पाँच राज्यों के चुनाव और आगे?

पाँच राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव की ओर देश की आँखें लगी हुई थीं। राजस्थान और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भाजपा की हार हुई थी, उससे कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों का उत्साह बढ़ा। कर्नाटक में भी जेडी (सेकुलर) से मिलकर कांग्रेस ने सरकार बना ली। बड़ी पार्टी होते हुए भी राहुल गांधी ने कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की बलि देकर पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का पद सौंप दिया। मजे की बात यह है कि जेडी (सेकुलर) जन्म से ही कांग्रेस विरोधी पार्टी रही, किंतु पहले भी जब हम कर्नाटक में राज्यपाल थे, कांग्रेस ने जेडी (सेकुलर) के साथ उस समय सिद्धारमैया, जो जेडी (सेकुलर) में शुरू से ही थे उपमुख्यमंत्री बने, से रुष्ट होकर देवगौड़ा ने मुख्यमंत्री धर्मसिंह को सिद्धारमैया को मंत्रिमंडल से हटा देने को कहा और उन्हें पार्टी से निकाल दिया। पिछले चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई, पर भाजपा को सत्ता से दूर करने के लिए कर्नाटक में कांग्रेस ने कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने की पहल की। उनकी ताजपोशी के समय विरोधी दलों के नेता एकत्र हुए और महागठबंधन बनाने की कोशिश शुरू हुई।

इसके पहले गुजरात के विधानसभा के चुनाव में भाजपा पिछड़ती दिख रही थी, परंतु कांग्रेस के मणिशंकर के नरेंद्र मोदी विषयक ‘नीच हैं’ वाले बयान ने गुजरात की जनता को आहत किया और चुनाव गुजरात की प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। वास्तव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अथक परिश्रम से भाजपा गुजरात में अपनी सरकार बना सकी। गुजरात के चुनाव के बाद कांग्रेस और विरोधी दलों का मनोबल बढ़ा। महागठबंधन की रणनीति से भाजपा और नरेंद्र मोदी को परास्त किया जा सकता है, यह विचार उनमें घर कर गया। हालाँकि विभिन्न विचारधारा तथा अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण महागठबंधन का निर्माण अधर में रह गया। इस पृष्ठभूमि में हम देखें तो भाजपा निर्णय नहीं कर सकी कि बदलती हुई राजनैतिक परिस्थितियों में कैसी चुनावी रणनीति अपनाई जाए। आज भी कहा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे बडे़ और प्रभावी नेता हैं, ऐसी जनता की मान्यता है, किंतु २०१४ के आम चुनाव के बाद कि ‘भाजपा और नरेंद्र मोदी अजेय हैं, इनका कोई विकल्प नहीं’ इस सोच में परिवर्तन होने लगा।

करीब एक वर्ष पहले राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद मृतप्रायः कांग्रेस संघटन अँगड़ाई लेने लगा। राहुल के देशव्यापी दौरों और भाषणों ने कांग्रेस में एक स्फूर्ति पैदा की। आंतरिक मतभेदों के होते हुए भी चुनाव होनेवाले राज्यों में कांग्रेस सक्रिय और सजग हुई तथा अपनी रणनीति बनाने लगी कि कैसे इन पाँच राज्यों में वह जीत हासिल कर सके, और हिंदी भाषा-भाषी तीन राज्यों में, जहाँ भाजपा काफी मजबूत रही है, भाजपा को सत्ता से दूर किया जा सके।

हम इस समय आँकड़ों के विश्लेषण में जाना आवश्यक नहीं समझते हैं। इस पर काफी विश्लेषण टी.वी. और समाचार-पत्रों में हुए हैं और हो भी रहे हैं। पूरा परिदृश्य धीरे-धीरे स्पष्ट होगा। यहाँ कुछ विशेष मुद्दों की चर्चा ही केवल करेंगे। २०१८ में पाँच राज्यों का चुनाव टी.वी. और मीडिया के कारण सचमुच २०१९ के आम चुनाव के सेमीफाइनल के रूप में प्रस्तुत किया गया। क्या नरेंद्र मोदी २०१४ की सफलता को दोहरा पाएँगे? २०१४ में मोदी के नेतत्त्व में भाजपा अकेले पूर्ण बहुमत वाले दल के रूप में उभरकर आई और कांग्रेस को सताच्युत कर दिया। उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव में भी कांग्रेस और समाजवादी दल के गठबंधन को धूल चाटनी पड़ी। नतीजे अच्छे आने लगे। नरेंद्र मोदी का जादू और करिश्मा भाजपा को विजय से विभूषित करेगा, क्योंकि टिना फैक्टर, यानी ‘भाजपा और मोदी के अलावा कोई विकल्प नहीं’ भाजपा जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास से ग्रस्त हो गई। उधर विपक्षी दल, जो नैराश्य में डूबे हुए थे, भाजपा के उत्तर प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों में हारने के कारण सोचने लगे कि मोदी को हराना संभव नहीं है और वे इसके रास्ते तथा राजनीति खोजने लगे, ताकि मोदी को परास्त किया जा सके। उनमें नया आत्मविश्वास पनपने लगा। उसके विपरीत भाजपा में आत्ममोह छाने लगा कि वह अपराजेय है।

यही नहीं, एक सोच उत्पन्न होने लगी कि भाजपा जो कर रही है, वह सही है। वह जमीनी हकीकत से दूर होने लगी। केंद्र में नहीं, किंतु राज्य सरकारों में भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सुर्खियों में आने लगे। वास्तव में २०१९ का चुनाव अमेरिका के प्रजीडेंशल चुनाव के नज़रिए से देखा जाने लगा है—मोदी बनाम राहुल। अगले चार-पाँच महीने यही चर्चा का विषय रहेगा। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और विश्वसनीयता बरकरार है, यद्यपि हर प्रकार से उसे धूमिल करने की कोशिशें चल रही हैं। कांग्रेस बड़े स्तर पर इस दृष्टि से सोशल मीडिया का उपयोग कर रही है। यदि भाजपा सत्ता में रहना चाहती है तो उसे सतर्क रहना पड़ेगा। लोकतंत्र की निर्भरता भी सर्वविदित है। देखा गया कि इन राज्यों में स्थानीय समस्याओं को राज्य सरकारों ने किस प्रकार सुलझाया है, कैसे जनता के अभाव और कष्ट दूर किए गए, इन पर जोर न देकर केंद्र और प्रधानमंत्री मोदी की क्या उपलब्धताएँ हैं, यह अधिक बखानते रहे। यह जनता को रास नहीं आया, क्योंकि वह आकलन कर रही थी कि राज्य सरकार और भाजपा के विधायकों ने उनकी रोजमर्रा की कठिनाइयों का क्या हल निकाला। जो भी कार्य सरकार द्वारा किए भी गए, उनका संप्रेषण ठीक से नहीं हो सका। जनता इससे संतुष्ट  नहीं हुई।

पंद्रह वर्ष तक भाजपा इन राज्यों में सत्ता में रही, इसके कारण जनता ऊबी सी लगती थी। इसे एंटी इनकंबेंसी फैक्टर कहा जाता है, यानी जनता का उबाऊपन। वह नई नीतियाँ और नए चेहरे देखना चाहती थी, इस आशय में कि शायद परिवर्तन के बाद, नई राजव्यवस्था के बाद कुछ और अच्छा करके दिखाएगी। इस उबाऊपन की काट भाजपा नहीं कर सकी। वह मोदी के जादू पर ही केवल आश्रित रही। यह भी स्पष्ट हो गया कि इन राज्यों में किस प्रकार विधायकों और जनता के बीच का संपर्क टूट गया था। कार्यकर्ताओं को भी लगने लगा था कि सत्ता के गलियारों में उनका कोई महत्त्व नहीं है, उनकी अवहेलना हो रही है।

केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बहुत अच्छे कार्य किए, जिससे आम जनता को सुविधा प्राप्त हुई। मोदी की नीतियों ने स्थायी एसेटस जुटाए हैं, इसका लाभ धीरे-धीरे ही होगा। मोदी ने प्रयास किया है कि नागरिक सशक्त हों, आत्मनिर्भर हों और भविष्य में सम्मान के साथ जीवनयापन कर सकें। उन्होंने अन्य दलों की तरह जनता को लॉलीपाप और झुनझुना नहीं पकड़ाए, बिना सोचे कि कल क्या होगा। इस संदेश को प्रभावी तरीके से राज्य सरकारें जनता तक नहीं पहुँचा सकीं। जन-साधारण का सोचना स्वाभाविक है कि हमको अभी क्या लाभ हुआ, कितनी हमारी आमदनी बढ़ी है, इस परस्पर विरोधी दृष्टिकोण में सामंजस्य बैठाना और जनता को आश्वस्त करने में राज्य सरकारें नाकामयाब रहीं। केवल चुनाव के समय जाकर प्रचार और रथ-यात्राओं से जनता का विश्वास प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

यह ध्यान देने की बात है कि इन तीनों राज्यों में चाहे गाँव हो अथवा छोटे कस्बे, हर क्षेत्र में भाजपा की हार हुई है। शहरों और कस्बों में भाजपा के वर्चस्व में हृस क्यों हुआ, यह गंभीरता से सोचने की बात है। यही नहीं, अलग-अलग वर्ग जो भाजपा से जुडे़ थे, जैसे राजस्थान में राजपूत, जाट, गुर्जर, मीणा और अनुसूचित जातियाँ, जो इनकी समर्थक रही हैं, भाजपा को छोड़ दूसरे खेमे में चले गए। भाजपा को सदैव गौरव था कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों केसबसे अधिक प्रतिनिधि उसके रहे हैं। इस परिदृश्य में बदलाव आया। इसका एक बड़ा कारण खेती और कृषकों की स्थिति रही है। उन्हें ऐसा लगा कि उनके प्रति भाजपा उदासीन है। जमीनी हकीकत और भावनाएँ क्यों बदल रही हैं, भाजपा इनको समझने में असफल रही। मुसलिम वोटों की संभावना तो पहले से ही नहीं थी। भाजपा के जो परंपरागत समर्थक रहे हैं, वे भी बहुत कुछ उदासीन हो गए।

जनजातियों और अनुसूचित जातियों के संरक्षण में जो कानून बना था, उसकी एक धारा को सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया, और आदेश दिया कि गिरफ्तारी के पहले शिकायत की सरसरी जाँच की जाए। संविधान के अंतर्गत शिकायती और जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है, दोनों के मानव अधिकार हैं। गिरफ्तारी के प्रावधान को हटाने की बात नहीं थी, केवल तुरंत गिरफ्तारी में सावधानी बरतने का सवाल था। अतएव त्वरित गिरफ्तारी के प्रावधान को एक वर्ग के दवाब में बहाल कर देने से तथाकथित उच्च जातिवालों में नैराश्य फैल गया। वे कहने लगे कि हमारी तो कोई गिनती ही नहीं है भाजपा की नजरों में। मध्य प्रदेश, राजस्थान में इसका काफी विरोध हुआ, भाजपा को सबक सिखाने के लिए तथा वोट काटने के लिए प्रत्याशी खडे़ किए गए, नतीजा यह हुआ कि यद्यपि इस वर्ग के अधिक मतदाताओं ने भाजपा को फिर भी समर्थन दिया, किंतु बहुत से वोट डालने गए ही नहीं। और जो कुछ गए, उन्होंने नोटा, ‘यानी किसी को नहीं’ वाला रास्ता अपनाया। मध्य प्रदेश में नोटा की संख्या इस बात की गवाह है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया सरसंघसंचालक श्री मोहनराव भागवत को इस बात का संभवतः आभास हो गया था कि नोटावाले मतदाताओं की संख्या बढ़ने का डर है। उन्होंने अपील की थी कि मतदाता स्पष्ट मत दें, नोटा का सहारा न लें। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। यही नहीं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चुनौती भरे बयान कि ‘कौन माई का लाल है जो’ ने वातावरण और खराब कर दिया। नतीजा यह हुआ कि मध्य प्रदेश में यद्यपि भाजपा ने कांग्रेस को अच्छी टक्कर दी, फिर भी जीत कांग्रेस की ही हुई। कुछ विधायकों की यदि कमी भी रही तो भाजपा को सत्ता से दूर करने के लिए मायावती और अखिलेश ने स्वयं समर्थन देने की घोषणा कर दी। जहाँ तक राजस्थान का सवाल है, अधिकतर पूर्वानुमान यही था कि भाजपा वसुंधरा राजे के नेतृत्व में नहीं जीत सकेगी। हुआ भी यही। अमित शाह के अथक प्रयास के बावजूद भाजपा अपनी सरकार न बचा सकी। मुख्यमंत्री बसुंधरा राजे के अहं, विधायकों में आपसी फूट और कार्यकर्ताओं तथा विधायकों के बीच गहरी खाई भी पैदा हो गई थी। इस प्रकार त्रियाहठ और सत्तामद प्रायः एक जहरीला मिश्रण पैदा कर देता है। राजस्थान में भाजपा के अध्यक्ष की नियुक्ति के बारे में मुख्यमंत्री भाजपा का आलाकमान से टकराव सर्वविदित है। भाजपा कितना भी इसे नकारे, जनता को विश्वास नहीं होता।

यदि भाजपा का अध्यक्ष हाँ में हाँ मिलानेवाले की जगह राठौर जैसा नया चेहरा सामने आता तो भाजपा का पराभव रुक सकता था। वैसे भी राजस्थान में जनता ने पुरानी परिपाटी, एक बार भाजपा तो दूसरी बार कांग्रेस को निभाया है। आशा थी कि शायद राजस्थान में जीत न हो, पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसी प्रकार, कम मतों से ही सही, भाजपा चौथी बार सरकार बना सकेगी। भाजपा एक छोटे राज्य छत्तीसगढ़ में भी जनता की नब्ज न पहचान सकी। भ्रष्टाचार के आरोपों का भी उचित जवाब सरकार न दे सकी। अनुमान है कि भाजपा अगले आम चुनाव में ६५ सीटों पर, जिन पर भाजपा का कब्जा है, उनमें से ४४ सीटें भाजपा के हाथ से जा सकती हैं। कुछ पर्यवेक्षकों का मत है कि भाजपा की आक्रामक रणनीति प्रभावी है, किंतु वह जहाँ सत्ता में है, उसमें बचाव की रणनीति का अभाव है। गुजरात और कर्नाटक दोनों के संदर्भ में यह चर्चा होती है। भाजपा को इस पर भी शायद गंभीरता से विचार करना होगा। लोकतंत्र में जहाँ सरकारें बदलती हैं, वहाँ किस भाँति जनता जनार्दन से समुचित तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है, ताकि भाजपा अपनी विचारसरणी के आधार पर सत्ता जनहित, केवल दल या व्यक्ति के हित में नहीं, में अपनी नीतियों का कार्यान्वयन कर सके।

अपने पहले बजट में मोदी की सरकार ने मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस, ‘छोटी सरकार, किंतु प्रभावी सुशासन’ का नारा दिया था। नरेंद्र मोदी ने यह बार-बार दोहराया था। पर लोगों का कहना है कि यह वादा पूरा नहीं हुआ। यहाँ तात्पर्य छोटी मिनिस्टरी का नहीं है, बल्कि सरकारी कार्यप्रणाली कहाँ तक अधिक सरल, सुबोध और सुलभ जनता के लिए होगी। यहाँ आशंका है, जो प्रधानमंत्री ने कहा और जो जमीनी वास्तविकता है, उसमें बड़ा अंतर रहा। जनता की नाराजी सरकार के इरादों से अथवा मंतव्य से नहीं। गुस्सा है कि क्या कहा गया और क्या हुआ, और जो हुआ भी, वह कितना हुआ, उसकी गुणवत्ता क्या है। नीति परिवर्तन और कार्यक्रम के अनुपालन में ‘मैक्सिमम गवर्नमेंट’ या बृहत् सरकार एक अवरोधक बन जाती है। निष्पक्ष तटस्थ लोगों का कहना है कि इंस्पेक्टर राज में बढ़ोतरी हो रही है, कमी नहीं, जैसी कि अपेक्षा थी। कार्यप्रणाली अब अधिक पेचीदा हो गई है। यहाँ इसके ज्यादा विवेचन में जाना संभव नहीं है।

एक टिप्पणीकार ने तीन हिंदी भाषी प्रदेशों में भाजपा की हार को हिंदुइज्म की जीत और हिंदुत्व की हार की संज्ञा दी है। इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता है, यह सोच ही भ्रमपूर्ण है। ये दोनों यदि पर्यायवाची नहीं तो एक-दूसरे के पूरक हैं। हिंदुइज्म से मुख्यतः मंतव्य आस्थाओं से है और उसके अंतर्गत सर्वोच्च शक्ति की आराधना शैलियों से है। हिंदुत्व के सरोकार प्रधानतया सामाजिक और सांस्कृतिक हैं। यह भ्रांतिपूर्ण कथन है कि हिंदीभाषी तीन राज्यों में, जहाँ ८० से लेकर ९० प्रतिशत हिंदू हैं, हिंदुत्व को नकार दिया है। हिंदू बहुमत के कारण ही भारत पाकिस्तान की तरह एक थियोलॉजिकल या धार्मिक राज्य नहीं है। हालाँकि दुर्भाग्य से देश का बँटवारा अंतत धार्मिक आधार पर हुआ। सर्वधर्म की भावना हिंदुइज्म और हिंदुत्व दोनों की भित्ति है, उसकी परंपरा है। उनमें उदारता, सौहार्द और भ्रातृ भावना निहित है। इसलिए आवश्यक है कि पार्टी के स्तर पर और शासन के स्तर पर अतिवादियों, अनुचित नारे लगानेवालों तथा किसी-न-किसी बहाने कानून को अपने हाथ में लेनेवालों को अनुशासित किया जाए। यह माँग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘सबका विकास, सबका साथ’ का अभिन्न अंग है।

गुजरात, कर्नाटक तथा गुजरात के चुनाव के बाद कांग्रेस की राजनीति का एक हिस्सा रहा है कि राहुल गांधी की छवि को हिंदू के तौर पर प्रचारित किया जाए। २०१४ में कांग्रेस की हार के बाद ए.के. एंटोनी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जनसाधारण को लगता है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की ओर अधिक झुकी हुई है, इसलिए राहुल गांधी को जनेऊधारी शिवभक्त हिंदू के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। राहुल का कौल दत्तात्रेय गोत्र है, यह बताया गया। मंदिर-मंदिर जाने का नाटक भी वोटबैंक की राजनीति का भाग हो गया है, किंतु वास्तविकता जनता से छिपी हुई नहीं है।

यह भी प्रयास है कि किसी प्रकार यदि गठबंधन हो तो राहुल २०१९ में इस गठबंधन का मुख्य चेहरा दिखें, उन्हीं का नेतृत्व रहे और अगर ऐसे गठबंधन को कहीं सफलता मिल जाए तो वे प्रधानमंत्री बनें। परंतु इसमें बहुत रुकावटें हैं, पता नहीं गठबंधन बन सकेगा या नहीं। तेलुगू देशम के मुख्यमंत्री और ममता एक फेडरल गठबंधन के पक्ष में हैं, जिसमें न भाजपा हो और न कांग्रेस। अभी जब करुणानिधि की मूर्ति के अनावरण के बाद डी.एम.के. अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने राहुल गांधी का नाम महागठबंधन के नेता के लिए उपयुक्त बताया और प्रस्तावित किया तो तुरंत तृणामूल कांग्रेस, आर.जे.डी., नेशनल कांग्रेस पार्टी, अखिलेश की समाजवादी पार्टी आदि कई दलों ने इस सुझाव का विरोध किया। जिनसे उम्मीद रही महागठबंधन में शामिल होने की, उनका कहना है कि यह निश्चय चुनाव के बाद हो सकता है। विभिन्न विचारधारा के महत्त्वाकांक्षी दलों को एकजुट रखना और बनाए रखना आसान नहीं। कई दलों ने स्पष्ट कहा भी है कि वे राहुल गांधी की राजनैतिक परिपक्वता के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। दूसरी ओर सोनिया गांधी ने एक और चाल चली है। कहा गया कि अनुभव और नए खून दोनों का लाभ कांग्रेस चाहती है, अतएव राजस्थान में गहलौत और मध्य प्रदेश में कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है। सचिन पायलट के उपमुख्यमंत्री और मध्य प्रदेश में सिंधिया को उचित उत्तरदायित्व सौंपा गया है। सच्चाई यह है कि कोई अन्य युवा नेता प्रधानीमंत्री के पद का दावेदार न बन सके। यह जरूरी है कि राहुल गांधी की पूरी पकड़ कांग्रेस ऑर्गनाइजेशन पर हो और जब तक यह स्थिति संगठन में न आए, कोई दूसरा प्रतिद्वंद्वी पैदा न हो सके। यदि सत्ता मिले तो वह रहे गांधी परिवार में ही रहे। इस पूरी प्रक्रिया पर लोकतांत्रिक मुलम्मा चढ़ाने का प्रयत्न किया गया कि विधायकों ने मुख्यमंत्री चुनने का दायित्व कांग्रेस अध्यक्ष को दिया। पर दिल्ली अभी तो दूर ही मालूम होती है।

मिजोरम में कांग्रेस बुरी तरह हारी है। उसके मुख्यमंत्री ने दो सीटों से चुनाव लड़ा, पर दोनों जगह हार गया। इस तरह उत्तर-पूर्व में कांग्रेस कहीं भी सत्ता में नहीं है। एक सीट भाजपा ने जीती। पाँचवें राज्य तेलंगाना में तेलुगू देशम के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव बहुमत से जीते। कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू का गठबंधन असफल रहा।

सर्वोच्च न्यायालय और मानहानि

१२ जनवरी, २०१८ में जो अप्रत्याशित प्रेस कॉन्फ्रेंस सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश (अब निवर्तमान) जस्टिस चेलमेश्वर के बँगले में हुई थी, उसमें जस्टिस चेलमेश्वर के अतिरित जस्टिस जोसेफ कुरियन, जस्टिस लेन्कूर तथा जस्टिस रंजन गोगोई थे, जो अब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश हैं। उन्होंने उस समय के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के महत्त्वपूर्ण मुकदमे को सुनने के लिए ऐसी पीठ बनाने की प्रक्रिया की आलोचना की, जहाँ महत्त्वपूर्ण मुकदमे कनिष्ठ-वरिष्ठ न्यायाधीशों की अवहेलना कर न्यायाधीशों की बेंचों को दिए जाएँ और उन्होंने माना कि मास्टर ऑफ रोल्स का अधिकार यद्यपि प्रधान न्यायाधीश का है, मुकदमों का वितरण आपसी विचार-विमर्श के द्वारा होना चाहिए। उन्होंने अपने अजूबा कदम की पुष्टि में यहाँ तक कहा कि यह प्रजातंत्र के लिए खतरा है। उन्होंने प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा से बातचीत की, किंतु कोई संतोषजनक हल नहीं निकला, वैसे हमारी मान्यता तो है कि सभी इन उच्च पदों पर जो नियुक्त हुए हैं, वे अपनी योग्यता और निष्पक्षता के आधार पर हुए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के जज बनने के बाद वरिष्ठ और कनिष्ठ जजों का भेद बेमानी है। जनता की अपेक्षा यही है कि सर्वोच्च न्यायालय से निष्पक्ष निर्णय कानून के अनुसार मिलें। इस विषय पर काफी विवाद रहा। इस स्तंभ में इस विषय पर भी काफी चर्चा रही है, अतएव उस पुरानी पृष्ठभूमि में जाने की आवश्यकता नहीं है। जस्टिस चेलमेश्वर एवं ज. जोसेफ कुरियन सेवा से निवृत्त हो गए हैं। जस्टिस लेन्कूर का शीघ्र ही कार्यकाल समाप्त होनेवाला है और अब प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई हैं, अतएव यह मामला सुलझ जाना चाहिए। जनता सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता और विश्वसनीयता सदैव बनाए रखना चाहती है।

जस्टिस जोसेफ कुरियन, जो अभी हाल में ही अपने पद से मुक्त हुए थे, उन्होंने दिल्ली के एक अंग्रेजी समाचार-पत्र में साक्षात्कार देते हुए कहा कि प्रेस कॉन्फ्रेंस का सुझाव जस्टिस चेलमेश्वर का था और अन्य तीनों सहयोगी उससे सहमत हो गए थे। आगे उन्होंने कहा कि उन लोगों को ऐसा महसूस हो रहा था कि कोई बाहरी शक्ति तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को प्रभावित कर रही है। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि वे महत्त्वपूर्ण मामले ऐसी बेंच को दे देते थे, जिनके न्यायाधीश एक प्रकार के पूर्वग्रह से ग्रस्त मालूम पड़ते थे। यह एक गंभीर आरोप था, एक प्रकार से इसे सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें पक्षपात का आरोप है, तथाकथित कनिष्ठ जजों के विरुद्ध। उन्होंने इसके पक्ष में कोई उदाहरण या सबूत नहीं दिया। इसे केवल एक कयास या शंका कहा जा सकता है।

पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने जस्टिस कुरियन के आरोप पर चुप रहना ही ठीक समझा। यह एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश की गरिमा के अनुकूल था। वर्तमान न्यायाधीशों ने भी संभवतः यही माना कि वक्तव्य को महत्त्व नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे विवाद फिर उभरता, जो सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता के प्रतिकूल होता। खैर यही रही कि मीडिया ने भी जस्टिस कुरियन के बयान को अधिक नहीं उछाला। मामला ठंडा पड़ गया। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या यह उचित है कि जब सर्वोच्च न्यायालय से निवृत्त होने में अभी अधिक समय नहीं हुआ है, इस प्रकार का बयान उन्होंने दिया? इसमें वैयक्तिक कुंठा की बू भी आती है। जस्टिस कुरियन ने अल्पसंख्यक समुदाय के विषय में भी चिंता प्रकट की, जो उचित नहीं मालूम होती है। सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के बाद से अल्पसंख्यक समुदाय का समुचित प्रतिनिधित्व रहा है। भविष्य के बारे में यह चिंता निरर्थक है। उनका दूसरा प्रश्न यह है कि यदि इस प्रकार बयान साधारण नागरिक देता तो सर्वोच्च न्यायालय की किस प्रकार का प्रतिक्रिया होती। संस्थागत विश्वसनीयता को इस सबसे धक्का लगता है, यह बात तो निवर्तमान न्यायाधीश के ध्यान के परे नहीं रहनी चाहिए थी। ऐसा नहीं कि भ्रांति और मतभेद उच्च न्यायालय में पहले नहीं हुए, पर वे इस प्रकार खुलकर जनता में नहीं आए।

पिछले दिनों एक पुस्तक इस विषय में निकली है, जहाँ बहुत स्पष्टता और कभी-कभी कटुता के साथ न्यायाधीशों ने अपने सहयोगियों के विषय में कहा है, किंतु यह सब पर्याप्त समय बीतने के बाद। एक अमेरिकन शोधकर्ता जॉर्ज एच डुवॉइस ने जजों से साक्षात्कार कर बहुत सी बातों का खुलासा किया। पुस्तकाकार रूप देने के पहले उनका निधन हो गया। उस सामग्री का प्रस्तुतीकरण मुंबई के एक युवा विज्ञ एडवोकेट श्री अभिनव चंद्रचूड़ ने किया है। पुस्तक का नाम है—‘Supreme Whispers : Conversations with Judges of Supreme Court of India, १९८६-१९८९’। अच्छा होता, यदि अपने विचार जस्टिस कुरियन अपने संस्मरण लिखकर कुछ समय उपरांत प्रकाशित करते। जल्दबाजी में एक अति महत्त्वपूर्ण संस्थान, सर्वोच्च न्यायालय के लिए यह बात हितकर नहीं कही जा सकती। कोई भी व्यक्ति कितने भी बड़े पद पर हो, परफेक्शन की प्रतिमूर्ति नहीं होता है। जैसा हम पहले कह चुके हैं कि हम सब हमाम में नंगे हैं, घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं। उच्च पद प्राप्त करने के उपरांत संस्था के गौरव और गरिमा के भागीदार होते हैं, जिसको नागरिक के अधिकारों की सुरक्षा और लोकतंत्र की प्रतिबद्धता का दायित्व संविधान ने सौंपा है, वह है सर्वोच्च न्यायालय; अतएव आत्मनियंत्रण और संतुलन की आवश्यकता होती है।

उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में दलित उत्पीड़न की खबरें आती रही हैं। बरात गाजे-बाजे के साथ या वर घोड़े पर चढ़कर नहीं जा सकता, इस प्रकार की वाहियात बातें होती रही हैं। यह सामंतवादी युग नहीं है। संविधान सबको बिना जाति-पाँति, धर्म, रंग या नस्ल भेद के समान अधिकार देता है। यह समता का युग है। समाज के एक बड़े वर्ग को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। राजधर्म नागरिक नागरिक में भेद नहीं करता। भेदभाव के कारण दलितों में अतिवादी संगठन खड़े होते हैं, जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर की भीम सेना। अतएव तथाकथित उच्च वर्गों के मुखियों का पहल करना अनिवार्य है, अन्यथा सामाजिक विघटन बढ़ता जाएगा, जबकि आवश्यकता सौहार्द की है। उसी प्रकार हिंदू और मुसलमानों के बीच भी इस क्षेत्र में मतभेद की खाई बढ़ती जा रही है।

हाल ही में बुलंदशहर में दंगा हुआ, जिसमें पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह की हत्या हुई। एक और युवक मारा गया। वीडियो में उसको पत्थर फेंकते दिखाया गया है। सुबोध कुमार सिंह दो वर्गों के झगड़े को रोकने तथा तनाव कम करने की कोशिश कर रहा था। वह अपने दायित्व का पालन कर रहा था। उसकी गिनती कुशल और चुस्त अधिकारियों में थी। अतएव उसकी इस प्रकार मृत्यु एक भयानक दृश्य पैदा करती है। कहा जाता है कि विवाद पीछे गौहत्या के कारण हुआ था। हमारी पूरी आस्था गौमाता में है। गौरक्षण होना चाहिए, किंतु कानून की परिधि में। कानून को कोई अपने हाथ में नहीं ले सकता। सामूहिक लिचिंग अफवाहों के आधार पर ही, कभी बच्चों के अपहरण का डर, कभी डायन कहकर और कभी गौरक्षा के नाम पर जो होता है, यह असहनीय है। यदि सुबोध कुमार सिंह ने कोई कोताही की है, तो वह जाँच में सामने आएगी। कर्तव्यपालन करते हुए एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या अत्यंत ही जघन्य प्रकरण है, जिसे एक सभ्य संवैधानिक देश बरदाश्त नहीं कर सकता। शासन द्वारा सख्त-से-सख्त काररवाई होनी चाहिए।

मुख्यमंत्री ने सुबोध सिंह के परिवार को पूर्ण न्याय का आश्वासन दिया है। संयोग है कि न्याय की चक्की बड़ी मंद गति से चलती है। स्मरण रखना चाहिए कि पुलिस एक संगठित सुरक्षा बल है। उसके दायित्व आसान नहीं हैं। पूरे सुरक्षा बल के मनोबल का प्रश्न है, इसकी संवेदनशीलता का एहसास शासन को होना चाहिए। अच्छा होता कि मुख्यमंत्री इस दुःखद घटना के बाद स्वयं सुबोध सिंह के परिवार को फोन पर अथवा पाँच मिनट के लिए जाकर सांत्वना देते। यदि यह उनकी व्यस्तता के कारण संभव नहीं था तो एक अन्य वरिष्ठ मंत्री को भेजने की व्यवस्था की जा सकती थी। उसका पुलिस सुरक्षा दल पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता। उसका मनोबल, मोरल और ऊँचा होता। पुलिस जैसे संगठित और अनुशासित वर्ग में किसी प्रकार की बेचैनी या यह भावना कि उसके प्रति शासन उदासीन है, समाज के लिए घातक हो सकती है।

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

प्रधानमंत्री ने सरदार पटेल की प्रतिमा या स्टैच्यू, जो विश्व में सब प्रतिमाओं से ऊँची है, बनवाकर एक अति प्रशंसनीय कार्य किया है। सरदार पटेल एक महान् व्यक्ति और बड़े राजनेता ही नहीं थे, वे प्रतीक हैं एक सुशासित, मजबूत और संगठित राष्ट्र के। प्रतिमा को सही नाम दिया गया है, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी, यानी राष्ट्रीय एकता की मूर्ति। वे आगे आने वाली पीढि़यों को भी उनके दायित्वों का स्मरण कराती रहेगी। प्रधानमंत्री का एक और प्रयास सराहनीय है, जो उन्होंने आई.एन.ए. के अधिकारियों और जवानों को, जो सौभाग्य से आज भी हमारे बीच हैं, उनका सम्मान समारोह लालकिले में किया। उनकी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की एक अपनी श्रेणी है। जो वातावरण देश में नेताजी सुभाषचंद्र और आई.एन.ए. की रोमांचित कहानी ने किया, वह ब्रिटिश राज के ताबूत में अंतिम कील थी, जब ब्रिटिश सरकार को आभास हो गया कि अब विदेशी शासन भारत में असंभव है।  ब्रिटिश राज के ताबूत में पहली कील जालियाँवाला कांड था और जिसका शती वर्ष चल रहा है। ब्रिगेडियर डायर के आदेश पर अमृतसर में शांतिपूर्वक सभा में उपस्थित निहत्थे, निरपराध सैकड़ों आदमियों, औरतों और बच्चों की गोलियों से भून दिया गया था। इस विषय में आगे कुछ लिखने का प्रयास होगा।

उस समय के भारत के कमांडर-इन-चीफ जनरल अधिकारी ने स्पष्ट शब्दों में यह लिखा है, बहुत से अन्य उच्च अधिकारियों ने भी यही मत अपनी उस समय की टिप्पणियों अथवा संस्मरणों में व्यक्त किया है। आई.एन.ए. से संबंधित स्वतंत्रता सेनानी सिंगापुर, मलेशिया (पूर्व मलाया), इंडोनेशिया (पूर्व डच इंडीज), हांगकांग एवं फिलीपींस, थाईलैंड (पूर्व स्याम) आदि में फैल गए थे। इनमें बहुत से स्वतंत्रता सेनानी गदर आंदोलन में भाग लेने वाले भी थे, जो आज जीवित भी हैं, वे सब प्रायः आयु में ९० वर्ष के आसपास के हैं। एक समाचार-पत्र में एक चित्र रंगून में अपने माननीय राष्ट्रपति द्वारा स्वतंत्रता संगठन परेड करते हुए देखकर हृदय गद्गद हो गया। यह बहुत पहले होना चाहिए था। अब भी जो भारतीय मूल के स्वतंत्रता सेनानी जीवित हैं, उनको खोजकर उनका आदर इन देशों में हमारे राजदूतों/हाई कमिश्नरों को करना चाहिए। जो जीवित नहीं, उनके परिवारों को ताम्रपत्र दिया जाना चाहिए, जैसाकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आजादी की रजत जयंती के समय किया था। भावनात्मक रूप में ये परिवार भारत से जुड़े रहेंगे। एक महिला पत्रकार ने करीब दो वर्ष पहले एक पुस्तक दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीय मूल के स्वतंत्रता सेनानियों को खोजकर कुछ साक्षात्कार करके उनके बारे में लिखा था। वह पुस्तक भी इस यज्ञ में सहायक हो सकती है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जन सुविधा की दृष्टि से कुंभ के लिए अनेक व्यवस्थाएँ की हैं। बाद में भी उनसे सर्वसाधारण को बहुत सुविधाएँ प्राप्त हो सकेंगी। यह प्रयास स्तुत्य है। यहाँ के एयरपोर्ट का भी कायाकल्प हो गया, ऐसा समाचार-पत्रों के विज्ञापनों में देखने को मिला। निवेदन यह है कि हवाई अड्डे का नाम महामना मदन मोहन मालवीय के नाम पर करें तो अति उत्तम होगा। प्रयाग और वाराणसी विशेषतया उनकी कर्मभूमि रही हैं। वैसे मालवीयजी पूरे देश के थे। गांधीजी उनका ज्येष्ठ श्रोता के रूप में समादर करते थे। ‘महामना’ उनके नाम से जुड़ा, क्योंकि उदारता और विनम्रता उनके विशेष गुण थे। उनमें न किसी प्रकार मद था, न मोह। वे अपनी महानता, विशाल हृदय, करुणा, बिना किसी भेदभाव के सेवाभाव के कारण अवश्य सबका मन मोह अवश्य लेते थे। ऐसे थे पूज्य मदन मोहन मालवीय, जिनका जन्म भी २५ दिसंबर को हुआ था। ऐसे प्रातः स्मरणीय महान् पुरुष का इस प्रकार का समादार सर्वस्वीकार होगा। इस वंदनीय कार्य के लिए योगीजी और उनकी सरकार को जनता सदैव याद रखेगी।

 

 

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी​)

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