यात्रा श्रीनाथ धाम की

यात्रा श्रीनाथ धाम की

वैष्णव मत के पुष्टि मार्ग या बल्लभ संप्रदाय के भक्ति योग के इष्ट भगवान् श्रीनाथजी के विषय में मान्यता है कि भगवान् श्रीकृष्ण बाल्यावस्था में ब्रजधाम स्थित गिरिराज गोवर्धन जतीपुरा, मथुरा (उ.प्र.) से नाथद्वारा (राजस्थान) में पधारे थे। १५ सितंबर, २०१७ को ऐसी शुभ घड़ी आई कि मुझे भगवान् श्रीनाथजी के दर्शन प्राप्त हुए।

डॉ. चंद्रपाल मिश्र ‘गगन’, जो मेरे गुरु हैं, ने हाल ही में एक काव्यकृति ‘हम ढलानों पर खड़े हैं’ का प्रकाशन कराया था। इसी दौरान डॉ. गगनजी के एक अन्य शिष्य की माताश्री श्रीमती मधूलिका एवं पिताश्री श्री सुबोध कुमार गर्गजी ने उन्हें सुझाव दिया कि आप नाथद्वारा (राज.) के भारत विख्यात मंच साहित्य-मंडल से अपनी पुस्तक का लोकार्पण कराएँ, वहाँ देश-विदेश के साहित्यकारों का प्रतिवर्ष महाकुंभ लगता है। रचनाओं को विद्वानों तक पहुँचाने के लिए मधुलिकाजी ने दो महानुभावों से संपर्क करने का सुझाव दिया, पहला राव मुकुल मानसिंहजी और दूसरा वरिष्ठ पत्रकार डॉ. श्रीकृष्ण ‘शरद’ का। डॉ. शरद भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा ब्रजभूमि के साथ-साथ भगवान् बराह की अवतार भूमि आदिवराह क्षेत्र स्थित संत तुलसीदास तथा उनके भ्राता अष्टछाप के कवि नंददास की जन्मभूमि सूकरक्षेत्र (सोरों) कासगंज में रहकर समाज-सेवा एवं पत्रकारिता तथा साहित्यिक क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान निरंतर देते रहते हैं। इकहत्तर वर्ष की आयु में भी उनके अंदर अद्भुत फुरती है, बात करने का अंदाज एकदम निराला है, लगता है कि हम रेडियो ही सुन रहे हैं। डॉ. गगनजी भी समीप में ही रहते हैं, मधूलिकाजी के मन की बात डॉ. गगनजी ने डॉ. शरदजी से साझा की।

मैं भी इस महान् व्यक्तित्व से मिलने के लिए काफी समय से उत्सुक था। नाम तो बहुत पहले से सुन रखा था, पर मिलने का अवसर मिल रहा था तो उत्सुकता कई गुना बढ़ गई। डॉ. शरदजी के घर के सामने खड़े होकर जोर से आवाज लगाई ‘पंडितजी’ तो डॉ. शरदजी तत्काल मकान की पहली मंजिल से दौड़ते हुए नीचे आए। उनके मुख-मंडल पर खुशी की रश्मियाँ सहज ही पढ़ी जा सकती थीं। हमने उनको सादर अभिवादन किया। हृदय से मिले डॉ. शरदजी, बातों से गुलाब झर रहे थे। मैं बहुत प्रभावित हुआ। डॉ. शरदजी की बातों से लगा कि डॉ. गगनजी की पुस्तक का लोकार्पण नाथद्वारा में सौ फीसदी सुनिश्चित है तो मन-ही-मन मैंने भी डॉ. गगनजी के साथ जाने का निर्णय कर ही लिया।

साहित्य के क्षेत्र में मेरी गहरी रुचि थी। कच्छप गति से मेरी कलम भी चल रही थी। डॉ. गगनजी के काव्य-संग्रह ‘हम ढलानों पर खड़े हैं’ का लोकार्पण साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा का साक्षी बनने का सौभाग्य मिलना मुझे अंदर से रोमांचित कर रहा था। साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा के प्रधानमंत्री श्री श्याम प्रकाश देवपुराजी का आदेश पाते ही डॉ. गगनजी ने कहा, ‘‘अगर तुमको कोई परेशानी न हो तो चलो कुछ नया सीखने को मिलेग।’’ इतना सुनते ही मैं खुशी से झूम उठा, प्रत्युत्तर में ‘हाँ’ कहने के लिए भी मैं निःशब्द था। फिर मैंने अपनी प्रबल इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए १० अगस्त, २०१७ तक के लिए बात टाल दी, यह  कहकर कि धर्मपत्नी श्रीमती अर्चना से पूछ लूँ। श्रीनाथजी के दर्शन के साथ-साथ झीलों की नगरी उदयपुर, अकबर व महाराणा प्रताप के युद्ध स्थल, हल्दी घाटी व मेवाड़ की धरती के पर्यटन का लालच भी धर्मपत्नी को दे दिया। मुझे संदेह था कि कहीं केवल नाथद्वारा का प्रस्ताव धर्मपत्नी को पसंद न आए और श्रीनाथजी की नगरी देखने के अवसर पर ग्रहण न लग जाए। थोड़ा ना-नुकुर के बाद धर्मपत्नी ने हाँ कह दी, जैसा कि आम तौर पर महिलाओं की आदत होती है। डॉ. गगनजी को तत्काल दूरभाष पर पत्नी के भी साथ चलने की बात बताई तो प्रसन्नता व्यक्त कर बोले, ‘‘श्रीनाथजी जिसको बुलाएँगे, यदि वह स्वयं भी चाहे तो रुक नहीं पाएगा।’’ डॉ. गगनजी ने धर्मपत्नी मंजूलता मिश्र के साथ अपनी बेटी तुल्य रेखा और उनके पति गगनेशजी को भी तैयार कर लिया था। टेंशन एक ही था कि निमंत्रण-पत्र में दावत एक आदमी की थी और चल दिए सात। इस विषय पर जब डॉ. शरदजी से चर्चा हुई तो उन्होंने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि अच्छा है, सब लोग जाओ, श्रीनाथजी के दर्शन करो और प्रसाद पाओ। उन्होंने बताया कि ‘बी’ पार्ट में परिवारीजन रुक सकते हैं। ‘ए’ पार्ट में साहित्यकारों के ठहरने का इंतजाम रहता है। हमारे सपनों को उड़ने के लिए मानो पंख मिल गए। भगवान् श्रीनाथजी के दर्शन की आस मन में लिये १४ सितंबर, २०१७ यानि हिंदी दिवस की हमने उलटी गिनती गिनना शुरू कर दिया।

सब लोग निश्चिंत थे, चिंता की लकीरें मेरे माथे पर थीं, क्योंकि मैं अपने विद्यालय का हेडमास्टर हूँ और मेरे हिसाब से उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद् में हेडमास्टर का मतलब होता है ‘हेडेक मास्टर’। सोमवार को फलों की दुकान सजाओ, बुधवार को दूधिया बन जाओ, हलवाई तो रोज बनना ही है। घर पर साग-सब्जी, तेल-मसाला न हो तो चलेगा, पत्नी तकलीफ समझ सकती है; लेकिन विद्यालय में किसी कमी के लिए माफी शब्द विभागीय अधिकारियों के शब्दकोश में नहीं है। ड्रेसवाला विधायकजी की धमकी देकर ड्रेस पटक गया, ‘‘यही बँटेगी, नहीं तो भुगतना।’’ छोटे-बड़े नाप के चक्कर में बच्चे जान खा रहे हैं, बैग वितरण भी अभी होना है, किताबें तो पूरे सत्र में तीन-चार बार बँटती हैं। फिर भी आपूर्ति पूरी नहीं होती, अभी भी कुछ बाँटने को शेष बची हैं। मध्याह्न भोजन कैसे बने, राशन बीस दिन पहले ही खत्म हो गया, उधार लेकर काम चलाया जा रहा है। शिक्षा मित्रों का टिकट माननीय उच्चतम न्यायालय ने जल्दी ही काटा है। सारी जिम्मेदारी हेडमारटर के सिर पर है, अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा! १० सितंबर का ही रात्रि ९ बजे मेवाड़ एक्सप्रेस में रिजर्वेशन था। कासगंज से मथुरा की यात्रा कार से तय करनी थी। १० सितंबर से १६ सितंबर तक कुल आठ दिन का सफर था। लगेज भारी होना स्वाभाविक था, जैसे-तैसे विद्यालय की व्यवस्थाएँ करके भगवान् श्रीनाथजी का स्मरण करते हुए विद्यालय की चिंता छोड़कर मैंने लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित किया।

डॉ. गगनजी ने ९ सितंबर को ही डॉ. शरदजी से आवश्यक जानकारियाँ हासिल कर सारे संपर्क-सूत्र डायरी में लिख लिये। कार द्वारा हम सभी ने मथुरा के लिए प्रस्थान किया। धर्मपत्नी की उत्सुकता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि घर से निकलते वक्त नाश्ते के सामानवाला थैला घर पर ही भूल आई थीं। श्रीनाथजी की कृपा कहिए कि कासगंज पार नहीं हुआ था कि याद आ गई। उनकी उत्सुकता की कीमत शहर के जाम से बचने के लिए बीस रुपए रिक्शावाले को अदा कर और धूप झेलकर चुकानी पड़ी मुझे। खैर, सफर शुरू हुआ, बातचीत में मथुरा कब आ गया, पता ही नहीं चला। गंतव्य समय से पूर्व प्लेटफॉर्म संख्या १ पर थे हम, जैसे ही घड़ी में ८:५५ बजे गाड़ी का प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा होने लगी, सुनते ही हाथ-पाँव फूल गए, इतना सामान लेकर तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर कैसे जाएँ? एक बार मन हुआ कि पटरी पार कर बदल लें, किंतु बच्चे और महिलाओं का खयाल आते ही साहस बटोरकर उपरिगामी पुल से प्लेटफॉर्म नंबर ३ पर पहुँच गए। भारतीय रेलवे विभाग भी कमाल का है। गाड़ी ३ नंबर पर उद्घोषित हो रही थी, किंतु आई २ नंबर पर। जैसे-तैसे भाग-दौड़कर गाड़ी में स्थान लिया। जैसे ही गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी, हमने भी कल्पनाओं के पंख लगाकर उड़ना शुरू किया। प्रातः ६ बजे उदयपुर स्टेशन पर थे हम लोग।

भारतीय इतिहास में मेवाड़ साम्राज्य का जिक्र आते ही शरीर के रोम-रोम में हलचल सी पैदा हो जाती है। मेवाड़ ही एकमात्र साम्राज्य था, जिसने तत्कालीन आतताइयों की दासता स्वीकार नहीं की। अपने बलिदान, स्वाभिमान और सम्मान के लिए मेवाड़ साम्राज्य इतिहास में याद किया जाता है। भक्ति की पर्याय भगवान् श्रीकृष्ण की दिवानी मीराबाई का नाम, अपने पुत्र का बलिदान मेवाड़ की रक्षार्थ करनेवाली पन्ना धाय को इतिहास भुला दे, यह संभव नहीं। मेवाड़ के अनेक राजाओं की वीर-गाथा जानने के लिए सर्वप्रथम हमने होटल के कमरे में सामान रखने के बाद सिटी पैलेस की ओर रुख किया। इस पैलेस में महाराणाओं की वीरता, पराक्रम का यशगान सुनाई देता है, उनके रण-कौशल, शानो-शौकत व जीने के रंग-ढंग दिखाई पड़ते हैं। गणेश चौक से प्रारंभ होकर मानक महल, भीम विलास, कृष्ण विलास, मोती महल (पर्ल पैलेस) शीश महल, चीनी चित्रशाला, दिलकुश महल, बड़ी महल, रंग भवन (मोर चौक) एवं लक्ष्मी विलास सभी एक से बढ़कर एक थे। सिटी पैलेस भ्रमण के उपरांत हमने जगदीश मंदिर के दर्शन किए और गुलाब बाग होते हुए पिछौला झील पहुँचे।

दूर बादलों में लुका-छिपी करता छिपता हुआ लाल-गोल सूर्य बार-बार अपनी सूरत उस झील के प्रतिबिंबी पानी में निहारता, फिर रुई जैसे बादलों के बिस्तर में छुप जाता। लाल-लाल किरणें नावों के आवागमन से उठ रही तरंगों से अठखेलियाँ कर रही थीं। झील के किनारे बैठकर हमने झील के शांत पानी की चंचल लहरों में मचलती किरणों का प्रेमालाप देखा। सज्जनगढ़ का किला के लिए दुर्गम पहाड़ी रास्ता था। जैसे-जैसे टैक्सी से ऊपर की ओर जा रहे थे, नीचे का दृश्य देखकर साँसें अटक रही थीं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों और गहरी-गहरी खाइयों के बीच यात्रा रोमांचकारी थी, पर डर क्या होता है, उस रास्ते ने बताया। इस किले से बादलों को अपने नजदीक ही पाते हैं अधिक ऊँचाई पर होने के कारण। इनके अलावा फतेह सागर झील का भ्रमण भी हमने किया।

सभी राज्य सरकारें यदि राजस्थान की तरह ही महिलाओं को परिवहन निगम के किराए में छूट दें तो महिलाओं के उत्थान के लिए उपयोगी होगा। समाज में लैंगिक भेदभाव की जो आग फैली है, इस प्रकार की राहतें पानी की बौछार का काम करेंगी उस पर। शिक्षा व रोजगार के लिए दूर-दराज यात्रा करनेवाली माँ-बहनों को प्रोत्साहन आवश्यक है। महिला सशक्तीकरण के यज्ञ में राजस्थान सरकार द्वारा दी गई आहुति से हमारी सरकार अगर सीख लें तो महिलाओं के विकास के साथ-साथ सरकार का भी कम फायदा नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में ब्रज क्षेत्र तो पर्यटन का केंद्र है, यहाँ भी इस तरह की सुविधाएँ होनी चाहिए। हम लोग १३ सितंबर, २०१७ को जब उदयपुर रोडवेज बस स्टैंड पहुँचे तो नाथद्वारा की एक टिकट पुरुषों के लिए ६० रुपए, जबकि महिलाओं के लिए मात्र ४५ रुपए की थी।

बस में बैठते ही सूर्यदेव की तपन कम करने के लिए इंद्रदेव ने बादलों का आदेश दिया, थोड़ी देर में देखते-ही-देखते काली घटाएँ घिर आईं। दोनों ओर पहाडि़यों के बीच जैसे-जैसे बस का एक्सीलरेटर दब रहा था, घटाओं की घनघोरता तीव्र होती जा रही थी। पहाड़ों के ऊपर भूरे-काले रुई जैसे बादल खेलने लगे। बारिश होने लगी, बादलों और पहाड़ों के प्रेम-अलाप हुआ, परणति सुखद स्वाभाविक थी। भीगे पहाड़, भीगी वनस्पतियाँ, मानो गगन के घन! धरा का जलाभिषेक करते हुए आनंदित हो रहे थे। बादल भी दूर नहीं थे, पहाड़ भी नजदीक थे। सड़क पर जगह-जगह पानी का भराव हो गया था, जैसे ही बस तेज रफ्तार से पानी के ऊपर से गुजरती, पानी फव्वारे की तरह एक लय में दूर छिटक जाता था, मन बस से उतरकर भीगने का कर रहा था। बस की रफ्तार भी कम हो गई थी, मौसम के आनंद ने यह अहसास ही नहीं होने दिया कि कब नाथद्वारा का बसस्टैंड आ गया। ऑटो द्वारा साहित्य मंडल के लिए निकले, सड़कें जलमग्न थीं, गलियों-कूचों में निहारा तो आँखों में निराली सी चमक थी, लगने लगा कि हम साक्षात् ब्रज में आ गए हैं। गौ-माता गलियों में विचरण कर रही थीं। कान्हा की नगरी की प्रतिलिपि था नाथद्वारा। ब्रज में नाथद्वारा और नाथद्वारा में ब्रज, वही कुंज गलियाँ वैसे ही लोग। ब्रज की गंध अनायास ही तन और मन दोनों को प्रसन्न कर रही थी। श्री का अर्थ राधा और नाथ का मतलब श्रीकृष्ण अर्थात् जब राधा और कृष्ण का वास है, यहाँ तो समानताएँ भी तो स्वाभाविक थीं। साहित्य मंडल के कार्यक्रम में शामिल होनेवाले अतिथियों के लिए आरक्षित स्थान पर पहुँचकर अपना सामान जमाया।

साहित्य मंडल के प्रधानमंत्री श्री श्याम प्रकाश देवपुराजी से मिलने मैं और डॉ. गगनजी सामने की विशाल इमारत में बने ऑफिस में पहुँचकर ‘श्याम प्रकाश देवपुराजी से भेंट करनी है’ कुरसी पर बैठे व्यक्ति ने पूछा। उस व्यक्ति ने कुरसी पर बैठने को कहा, ‘‘कहिए मैं ही श्याम देवपुरा हूँ।’’ हमने इस उत्तर की उम्मीद ही नहीं की थी। हमारे खयाल में श्याम प्रकाश देवपुरा बहुत सशक्त कदकाठी के रोबदार व्यक्ति होंगे। इतना सरल व्यक्ति इतने बड़े पद पर, आसानी से गले उतरनेवाली बात वास्तव में थी ही नहीं। ऑफिस में अलमारी, मेज, बैड़ इधर-उधर जिधर भी दृष्टि गई किताब-ही-किताबें थीं। ‘‘फेसबुक के प्रोफाइल पर तो कोई और ही फोटो है’’, डॉ. गगनजी ने प्रश्न किया, सहज भाव से अपने पूज्य पिताजी की दीवार पर टँगी तसवीर की ओर इशारा करते हुए बाऊजी का है सारा काम, उन्हीं के नाम से, उन्हीं के आशीर्वाद से है। डॉ. गगनजी ने बताया, ‘‘मैं डॉ. गगन कासगंज से, डॉ. शरदजी ने फोन किया होगा, पुस्तक लोकार्पण हेतु आपका निमंत्रण था।’’ डॉ. शरदजी नाम सुनते ही मानो उनके हृदय और मुखमंडल के कमल-दल खिल गए। तुरंत पीछे अलमारी से ‘हम ढलानों पर खड़े हैं’ काव्यकृति की पाँचों प्रतियाँ उठाकर दिखाते हुए, ‘‘यह देखो, डॉ. शरदजी का फोन आते ही मैंने पुस्तकें निकालकर अलग रखी हैं।’’

डॉ. शरदजी ने चलते समय कहा था कि जहाँ ठहरोगे, उसी के सामने हरी भाई चायवाले की दुकान है, मेरा परिचय देना, चाय अच्छी मिलेगी। जैसा बताया, वैसा ही पाया। बाजार एकदम नजदीक था तो सोचा कि बाजार की रौनक देखी जाए, खूब घूमे। बाजार दुलहन की तरह सज रहा था। देखते ही बनता था, निगाह जहाँ रुकी, रुकी ही रह गई। मेरा बेटा बड़ा प्रसन्न था, खिलौनों की दुकान पर अड़ गया। कभी गेंद-बल्ला, कभी दूरबीन कहता, कभी टैक्टर, कभी क्रेन तो कभी खिलौनों में ही खो जाता, नाम तक नहीं जानता था कुछ खिलौनों के। पत्नी कपड़ों व पर्सों की दुकानों में व्यस्त दिखीं। सब अपने-अपने मतलब का सामान तलाश रहे थे। मैं भगवान् श्रीनाथजी की एक तसवीर लेना चाहता था। डॉ. गगनजी ने बताया कि डॉ. शरदजी ने चलते समय बताया था कि नाथद्वारा में पंडितजी दूधवाले हैं। वहाँ दूध पीना। काफी तलाश के बाद पंडितजी मिले। बड़ी-बड़ी मूँछोंवाले, काफी लंबे-चौड़े, दूध फेंट रहे थे—एक हाथ कंधे से ऊपर खूब ऊँचा, एक जाँघ से नीचे, दोनों में बरतन ऐसे, जैसे दूध की धार एक बरतन से दूसरे को जोड़े थी। ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर दूध फेंटने के कार्य से मुक्त होकर हमारी सुध ली। डॉ. शरदजी का परिचय देते ही पंडितजी ने ‘‘वही मथुरा आकाशवाणीवाले शरदजी! आइए-आइए!’’ कहकर विनम्रतापूर्वक सत्कार किया। गऊ-दूध पिया, मन भर गया, मानो अमृत पी लिया हो।

भगवान् श्रीनाथजी के दिव्य दर्शन के लिए हम लोग मंदिर की ओर बढे़, पर भक्तों की भारी भीड़ में चलना मुश्किल था, द्वार पर पहुँचकर अपने जूते-चप्पल उतारकर मंदिर परिसर में दाखिल हुए। महिलाएँ अलग गेट से प्रवेश पा रही थीं, इसलिए पत्नी और हम अलग-अलग हो गए, बेटा मेरे साथ था। कपाट बंद थे और सीढि़यों पर ही बैठकर लोग इंतजार कर रहे थे, जैसे ही कपाट खुले तो भगवान् श्रीनाथजी की छवि दूर से दिखने लगी, कुछ ही सेकेंड में हमको पीछे से दर्शनार्थियों का सैलाब इतना था कि बेटा भीड़ में दबा जा रहा था, छोटा था ऊँचे कद के लोगों के सामने होने के कारण वह श्रीनाथजी को निरख नहीं पा रहा था। मैंने कंधों पर उसे उसके दोनों पैर आगे की ओर निकालते हुए बैठा लिया, अब हम दोनों आराम से भगवान् की श्री विग्रह का दर्शन कर रहे थे, धीरे-धीरे हम श्रीनाथजी के सम्मुख थे। भव्य मूरत नख से सिर तक सुंदरता-ही-सुंदरता, आँखों में बस गए श्रीनाथजी। भीड़ के रैले में पाँव स्थिर न रह सके, जितनी देर भी वहाँ रहे, कभी आगे, कभी पीछे, कभी दाएँ तो कभी बाएँ। शरीर ने कितनी गतियाँ कीं, गिनना मुमकिन न था, परंतु मन और आँखें श्रीनाथजी के साथ एक डोर की तरह बँधे रहे। दिव्य मूर्ति बोल-बोल पड़ेगी, ऐसा प्रतीत होता था।

श्री नाथद्वारा से २२ कि.मी. की दूरी पर हल्दीघाटी है, जहाँ महाराणा प्रताप और अकबर के बीच युद्ध लड़ा गया। यहाँ एक अत्याधुनिक संग्रहालय देखा, जिसमें महाराणा प्रताप के जीवन से संबंधित दृश्य लाइट्स और साउंड के माध्यम से दिखाए गए। पास ही एक पार्क भी है जिसमें महाराणा स्मारक है।

नाथद्वारा की दो ही शान हैं, जहाँ तक मैंने अनुभव किया—पहली भगवान् श्रीनाथजी और दूसरी उनके परम भक्त साहित्य व समाजसेवी भगवती प्रसाद देवपुराजी, इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन साहित्य-सेवा को समर्पित कर दिया। इनकी मेहनत और लगन का ही परिणाम था कि प्रभात फेरी में जिस भाव से पूरा नगर अपनी सहभागिता कर रहा था, वह दर्शनीय था। मैं उस पल का साक्षी बना, ये मेरे लिए सौभाग्य के क्षण थे। बाजार में दुकानदार और ग्राहक दोनों अपनी सुधियाँ खोकर प्रभात फेरी के आँखों से ओझल होने तक मूर्तिवत् देख रहे थे। आगे-आगे बैंड बाजा, हिंदी का जयगान करते स्कूली बच्चे और थिरकते साहित्यकारों का अभिनंदन करने पूरा नगर उमड़ पड़ा था।

प्रभात फेरी के बाद देश-विदेश की जानी-मानी पत्रिकाओं, पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी। डॉ. भगवती प्रसाद देवपुरा की अमूल्य धरोहर पुस्तक ‘सूरसागर’ और संपादित पत्रिका ‘हरसिंगार’ को देखकर मैं धन्य हो गया। ब्रजभाषा और हिंदी के उत्थान की साधना जो डॉ. देवपुराजी की पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में अमिट स्याही से सदैव अंकित रहेगी तथा शोधार्थियों को प्रेरणा एवं एक नई ऊर्जा प्रदान करती रहेगी।

डॉ. भगवती प्रसाद देवपुरा द्वारा स्थापित पुस्तकालय अनूठा है, मैंने अपने जीवन में हिंदी साहित्य का इतना बड़ा संग्रह, वह भी व्यक्तिगत रूप से किया गया, कभी नहीं देखा। साधारण व्यक्ति के वश का काम नहीं था यह। अष्टछाप कक्ष निर्माण में ब्रजभाषा के प्रति उनका सहज समर्पण प्रतिबिंबित था। स्वरचित पांडुलिपियाँ मोती जैसे अक्षरों में थीं। साहित्यकार कक्ष भी अवलोकनीय था।

साहित्य मंडल परिवार द्वारा देश के विभिन्न कोनों से आमंत्रित किए गए माँ भारती के सपूत हिंदी और ब्रजभाषा के सेवक अग्रणी साहित्यकारों का सम्मान डॉ. देवपुराजी की शुरू की हुई परंपरा भी अपनी आँखों से देखी। ‘ट्रू मीडिया’ के संपादक श्री ओम प्रकाश प्रजापति, पूर्व डी.जी.पी. डॉ. महेश चंद्र द्विवेदी, डॉ. नीरजा द्विवेदी, डॉ. विक्रम सिंह, डॉ. अनिल गहलौत ‘भैयाजी’, डॉ. आग्नेय एवं श्री वीरेंद्र लोढ़ा आदि साहित्यकारों का सम्मान उत्तरी पहनाकर, मंदिर का प्रसाद, श्रीनाथजी की मनमोहक तसवीर और प्रशस्ति-पत्र भेंट कर किया गया। हिंदी के विकास के संदर्भ में विभिन्न दृष्टिकोण भी पत्रों के माध्यम से विभिन्न साहित्यकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए।

‘ट्रू मीडिया’ चैनल की पत्रिका के अंक का लोकार्पण साहित्य मंडल के भव्य मंच से हुआ, जिसमें श्री ओम प्रकाश प्रजापति ने ‘हिंदी भाषा उत्थान’ एवं ‘साहित्यकार सम्मान’ के प्रणेता डॉ. देवपुरा के विषय को उकेरा है। डॉ. चंद्रपाल मिश्र ‘गगन’ की मनोवैज्ञानिक कसौटी पर खरी रचनाओं एवं ब्रजभाषा के छंदों से परिपूर्ण काव्य-संग्रह ‘हम ढलानों पर खड़े हैं’ का लोकार्पण भी डॉ. अमर सिंह वधान, विट्ठल पारीक, हरीलाल मिलन, डॉ. अमी आधार ‘निडर’ एवं करतार योगी की गरिमामयी उपस्थिति में हुआ। दोनों शाम कवि-सम्मेलनों से रंगीन रही, जिसमें काव्य-प्रेमी, साहित्यकारों ने अपनी सहभागिता की। डॉ. उमाशंकर ‘साहिल’ अजीम अंजुम, देवी प्रसाद पांडेय, डॉ. गगन आदि ने अपनी रचनाओं से मंत्रमुग्ध किया।

साहित्य मंडल परिवार के मुखिया श्री श्याम प्रकाश देवपुराजी के प्रबंधन की प्रशंसा करनी पड़ेगी, क्योंकि इतना भव्य आयोजन निर्विघ्न और बड़ी सहजता से संपन्न करा देना, उनकी क्षमता का द्योतक है, अपने पद का घमंड उनको कहीं से स्पर्श नहीं कर पाया था और विनम्रता के सुगंधित पुष्प उनके अंग-अंग से झरते थे। श्री श्याम प्रकाश देवपुरा के इस प्रबंधन रथ के सारथी डॉ. विट्ठल पारीक कहे जा सकते हैं, जिनके अनूठे संचालन से कार्यक्रम अपने चरम बिंदु तक गया। साहित्यकारों के सम्मान में सुबह का नाश्ता, दोपहर व रात का भोजन एवं शाम की चाय, सबमें उनके मृदुल व्यवहार एवं मेवाड़ तथा मारवाड़ी महक घुली हुई थी। ऐसा प्रसाद और श्रीनाथजी की कृपा हम सबको हमेशा मिलती रहे, इसी आशा एवं विश्वास के साथ हम लोग श्रीनाथद्वारा से मावली जंक्शन को रवाना हुए और मधुर स्मृतियों में डूबते-उछलते ब्रजधाम स्थित गृह नगर कासगंज आ गए।

—नरेंद्र ‘मगन’
मोहल्ला मंडी, कस्बा बिलराम
जनपद-कासगंज-२०७१२४ (उ.प्र.)
दूरभाष : ९४११९९९४६८

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