१८६-ए, एच.आई.जी. फ्लैट
प्रताप विहार, गाजियाबाद-२०१००९
दूरभाष : ९३११६६००५७
—सुभाष चंदर

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