पुलिसवालों की होली

पुलिसवालों की होली

उसने खोजी नजर उस चाय की दुकान पर डाली, ‘‘मर गए साले सब-के-सब, ऐसा भी कहीं त्योहार मनाया जाता है? सारी दुकानें बंद करके मस्ती करने में लगे हुए हैं, पूरी रात बीत गई हरामखोर हुड़दंगियों को अस्पताल पहुँचाते-पहुँचाते। कम-से-कम बीस को तो उसने ही पहुँचाया, कितनी भीड़ थी अस्पताल में! उफ्फ! अगर हम भी इन्हीं की तरह त्योहार मनाने लगें तब क्या हो? देखो तो दलिद्दर लोग कैसे सबकुछ गंदा छोड़कर भागे हैं? भट्ठी पर कुत्ता सो रहा है, सो ले बेटा, सो ले! तेरा ही तो राज है, यहाँ तो चाय के लिए जी तरस रहा है।’’ वह चाय की तलब से अपने को बेचैन अनुभव करने लगा। वैसे तो कई लोगों से उसकी पहचान थी, किंतु पुलिसवालों से पहचान कैसी होती है, वह अच्छी तरह जानता है, एक तो त्योहार का दिन! ऊपर से सबेरे का समय, ज्यादातर लोग दिनभर के थके देर रात को सोए होंगे, कौन उसे अपने दरवाजे पर देखकर प्रसन्न होगा? उसने मन को मारा। सात बजे होंगे सुबह के, सड़कें-गलियाँ वीरान थीं, जगह-जगह रंग-गुलाल से धरती लाल थी। चौक-चौराहों पर होलिका दहन के अवशेष बिखरे पड़े थे। कहीं राख, कहीं सुलगती लकडि़याँ, कहीं शराब की बोतलें। दो दिन पहले से शराबबंदी है, फिर भी न जाने कहाँ से मिल जाती है शराब? वह धीरे-धीरे टहलता हुआ पूरे मोहल्ले की टोह लेता रहा। नगर निगम के नल में पानी आने लगा था। उसने मुँह-हाथ धोकर अपनी थकान मिटाने का प्रयास किया। अभी तो वातावरण में शांति छाई हुई थी। नल के पास पड़ी टूटी चूडि़यों से उसे कल का वह भयावह मंजर याद हो आया, जिसे देख उसकी बुद्धि चकरा गई थी। रात के करीब दस बजे होंगे, वह माँ भद्रकाली मंदिर के प्रवेश द्वार के पास चबूतरे पर बैठा जरा सी कमर सीधी कर रहा था कि किसी महिला की आवाज उसके कानों से टकराई, ‘मोला जान देवा ददा हो तूंहर पां परत हौंऽ...ऽ!’

‘कतेक मुशकिल म इहाँ तक लाये हन, छोड़ेच बर? चुपे चुप रहे रऽ...ऽ, अमरा देबो तोर घर, किल्ली पारबे त नरी मसक देहूँ।’

मामला संगीन मालूम पड़ता है। उसने तत्काल अपने हेंडसेट पर पुलिस कंट्रोल रूम का नंबर डायल किया।

वे मोटर साइकिल पर थे दो युवक और एक औरत, किसी बात पर उनमें झिकझिक हो रही थी।

‘तैं एही मेर रव यार! में ऐला ठिहा म अमरा के आवत हँ, तिहाँ तोहु ला लेगहूँ!’ उसकी जबान लड़खड़ा रही थी।

‘नहीं यार तीनों झि एके संग जाबो बने तो जावत हन।’

‘तें समझस नहीं यार ओदे पुलिसवाला है, तुरंत रोक लिही, अइसे मोर बाई हे कइके लेग जाहं।’

‘अरे किधर जाते हो?’ वह लपकता हुआ उनके पास तक पहुँच गया था।

वे हड़बड़ा गए थे।

‘कुछू नहीं साहेब, एहर अपन मन के हमर संग जावत है।’ मोटर साइकिल चलानेवाला बोला औरत की सिसकियाँ तेज हो गईं।

‘अपने से जा रही है तो रो क्यों रही है?’ उसने कड़ककर पूछा।

‘खाबे-पीबे तेला कब साहेब, हमर तिहार झन बिगाड़!’ पहलेवाला ही फिर बोला। वह खुशामदी लहजे में दाँत निपोर रहा था। औरत कातर निगाहों से उसे देख रही थी। वह उनके निकट चला गया था। ‘लाओ दस हजार और जल्दी भागो यहाँ से!’ वह फुसफुसाया था।

‘अतेक तो नईं हे साहेब, सौ पचास ह बन जाही।’ उनका पसीना छूटने लगा था ठंडी रात में।

‘जानते हो, कितनी सजा होगी औरत को बुरी नीयत से अगवा करने की?’ वह आराम से गाड़ी का हैंडल पकड़े हुए था, इसी बीच उसने गाड़ी बंद करके चाबी निकाल ली थी। अभी मोल-भाव चल ही रहा था कि पुलिस का डग्गा आ गया। अगले पाँच मिनट में उन्हें लेकर पुलिस की गाड़ी जा चुकी थी। वह संतोष की एक अधूरी साँस ले पाया था कि मार-पीटवाले पहुँच गए।

‘चलो कट गई रात, बस अब आधे घंटे में उसकी छुट्टी हो जाएगी।’ उसने एक लंबी गहरी साँस अपने फेफड़े में भरी। पूर्व दिशा की ओर उसकी नजरें उठ गईं। आदित्य अपना सिंदूरी बाना उतारकर सुनहली चादर ओढ़ चुका था। उसे बहुत अच्छा लगा।’

‘‘आज तो छुट्टी है यार! सुलोचना कई दिनों से भिड़ी है गुझिये, फाफड़े, सलोनी, नमकीन और न जाने क्या-क्या बनाने में। ड्यूटी की ऐसी मजबूरी कि खाना खाने के लिए भी घर न जा सका। आज तो पुलिसवालों की होली है, पब्लिक से ज्यादा ही धमाल होगा। आई.जी., डी.आई.जी., एस.पी. आदि सारे अधिकारी कर्मचारी एक साथ मिलकर होली खेलते हैं। उनकी पत्नियाँ भी आती हैं सामुदायिक भवन में होली खेलने। सुलोचना को तो पहले ही पकड़ ले जाती हैं सब, नाचने-गाने में उसका कोई जवाब जो नहीं है।

आठ बजते ही वह मोटर साइकिल से घर के लिए चल पड़ा। मन में लड्डू फूट रहे थे। वह कार्यक्रम बनाता जा रहा था दिनभर का। स्टाफ में सभी एक-दूसरे को भइया-भाभी कहते हैं, आज तो जो मिल जाए रँग दो! साल भर का भाभी कहना किस दिन काम आएगा?

घर पहुँचकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो वह अभी नाश्ता ही कर रहा था कि सुलोचना ने बाल्टी भर रंग डालकर सिर से पाँव तक सराबोर कर दिया। वह कुछ कर पाता, इससे पहले ही वॉशरूम में घुसकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। लाख प्रयत्न बेकार गए दरवाजा खुलवाने के।

‘‘अच्छा किया न धोखे से रंग डालकर? जब मिलोगी तब बदला लूँगा, याद रखना।’’ वह अंदर से ही...ही...ही...ही...ही करके हँसती रही।

‘घर छोड़कर कहाँ जाएगी, देख लूँगा आगे-पीछे।’ मन-ही-मन सोचते हुए उसने अपने कपड़े बदले, सफेद कपड़ों पर ही तो रंग दिखते हैं। गुलाल का पॉली बैग अपने  हाथ में लिया, कुछ रंग, पेंट की जेब में रखा और घर से निकल गया। वह रक्षित आरक्षी केंद्र बेमेतरा की ओर जाने की ही सोच रहा था कि उसकी नजर जगमोहन पांडे पर पड़ गई। वे धुले कपड़े पहने कनपटियों के पास शेष बचे बालों में कंघी किए खरामा-खरामा पुलिस लाइन की ओर बढ़ रहे थे।

‘प्रारंभ भइया से ही करता हूँ, एकदम छोटे भाई की तरह मानते हैं।’ प्रताप, बच्चों को स्कूल छोड़ दो! प्रताप, मेरी उमर हो गई, कुछ करने की हिम्मत नहीं होती, कल परेड में जरूर टोकाटाकी हो जाएगी, मेरे जूते ठीक से चमक नहीं रहे हैं। बाबू जरा बरियार हाथ लगा देते तो अच्छा हो जाता। प्रताप! जरा अपनी भौजाई को पिक्चर में बैठा आते, मेरी ड्यूटी है और यह है कि कान खाए जा रही है। वह सोचता, बुजुर्ग आदमी है, चलो कर देते हैं सेवा। उन्हीं के कारण उसे तंबाखू की डिबिया रखने की जरूरत नहीं पड़ती थी, जब मन हो माँग लो! नींद से उठकर भी तंबाखू देने में कभी नहीं चिड़चिड़ाए। वह जरा तेज गति से उनकी ओर बढ़ा।

‘‘भइया! आ रहा हूँ...ऽ...ऽ...ऽ!’’

‘‘अरे नहीं...ऽ...ऽ...ऽ!’’ उनके कदम तेज हो गए।

यह भी उनके पीछे लपका। वे और तेज हुए। यह भी लगभग दौड़ पड़ा। ‘‘अरे रुको! भाग क्यों रहे हो, आपको खा जाऊँगा क्या?’’ वह जोर से चिल्लाया।

‘‘रंग मत लगाना! मेरा सिर दर्द होता है।’’ एक बार पीछे देखकर वे चिल्लाए और घूमकर और तेज भाग चले। सड़क के दोनों ओर खड़े लोग इस दौड़ में शामिल होकर चिल्लाने लगे थे।

‘‘पांडेजी और तेज! और तेज! वह आपके पीछे है...ऽ...ऽ...ऽ!’’

प्रताप! और तेज! भागने न पाएँ बुढ़ऊ! लपक लो...ऽ...ऽ...ऽ!’’

‘‘बाप रे! बुरे फँसे...ऽ...ऽ...ऽ!’’ लेकिन एक बात तो हुई, इनकी असलियत का पता चल गया। ‘बूढ़ा हूँ’ कह-कहकर खूब बेवकूफ बनाया इन्होंने। अब देख ही लेता हूँ, कहाँ तक दौड़ते हैं। वह और जिद्द में आ गया। सड़क के किनारे के दर्शक बदलते गए। सिमगा जानेवाली सड़क पर वे भागे जा रहे थे। ‘कहीं गिर न पड़ें, बुढ़ऊ’, वह डर भी रहा था। उसकी साँस धौंकनी की तरह चल रही थी। पाँच किलोमीटर से कम क्या दौड़े होंगे अब तक? वह बस उनसे एक हाथ की दूरी पर रह गया था। ‘हाँ! कहाँ जाओगे बचकर? अब आए हाथ में’, बस चार अंगुल की दूरी रह गई। यह क्या, बिजली की गति से वे पलटे और उसे कमर से कसकर पकड़ लिया। फिर क्या उठा-उठाकर तीन पटकनियाँ दे दीं। उसकी हड्डियाँ चरमराने लगीं। गुलाल का पोलीथिन न जाने कहाँ गिर गया, वह रिरियाने लगा। ‘‘छोड़ दो भइया, अब नहीं माँगूँगा तंबाखू। मैं नहीं जानता था कि आदत लगाकर मेरी यह हालत करोगे।’’

‘‘रे पागल, तू तंबाखू माँगने के लिए इतनी दूर दौड़ गया?’’ वे पछतावे में पड़ गए। होली के बिहान के कारण सड़क पर कोई वाहन भी दिखाई नहीं दे रहा था। बड़ी देर बाद एक एंबुलेंस गुजरी, उसे ही रोककर दोनों पुलिस लाइन आए। पुलिस ग्राउंड में होली का जलसा अपने शबाब पर था। अभी-अभी आई.जी. साहब की मिसेज आई थीं, पुलिस बेंडवाले जोर-शोर से बजा रहे थे—

साँची कहें तोरे आवन से हमरे,

अँगना में आई बहार भउजी।

सभा भवन के अंदर से ढोलक, झाँझ, मजीरे की आवाजें आ रही थीं। अवश्य सुलोचना पहुँच चुकी होगी। वह कान देकर उसका स्वर पहचानने का प्रयास कर रहा था कि तब तक दो जवान पांडेजी को पकड़कर उनकी चिकनी दाढ़ी में रेतवाली गुलाल रगड़ने लगे थे। ‘‘ठीक हुआ! बड़े भागनेवाले बने थे।’’ उसके कलेजे में ठंडक पहुँचे इसके पहले ही वह भी दो जवानों की गिरफ्त में था। विरोध किया तो शर्ट-पेंट तार-तार हो गए। रंग-अबीर से पूरा ढक गया वह। कुछ कहता इसके पहले ही वे उसे छोड़ किसी और की ओर बढ़ गए।

‘‘दो तो बज ही गए होंगे, चलूँ जरा भाभी से भी मिल लूँ, इन्हें तो अभी एकाध घंटे फुरसत नहीं मिलेगी।’’ मैदान में लाइन से लगी कुरसियों पर लोग बैठे हुए थे, एक खाली कुरसी पर जगमोहन पांडे बैठ गए थे। इनका बदला उनसे लेता हूँ। सोचता हुआ वह सबकी बेखयाली का लाभ उठाकर ग्राउंड से बाहर आ गया। सड़क पर भी कुछ लोग पानी-कीचड़-गोबर आदि से त्योहार मना रहे थे। लगा कि उसे किसी ने पहचाना नहीं। पांडेजी के घर का दरवाजा उढ़का हुआ था। घर के अंदर से मालपुए सिंकने की मीठी-मीठी मनभावनी सुगंध ने याद दिलाया कि उसे जोर की भूख लगी है। भाभी-भाभी पुकारता वह अंदर घुस गया। ‘‘अरे! आप तो चिन्हा ही नहीं रहे हैं!’’ उन्होंने संशयपूर्ण निगाहों से उसे देखा।

‘‘देखिए, अभी कुछ डालिएगा नहीं! कड़ाही चढ़ी है।’’ कहती हुई वह वॉशरूम में घुस गई।

‘‘नहीं कुछ नहीं लाया, आप चिंता न करें!’’ कहते हुए अपने पीछे आते देखकर वे कछुए की तरह अपने सारे अंग घुटनों के बीच समेट, सिर को आँचल से अच्छी प्रकार ढाककर बैठ गई। उसे अपने निकट आया देख सिर भी घुटनों के बीच कर लिया। उसने बड़े आराम से जेब से पक्का चूड़ी रंग निकाला और उनके सिर पर पूरा पैकेट खाली कर दिया। उसके बाद आँगन में बनी टंकी से एक बाल्टी पानी निकालकर उनके ऊपर उँड़ेल दिया। वे कुनमुनाईं, उन्हें गीले कपड़ों में देखने की दबी हुई इच्छा लिये एक पल वह वहाँ रुका था, तब तक पांडेजी का बेटा न जाने कहाँ से दौड़ा-दौड़ा आया और उसके ऊपर फिनायल की पूरी बोतल उँड़ेलकर तेजी से बाहर भाग गया।

‘‘यह क्या डाल दिया रे झिरकुट? मारे बिना छोडूँगा नहीं!’’ वह हवा की तरह उसके पीछे भागा।

‘‘वह तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गया था। अपना घर देखा तो ताला बंद था। फिनायल की तीखी गंध से उसका सिर चकराने लगा था।

‘एक नंबर का हरामखोर है। साला पूरा बाप पर गया है। अगर भाभी का मोह न होता तो इनके दरवाजे पेशाब करने भी न आता।’ वह मन-ही-मन बड़बड़ाता ग्राउंड की ओर लौट गया। वहाँ अब होली के गीतों पर नाच हो रहा था। देखनेवाले तालियाँ बजा रहे थे। भाँग के ड्रम के पास बहुत भीड़ लगी थी। उसने गुस्से-गुस्से में बिना गिने कई गिलास खाली किए, तब कहीं जाकर मूड होलियाना बना। वह भी नाचनेवालों में शामिल हो गया, लेकिन एक बात उसकी समझ में नहीं आई कि नाचनेवाले नाक बंद करके उससे दूर क्यों हुए जा रहे हैं?

‘‘क्या लगा लिए जवान?’’ एस.पी. साहब पूछ बैठे थे।

‘‘ओ मेरा भतीजा झिरकुट! बहुत बदमाश है सर!’’ नजरें झुकाए वह उनसे दूर चला गया था।

‘‘अरे बजाओ भई बाजा! क्यों रोक दियाऐंऽ? चलो बजाओ!’’ उसकी जबान लड़खड़ा रही थी।

‘‘चलो प्रताप! अब नहाते हैं, सब लोग चले गए।’’ जगमोहन पांडे की आवाज उसने पहचान ली। एकदम भूत बने हुए थे।

‘‘नहीं! अभी तो मैं नाचूँगा!’’

उसने अपनी बाँह छुड़ाने का प्रयास किया।

‘‘छुड़ा लोगे क्या? साले मरते तक भाँग पी लिया, अब होश कहाँ से रहे?’’

‘‘चल रहा हूँ भइया छोड़ो नऽ!’’ उसने पूरा बल लगाकर खुद को छुड़ाया।

सब चले गए, तब भी वह इमली की छाया में बैठा रहा। सुलोचना को जरा भी उसकी फिक्र होती तो इतनी देर तक यहाँ न बैठी होती, जानती है, मैं कल रात से भूखा हूँ। ठीक है, थोड़ा और इंतजार कर लो! भाभी भी तो औरत ही हैं, कैसे घर में काम कर रही हैं, ये तो लता मंगेशकर हैं नऽ!’’ मन की भड़ास निकालता रहा वह। जब शाम घिरने लगी तब वह घर की ओर चला।

दरवाजे पर सुलोचना खड़ी थी, पक्का उसी का इंतजार कर रही थी। वह नहा-धो चुकी थी, रंग अभी पूरे नहीं छुटे थे, चेहरे पर विचित्र-सी चित्रकारी नजर आ रही थी। वह बस थोड़ी ही दूर रह गया था कि रंग से सराबोर एक आदमी आया और सुलोचना के सिर पर अबीर की पन्नी उलट दी, वह उसके चेहरे पर गुलाल मलने लगा।

‘‘अरे! हटो-हटो, मैं नहा चुकी हूँ, दिखाई नहीं देता क्या?’’ उसने पूरे बल से नशे में चूर उस सींक से पतले आदमी को दूर फेंक दिया और अपना चेहरा साफ करने का असफल प्रयास करने लगी।

क्रोध से उसकी कनपटियाँ जलने लगीं, ‘‘पति के लिए दरवाजा बंद और दूसरों के लिए अजंता की मूरत बनी खड़ी हैं।’’

‘‘कौन है बे? ऐसे ही लगाया जाता है महिलाओं को रंग?’’ उसने उसे कमर से पकड़ लिया और सड़क के सामांतर बहनेवाली बड़ी नाली की ओर ले चला, जिसे कल से ही कुछ होलियारों न बाँधकर नाली का पानी एकत्र कर रखा था।

‘‘मैं नोहर सिंग हौं भइया, सालोसाल तूंहर घर-बाहिर सफाई करथौं अतका हक तो हे न मोर?’’ उसकी आँखें नशे के खुमार के कारण मुँदी जा रही थीं, जबान लड़खड़ा रही थी।

‘‘लेनऽ! भाभी च काबर? भइयो संग होली खेले के पूरा हक हे तोला।’’ उसने उसे पूरा-का-पूरा नाली में उतार दिया।

‘‘सुबह से शाम हो गई दस मिनट भी रहे घर में? ऐसा ही आदमी लिखा था करम में, बैठकर काट दिया होगा भाभी के पास। न जाने कौन सी बात है जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती।’’ उलटे बाँस बरेली जाते देख वह चुपचाप वॉशरूम में घुस गया।

बी-२८ हरसिंगार, राजकिशोर नगर
बिलासपुर (छ.ग.)
दूरभाष : ०९९०७१७६३६१
—तुलसी देवी तिवारी

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