देश के झूठेश्वर के साधक

देश के झूठेश्वर के साधक

कुछ आदतें हैं, जो जिंदगी भर इनसान का पीछा नहीं छोड़ती हैं। कोई शराब का लतियल है, कोई सिगरेट का तो कोई स्मार्ट फोन का। फोन कान में लगाए कई बस का शिकार हुए हैं तो कइयों को ट्रेन ने कुचला है। पर इससे फर्क क्या पड़ता है? लत है तो है। कैसे छूटे? हमें भी बेटिकट यात्रा का मर्ज है। इसका हमारा फलसफा है। जब रेल स्वयं ही घोषित करती है कि वह भारतीय जनता की संपत्ति है तो टिकट कैसा? कुछ साहसी भाई लोग तो इसी से प्रेरित होकर डिब्बे के पंखे और सीट के गद्दे तक उखाड़कर ले जाते हैं। अपन कायर हैं। केवल बेटिकट सफर करते हैं। एक बार किसी ने टिकट चेकर से अनजान अवैध मुसाफिर की शिकायत कर दी। हमने सुना और जाकर बाथरूम में शरण ली। कर्तव्य-परायण रेल कर्मचारी ने काफी देर दरवाजा पीटा। हमने सुना अनसुना किया। फिर उसे दूसरे डिब्बे में जाना पड़ा। हम दुर्गंध से प्रताडि़त बाहर निकले तो संज्ञा-शून्य होने के कगार पर थे। वह तो गनीमत है कि जब तक टिकट चेकर लौट के आता, अपना स्टेशन आ गया था। हमने उतरकर मुक्ति की साँस ली। कुछ दिनों हमने रेल के सफर को तिलांजलि दे दी।

पर यदि घर कानपुर में हो और नौकरी लखनऊ में तो रोज का आना-जाना तो अनिवार्य है। वह तो हमारा सौभाग्य है कि हम अपने मोहल्ले के मौंटू से टकरा गए। वह एक निजी बस का चालक है। मोहल्ले में उसकी दरियादिली की ख्याति है। बस का भी वही रूट है, जो हमारा है। रेल के दुखद अनुभव के बाद हमें यह बेटिकट सफर बहुत ही आकर्षक लगा। पूरे रास्ते मौंटू के पास की सीट पर बैठकर उनके कर्णप्रिय भौंपू की सरगम सुनते और गपशप करते कब गंतव्य पर पहुँच जाते, पता ही नहीं चलता। हमें भी पहली बार चिंतामुक्त यात्रा के सुख का बोध हुआ। मौंटू नियम से रास्ते में एक पेड़ के नीचे रुकते और वृक्ष के सामने रखे पत्थर को प्रणाम करके लौटते। हम अपनी जिज्ञासा का सँवरण कब तक करते? हमने एक दिन उनसे पूछ ही लिया कि यहाँ कौन से प्रभु स्थापित हैं? उन्होंने विस्तार से बताया कि यह प्रभु झूठेश्वर का पूजास्थल है। ‘‘इन्हीं की महती कृपा से हम लगन से डीजल की चोरी करते और कंडक्टर से मिलकर पाँच-छह मुसाफिरों को, खुद किराया वसूलकर, रोजाना ढोते हैं।’’ हमें आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ। सरकारी दफ्तर तो व्यर्थ में बदनाम है। ऊपर की आमदनी की तरकीबें तो अब हर वेतन-भोगी ने ईजाद कर ली हैं।

मौंटू ने हमें दिव्य ज्ञान दिया कि झूठेश्वर वर्तमान के सर्वप्रिय लोकप्रिय प्रभु हैं। उनकी मान्यता समाज के हर वर्ग में है। हमें ध्यान आया कि कोई माने-न-माने पर मौंटू की बात में दम है। हमने स्वयं देखा है कि कोई भले ही स्कूटर से रोज पूरब की ओर प्रस्थान करता है। यदि कोई लिफ्ट माँगे तो उसे बताएगा कि वह पश्चिम की ओर पधार रहा है। सब जानते हैं कि वह सचिवालय में कार्यरत है। उसे पूरब की दिशा में जाना ही जाना। पर कौन कहे कि यह सूचना भी ‘गोपनीय’ जानकारी के स्तर की है? इसका खुलासा भी निर्धारित रेट को पार कर ही होता है? हम भी अपने कार्यालय के लाइलाज लेटलतीफ हैं। हमें भी ‘झूठेश्वर’ का ही सहारा है। कभी ट्रेन लेट होती है, कभी छूट जाती है। सुपरवाइजर ताज्जुब से हमारा मुँह ताकता है, ‘‘पर उसी गाड़ी से आनेवाले मोहन बाबू तो समय से आ गए?’’ हमने अनुभव से सीखा है कि जितना अहम झूठ बोलना है, उतना ही जरूरी उस पर टिके रहना है, ‘‘अपनी तो लेट थी, उनकी समय से आई होगी।’’ सुपरवाइजर क्या करते? वह भी जानते हैं कि हर दफ्तर में एक यूनियन है। वह ऐसे ही मुद्दे लेकर कभी भी पूरे कार्यालय का काम-काज ठप करवाने को हमेशा आतुर रहती है। यदि ऐसा कुछ हुआ तो अफसर तो आनन-फानन समझौता कर लेंगे। छीछालेदर सुपरवाइजर की होगी। अफसर टिप्पणी करेंगे कि इतने दिन हो गए, टैक्ट की कमी है, सूझ-बूझ का अभाव है, वरना ऐसी स्थिति की नौबत ही क्यों आती?

झूठेश्वर हर सरकारी-निजी दफ्तर में हावी हैं। इसके अलावा व्यापारियों और पूँजीपतियों पर उनका एकछत्र राज है। इस तबके की विशेषता पैसा दाँत से दबा के रखना है। उनकी कानी कौड़ी भी वहीं खर्च होती है, जहाँ मुनाफे की गुंजाइश हो। पूँजीपतियों अथवा उद्योगपतियों में धनाढ्य कम हैं, ज्यादातर का धंधा पारिवारिक है। इतना सब पैसा पुरखों ने खून-पसीना बहाकर जोड़ा है, उसे श्रम परिश्रम से नए क्षेत्रों में फैलाकर उसका विस्तार करना उनका कर्तव्य ही नहीं, धर्म भी है। इस धर्म को झूठेश्वर के सहारे वह बखूबी निभाते हैं। उनके घर में मंदिर भी है, पुजारी भी; बाहर भी उनकी दान धर्मशालाएँ, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी आदि हैं। झूठेश्वर की साधना उनका गुप्त व्यसन है। यह मुनाफा कमाने तक सीमित है। उन्होंने अपने इस आराध्य का एक भी सार्वजनिक पूजाघर नहीं बनाया है। न भविष्य में उनकी ऐसा कोई योजना है। ऐसा दुस्साहस केवल सामान्य लोगों के लक्षण है, महान् व्यक्तियों के नहीं। ‘इमेज’ के हित में थोड़ा ढोंग-ढकोसला करना उनकी विवशता है। यों ऐसों को थोड़े छल-कपट का ऐसा बचपन से प्रशिक्षण है कि वह उनके स्वभाव का अभिन्न अंग बन गया है। जब वह किसी को दर्शन देते हैं तो इतनी विनम्रता से पेश आते हैं कि वह इनकी शराफत का कायल हो जाए, जीवनपर्यंत इस क्षण को विस्मृत न होने दे। यों इनसे भेंट उतनी ही कठिन है, जितनी एवरेस्ट की यात्रा। ऐसे ये राजनेताओं और स्वार्थ सिद्ध करनेवाले लाल फीतेशाहों के लिए सहज उपलब्ध हैं। उनकी अघोषित मान्यता है कि देश में व्यापार, धंधे और उद्योग के लिए झूठेश्वर का सहारा अनिवार्य है।

जाहिर है कि यह अपने से छोटे व्यापारियों के लिए प्रेरणा हो। वह इनका पूरी तरह अनुकरण करते हैं। हमारा ठेले पर साग-सब्जी लेकर आनेवाले का मत है कि बूँद-बूँद से घट भरता है और रिसता भी है। हम उनकी कहावतों पर निर्भर गंभीर चिंतन से प्रभावित हैं। कहावतों में युगों के सोच का निचोड़ है। इनसे परिचित लोग स्वभाव से समझदार हैं, हालाँकि यह सब औपचारिक शिक्षा को किताबी ज्ञान से शून्य हैं। यह बात बुजुर्ग ने आलू-भटे के भाव पर सौदेबाजी के दौरान कही। साथ ही उन्होंने व्यंग्य-वाक्य भी जोड़ा, ‘‘बाबू, जरा बिग बाजार में मोल-भाव करके देखो। वहाँ आप सब बासी सब्जियों के लिए भी तय कीमत अदा करके आते हो, बिना चूँ-चपड़ किए। आपके मोल-भाव की बहस हम ही बर्दाश्त करते हैं। हर मुमकिन गुंजाइश का जिम्मा भी हमारा ही है।’’

हम उनके पारंपरिक ज्ञान के प्रशंसक अवश्य हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि वह झूठेश्वर के समर्पित साधक नहीं हैं। उनका उसूल है। पहले कीमतें बढ़ा के बताते हैं। फिर उसमें कुछ कमी करके ग्राहकों पर अहसान ठोकते हैं। उन्हें जी.एस.टी. नहीं चुकानी है। यही उनकी हम पर कृपा और रियायत है। बाजार आज ऐसे नमूनों से भरा पड़ा है।

वर्तमान साधु-संत मठाधीश भी इनसे दो कदम आगे हैं। वे निःस्वार्थ भाव से जनता की लूट सेवा में जुटे हैं। उनके प्रवचन का सार अर्थ, मोह, लालच, लाभ से वीतराग रहने की सलाह है। आशय दान-पेटी में बिना किसी हिचक अपनी कमाई से मुक्ति पाकर मोक्ष का स्वप्न है। वह कभी-कभी अकेले में समृद्ध भक्तों को दिव्य दर्शन भी देते हैं। उनका वाहन हवाई उड़न खटोला यानी निजी वायुयान है। शहर में प्रवचन स्थल की यात्रा के लिए रईस भक्तों द्वारा उपलब्ध कराया आठ-दस बड़की गाडि़यों का काफिला है। उन्होंने कई श्रद्धालुओं की जिंदगी बरबाद भी की है। कुँवारी कन्याओं को वे अपने अध्यात्म-आश्रम में निशुल्क शिक्षा-दान के लिए कुख्यात हैं। उसकी एक ही शर्त कन्याओं का आकर्षक होना है। स्वामीजी अपनी वातानुकूलित कुटिया जैसे महल में एकांत में उन्हें ब्रह्म अर्थात् यौन ज्ञान के वितरण के लिए जाने जाते हैं। ऐसे कपटी-ढोंगियों में से कई अब तिहाड़ की पावन तीर्थ यात्रा पर हैं। बहुत दिनों के पश्चात् वे अकेले मनन-चिंतन से जीवन सुधारने में व्यस्त हैं। कौन हिमालय की गुफा-कंदरा तक जाने का कष्ट करे, जब जेल की सुरक्षित चारदीवारी मौजूद हैं। यह मानें न मानें, जनता अब इन्हें झूठेश्वर का चुना हुआ चेला मानती है। झूठेश्वर के सच्चे शिष्य बनने हेतु इन्होंने जीवन-पर्यंत कई-कई लीलाएँ रचाई हैं, तब जाकर वर्तमान उच्च आसन प्राप्त किया है। इसके बावजूद, क्या मजाल है कि झूठेश्वर का नाम भी इनके मुँह से कभी निकले। अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार वह धरती पर कृष्णावतार के रूप में प्रगट हुए हैं, उनका झूठेश्वर से क्या लेना-देना?

झूठेश्वर का प्रचलन समाज के हर वर्ग में गरीब के कुपोषण ऐसा है। इसे मानने को सरकारें प्रस्तुत नहीं हैं। कुछ कहती हैं कि वे ‘डाइटिंग’ कर रहे हैं। कुछ खाने में प्रोटीन के अभाव को जिम्मेदार ठहराते हैं। सिर्फ आलू-पूड़ी खाने से और होना ही क्या है? जिन्हें दाल-रोटी तक नसीब नहीं है, उन्हें पूड़ी का भोजन उतना ही असंभव है, जितना हिंदी फिल्मों में नायिका की शान में चाँद-तारों का धरती पर उतरना ही नहीं, नायक के साथ दौड़-दौड़ के गाने गाना भी है। इसके अलावा कुछ अत्याधुनिक लोग हैं, जो कंप्यूटर के विशेषज्ञ हैं। इनकी पहचान ‘फेक’ है। तीन कन्याओं का पिता उम्र के साठ सावन बाद स्वयं को चालीस का घोषित करके लड़कियों से ‘चैट’ करता है और उनसे मिलने को आतुर है। फेसबुकियों का यह रोग निदान के परे है। पुलिस किस-किस की धरपकड़ करे? ऐसे फेसबुकियों की संख्या तक का अनुमान कठिन है। इनसे कोई कैसे बचे? धीरे-धीरे क्या पता फेसबुक ही इसका कोई इलाज खोजे? तब तक इन जालियों पर कोई नियंत्रण नहीं है। उलटे इनकी तादाद में इजाफा हो रहा है। ये सारे झूठेश्वर के जन्मजात शिष्य हैं।

इनके अलावा एक अन्य वर्ग झूठेश्वर का निष्ठावान चेला है। इसे देश का राजनीतिज्ञ कहा जाता है। इस पूरे वर्ग का बिना झूठ के गुजारा ही नहीं है। उलटे इन्हें अपने झूठ पर गर्व है। एक बार सर्वोच्च नेता साक्षात्कार में झूठेश्वर के अंदाज में अपनी झूठ की प्रतिमा का प्रदर्शन करता है। उसके बाद हर छोटा-बड़ा नेता उसी को दोहराता है। सब जानते हैं कि इसमें सच्चाई का लेशमात्र अंश नहीं है। पर उन्हें इसे सूरज जैसे सच के रूप में पेश करना है। कुछ छुटभइए शीशे के सामने खड़े होकर रियाज करते हैं कि कहीं कोई मुद्रा दोष न हो, वरना सच का अपमान होगा। कुछ दिनों बाद उन्हें स्वयं विश्वास हो जाता है कि वह जो नेता के आदर्श असत्य वाक्य दोहरा रहे हैं, वही सच है। यों पूरा नेता समाज इस तथ्य से परिचित है कि विदेशी रक्षा-सामग्री की खरीद में कमीशन का बोलबाला है। पहले तो ऐसी खरीद हो कैसे गई? यदि हुई तो जरूर कहीं-न-कहीं कुछ गोल-माल है। इसके साथ दो व्यक्तिगत त्रासदी भी जुड़ी हैं। वह क्यों मौका चूक गए? किसी ने चेताया क्यों नहीं कि अब भविष्य का भरोसा नहीं है।

उस पर खरीदकर यह अपनी सच्चाई पर इठला रहे हैं? जैसे इन्होंने कभी भ्रष्टाचार का नाम नहीं सुना हैं, उल्टे चुनाव यह जनता के चंदे से जीतते हैं। इतना ही नहीं, इनकी पार्टी भी व्यापक आर्थिक जन-सहयोग से चलती है। वे दुःखी हैं इनकी नाटकीयता पर। सच न बोलें तो न बोलें पर ऐसे सफेद झूठ बोलने की क्या जरूरत है? उसे झूठेश्वर का ऐसा अपमान बर्दाश्त नहीं है। अभी-अभी तो उसे झूठेश्वर के मंदिर में स्थापित किया गया है और अभी से वह कैसे इनसे मुँह मोड़ ले? क्या पता झूठेश्वर चुनाव जिताने में भी सफल हों? यों उसके सलाहकार उसे बताते हैं कि शिवभक्त का उसका रूप इतना लोकप्रिय है कि लोगों को उम्मीद है कि कुछ दिनों ही में वह शिवजी के आवास में शिफ्ट होनेवाला है। इसमें पूरी पार्टी में चैन है। राज्यों के चुनाव जीतें या ‘लूजें’, देश के इलेक्शन के समय तो वह अपने आराध्य शंकर के पास होगा। यों सदस्यों का मत विभाजित है, वे सबको याद दिलाते हैं कि झूठी उम्मीदें न पालें। कोई भी कहने में असमर्थ है कि जोर शिवभक्ति का अधिक है कि झूठेश्वर का? ऐसे में झूठेश्वर की भक्ति आकर्षक है। बस सुबह-शाम झूठ ही तो बोलना है। वह भी लगातार, बिना रुके, बिना सोचे-समझे।

देश में झूठेश्वर के अन्य साधक भी हैं। इनमें कुछ कलाकार हैं, जो झट से भारत को किसान और शहरी में विभाजित करते हैं बीच में एक झूठ का पहाड़ बनाकर। आजादी के बाद भारत में इसी तरह के प्रयोग करने में कई कलाकार जुटे हैं। अपनी तूलिका से यह कुछ भी रचने में समर्थ हैं, पेड़, पहाड़, नदी, पुल, झरने। कभी-कभी तो इन्होंने आदर्श राजनेता भी बनाए हैं। उनकी विशेषता है, देशी परिधान में विदेशी सोच। तभी कलाकार परिवर्तन की क्रांति लाने में कामयाब होगा। इतने वर्षों से उसने यही सफल-असफल प्रयास किया है कि दिखने और कहने में भले रामराज्य हो पर वास्तव में वह रूस या रोम राज्य हो। अब तो हमारे राजनेता भी उसी की पढ़ाई-सिखाई भाषा बोलने लगे हैं। पर यह कलाकार कौन है? हर खोज निष्फल सिद्ध होने के बाद मन में यह संदेह कहीं उभरा है कि हो, न हो यह नाम बदलकर नए अवतार में काले साहब हैं? जो कहीं सचिवालय के पेड़ों पर स्थापित हैं, कहीं उसके गुंबदों पर।

यदि यह सच है तो हम इन कलाकारों से काफी प्रभावित हैं। ये पूरी पीढ़ी में प्रभावी बदलाव लाए हैं। यहाँ तक कि हमारे धोती-कुरताधारी राजनेता विदेशों की ही विकास की भाषा बोलते हैं। यदि कोई कानूनी विवाद में फँसे तो फैसला अंग्रेजी में ही सुनाया जाता है और वह भी सूट-कोटधारियों द्वारा। इसे कलाकारों का योगदान ही कहेंगे कि कोर्ट की सारी व्यवस्था फिलहाल अंग्रेजी में ही है। हमारे एक मित्र कानून विशेषज्ञ हैं, पर कोर्ट में प्रैक्टिस के पहले अंग्रेजी सीख रहे हैं। इसीलिए देश के सर्वमान्य प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों या नरेंद्र मोदी, अंग्रेज काले साहबों को प्रधानमंत्री के ढाँचे में फिट नहीं लगते हैं। देश की शोभा वही प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें इन कलाकारों ने आजादी के बाद से गढ़ा है, पर जनता की शरारत के आगे वे विवश हैं। क्या करें?

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