बस्तर का लोकपर्व 'दियारी'

छत्तीसगढ़ राज्य का आदिवासी बहुल बस्तर अंचल कई मायनों में शेष छत्तीसगढ़ से भिन्न है। सबसे पहली भिन्नता है, यहाँ की भौगोलिक संरचना और दूसरी है, भाषा। छोटी-बड़ी पहाडि़यों, घनघोर जंगलों, नदियों और नालों तथा खनिज-संपदा से भरपूर बस्तर अंचल की आदिवासी एवं लोक-संस्कृति इसीलिए शेष छत्तीसगढ़ से अलग-थलग है।

भाषा की दृष्टि से देखें तो यहाँ मूल रूप से द्रविड़ भाषा परिवार की गोंडी, धुरवी और दोरली जन-भाषाओं के साथ-साथ आर्य भाषा-परिवार की लोक-भाषाएँ हल्बी, भतरी, बस्तरी तथा छत्तीसगढ़ी बोली एवं समझी जाती हैं। गदबी और मुंडा भाषा-परिवार की मुंडा लोकभाषा लगभग अवसान पर है। यहाँ राजस्थान से आए घुमंतू समुदाय बनजारे और लमान भी बसते हैं, इसीलिए उनकी भाषा बनजारी और लमानी भी यहाँ अस्तित्व में है। हल्बी लोकभाषा की अन्यानेक उपभाषाएँ भी हैं, जिन्हें जातीय भाषा कहा जाना अधिक समीचीन जान पड़ता है। ये उपभाषाएँ या जातीय भाषाएँ हैं—पनकी हल्बी, पनारी हल्बी, घड़वी हल्बी, लोहारी हल्बी आदि। इनके साथ-ही-साथ यहाँ चंडारी, पारदी, ओझी और कोस्टी लोकभाषाएँ भी इन विशेष समुदायों की जातीय भाषा के रूप में अस्तित्व में हैं, किंतु इन्हें बचाने के यत्न यदि समय रहते नहीं किए गए तो इनका अस्तित्व समाप्त होने में बहुत देर नहीं लगेगी।

दियारी क्या है?

छत्तीसगढ़ी परिवेश में यह पर्व ‘देवारी’ कहलाता है। बस्तर के ग्रामीण परिवेश में दीपावली को ‘राजा दियारी’ कहा जाता है, जबकि इसके बाद गाँव-गाँव में अलग-अलग तिथियों में मनाए जानेवाले अन्नकूट पर्व को ‘दियारी’। यह अलग बात है कि शहरी एवं कस्बाई संस्कृति के प्रभाव में आकर अब ग्रामीण परिवेश में दीपावली यानी ‘राजा दियारी’ की भी धूम मचने लगी है तथापि मूल रूप से यहाँ ‘राजा दियारी’ का कोई महत्त्व पहले लगभग नहीं के बराबर था। ठीक उसी तरह जिस तरह आमतौर पर मनाए जानेवाले पर्व ‘दशहरा’ का जो भी महत्त्वपूर्ण था, वह था ‘दियारी’ यानी अन्नकूट। यहाँ की दियारी तीन चरणों में संपन्न होती है—पहला चरण होता है, ‘जेठा बाँधनी’, दूसरा चरण ‘खिचड़ी’, तीसरा पहले प्रहर ‘बासी तिहार’ और दूसरे प्रहर ‘गोबरधन (या गोड़धन)’। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक गाँव की दियारी की तिथियाँ कुछ इस तरह तय की जाती हैं कि एक गाँव के लोग दूसरे गाँव की दियारी में सम्मिलित हो सकें। इसी भावना से गाँव-गाँव के सगे-संबंधियों और इष्ट-मित्रों को न्यौता दिया जाता है और लोग सहर्ष ही इस न्यौते को स्वीकार कर अपने सारे काम-काज छोड़कर दियारी में सम्मिलित होते हैं।

दियारी का आरंभ

बस्तर की हल्बी लोकभाषा में गाए जानेवाले लोक महाकाव्य (अलिखित) ‘लछमी जगार’ के जमखँदा में आए एक प्रसंग (अध्याय ०८ ः बली भदर चो माहालखी के आनुक जातो यानी ‘बली भदर का माहालखी को लेने जाना’) के अनुसार आदिमाता एवं उनके बाद राम-लैखन द्वारा बली भदर (नंदी बैल, नंदिया बैला, नंदिया) को खिचड़ी खिलाई गई थी। इसके बाद बरुन राजा और निरबती रानी द्वारा बरुनपुर में बली भदर को खिचड़ी खिलाने के इस प्रसंग को बरुन राजा द्वारा ‘दियारी’ पर्व का नाम दिया गया। बरुनपुर में यह अवसर पुस (पौष) माह में आया है। यही कारण है कि इस महागाथा की गायिका के निवास-स्थल (खोरखोसा ग्राम) में पौष माह के किसी एक बुधवार को यह त्योहार मनाया जाता है, जबकि अन्य गाँवों में गो-धन को खिचड़ी खिलाने का यह पर्व ‘दियारी’ अगहन से लेकर माघ मास तक की अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है।

प्रथम चरण यानी पूर्व संध्या—‘जेठा बाँधनी’

अन्नकूट की पूर्व संध्या में (और कहीं-कहीं अर्धरात्रि के बाद) चरवाहा, जिसे ‘धोरई’, ‘गाय-चरिया’ अथवा ‘गाय-चरेहा’, ‘चरेया’ या ‘चरया’ कहा जाता है, फरसा (हिंदी परिवेश में पलाश, टेसू) के ‘चेर’ (जड़) और भेंडा (छत्तीसगढ़ी परिवेश में ‘अमारी’) के पौधे के छिलके को मिलाकर बनाए गए ‘जेठा’ लेकर गोधन-मालिकों के घर बाजे-गाजे के साथ जाता है। वहाँ गृह-स्वामी द्वारा उसकी समारोहपूर्वक अगवानी की जाती है। गृह-स्वामिनी द्वारा ‘गाय-कोठा’ में दीप जलाए जाते हैं। दीये नए होते हैं। पुराने दीये काम में नहीं लाए जाते। इसके बाद उसी के द्वारा गोधन के पाँव धुलाए जाते हैं और उनके मस्तक पर टीका लगाया जाता है। इसके बाद ‘धोरई’, ‘चरिया’ या ‘चरेहा’ गोधन के गले में, जिसमें गाय-बैलों के साथ-साथ भैंस आदि भी सम्मिलित होती हैं, बहुत ही श्रद्धापूर्वक ‘जेठा’ बाँधता है। ‘जेठा’ बाँधने के उपलक्ष्य में उसे तथा उसके साथ बाजे बजाते चल रहे बजनिया-मोहरिया (लोक-संगीतकार) को गृह-स्वामिनी द्वारा सूप भरकर धान दिया जाता है, जिनके घर में मदिरा उपलब्ध होती है, वे मदिरा-पान भी कराते हैं, किंतु मदिरा उपलब्ध न होने पर इसके लिए उन्हें पैसे दिए जाते हैं। गाँव यदि छोटा है तो प्रायः एक ही चरवाहा परिवार होता है, किंतु गाँव के बड़े होने पर एकाधिक चरवाहे परिवार हो सकते हैं। ‘जेठा’ बाँधकर वह अगले घर की ओर प्रस्थान कर जाता है। इस तरह सबेरा होने से पहले-पहले वह ‘जेठा’ बाँधने का काम संपन्न कर लेता है। यही ‘जेठा बाँधनी’ कहलाता है।

द्वितीय चरण अर्थात् पहला दिन—‘दियारी’ यानी अन्नकूट

‘जेठा’ बाँधने के साथ ही दियारी-पर्व का शुभारंभ हो जाता है। सबेरा होते ही प्रत्येक कृ षक परिवार, जो गोधन का भी मालिक होता है, गोधन को ‘खिचड़ी’ खिलाने की तैयारी में जुट जाता है। घर-आँगन की लिपाई-पुताई यों तो पहले से की जा चुकी होती है, किंतु तब भी इस दिन फिर से लिपाई-पुताई की जाती है। गोबर से घर और आँगन लीपे जाते हैं। द्वार पर आम की पत्तियों से बने तोरण सजाए जाते हैं। बच्चे और युवक गोधन को नहलाने के लिए जलाशयों में ले जाते हैं। महिलाएँ स्नानादि से निवृत्त होकर खिचड़ी और अन्य व्यंजन राँधने में संलग्न हो जाती हैं। खिचड़ी में उड़द की दाल और चावल के साथ-साथ सभी प्रकार की मौसमी सब्जियाँ राँधी जाती हैं। अन्य मौसमी सब्जियों के साथ कलमल काँदा (शकरकंद), कुमड़ा (कोंहड़ा या कद्दू) और कोचई (कोचू) विशेष रूप से इस खिचड़ी में डाले जाते हैं। नई हाँडि़यों में खिचड़ी पकाई जाती है। खिचड़ी पकने तक बच्चे और युवक गोधन को जलाशयों से नहला-धुलाकर घर ले आते हैं।

इस बीच महिलाएँ घर के प्रवेश-द्वार से लेकर आँगन और आँगन के बाहरी द्वार तक चावल के आटे से ‘बाना’ लिख चुकी होती हैं। ‘बाना’ यानी जमीन पर की जानेवाली लोक-चित्रकारी का एक रूप। ‘बाना’ के साथ-साथ गिलास या गोल कटोरी के मुखाग्र को आटे के घोल में डुबोकर उसकी भी छाप जमीन पर अंकित की जाती है। महालक्ष्मी के पाँवों के चिह्न भी सूखे आटे से बनाए जाते हैं। इसी तरह दीवारों पर पिसान (पिसा अन्न, चावल का आटा) से ‘हाता’ दिए जाते हैं। यानी आटे के घोल में दोनों हथेलियाँ डुबोकर उसकी छाप दीवार पर अंकित की जाती है। इसी बीच घर का मुखिया अपने देवस्थान में जाकर देवी-देवता की पूजा-अर्चना संपन्न कर लेता है। फिर जब गोधन को नहलाकर लाया जाता है, तब उन्हें उनके स्थान (गाय-कोठा) में ले जाकर खड़ा कर दिया जाता है और गृह-स्वामी तथा उसकी पत्नी द्वारा उनके पाँव एवं मुँह धुलाकर, मस्तक पर हल्दी-चावल और लाली का टीका लगाया जाता है। उनके सिर व कानों में फूल चढ़ाए और खोंसे जाकर फिर चरण-स्पर्श कर उनकी विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। चावल के आटे के घोल में गिलास अथवा कटोरी के मुखाग्र को डुबाकर उससे गोधन के शरीर पर अंकन किया जाता है। इसके बाद धान-चावल फटकने के काम आनेवाले नए सूपों में खिचड़ी परोसी जाती है।

गोधन के साथ आबाल-वृद्ध सभी उन्हीं सूपों से खिचड़ी लेकर प्रसाद-रूप में खाते हैं। गोधन को खिचड़ी खिलाने के बाद फिर से उनके मुँह धुलाए जाते हैं और घर-परिवार के लोग आमंत्रित सगे-संबंधियों, इष्ट-मित्रों के साथ बैठकर आनंदपूर्वक खिचड़ी खाते हैं। खिचड़ी खाते लगभग तीन बज जाते हैं। इस दिन दोनों प्रकार के भोजन का आनंद लिया जाता है। शाकाहारी और मांसाहारी भी, जिसे जैसा रुचे और जिसके घर में जैसा रिवाज हो। मदिरा-पान करनेवाले मदिरा-पान भी करते हैं। इस दिन स्वयं के घर में प्रायः एकपहरी भोजन होता है। रात का भोजन एक-दूसरे के घर जाकर किया जाता है। लोग खा-खाकर अघा जाते हैं, किंतु आमंत्रण-पर-आमंत्रण मिलते जाते हैं, मनुहार-पर-मनुहारें की जाती रहती हैं और लोग प्रसन्नतापूर्वक आमंत्रण स्वीकार भी करते हैं। भले ही एक कौर खाएँ, किंतु ‘मन’ और ‘मान’ रखने के लिए खाना तो पड़ेगा ही।

तृतीय चरण यानी दूसरा दिन—‘बासी॒तिहार’ और ‘गोबरधन’

दूसरे दिन स्नानादि से निवृत्त होकर रात का बचा यानी ‘बासी’ भोजन खाया जाता है। यही होता है ‘बासी तिहार’। बासी तिहार भी अकेले-अकेले नहीं मनाया जाता। इसमें भी एक-दूसरे के घर जाकर भोजन ग्रहण करना पड़ता है, किंतु यह अधिक देर तक नहीं चलता। कारण, इसके बाद संपन्न होना होता है विशिष्ट कार्यक्रम ‘गोबरधन’, ‘गोरधन’ या ‘गोड़धन’ को लोग दोपहर होते-होते ‘गोबरधन-भाटा’ (गोरधन-भाटा, गोड़धन-भाटा) में सपरिवार एकत्र होने लगते हैं। वहाँ किसी मेले जैसा दृश्य होता है। चरवाहों के घरों की महिलाएँ उस स्थान में बड़े-बड़े गपा (टोकरा) लिये बैठी होती हैं। उन गपा (टोकरों) के भीतर जलता हुआ एक दीपक रखा होता है। गोमालिक के परिजन अपने साथ नए कपड़े, धान, नारियल, कुछ पैसे आदि लेकर वहाँ पहुँचते हैं और उन महिलाओं को वे सारी सामग्री भेंट-स्वरूप देते हैं। इस बीच गाँव के कुछ प्रमुख लोग पुजारी के घर जाकर वहाँ से ग्राम-देवी एवं अन्य देवी-देवताओं को समारोहपूर्वक बाजे-गाजे के साथ उस स्थल पर लाते हैं। वहाँ उन देवी-देवताओं की भव्य पूजा-अर्चना की जाती है। पशु-बलि भी अर्पित की जाती है।

पूजा-अर्चना के बाद देवी-देवता वहाँ खेलते हैं। खेलने का अर्थ है—नृत्य करना। इधर देवी-देवताओं का नृत्य चल रहा होता है और उधर ग्राम-प्रमुख एक बिगड़ैल बैल के सींग पर एक नया कपड़ा, जिसे ‘सिंगबाँधा’ या ‘सिंगोटा’ कहते हैं, बाँध देता है। उस कपड़े में कुछ रुपए भी बाँधे जाते हैं। इसके बाद उस बैल को हकाल दिया जाता है। अब बारी होती है चरवाहे की। यदि चरवाहा उस बैल को पकड़कर उसके सींग से बँधा कपड़ा निकालने में सफल हो जाता है, तब तो वह कपड़ा और पैसे उसके हो जाते हैं, किंतु यदि वह असफल होता है तो उस पर जुरमाना लगाया जाता है, रुपए के रूप में। शाम होते-होते देवी-देवताओं की विदाई हो जाती है और लोग भी घरों को वापस लौट जाते हैं। वापस होते-होते वे अपने द्वारा चरवाहों को दी गई भेंट उसके घर तक पहुँचाना नहीं भूलते। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि बस्तर के ग्रामीण अंचल में प्रायः गाँडा अथवा माहरा समुदाय के लोग ही चरवाहे का काम करते हैं। यही समुदाय लोक-संगीतकार भी होता है। भतरी प्रभावित क्षेत्र में इसके साथ ही दियारी संपन्न नहीं हो जाती। वहाँ अंतिम कार्यक्रम बचा रहता है, जो रात में होता है। वह कार्यक्रम होता है नाट का। नाट यानी ओडि़या नाट। ओडि़या नाट भोजन के बाद रात में लगभग दस बजे आरंभ होता है और सारी रात चलता रहता है। भोर होने और कभी-कभी तो सबेरे ८ बजे तक भी; किंतु न तो कलाकार थकते हैं और न दर्शक ही।

दियारी पर्व में अंतर्निहित तत्त्व

इस पर्व पर विस्तार में दृष्टि डालने के बाद इसमें अंतर्निहित तत्त्व निम्नानुसार स्पष्ट होते हैं—

गोधन एवं प्रकृति के उपकारों का सम्मान—यह पर्व स्पष्ट करता है कि लोक-मानस में गोधन के प्रति सम्मान की भावना निहित है। वह गोधन के उपकारों का यथोचित सम्मान करना जानता है। कारण, वह जानता है कि महालक्ष्मी (धान्य) को धरती पर लाने का श्रेय गोधन को ही है और इसके लिए उसे किसी पुस्तक को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी है। यह तो उसकी परंपरा में है। केवल इतना नहीं अपितु वह प्रकृति के अवदानों के प्रति भी नतमस्तक एवं कृतज्ञ है। यही कारण है कि वह इस दिन गोधन की जूठी खिचड़ी खाने से परहेज नहीं॒करता।

सामुदायिकता की प्रबल भावना—यह पर्व लोक-मानस में सामुदायिकता की भावना को प्रदर्शित करता है। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के घर जाकर ‘दियारी’ खाता है। अपने सारे काम-काज छोड़कर एक गाँव से दूसरे गाँव, एक घर से दूसरे घर इस अवसर पर प्रसन्नतापूर्वक इसीलिए जाता है, ताकि वह उसे आमंत्रित करनेवाले की प्रसन्नता में शामिल हो सके और उसके शामिल होने से उसका मित्र, सगा या संबंधी अथवा परिचित व्यक्ति एवं उसका परिवार आनंद का अनुभव कर सके। ‘अतिथि देवो भव’ की भारतीय परंपरा यहाँ साक्षात् देखने को मिलती है।

जाति-भेद से दूर—इसी तरह हम देखते हैं कि इस पर्व में जाति-भेद का कोई स्थान नहीं होता। जाति या वर्ग के आधार पर सम्मान या अपमान जैसी कोई बात ही नहीं है। यदि ऐसा होता तो ‘जेठा’ बाँधने के लिए आए हुए चरवाहे और लोक-संगीतकारों को संबंधित गृह-स्वामिनी द्वारा सम्मान नहीं दिया जाता। और यदि ऐसा होता तो चरवाहे के परिवार को दी गई भेंट भेंट-कर्ता द्वारा उसके घर तक नहीं पहुँचाई जाती।

लोक-मंगल—इस पर्व का मूल उद्देश्य लोक-मंगल है और लोक का मंगल तभी है, जब मंगल के कारक यानी प्रकृति और गोधन के साथ-साथ समाज के अन्य वर्ग का भी यथोचित सम्मान हो। उदाहरण के लिए, कुंभकारों (कुम्हारों) का सम्मान होता है, उनसे प्राप्त नई हाँडि़यों और दीपकों के बदले उन्हें यथाशक्तिभेंट अर्पित करने से। इसी तरह बाँस से निर्मित ‘सूप’ और ‘चाप’ के बदले पारधी (या पारदी, नाहार) समुदाय को यथाशक्ति भेंट देकर उनका सम्मान किया जाता है। कृषकों और चरवाहों का सम्मान भी इसी तरह किया जाता है और पुजारी (ग्रामदेवी का पुजारी), गाँयता (माटी देवी का पुजारी) आदि का भी। यों तो प्रायः सभी ग्रामीणों के घर-बाड़ी (छत्तीसगढ़ी परिवेश में ‘बखरी’) में कई प्रकार की सब्जियाँ उगाई ही जाती हैं, किंतु यदि कोई सब्जी-विशेष उसकी बाड़ी में उपलब्ध नहीं होती तो वह उसकी उपेक्षा नहीं करता, बल्कि अन्य ग्रामीण के घर से माँगकर अथवा उसके घर में भी उपलब्ध न होने पर बाजार से खरीदकर ले आता है, पर खिचड़ी में डालता अवश्य है। आदान-प्रदान का सिलसिला चलता है। कुल मिलाकर यह कि कोई भी समुदाय असंतुष्ट अथवा अमंगल की स्थिति में न रहने पाए, यह इस पर्व का उद्देश्य होता है।

आपसी सौहार्द—संपूर्ण गाँव ही नहीं, अपितु आसपास अथवा दूर-दराज के लोगों के बीच आपसी सौहार्द का वातावरण इस पर्व से निर्मित होता है। ‘दियारी’ का न्यौता देना और पाना दोनों ही बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। जो न्यौता देता है वह, और जो पाता है वह दोनों ही सौहार्द के सूत्र में बँधे होते हैं। यह सूत्र कच्चा नहीं होता। बहुत ही पक्का और मजबूत होता है, जो न्यौता नहीं दे पाता, उसे इस बात का मलाल होता है कि वह अमुक व्यक्ति को न्यौता क्यों नहीं दे सका। इसी तरह जिसे न्यौता नहीं मिलता, वह आशंकित होता है कि पता नहीं क्या बात हो गई कि इस वर्ष उसे न्यौता नहीं मिला। विभिन्न समुदायों के बीच आपसी सौहार्द की यह कड़ी बस्तर अंचल को एक बनाए रखने में पता नहीं कब से बनी हुई है।

नारी अर्थात् मातृ-शक्ति का सम्मान—इस पर्व में नारी का वर्चस्व एवं उसकी शक्ति (मातृशक्ति) के सम्मान की भावना आरंभ से अंत तक नजर आती है। पुरुषों की भी भूमिका होती है, किंतु उनसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका नारी की होती है। गृह-स्वामिनी, चरवाहों के घर की महिलाएँ, गाय और धान (धान्य देवी महालक्ष्मी) आदि सभी नारीत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं और नारी-शक्ति की प्रतीक भी हैं।

हाता और बाना के निहितार्थ—‘दियारी’ पर्व पर दीवारों, जमीन एवं गोधन के शरीर पर की जानेवाली लोक-चित्रकारी (हाता और बाना) के क्या कोई निहितार्थ होते हैं या कि बस यों ही यह चित्रकारी की जाती है? बस्तर के अलिखित लोक-महाकाव्यों ‘लछमी जगार’, ‘तिजा जगार’, ‘आठे जगार’ और ‘बाली जगार’ में आए विभिन्न प्रसंगों के अनुसार दीवारों पर हाता देने तथा जमीन पर बाना लिखने के पीछे संबंधित घर-परिवार के मंगल तथा सुख-समृद्धि की कामना होती है। छत्तीसगढ़ी परिवेश में इन्हें क्रमशः ‘हाँथा’ और ‘चउँक’ कहा जाता है।

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