हिमांशु जोशी : मेरे मित्र एवं मार्गदर्शक

हिमांशु जोशी : मेरे मित्र एवं मार्गदर्शक

२३ दिसंबर, २०१८ को हिमांशु जोशी ८३ वर्ष की उम्र में चिरनिद्रा के आगोश में समा गए। यह समाचार सुनते ही हिंदी परिवार में शोक की लहर दौड़ गई। वे जनता के प्रिय कहानीकार थे। सन् १९५५ में २१ वर्ष की उम्र में वे उत्तराखंड से काम की तलाश में दिल्ली आए। हिमांशु ने कुछ ही वर्षों के संघर्ष के बाद दिल्ली को अपना घर बना लिया। जैनेंद्र कुमार ने उनकी प्रथम कहानी ‘दीप तो बुझ गया’ को पढ़कर उनकी साहित्यिक प्रतिभा को परखा और उन्हें अपने साथ हिंदी साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत होने की सलाह दी। बस वही उनके परिवार के जीवकोपार्जन का एकमात्र साधन हो गया। उत्तराखंड की पृष्ठभूमि होने के बावजूद उनकी कहानियों में भारतीय जीवन का स्पंदन है। सन् १९६८ से १९९३ तक साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान’ में उन्हें सहायक संपादक के पद पर रखकर संपादक मनोहर श्याम जोशी ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा तथा पत्रकारिता-वैविध्य का संपूर्ण देश को परिचय करवाया। उनके उपन्यास ‘कगार की आग’, ‘छाया मत छूना मन’ को धारावाहिक रूप में साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान’ में प्रकाशित करके जोशीजी को लाखों पाठकों तक पहुँचाया। उन्होंने अपनी पचास वर्ष की साहित्य-यात्रा में प्रायः दो सौ कहानियाँ लिखीं। साथ-ही-साथ उन्होंने बाल-साहित्य, साक्षात्कार-साहित्य, यात्रा-वृत्तांत तथा कुछ कविताएँ लिखीं। उन्होंने ‘शांतिदूत’ पत्रिका का सन् १९९० से २००६ तक संपादन तथा प्रकाशन किया, जो विदेशों में बड़ी ही लोकप्रिय थी। उनकी रचनाएँ समस्त भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, नॉर्वेजियन, इटालियन, चेक, स्लाव, बुल्गारिया, चीनी, जापानी, कोरियन, बर्मी, नेपाली, बांग्ला आदि भाषाओं में रूपांतरित होकर सराही गईं, पर हिंदी साहित्य में गुटबंदी तथा पक्षपात के कारण उन्हें अनुकूल सम्मान न प्राप्त हो सका, जैसे उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार, भारत सरकार द्वारा पद्मश्री। पर वे स्वांतः सुखाय रचनाएँ करते रहे। वे अपनी धरती, संस्कृति और स्मृतियों में चरित्रों को उठाते एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जिसमें समरसता हो, प्रेम हो तथा सहनशीलता हो।

मेरी उनसे प्रथम मुलाकात प्रायः १५ वर्ष पूर्व कोलकाता स्थित भारतीय भाषा परिषद् के एक कार्यक्रम में हुई। यह कार्यक्रम उनके साहित्यिक रचनाकर्म पर आधारित था।

मैं उनके सौम्य, विनम्र, मृदुभाषी, सरल, सहज तथा राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रहित व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुआ। बस हम एक-दूसरे के मित्र हो गए। इसके बाद मैं कई बार उनसे मिला। वे मुझे दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल क्लब में ले जाते थे। वहाँ हम बैठकर साहित्यिक चर्चाएँ करते थे। आई.ए.एस. से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् मैंने कहानियों के क्षेत्र में आगाज करने का संकल्प लिया, क्योंकि मेरा प्रथम कहानी-संग्रह ‘यूकेलिप्टस’ वांछित साहित्यिक मान्यता प्राप्त न कर सका। पर कहानी-विधा ही आजकल लोकप्रिय साहित्य-विधा है।

मैं कहानियाँ लिखता, उन्हें पढ़कर सुनाता तथा उनके सुझाव अमल में लाकर अपनी कहानियों में सुधार करता। मेरा २० नवंबर, २०१८ को सद्यः प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘गाँव-गाँव की कहानियाँ’ में उनका आत्मनेपद पुरोवाक् मृत्यु के पूर्व उनका अंतिम आलेख है। उनका स्वास्थ्य दो वर्ष पूर्व से काफी बिगड़ना शुरू हो गया था तथा वे मुझे बोलकर वैश्विक साहित्य के लिए अपना स्तंभ लिखवाते, उसमें सुधार करते तथा अपने संग्रह से सामग्री उपलब्ध कराते। यह क्रम उनके स्वर्गवास तक जारी रहा तथा ‘वैश्विक साहित्य’ के माध्यम से हिंदी जगत् उनके सूर्यास्त काल की विचारधारा से परिचित होता रहा। ऐसी साहित्यिक प्रतिभा के प्रयाण के पश्चात् हिंदी कहानी साहित्य का कौन पथ-प्रदर्शन करेगा, जिसमें संपूर्ण भारत समाहित हो?

प्रमोद कुमार अग्रवाल
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