अतुल्य भारत : प्रकृति का गीत, सत्य का संगीत

अतुल्य भारत : प्रकृति का गीत, सत्य का संगीत

आकाश में नर्मदा बह रही है। एक परिक्रमावासी उसके किनारे-किनारे चला जा रहा है। अब नर्मदा उस संन्यासी के कमंडल में समा गई है। थोड़ी देर बाद देखा तो वह संन्यासी एक पेड़ की छाया में बैठा है। सामने वेदी है। उसमें से अग्नि उठ रही है। फिर यह सबकुछ मिट गया है। एक ग्वाला कंधे पर लकड़ी लिये चला जा रहा है। आगे-आगे गाएँ जा रही हैं, पीछे-पीछे ग्वाला। अब उसके कंधे की लकड़ी हाथ की बाँसुरी बन जाती है। अब यह बाँसुरी बजा रहा है। गाएँ आकाश के मैदान में चरने लगी हैं। एक बछड़ा पूँछ ऊँची कर कुलाँचें मारने को तत्पर है। एक गाय बछड़े को दूध पिला रही है।

दूसरे क्षण यह सब साफ हो जाता है। एक खेत में किसान हल चला रहा है। एक बैल सफेद है, दूसरा श्यामल। थोड़ी दूर पर गागर लिये किसान की पत्नी खड़ी है। अब वे दोनों हँस रहे हैं। बैल हल से छूटकर न जाने कहाँ चले गए हैं। किसान और उसकी पत्नी के पास बेटी आकर खड़ी हो जाती है। माँ उसके सिर पर हाथ फेर रही है। बेटी के हाथ में बस्ता आ जाता है। वह स्कूल चली जाती है।

पूरब के आकाश में धुआँ-सा उठता है और उसमें से रेलगाड़ी निकलकर सिर-चढ़े आकाश के स्टेशन पर आकर रुक जाती है। अब उसी जगह एक बड़ा भारी कारखाना खड़ा है। भिलाई का इस्पात कारखाना उसी में से निकलकर धरती पर आ थमता है। यह भी संभव है कि भिलाई इस्पात कारखाने का ही चित्र आकाश के फलक पर छप रहा हो। उस कारखाने के पास एक सूखी नदी है। उसमें एक ट्रक उलट गया है। उसके ऊपर खड़ा फटे कपड़ोंवाला आदमी हँस रहा है। जोर-जोर से हँसते हुए धनुष हुआ जा रहा है।

थोड़ी देर बाद आकाश में पहाड़ खड़े हो जाते हैं, हिममंडित पहाड़, ग्लेशियरों वाले पहाड़। उनसे निकलती हैं—सदानीरा नदियाँ। नदियाँ जोड़ती हैं—पहाड़ों को समुद्र से। वे सेतु बन जाती हैं। फिर नदियाँ सूख जाती हैं। उनके आस-पास का अरण्य मरुस्थल में बदल जाता है। फिर ग्लेशियर पिघलते हैं। समुद्र उफान भरते हैं। आकाश में बनी धरती डूब जाती है। उसमें सबकुछ डूब जाता है। सबकुछ, हिमालय भी।

अब आकाश बिल्कुल साफ  है। उसमें कुछ भी, कोई भी चित्र नहीं है। बिल्कुल साफ प्रलय के बाद की धरती के समान शून्य और मौन।

यह चमत्कार जैसा कुछ नहीं है। मैं हरिद्वार में ‘हर की पौड़ी’ पर गंगा में पाँव डुबाए बैठा हूँ। आकाश में बादलों के द्वारा बनते हुए चित्र देख रहा हूँ। आकाश में लिखी जा रही प्रकृति की कविता पढ़ रहा हूँ। धरती का लालित्य गंगा बनकर बहता जा रहा है और प्रकृति का लालित्य आकाश की छत से उतरकर कण-कण में मौन होकर बैठ रहा है। यह पत्र-पत्र में मुखर हो रहा है। उत्तर की तरफ  देखता हूँ तो नगाधिराज हिमालय के रूप में धरती के सौंदर्य के ढेर-के-ढेर लगे हैं। अद्भुत है यह सबकुछ। हिमालय से निकलती हुई गंगा और मेकल से निकलती हुई नर्मदा के रूप में लालित्य कला बनकर बह रहा है।

यह किसकी कला है, जो पहाड़ को हिमालय और नदी को गंगा बनाती है? और यह भी किसकी कला है कि हिमालय को पहाड़ तथा गंगा को नदी बनाती है? किसने बनाई हैं ये कलाकृतियाँ? कौन है, जो बादलों को नाना नाम-रूप-आकार देता है? कौन है, जो चंद्र-सूरज की आँखों से ब्रह्मांड को देखता है? कौन अदृश्य हाथों से मानव-मूर्तियाँ बनाता है? उन मूर्तियों के रंग अलग, रूप अलग, आकार अलग। एक से दूसरी सर्वथा भिन्न। किसने बादलों को बूँदों में बदलकर धरती पर जीवन की रतन-जडि़त गागर को भरा है? कौन श्वास-प्रश्वास में स्वयं को ही जिंदा रखे हुए है? कौन घर की खिड़की के शीशे पर धुंध बनकर चिपकता है? कौन झील की गहराई में स्वयं की गंभीरता की थाह लेता सा प्रतीत होता है? वह कौन है, जो दाल के दो पाटों के बीच स्वयं को अंकुरण की नाक के रूप में बचाए रखता है? कौन है, जो जीवन में रोज जन्मता है और मृत्यु में रोज मरकर भी अमर रहता है?

कौन काल की अनंतता के केंद्र में स्वयं को स्थित किए हुए है? मसूरी के पास पहाड़ पर से गिरता और तेज दौड़ता ‘केंपटी फाल’ किससे मिलने को इतना आकुल-आतुर है? उसकी बिखराहट में भी लय है और उसके बहने में संगीत है। किनारे चट्टान पर बैठकर कभी सुना है—उसकी क्षण-क्षण की गति से फूटते संगीत को। यह झरने की सौंदर्य-सुवास है या सत्य का संगीत? किनारे बैठे ये पत्थर; इनसे बड़ा तपस्वी कौन है? आँधी, वर्षा, सर्दी, गरमी, चाँदनी सबमें अडिग और अविचल। भला कोई है इतना अटल साधक? पहाड़ों की घाटियों में गूँजती हवाओं की वीणा और बाँस-वनों से बजती बाँसुरी के रसभीगे सुरों में कौन पुकारता है? इस पुकार पर जब भी कोई बावरा-सा दौड़ा है, जब भी कोई इनके साथ बजा है, वह प्रकृति हो गया।

प्रकृति होने के साथ ही संस्कृति बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। कला संस्कृति का एक आयाम है। कला का मूल घर प्रकृति है। प्रकृति कला की जन्मदात्री भी है, प्रेरक भी, पोषक भी है।

जब-जब हिमालय की ओर दृष्टि जाती है, एक सम्मोहन-सा जगता है। जो चैतन्य हिमालय की अचलता और संभार के रूप में सामने है, वही चैतन्य का अंश हमारे भीतर भी अंशतः स्थिर है। ये दोनों अनंतकाल से अनंत दिशाओं में साथ-साथ चले जा रहे हैं। इसीलिए तो हमारे भीतर का चैतन्य हिमालय के सौंदर्य से जुड़कर महासौंदर्य की खोज की अनंत राह पर चल रहा है। चला जा रहा है। इस यात्रा का न तो आदि है और न अंत। काल की इस अनंत पगडंडी पर अनेक संकल्पों-विकल्पों के साथ चलते हुए हम महाचिति की इच्छा को ही तो पूरा कर रहे हैं। इसी इच्छा की पूर्णता में आकाश में बादल चित्र बना रहे हैं। धरती पर हिमालय संकल्प-सा दृढ़ है। हिमालय और धरती पर स्थित सारे पहाड़ों से निकलती हुई गंगा सहित तमाम नदियाँ उसी चैतन्य से मिलने की तन्मयता में बावरी-सी दौड़ी जा रही हैं। ऊपर घाटियों से नीचे के मैदानों तक की यह यात्रा महाचैतन्य की इच्छापूर्ति के लिए रचा गया सुंदर स्वर्ग है। महासागर अपनी उत्ताल भुजाओं में उसी चैतन्य को अँकवारने के लिए आकुल-आतुर है। वनस्पतियाँ फूलों के रूप में अपनी आत्मा को खोलकर उसी परम सत्य को सुवास का अर्घ देने हेतु उत्फुल्ल हैं।

यह सब महाचिति की इच्छा का ही परिणाम है। इसकी अभिव्यक्ति प्रकृति के नानाविध चित्रों में होती है। महाललित ने ही सारे चित्र बनाए हैं, जिसे हम ‘प्रकृति’ कहते हैं। इसके सान्निध्य में व्यक्ति आया। व्यक्ति-विकास की प्रक्रिया में आदिम संग-साथ प्रकृति का ही है। मनुष्य ने अपनी विकास-यात्रा में प्रकृति को देवी, माँ, सहचरी, प्राण के रूप में पाया। इस रूप में परमसत्ता की आद्य शक्ति पार्वती के लास्य की भंगिमाएँ उसे नजर आईं। कहीं महाप्रलयंकारी हिमपात, आँधी, अंधड़, झंझावात, प्रभंजन, जल आप्लावन और समुद्र की भीषण तथा उत्ताल तरंगावलियों में शिव का तांडव ही रूपायित होता आया है। प्रकृति के दोनों रूप कला के जन्म की प्रेरणा और कारण बने हैं। शिव का तांडव और पार्वती का लास्य ललितकलाओं की आधारभूमि है। इन प्रकृति-कृतियों में एक ओर परमललित को पाने की चाह है तो दूसरी ओर कला के लालित्य को पाने और उसके विस्तार के छंद भी हैं।

इसे प्रकारांतर से प्रकृति की कला भी कहते हैं। प्रकृति की यह कलाकृतियाँ निरंतर बदलती हैं। क्षण-क्षण का परिवर्तन ही इनका सौंदर्य है। यह परिवर्तन ही दर्शन, साहित्य, नृत्य, चित्र, संगीत, शिल्प को जन्म देता है। अभी-अभी आकाश में बादल थे, अब नहीं हैं। अभी-अभी फूल पर तितली थी, अब नहीं है। जो पहली किरण का सौंदर्य हिमालय पर पड़ा, वह दूसरी का नहीं है। सुबह के रंग कुछ और, शाम के कुछ और हैं। माउंट आबू में सूर्यास्त को देखना जीवन के अद्भुत को पा जाना है। लेकिन पहले दिन के सूर्यास्त की छवि से दूसरे दिन के सूर्यास्त का सौंदर्य भिन्न है। यह भी कि पचमढ़ी के सूर्यास्त और माउंट आबू के सूर्यास्त की भंगिमाएँ भिन्न हैं। नर्मदा के भेड़ाघाट, पचमढ़ी के रजत प्रपात और अमेरिका के नियाग्रा प्रपात के पानी के गिरने की गति और संगीत में फर्क है। यह विविधता ही समान कार्य-कारण के बावजूद सुंदरता उत्पन्न करती है। जल का स्वभाव है—ऊपर से नीचे की ओर गिरना। यह विज्ञान का भी सत्य है। लेकिन उसमें तरंगायित गति और गति से उपजी अभिनयशीलता तीनों को अलग-अलग छवि देती है। यह छवि ही कला का सत्य भी है। कला इसे ही पकड़ती है।

निरंतर परिवर्तनशीलता के कारण ही प्रकृति का रहस्य भी है और सौंदर्य भी। इस रहस्य को खोलने की धुन में जो जितना पागल होता है, उसके हाथों उतना ही सौंदर्य हासिल होता है। सौंदर्य गतिशील है; क्योंकि प्रकृति गतिशील है। यह सृष्टि सुंदर है, इसलिए कि समय का प्रत्येक टुकड़ा इसमें बदल पैदा कर देता है। जिस समय में हम अभी हैं, अगले ही क्षण हम वह नहीं रहते। हमारे साथ-साथ सृष्टि भी वह नहीं रहती, जो पिछले क्षण थी। हम एक स्थिति में कभी नहीं लौटते : कभी नहीं, वैसा का वैसा, पुनर्जन्म लेकर भी नहीं। हम एक ही नदी को दुबारा नहीं पार कर सकते। जब हम पहला पैर नदी में रखते हैं तो जो नदी उस समय रहती है, अगला पैर रखते ही वह नहीं रहती। वह बह चुकी होती है। बस इसी सौंदर्य-निहित सत्य को पाने की कोशिश में कला की साधना चलती है। इसीलिए एक ही ‘लैंडस्केप’ के दो चित्र समान होते हुए भी बिल्कुल समान नहीं होते; क्योंकि पहला चित्र बनाते समय जो कलाकार की सौंदर्य-स्थिति थी, वह दूसरे चित्र में बदल गई है। उसके चित्र के रंगों में बारीक सा फर्क आ गया है, क्योंकि कला-सर्जक के भीतर के रंग बदल गए हैं।

सौंदर्य आकर्षण को जन्म देता है। भयानकता भी आकर्षित करती है। सौंदर्य, जो लास्य मिश्रित है, उसे हम छूना चाहते हैं, पाना चाहते हैं। भयानकता, जो तांडव है, उसे हम देखना चाहते हैं, समझना चाहते हैं। आकर्षण दोनों में है। प्रकृति में सुंदर-असुंदर नहीं होता, वहाँ केवल सर्जन होता है। वहाँ सृष्टि होती है। उसके सारे स्वरूपों का लालित्य होता है। अर्थात् भयानकता का भी एक सौंदर्य होता है। जो सिंह हिरण की गरदन मुख में दबाए हुए होता है, वह हरि घास पर लोट लगाता हुआ अगले ही समय-खंड में धूप सेंकता दिखाई देता है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या यह संसार रहने लायक होता? क्या बार-बार देखने की प्यास आँखों में जगती?

आकाश में बादल बनते हैं; मिटते हैं। फलक साफ होता है। खलक नए-नए रूपों में फिर भी व्याख्या पाता रहता है। परिवर्तन विकास है। परिवर्तन आकर्षण है। परिवर्तन सौंदर्य है। एक मिटता है, दूसरे का जन्म होता है। पुष्प टूटता है, बीज का जन्म होता है। पत्ता झड़ता है, नई कोपलें आती हैं। बादल मिटता है, बूँदों के जन्मोत्सव पर सोहर गाया जाता है। आँसू झरते हैं तो अवसाद मिटता है। एक अवसाद भरी सामान्य स्थिति में से नई आशा जन्म लेती है। प्रकृति की प्रत्येक कला का जन्म और मृत्यु सम पर रहते हैं। जन्म उसके लिए न उत्सव है और न मरण अवसाद। उसके लिए दोनों ही विकास, सौंदर्य और आकर्षण के बिंदु हैं। इसीलिए प्रकृति में मरण भी त्योहार है, समर्पण भी महाप्रकृति की प्राप्ति है। बिना अपने को खोए, परमप्रकृति को पाया ही नहीं जा सकता। वृक्ष बनने के लिए बीज का समर्पण और समुद्र बनने के लिए बूँद का समर्पण ही महाभाव का विस्तार है। सौंदर्य का नए-नए रूपों में रूपांतरण है।

एक टुकड़ा भर धूप कलम पर उतरती है तो मन की नदी बह निकलती है। ललित-धारा जीवन के तटों को सींचती हुई सरकने लगती है। मीठी चाँदनी में सरकती यह सरिता सृष्टि का शृंगार बन जाती है। प्रकृति की कला के समकक्ष एक ललित प्रवाह बन जाती है। एक रोशनी का दरिया कूँची में समाता है तो समय के गतिशील क्षणों में उभरे दृश्य स्थिर हो जाते हैं। वानगॉग और पिकासो की कूँची से सम के वे टुकड़े दृश्यों में युग-युग के लिए फ्रीज हो जाते हैं, अमर हो जाते हैं। लेकिन जहाँ प्रकृति के खिलाफ  कलाकृति जाती है, जहाँ कलाकृति अप्राकृतिक आचरण चित्रित करती है, उसे प्रकृति की प्रकृति और मानव की प्रकृति दोनों ही समय-कक्ष के कोने में रखी डस्टबिन में पटक देते हैं। कला प्रकृति की सहजता का अनुकरण और विस्तार है। सर्जनात्मकता और शिवत्व से परिपूर्ण होते हुए वह संस्कृति बनती है। जब वह इससे हटती है, विकृति की हद में प्रवेश शुरू हो जाता है।

गुफा से निकलकर हवा का एक झोंका आता है तो मस्तिष्क में विचार बनकर घुमड़ता है। विचार का उद्वेग नहीं, उसका संतुलन कला को उपयोगी बनाता है। ललितकलाएँ प्रकृति से प्रेरित उद्भावनाएँ होती हैं। प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त उपयोगी कला भी होती है। लेकिन उपयोगी कला सृष्टि के हर तत्त्व को वस्तु मानती है और उसका मनुष्य के हित-अहित में उपयोग करती है। ज्वालामुखियों से लावा फूटना; और ठंडा होकर चट्टानों के रूप में उसका ढलना प्रकृति में घटित होता है। यह ही आधुनिक विकास की धमनभट्ठियों, इस्पात कारखानों की कला का उत्प्रेरक है, कला के विचार का जन्मदाता है। विशाल कारखानों, उद्योगों, बाँधों, विशालकाय अट्टालिकाओं के रूप में यह विचार मनुष्य की कला का उत्कृष्ट रूपांतरण है। इनका भी एक सौंदर्य है, आकर्षण है। भिलाई इस्पात कारखाने के भीतर जाएँ तो अक्ल काम नहीं करती है। मनुष्य की अक्कल से निकली कला पर ही हमारी समझ नासमझ हो जाती है। लोहा पानी बनकर नालियों में बहता है। अगले ही क्षण वह अलग-अलग रूपों में गलकर, ढलकर, कटकर बाहर हो जाता है। दूसरे दिन रेलगाड़ी में बैठकर मजे से अरण्यों की सैर करता हुआ एक नई कला-सृष्टि के लिए चला जाता है। कमाल है—मनुष्य की ललित संभावना का। चमत्कार है—मनुष्य के भीतर बैठे चैतन्य का।

उत्तर में काली घटा घिर आई है। आसमान के फलक पर फिर कोई अद्भुत रंगों से अनुपम कृतियाँ बनाने लगा है। गंगा के पानी से स्फुरित संगीत विस्तार पाता हुआ मैदान के सीमांतों तक फैलने लगा है। नर्मदा की लहरों पर जीवन के नानाविध सौंदर्य-रूप उभरने लगे हैं। सब तरफ एक मौन मुखर हो रहा है। एक चुप धरती पर अपने फैलाव में लेटा है। उसी के आँचल से सत्य का संगीत जनमता है। उसी से पपीहे की रटन में एक गीत फूटता है। उसी गीत की कडि़यों को काली घटा से बरसती बूँद करुणार्द्र करने लगती है। धरती और आकाश का नेह उस बरसात में स्नान करने लगता है। साँझ ‘हर की पौड़ी’ पर उतर आई है। साँझ के साथ ही शैलसुता के जल में काली घटाओं के, नीले गगन के, तारों के, लहरों के, संगीत के, पपीहा के, गीत के और हिमालय के शिखरों के कई-कई चित्र बनने लगते हैं। उन चित्रों में गहराता हुआ ललित जल के साथ ही तरलायित होकर महाललित को पाने के लिए गतिमान हो उठता है। मैं इन चित्रों के साथ ही देवसरि के नीर में अपना प्रतिबिंब निहारते हुए उस लालित्य को पकड़ना चाहता हूँ और मृगशिरा की पहली बरसात में बूँद-बूँद भीग जाता हूँ। ‘मनसा देवी’ की पहाड़ी पर पपीहा फिर बोलता है, ‘पी प्यासो। पी कहाँ’! मैं आँखें मूँदकर देखता हूँ—अतुल्य भारत अनुपम विराट् रूप में सृष्टि-फलक पर विहँस रहा है।

इति शुभम्।

आजाद नगर,
खंडवा-४५०००१
दूरभाष : ०९४२५३४२७४८
—श्रीराम परिहार

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