मन को लुभाती ब्रज की होलियाँ

मन को लुभाती ब्रज की होलियाँ

धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आस्थाओं का केंद्र कहे जानेवाले भारत देश में विभिन्न सामयिक तिथियों पर पर्व, मेले एवं मनोरंजक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जो कि भारतीयों की भावनाओं से जुडे़ होते हैं। ये सभी पर्व अथवा कार्यक्रम नवीन एवं पुरातन संस्कृति के जीवन से प्रेरणा देते हुए मार्गदर्शन करते हैं। इनका महत्त्व इन पर्वों के निकट आने से पूर्व ही प्रदर्शित होने लगता है। अतः इनकी तैयारियों में लोग उत्साहपूर्वक जुट जाते हैं; चाहे वे लोग किसी भी धर्म के माननेवाले या अनुयायी हों, उनके चेहरे आनंद एवं खुशी के पारावार में निमग्न हो जाते हैं। ये अपने अनुरूप इनका अनुसरण करते हुए इन्हें मनाने हेतु अपनी सामाजिक मान्यताओं के आधार पर पर्व जैसे कार्यक्रमों को बल देते हैं तथा प्रसन्नतापूर्वक पर्वों का स्वागत करते हैं।

यों तो देश में अनेक पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं, परंतु सभी धर्मानुयायी (विदेशी भी) दीपावली, होली एवं रक्षाबंधन जैसे महापर्वों को प्रसन्नतापूर्वक अत्यंत धूमधाम से मनाते हैं। इनके अलावा प्रतिमाह सौभाग्यवती महिलाएँ अपने पति, भाई एवं पुत्रों की शुभकामना एवं दीर्घायु की इच्छा से व्रत भी रखती हैं, जो शुभ फलदायी होते हैं।

ब्रज क्षेत्रांतर्गत महापर्वों में होली एक ऐसा अनूठा उत्साह एवं प्रसन्नता लुटानेवाला पर्व है, जिसकी स्मृति मानसपटल पर आते ही ब्रजाधीश, रासलीलाधारी श्रीकृष्ण और ब्रजेश्वरी श्रीराधारानी के प्रेमयुक्त लालित्य लीलाओं व महारासों के चित्ररूप में उभर पड़ती है। यही कारण है कि आज भी समूचा ब्रजक्षेत्र श्रीराधा-श्रीकृष्ण के मधुर संगीतमय उद्घोष से गूँजता सुनाई पड़ता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने राधा को आह्लादित करने के लिए ही ब्रज के ग्वालबालों एवं ब्रज-गोपियों के साथ समूचे ब्रजक्षेत्र में हास-परिहास के महारास किए थे। श्रीकृष्ण राधा को अपनी आदिशक्ति मानकर ‘ब्रजेश्वरी’ और ‘श्रीजी’ नामों से उद्बोधन करते रहे थे। वे अपने भक्तजनों के प्रति उन्हें उदारता और कृपा भाव करने के लिए प्रेरित करनेवाली मानते थे। इस भाव को एक कवि ने लिखा भी है—

राधा तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन,

तीन लोक तारन तारिनि, सो तेरे आधीन॥

कहने का भावार्थ यह है कि बिना राधा की कृपा के भगवान् श्रीकृष्ण कुछ भी नहीं करते हैं, यद्यपि वे तीनों लोकों के नाथ हैं।

श्रीकृष्ण की क्रीड़ास्थली मथुरा-वृंदावन ही नहीं, नंदगाँव, बरसाना, गोवर्धन, गोकुल और चौरासी कोसीय परिक्रमा के अंतर्गत पड़नेवाले विभिन्न पड़ावों के गाँव भी हैं। उन्होंने जहाँ सूर्य-पुत्री यमुना नदी के तटों पर बाल ललित-लीलाएँ कीं, वहीं यमुना में नागनाथ लीला, चीरहरण लीला करके ज्ञान की पुष्टि की एवं होली लीला से हास-परिहास का वातावरण बनाया और गोवर्धन पूजा कराकर देवताओं के स्वामी इंद्रदेव के अभिमान का दमन किया। ब्रजभाषा में होली को ‘होरी’ कहा जाता है, जिसका अर्थ पौराणिक कथा में भक्त प्रह्लाद की बूआ ‘होलिका’ के दहन को लेकर गुजर गई या जलकर मर गई, बीत गई आदि शाब्दिक रूपों से उद्घाटित होता है। दुष्टा होलिका के अंत की इस प्रसन्नता को प्रकट करने के लिए प्रतिवर्ष होली का यह पर्व विशेष तौर से भारत में फाल्गुन मास की पूर्णमासी की रात्रि को ‘होलिका दहन’ के रूप में सोल्लास मनाया जाता है।

आमोद-प्रमोद से भरे इस रोचक पर्व की शुरुआत बसंत पंचमी पर्व से होती है। इस दिन नगर, गाँव अथवा शहर के युवक, बच्चे होली सूचक पर्व का दांड़ा (वृक्ष की टहनी) छड़ी रूप में बस्ती के चौराहे पर लकड़ी व उपलों के मध्य खड़ी कर देते हैं। होली तिथि आने तक अपना समूह बनाकर बस्ती के लोगों से आर्थिक मदद लेकर लकडि़याँ, उपले आदि खरीदकर होलिका दहन के स्थान पर काफी ऊँचा ढेर बना देते हैं।

पूर्णमासी के दिन प्रातःकाल से ही सुहागिन महिलाएँ होलिका स्थल पर भक्त प्रह्लाद के जीवित रहने की भाँति अपने पति की दीर्घायु की कामना करते हुए वहाँ पूजा करती हैं। होली पर्व आने के पूर्व कुछ दिनों से ही मंदिरों, घरों एवं अन्य धार्मिक स्थलों के कार्यक्रमों से होली के मधुर, मदमाते एवं कानों को आकर्षित कर मन को रिझानेवाले गीत सुनाई पड़ते हैं।

ब्रज की होली लोक-जीवन में हास-परिहासों से भरी एवं मदमस्त कर देनेवाली अनूठी क्रीड़ाओं से युक्त होती है। ढोलक, तबला एवं विभिन्न वाद्य-यंत्रों में नगाड़ों की धमक बरबस ही मन को आकर्षित कर आत्मविभोर कर देती है। रात्रि काल में होलिका दहन के मुहूर्त-अवसर पर पंडितजी द्वारा पूजा-अर्चनोपरांत ढेर में अग्नि ब्राह्मणपुत्र के हाथों से प्रज्वलित करवाई जाती है, जिसमें मोहल्लेवासी गेहूँ व जौ की नई फसल की बालों को भूनकर खाते हैं तथा अग्नि से अँगारा रूपी लकड़ी या गूलरी (गोबर से निर्मित वस्तु) लेकर घर के आँगन में निर्मित होली को उससे प्रज्वलित करते हैं, परंतु इस अवसर पर अज्ञानी युवक प्रह्लाद के स्थान पर होली मैया के जयकारे बोलते हुए आनंद में होली स्थल से अपने घर को प्रस्थान कर जाते हैं।

होलिका दहन के दूसरे दिन अर्थात् चैत्र कृष्णपक्ष की प्रथमा तिथि को धुलेंडी अर्थात् रंग भरे मस्ती का पर्व होता है। इस दिन हर अवस्था के लोग मस्ती भरे दिखाई देते हैं। अधिक आयु के कुछ समझदार लोग अबीर-गुलाल व टेसू के फूलों का उपयोग कर होली का पर्व मनाते हैं तथा गले मिलते हैं। युवा व बालक वृद्धों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, शुभकामनाएँ देते हैं। परंतु कुछ युवक गंदी हरकतों को करते हुए दंगा कर बैठते हैं, इससे उन्हें समाज व परिवार की दृष्टि में गिरे हुए समझा जाता है। लोग उनसे सदा घृणा करते हैं। होली का आनंद पूरे चैत्र मास तक मनोरंजन कराता है। बच्चों की रंग भरी पिचकारियों से रंग-बिरंगे वस्त्रों में बच्चों की टोलियाँ झूमती दिखाई देती हैं। जिनके चेहरे काले, पीले, नीले आदि विभिन्न रंगों से पुते-सने होते हैं, जो कि पहचाने भी नहीं जा सकते हैं।

ब्रज में होली खेलने की परंपरागत होलियों में नंदगाँव और बरसाना गाँवों की होलियाँ विश्वप्रसिद्ध हैं। जो कि ‘लठमार’ (लठ मारना) होली के नाम से जानी जाती हैं। इन्हें देखने लाखों देशी-विदेशी पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं और देखकर रोमांचित हो उठते हैं। ये मस्ती भरी होलियाँ यहाँ इस प्रकार होती हैं—

बरसाना की लठमार होली

‘बरसाना गाँव’ श्रीराधा की जन्मस्थली है, जिसे उनके पिता वृषभानु ने बसाया था। यहाँ श्रीजी अर्थात् ब्रजेश्वरी श्रीराधारानी का भव्य मंदिर स्थापित है। यहाँ लठमार होली का आयोजन यहाँ की एक तंग (सँकरी) गली ‘रंगगली’ से फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि से आरंभ होता है। होली में उपयोग किए जानेवाले रंग हुरियारों (होली खेलनेवालों) की ओर से उपयुक्त फूल ‘टेसू’ से तैयार किए जाते हैं। इस ‘लठमार होली’ के प्रचलन में अनूठी प्रासंगिकता यह है कि यहाँ नंदगाँव के हुरियारे यहाँ की ही युवतियों से होली खेलने आते हैं। जिनपर ये अपने आकर्षक रंगीन परिधानों में सजी युवतियाँ लाठियों से प्रहार करती हैं। इस दौरान हुरियारे युवक व्यंग्य, लोकगीत, फब्तियाँ भरे गीत गाते हैं। इन युवतियों के लट्ठ के प्रहारों को बचाने के लिए हुरियारे अपने हाथों में ढालों का उपयोग करते हैं। यह दृश्य अत्यंत हृदयविदारक और रोमांचक संपुट होता है। होली के रंग, गुलाल और पिचकारियों की धारों से तन-मन को जहाँ आत्मसात् की नियति मिलती है, वहीं आत्मा में आनंदानुभूति भी होती है। सांध्यकाल तक चलनेवाली इस लठमार होली का यह अद्भुत सिलसिला होता है, जिसमें गोपी रूप हुरियारी युवतियाँ किसी एक हुरियारे को पकड़कर उससे ‘कुआँ पूजन’ की परंपरा पूर्ण करवाकर उसे छोड़ देती हैं। नंदगाँव की होली खेलनेवाली हुरियारिनें बरसाना के हुरियार युवकों को अपने गाँव में दूसरे दिन (नवमी तिथि) को होली खेलने के लिए निमंत्रण देती हैं और यहाँ यह होली लठमार का उत्सव धीरे-धीरे संपन्न हो जाता है।

नंदगाँव की लठमार होली

बरसाना की होली के दूसरे दिन दशमी तिथि को बरसाना गाँव के हुरियारे युवक होली खेलने ‘नंदगाँव’ पहुँचते हैं। यह गाँव भी उत्तर प्रदेश के मथुरा जिलांतर्गत है। इसे नंदबाबा ने बसाया था। यहाँ प्राचीन दृष्टव्य मोतीकुंड, पान सरोवर, विहारकुंड, अकू्ररजी की बैठक, महारास चबूतरा, ललित बिहारी मंदिर आदि स्थापित हैं। यहाँ भी बरसाना गाँव की तरह ‘लठामार होली’ खेली जाती है। यहाँ बरसाना के हुरियारों के साथ नंदगाँव की हुरियारिनें अर्थात् गोपियों के रूप में युवतियाँ उनपर लठों के प्रहार करती हैं। इस दौरान हुरियारे हुरियारिनों से लोकगीतों में रसिया, होली गाते हुए, व्यंग्य-परिहासों में फब्तियाँ कसते हुए इस प्रकार गाते दिखाई पड़ते हैं—

आज बिरज में होरी रे रसिया!

कै मन तौ यामें रंग घुरवायौ,

कै मन केसर घोरी रे रसिया।

आज बिरज में होरी रे रसिया!

सौ मन तौ यामें रंग घुरवायौ,

सौ मन केसर घोरी रे रसिया।

आज बिरज में होरी रे रसिया!

कौन गाँव के कुँवर कन्हैया,

कौन गाँव की गोरी रे रसिया।

आज बिरज में होरी रे रसिया!

नंद गाँव के कुँवर कन्हैया,

बरसाने की राधा गोरी रे रसिया।

आज बिरज में होरी रे रसिया!

इसी बीच दूसरी ओर से सुनाई पड़ता है यह लोकगीत—

होरी खेलन आयो श्याम आज याहि रंग में बोरौ री,

रंग में बोरौ री, करौ कारे सों गोरौ री।—होरी...

दै कै गुलचा गाल लाल कर याकूँ घोरौ री—होरी...

मिलिकै सिगरी सखी अबहि तुम याकूँ घेरौ री—होरी...

ब्रज की इन होलियों की समाप्ति पूरे चैत्र मास में गाँवों में होनेवाले हुरंगों (फूलडोल) में बजते नगाड़ों के धमाकों से और आकर्षक लोकगीत एवं लोकनृत्यों के साथ होती है, जिन्हें विदेशी सैलानी अपने कैमरों में कैद कर अपने देशों में ब्रज की होलियों का प्रचार-प्रसार करते हैं। इस समय का मनोरंजक वातावरण अत्यंत ही लुभावना होता है, जो दर्शकों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है।

अनोखा है फालेन का होली मेला

मथुरा जिले के कोसीकलाँ से कोसी-शेरगढ़ मार्ग पर सात किलोमीटर दूर ग्राम ‘फालेन’ में फाल्गुन की पूर्णिमा अर्थात् होली दहन की रात्रि को एक विशाल मेला लगता है, जहाँ हजारों दर्शक देशी-विदेशी तथा दुकानदार पहुँचते हैं। लोग इस गाँव को ‘फारेन’ भी कहते हैं। यहाँ एक परिवार पंडा इंद्रजीत का रहता है, जिसके करिश्मे को देखने के लिए पहले भी बहुत बड़ा मेला लगता था। अब सन् २००१ से उनका पुत्र सुशील करिश्मा दिखाता है। इस गाँव में एक प्रह्लाद मंदिर भी है। यहीं एक प्रह्लाद कुंड है। यहाँ से कुछ दूरी पर हर वर्ष होलिका दहन कार्यक्रम किया जाता है, जहाँ लकडि़यों का काफी ऊँचा ढेर लगाया जाता है। इस स्थल को ‘अग्निवृत्त’ कहा जाता है। इस ढेर को जला दिया जाता है, फिर उक्त पंडा उक्त कुंड में स्नान करने के बाद एक जलते दीपक पर अपना परीक्षण करता है। वह एकादशी से इस दिन तक अन्नाहार छोड़ देता है। उसकी बहिन इस स्थान से होलिका दहन के स्थान तक जल की धार बनाती है, जिस पर चलकर वह पंडा वहाँ तक पहुँचता है और जलती अग्नि के बीच से निकलकर दूसरी ओर निकल जाता है; जहाँ से दर्शक गोदी में भरकर उसे उठा ले जाते हैं। उक्त पंडा यह कार्य लगभग बीस वर्षों से कर रहा है। दर्शक अग्निवृत्त की राख को अपने माथे से लगाकर अपने-अपने घरों को ले जाते हैं। सभी आश्चर्य में डूबे होते हैं। गाँव की आबादी यद्यपि बहुत कम है, अपितु धार्मिक संस्थाओं का सहयोग यहाँ उपलब्ध है, जिसके कारण पर्यटकों के लिए आवासीय एवं सुरक्षा व्यवस्था भी उपलब्ध रहती है। इस मेले में ग्राम वधूटियाँ अपने मधुर कंठ में होली गीत गाती सुनाई पड़ती हैं, जो अत्यंत मनमोहक होते हैं। इस अवसर पर लोग गुलाल लगाते और गले मिलते दिखलाई देते हैं, जिनका पारस्परिक प्रेम-बंधुत्व भावनाओं का प्रतीक होता है। उन्हें ऐसा देखकर बरबस ही हृदय में सद्भावनाएँ एवं प्रेम की क्यारियाँ फूट पड़ती हैं।

ब्रज के आकर्षण होली एवं हुरंगा मेले

फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिलांतर्गत बरसाना गाँव की लठमार होली, दूसरे दिन दशमी तिथि को नंदगाँव की लठमार होली, रंग भरनी एकादशी तिथि को मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि एवं वृंदावन के श्रीबाँकेबिहारी मंदिर पर रंग होली; द्वादशी तिथि को गोकुल में छड़ीमार होली; पूर्णिमा ‘होली दहन’ तिथि को गाँव फालेन की प्रज्वलित होली से पंडे का जीवित निकलना।

चैत्र के कृष्ण पक्ष की प्रथमा तिथि को धुलेंडी के दिन मथुरा के जगप्रसिद्ध श्रीद्वारकाधीश मंदिर में टेसू के फूलों के रंग व गुलाल की होली। दूसरे दिन द्वितीया तिथि को गाँव बल्देव में दाऊजी का हुरंगा मेला एवं इसी दिन गाँव जाव में भी हुरंगा मेला आयोजित किया जाता है।

तीसरे दिन तृतीया तिथि को बठैन गाँव में भी एक विशाल एवं लोक-कलाकारों का आकर्षक हुरंगा मेला प्रतिवर्ष लगता है। इन सबके अलावा ब्रज के अन्य क्षेत्रों में भी नाना प्रकार के हुरंगे एवं होली संबंधित रोचक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

श्याम ज्वैलर्स, निकट गोल मार्केट
प्रताप विहार, किराड़ी, दिल्ली-११००८६
दूरभाष : ९२११६२५५६१
कुलभूषण सोनी

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