भारत के दिव्यभाल : चार धाम

भारत के दिव्यभाल : चार धाम

वैसे देखें तो भारत का कण-कण पवित्र है। यहाँ जल पवित्र है। हवा पवित्र है! परंतु यहाँ की मिट्टी अपवित्र कर डाली, जल में गंदगी भर दी और वायु प्रदूषण से भर गई। अतः उत्तर देवभूमि जाना पड़ता है। हवा-पानी-माटी अभी भी शुद्धता से भरी है। शायद इसी कारण हजारों वर्ष पहले से इसे देवभूमि कहा जाता है। यहाँ पर देवों ने अपने लिए पर्वतों का एकांत चुना। गंगा-ब्रह्मपुत्र-सिंधु-यमुना का उद्गम स्थल चुना। जगतगुरु शंकराचार्य ने भी कश्मीर के श्रीनगर से हरिद्वार-ऋषिकेश होकर बदरी-केदार, गंगोत्तरी, जमनोत्तरी में डेरा जमाया। उन्हीं के बीच जोशी मठ में जगद्गुरु ने आश्रम स्थापित किया। पहाड़ों की चोटियों पर उत्तर का एक धाम प्रतिष्ठित किया। उसकी मान्यता आज भी अक्षुण्ण है।

इस बार नीट परीक्षा (अखिल भारतीय मेडिकल प्रवेशिका परीक्षा) में शिखर छूने में रोहन (डॉ. पुरोहित का बड़ा बेटा) एक अंक से पीछे रह गया तो हम सब घरवालों ने उसे भारत का धर्म-अध्यात्म-परंपरा और मूल्यों का शिखर दिखाने का निर्णय लिया। सुनील (मेरा मझला सी.ए. बेटा) योजना-प्रवीण है। सारी प्लान और टिकटें बना डालीं। हम सब यानी मैं मेरी पत्नी भुवनेश्वर से, मेरे छोटे बेटे के सास-ससुर यानी मदनगोपालजी चंद्रपुर से। दोनों बेटे सुनील एवं उसकी पत्नी हेमलता और उसकी बेटी कनक (इंजीनियर) एवं बेटा केतव। डॉ. भारत विजय एवं डॉ. पत्नी निर्मला व उसके दोनों बेटे रोहन और यशराज हैदराबाद से दिल्ली हवाई अड्डे पर इकट्ठे हुए। वहाँ से मिनी बस ले हरिद्वार पाँच-छह घंटे में पहुँचे। शाम हो गई। पहुँचे तो लगा कि बड़े आराम की जगह पहुँच गए हैं। गरम-गरम खाना घर के खाने जैसा पाकर सब खुश ताजा हो गए!

ताकीद थी सुबह जल्दी चलना है। चाय पीकर सात बजे निकले। समतल तो हरिद्वार में रह गया। मन में मीडिया ने भय भर दिया था, पहाड़ों में आग लगी है। वैष्णो देवी की यात्रा रुक गई। हमें भी दो साल पहले का भयंकर तूफान का डर था। परंतु पाँच-दस मिनट में हिमालय की पहाड़ियों पर बनी बाँकी-टेढ़ी सड़क पर चली जा रही ट्रेवलर। करारी मूँछदार पंजाबी ड्राइवर अमरीक सिंह अनुभवी खूब मस्ती में चलाता जा रहा। हम बाहर का दृश्य घने पेड़, दाहिनी ओर गंगा तीन-चार सौ फीट नीचे पतली चमकती धार। वह उतर रही। हम चढ़ रहे। कहीं खो जाती तो कहीं कल-कल करती बहती दिख जाती। दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, उनके बीच रास्ता बनाकर बह रही है। आज पहले हमें जमुनोत्तरी की राह जाना है। बीच में शाम हो गई। स्यानचट्टी में रुक गए। रात्रि विश्राम किया। बड़ी प्रातः जमुनोत्ती जाने के लिए निकले। कुछ दूर पर गाड़ी से उतर पैदल यमुना किनारे पहुँचे। गरम पानी का कुंड है। स्नानार्थियों की भीड़! उससे ऊपर यमुना मंदिर। पंडे बही निकालकर दिखाते हैं। पूजा-अनुष्ठान यमराज की बहन की श्रद्धा सह होती है। यमुना के बर्फीले जल में भी कुछ लोग स्नान करते दिखे। पानी का प्रवाह खूब जोर का था। साँकल पकड़कर पानी में उतरते। ऊपर पहाड़ों से धारा विकल भागती दिख रही। हवा का प्रवाह तेज न था। अब नए राजनीतिक वातावरण के कारण गंदगी भी नहीं थी। सफाई पर पूरा जोर। हमारे तीर्थों में साफ-सुथरा वातावरण आस्था को दृढ़ कर देता है। वहाँ से लौटकर स्यानचट्टी शाम तक पहुँचे।

होटल से दो सौ गज दूरी पर बरसा। चट्टान खिसकना, मार्ग अवरुद्ध। हम उतर पैदल आ गए। होटल में चाय पी, खाना खाया। सुबह तड़के पूरा समागम चला उत्तरकाशी! कहते हैं, शिव ने यहाँ तपस्या की। प्राचीन शिव मंदिर देखने गए। लंबा चौड़ा त्रिशूल लगा उन्हीं के हाथों के लिए बना है। शक्ति का प्रतीक पूजा जाता है। वहीं पास में गंगा बहती है। पता चला, गंगा आरती का समय है। हम सब वहाँ पहुँचे। सैकड़ों श्रद्धालु जमा हो गए। वह शांति एवं श्रद्धा सह हमने गंगा माता की आरती की। विशाल रूप तो यहाँ भी न था। परंतु आरती में आस्था-विश्वास-श्रद्धा थी। त्रिवेणी मुग्ध कर रही थी। प्रसाद लेकर लौटे। होटल में विश्राम किया। प्रातः निकल पड़े गंगोत्तरी! वहाँ गंगा की निर्मल जलधार देख मन प्रफुल्ल हो उठता है। कहते हैं, यह कुछ कि.मी. और ऊपर गोमुख से उद्गम होता है। कलनिनादिनी मानो हिमालय की गोद में मचलकर बढ़ रही है। यहाँ का बर्फीला जल हाड़ कँपा देता है। परंतु एक डुबकी के बाद भाव ही बदल जाते हैं। गंगा पूजन! गंगाजल से गंगा की पूजा! यहाँ माँ गंगा का पतित पावनी रूप निहारते रहो, निहारते रहो। मन भरता ही नहीं। लौटकर उत्तरकाशी में विश्राम किया। आज प्रातः चले सवा चार बजे श्रीकेदारनाथ के लिए! परंतु १५-२० कि.मी. तक ही मोटर जा सकती है। सात-आठ कि.मी. की चढ़ाई पैदल या पालकी में करो। हमने हेलिकॉप्टर बुक कर रखा था। पर वह मौसम के ऊपर निर्भर था। सब जल्दी में थे। पता नहीं कब मौसम बदले और यात्रा रुक जाए। कुल आठ मिनट के सफर पर हेलीपेड पर उतरे। मार्ग में दोनों ओर सुहावनी घाटियों को पार कर पहुँचे। पर्वत के सहारे-सहारे उड़ रहा था हेलीकॉप्टर। मानो यही सहारा। बीच में अलकनंदा की शीर्ण धारा। इन विशाल पर्वतों के बीच मार्ग मिलता है। कहीं भी नंगे पहाड़ नहीं। घने जंगल शिव की जटा की तरह ढाँपे हैं। बस वही एक समतल है, जहाँ योगिराज शिव ने तप के लिए स्थान चुना।

केदारनाथ अकेला मंदिर २०१३ की प्रलयंकारी बाड़ में बचा। पास जाकर देखा, दो विशाल चट्टानें आ गई थीं। उनसे जल-प्रवाह को रोक मंदिर को बचा लिया। दो भागों में विभक्त होकर सारा धक्का सहा। विशेष पूजा के लिए लंबी कतार से बचे। पर मंदिर में प्रवेश के बाद तो सब समान हैं। स्वयंभू लिंग हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में इन महाप्रभु की गणना होती है। बाढ़ चली गई। पुरातन मंदिर के सिवा सब बहा ले गई। धर्मशाला, दुकान, बाजार कुछ नहीं रहा। अब फिर से जीवन नया रूप ले रहा है। तब तक शिखर, बर्फ ढके दिख गए। डॉक्टर बेटे ने बुलाकर कहा—पापा, वो आँख, चोंच, दो रूप बन रहा है नीलकंठ का! शिखर पर बर्फ और बह आते मेघ कुछ ढाँप लें, कुछ छोड़ दें। अपने भावों के अनुसार सदाशिव का दर्शन कर लें। माइक प्रचार कर रहा था—यही है स्वर्ग की यात्रा का मार्ग। पांडव सदेह इसी मार्ग से स्वर्गलोक गए थे। हमें तो लगा, स्वर्ग किसने देखा है, यही स्वर्ग होगा—बर्फीली पहाड़ियाँ, घने पेड़ों का जंगल, शांत वातावरण स्वर्ग का-सा आनंद। यह पवित्र देवभूमि। शांत स्थिर घाटी मन को बता रही है—तुम सागरतट श्रीजगन्नाथ धाम से आए हो, यहाँ हिमशिखर पर शिवलिंग की सर्वोच्च घाटी पर देवाधिदेव महादेव विराजमान हैं। ध्यानमग्न हिमालय है। मंदिर में उन्हीं महाशिव का निराकार रूप विराजित है। मुझे लगा, भुवनेश्वर में भी यही शिव स्वयंभू रूप में उद्भूत हैं। यहाँ भी तपस्यालीन हैं। शिव जहाँ हैं तप, त्याग, साधना के प्रतीक हैं। इनके दर्शन से मानव जीवन सही दिशा पाता है। भक्तों की भीड़ ने सचेत कर दिया। प्रसाद लेकर बाहर निकले। उधर हेलीकॉप्टर का दिया दो घंटे का समय मानो दो मिनट में बीत गया। इतनी दूर से आया, पाँच बार शिव नाम तक नहीं ले सका। संभवतः महाप्रभु अंतर्यामी होने के कारण जान गए। मार्ग बदला। सोन-प्रयाग कुछ कि.मी. दूर पहाड़ों में ही दक्ष प्रजापति का स्थल है। वहाँ शिव का विवाह स्थल है। विवाह के अवसर का यज्ञ आज भी प्रज्वलित है। अहर्निश वहाँ ज्वाला सतेज मिल जाती है। भक्तगण काष्ठ प्रदान करते हैं। अतिप्राचीन मंदिर में शिव-पार्वती के युग्म रूप के दर्शन कर बड़ा आनंद मिलता है। निराकार, निष्कर्म भगवान् यहाँ साकार और कर्मठ रूप में मिल जाते हैं। विशाल नंदीश्वर और अन्य पार्श्व देव भी दर्शन देते हैं। वहीं आधा-एक कि.मी. पर गणपति के दर्शन होते हैं। कठिन हैं, पर जो चढ़ पाते हैं, वे ही दिव्य दर्शन कर पाते हैं। हिमालय में कहाँ नहीं है दिव्यता! वहीं पहाड़ों की काफी ऊँचाई पर गौरी गुफा है। वहाँ जाना सहज नहीं पर भारत, सुनील, हेमा, कनक और रोहन जाने के लिए प्रस्तुत हो गए। रास्ता कठिन था, इसलिए बाकी सब वहीं चाय पीने रुक गए। ये सब पहाड़ी रास्ते पर चले, ऑक्सीजन भी कम होती है।

बहू हेमा साँस फूलने से वहीं रुक गई, कहा, मैं आगे नहीं जा सकूँगी। सब रुके, तभी (गौरी का रूप) एक पहाड़ी महिला आई और हेमा का हाथ पकड़ कहा, ‘चलो मेरे साथ, मेरा हाथ पकड़ो, ज्यादा दूर नहीं है’, ऐसे कहते-कहते उसे ऊपर तक ले गई। उसी समय दो पहाड़ी लड़के भी साथ हो सबको रास्ता दिखाते ले गए। गौरी माँ का दर्शन कर सब खुश। आकर अपनी कहानी कही। रोमांच हो गया। आस्था है तो अवसर भी मिल जाते हैं। उस पहाड़ी महिला का नाम ‘बिना’ था। वहाँ से होटल लौटे, विश्राम किया। पहाड़ों पर नागिन की तरह चलती बस का सफर कष्टप्रद नहीं होता। परंतु ऊँची-नीची यात्रा और घुमावदार झटके। इस तेजी से तन की जगह मन ज्यादा झटके खाता है। अतः विश्राम जरूरी हो जाता है। गुप्तकाशी वैसे ही शिव की तपस्या का स्थल है। वहाँ से प्रातः चाय पीकर श्रीबदरीनाथ के लिए निकले। रास्ते में एक मनोरम घाटी पर रुके। वहाँ से दूर-दूर तक पर्वतों की शृंखला दिखी। मेघ छूकर निकल जाएँ। रास्ते में एक जगह रुके, इसे भारत का मिनी स्विट्जरलैंड कहते हैं। कुछ समय इस दृश्य का आनंद लिया। वहाँ पास में कस्तूरीमृग विहार है। पहले आठ-दस मृग थे। अब विहार तो है, पर मृग नहीं। पास में एक शिव मंदिर है। छोटी-मोटी चार-छह दुकानें भी हैं। आम जरूरत का सामान मिल जाता है। चार-छह कमरे बने हैं। अन्यथा दर्शनार्थी सिर्फ नेत्र प्रक्षालन कर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ जाता है। वैसे पहाड़ों का दृश्य स्थिर होता है। परंतु सूरज, चाँद-तारों, हवा-पानी के आगमन से वह रूप प्रतिपल परिवर्तित भी होता रहता है। कभी पूरा दृश्यमान है तो कभी धुंध या मेघ में पूरा अदृश्य हो जाता है। पूरा चमोली जिला इन पर्वतों, घाटियों और लंबी-टेड़ी नदी की धार से भरा है। कुछ देर बादलों ने छिड़काव कर दिया। पर सूरज कहाँ छिपे रहनेवाले थे! फिर निकल आए। चाय-पानी के बाद हम आगे बढे़। गोपेश्वर होते हुए जब गरुड़गंगा पहुँचे, भूख तेज हो गई थी! समतल तो नहीं, पर पहाड़ को काट-कूटकर हर मोड़ के पास समतल बना दिया है। यहाँ लंबा तार लगा है। इसमें घाटी पार आने-जाने का रोमांच आनंद ले सकते हैं। इन पहाड़ों में कई ऐसी किंवदंतियाँ हैं, जो महाभारत की याद दिला देती हैं। बोहराजी ने पहाड़ की ओर इशारा कर बताया कि यहाँ से पांडव लाक्षागृह से निकले और कुंती के आदेश से पाँचों की शादी हुई। कहते हैं, इस गाँव में आज भी पाँच आदमी एक स्त्री से शादी करते हैं। ऐसी कई धार्मिक कहानी सुनते आगे बढे़।

आगे जोशी मठ! जगद्गुरु शंकराचार्य का उत्तरी क्षेत्र में बना केंद्रीय आश्रम है। कुछ आगे बढ़ो तो गोविंदघाट है। बीच-बीच में छोटे-छोटे ‘शहर’ बसे हैं। पहाड़ों की एकांतता का अनुभव नहीं होता। मानो जन बस्ती साथ चल रही है। ऊँचाई का अंत नहीं। लगभग सात-साढ़े सात बजे बदरीनाथ का समूह दिख गया। यहाँ आश्रम, मठ आदि को निवास योग्य बना दिया है, ताकि बेशुमार भक्तों, टूरिस्टों के आवास की समस्या हल हो जाती है। कोमलगिरि आश्रम में हमारी व्यावस्था की गई। उतरते ही मैं और सुनील (मेरा मझला बेटा) मंदिर दर्शन के लिए चल पड़े! विग्रह दर्शन की तरह मंदिर और पताका के दर्शन में भी वही पुण्य होता है। हम द्वार तक खड़े रह मंदिर दर्शन कर लौटे। इस बीच हलकी धूप में बूँदा-बाँदी भी हो गई। वहाँ टिकटवालों की लंबी लाइन थी। अतः बाहर ही बाहर लौटना पड़ा। आते समय विष्णु सहस्रनाम लेता आया। भारत विजय (मेरा छोटा बेटा) ने आरंभ कर सबने मिलकर आश्रम में ही सहस्रनाम पाठ किया, जो श्रीबदरीनाथ ने जरूर सुना होगा। भोजन कर निश्चिंत सोए। मौसम भी साथ था। कहीं कोई परेशानी नहीं। प्रातः नहा-धोकर तैयार! मार्गदर्शक बोहराजी साथ चले। सबने गरम कुंड में स्नान किया। मेरा व पत्नी का मार्ग बदला। साइड से पंडेजी के साथ गया। आगे चार सीढ़ी चला। दस-पाँच लोग थे। जाकर निर्विरोध खड़े हो गए! सीधे श्रीबद्रीनाथ के दर्शन! पर्वत तो नर रूप से बाहर देख चुके थे। मंदिर में नारायण के दर्शन हो रहे थे। ओम नमो नारायण...ओम नमो नारायण...मुझे इसके सिवा न पूजा न अर्चना न मंत्र कुछ। पाँच-दस मिनट यही मंत्र बोलता रहा। इस बीच धीरे-धीरे सीढि़यों से आ रहा था। देखा, सारा परिवार उसी राह अंदर आ गया है। सबने सीढ़ी चढ़ दर्शन किए। बाद में हम सब मंदिर के पीछे गए। यहाँ पंडाजी मिल गए। बही में नाम था, बड़े भाई जीवनरामजी की सात यात्राओं का उल्लेख था। जो हो, लिखाकर उठे। एक पंडे ने प्रागंण में बिठा पूजा कराई। मैं खड़ा रहा, देखा पीछे परकोटे से सुरक्षित जगह है। बड़ा प्रांगण। वहाँ बैठकर कुछ समय बिताया। पंडे ने भी कुछ मंत्रोच्चार कर पूजादि करा दी। सबने बैठकर बद्रीविशाल का स्मरण-ध्यान किया।

श्रीबद्रीनाथ के दर्शन इस चारधाम यात्रा का शिखर था। अब लौटकर कुछ ब्राह्मणों को भोजन कराया। उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद प्रमुख था लक्ष्मी भोजन। हमारे साथ चार लक्ष्मी थीं। उन्हें हमने आदरपूर्वक बिठाया, भोजन परोसा ही नहीं, अपने हाथों उनको खीर का ग्रास दिया। उन सबके आनंदपूर्ण चेहरे देख लगा, यह यात्रा का फल मिल रहा है! उनके जीमने के बाद फिर हमारी बारी। हम बैठे तो उसी आनंद की पुनरावृत्ति हुई। यात्रा का सुफल इसी में है कि दर्शनों के बाद सब चेहरों पर आनंद-उल्लास खिला हो! अब लगा, हम होटल में नहीं आश्रम में टिके हैं, जहाँ आस्था और श्रद्धाभाव भरा है।

आनंद से सब काम पूरे होने के बाद भगवान् ने भी वर्षा शुरू कर दी। हम भारत के अंतिम गाँव देखना चाहते थे। यहीं भीमशिला देखने के लिए निकले। कहते हैं, पांडव जब स्वर्ग जा रहे थे, दौपदी सरस्वती का तीव्र बेग देख डर गई। कहा, मैं नहीं जा सकती। तब भीम ने एक विशाल शिला लाकर डाली, तब द्रौपदी आगे बढ़ी, आगे द्रौपदी मंदिर है। हम वहाँ सरस्वती नदी का वेग देख दंग रह गए, कहते हैं, यही एकमात्र सरस्वती मंदिर है। सरस्वती नदी का उद्गम देख रास्ते में गणेश गुफा है, जहाँ गणेशजी ने महाभारत लिखी। आगे व्यास गुफा है। वह भी देखी। आगे देखा भगीरथी और अलकनंदा का संगम। कुछ दूर पहाड़ी पर स्थित ये छोटी-छोटी गुफा बताती हैं भारतीय मनीषा को काम करने को कैसे शांत स्थिर वातावरण चाहिए। वेद-पुराणों का उद्गीरण इसी में होता है। विश्व को दुर्लभ तत्त्वज्ञान यहीं मिलता है। यहाँ भौतिक कामना शांत हो जाती है। वासना मुक्त मनुष्य मानवता के दर्शन करता है। रास्ते में कई मंदिर होते हुए परेश्वर मंदिर देखने गए वहाँ का गरम कुंड, जिसमें हाथ भी नहीं लगा सकते, इतना गरम पानी पहाड़ी से उतर रहा था।

प्रातः प्रत्यावर्ती यात्रा में वही उल्लास था। चाय-नाश्ता कर निकले ३२० कि.मी. पहाड़ों के बीच से आना। ड्राइवर अमरीक में वही चुस्ती-फुरती। रास्ते में हनुमानचट्टी पर पवनतनय के दर्शन किए। ऋषिकेश पहुँचे तो पता चला, रास्ता बंद है। दूर से लक्ष्मण झूला और रामझूला के दर्शन किए। अतः विकल्प रास्ता लिया। हरिद्वार के बाहर पहुँचे और तीन घंटे रुके रहे। इस देश में हर छोटे-बड़े शहर में जाम होना नई समस्या नहीं है। होटल पहुँचे तो रात के ग्यारह बज चुके थे। प्रातः संन्यासी वेश में अग्रज श्वेत श्मश्रु मंडित वयोज्येष्ठ व्यक्ति के दर्शन करते ही साष्टांग प्रणिपात किया। उन अग्रज का आशीर्वाद और शुभ कामना जीवन में यहाँ तक ले आया। बाद में सारे परिवार ने उनको प्रणाम किया! यात्रा में ऐसा संयोग दुर्लभ होता है।

हरिद्वार में दो दिन अधिक रुक गए। एक दिन सायं तो गंगा आरती देखने निकले। गंगा किनारे विराट् मेला। वहाँ बिरला टावर के पास बैठकर गंगा स्तवन किया। फिर जब एक साथ २१ बत्तियों की आरती शुरू हुई। कोई चालीस-पचास स्थल पर वह दिव्य दर्शन! सब अनुशासनपूर्वक माँ गंगे की वंदना, अर्चना और आरती करते रहे। भक्तिपूर्ण यह समूह वंदना देशभर में अनूठी है। इसका आनंद शामिल हुए बिना अनुभूत नहीं होगा। जयकारे तो सब मंदिरों में लगते हैं, पर मुक्ताकाश में इतना बड़ा जन-समूह प्रार्थना करता देख पाना अलौकिक है! बाद में सब शांतिपूर्वक विसर्जित हो जाते हैं। रात में आकर विश्राम किया। हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून की त्रयी अपने आप एक अलग यात्रा की माँग करती है। अतः उसे फिर कभी करेंगे। इस बार सारा लोभ सँवरण कर प्रातः दिल्ली चल पड़े। पहाड़ों का विशाल ‘अलय’ पीछे छूटता गया। पहाड़ की लंबी लकीर पर दौड़ती गाड़ी अब समतल और भीड़-भाड़ भरे इलाके से गुजर रही थी। समझ नहीं पा रहा कि जंगल वहाँ था या यहाँ है?

वह दूर होकर भी शांत-शिष्ट दिव्य लग रहा। यहाँ शोर-शराबा और अपने में भाग दौड़ करता इलाका! रास्ते में कहीं जाम नहीं मिला। सब यथासमय हम हवाई यात्रा से एक बजे, हैदराबाद वाले ग्यारह बजे और चंद्रपुर वाले नागपुर दस बजे पहुँच गए।

हमारा कार्य अभी बाकी था। अगले दिन पुरी पहुँचे। जैसे गंगोत्तरी का जल रामेश्वर चढ़ाने की परंपरा है, वैसे ही बद्रीविशाल का प्रसाद श्रीजगन्नाथ तक लेना पड़ता है। सोचा था, लंबी लाइन होगी। पर हम सीधे नाट मंडप में पहुँच गए। श्रीचैतन्य जहाँ से दर्शन करते, वहीं खड़े हो श्रीजगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्रजी एवं सुदर्शन की चतुर्धा मूर्ति के दर्शन किए। इस दिव्य यात्रा को सफल करने में उनकी कृपा दृष्टि जरूरी थी। अतः कृतज्ञता ज्ञापन कर लौट आए। यात्रा का आनंद भी खूब रहा, वे पहाड़ी रास्ते नागिन की तरह बल खाते। बच्चों का साथ, कभी धार्मिक भजन गाते रास्ते को मोदमय कर रहे हैं तो कभी हँसी-मजाक चलता है। साथ में समधीजी अपने थैले से कभी कुछ निकालकर खिला रहे हैं कभी कुछ। हमारे सारथी और जो हमारा सारा खाने-रहने, सुख-सुविधा का दायित्व ले रखा था, बोहराजी ने भी हमारा पूरा ध्यान रखा। हमें कब चाय चाहिए, कब खाना कैसा चाहिए। फिर हमें उठाना, टाइम पर जगाना, यात्रा की तैयारी सबका ध्यान रखते। उन्हें भी हम धन्यवाद देते हैं। हमें मौसम ने भी कभी परेशान नहीं किया। हम तो मौसम से ही डर रहे थे। कहीं बर्फ या बरसा हमारी यात्रा खराब न कर दे। भगवान् की असीम अनुकंपा से कहीं भी हमें परेशानी नहीं हुई। देवस्थान के बारे में जितना कहें कम है, मैंने जितना देखा, अनुभव किया, उसका वर्णन किया है।

भारत में इन यात्राओं का आध्यात्मिक महत्त्व कम हो रहा है। टूरिस्ट बनकर जाते हैं। जो हो, यूरोप-अमेरिकी से बढ़कर आज भी भारतीय जन का आकर्षण बदरी, रामेश्वर, पुरी, द्वारका है। युगानुरूप भावना बदल जाती है। अब वहाँ सुविधाएँ भी बढ़ रही हैं। यह ‘चार धाम’ यात्रा बहुत शीघ्र साम्य और सुलभ हो सकेगी। ऐसा विश्वास है। सरकारी उद्यम प्रशंसनीय हैं! भारतीय संस्कृति-परंपरा वहाँ सुरक्षित है, सहज जाकर देखें तो सही।

जय यमुनोत्तरी, जय गंगोत्तरी, जय केदारनाथ, जय बदरीनारायण!
१०५ श्रीधर, बालाजी कॉम्प्लेक्स,
झारपड़ा, भुवनेश्वर-६१७१९८ (ओड़िशा)
दूरभाष : ९४३७६३५१९८
—शंकरलाल पुरोहित

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