विदेश नीति में अंतरराष्ट्रीयता का अतिरेक

उपाध्यक्ष महोदय, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले दस वर्षों में हमने जिस विदेश नीति का अवलंबन किया है, उसके कारण संसार में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। हमारे प्रधानमंत्री जहाँ कहीं जाते हैं, करोड़ों व्यक्ति उनका सम्मान करते हैं। उन्हें ‘शांति का देवदूत’ कहकर पुकारा जाता है। जब उनका सम्मान होता है, तो यह प्रत्येक भारतीय को, वह किसी भी पार्टी का हो, आनंद देता है। लेकिन मुझे खेद है कि जिस अनुपात में हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी है, शायद उसी अनुपात में हमारी अंतरराष्ट्रीय कठिनाइयाँ भी बढ़ गई हैं। यदि हम अपने देश की समस्याओं पर विचार करें, तो हम देखते हैं कि हमारी समस्याएँ अधिकाधिक उलझती जा रही हैं। काश्मीर का प्रश्न लीजिए या गोवा का सवाल या विदेशों में बसे हुए भारतीयों की समस्या, हमारे प्रधानमंत्री महोदय की प्रतिष्ठा, उनका मान-सम्मान इन समस्याओं को हल करने में जितना सहायक होना चाहिए था, अभी तक नहीं हुआ है।

हम सारे संसार को अपना मित्र बनाने चले थे, किंतु आज ऐसी स्थिति हो गई है कि हम अपने को सर्वथा मित्रहीन पाते हैं। काश्मीर के प्रश्न पर जिन देशों से हमें न्यायपूर्ण समर्थन की आशा थी, उनसे हमें समर्थन नहीं मिला है। कुछ देशों की हमने मदद की, उनकी कठिनाइयों को हल करने का प्रयत्न किया, वे देश भी काश्मीर के सवाल पर भारत के पक्ष का असंदिग्ध रूप में समर्थन नहीं कर रहे हैं। स्वेज नहर के सवाल पर हमने मिस्र के पक्ष में ऐसा रवैया अपनाया, जिसके कारण ब्रिटेन से हमारे संबंध टूटने की आशंका पैदा हो गई, लेकिन उस मिस्र ने, और उसके प्रेसीडेंट कर्नल नासिर ने अभी तक काश्मीर के प्रश्न पर भारत के न्यायपूर्ण अधिकार का समर्थन नहीं किया है।

यही बात कम्युनिस्ट चीन के बारे में भी कही जा सकती है। कम्युनिस्ट चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थान मिलना चाहिए, इसकी हमने आए दिन वकालत की, और यह ठीक भी है कि उसे राष्ट्र संघ में स्थान दिया जाए। कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत पर जो आक्रमण किया, उसकी ओर से भी हमने अपनी नजर हटा ली। लेकिन काश्मीर के सवाल पर कम्युनिस्ट चीन के नेताओं ने अभी तक हमारा खुला समर्थन नहीं किया है।

इतना ही नहीं, पाकिस्तान के समाचार-पत्र इस तरह का प्रचार कर रहे हैं—मैं नहीं जानता कि वह कहाँ तक ठीक है, यह तो सरकार का कर्तव्य है कि वह इस संबंध में सच्चाई पर प्रकाश डाले, लेकिन पाकिस्तान में पत्रों का कहना है कि चीन के राष्ट्रपति श्री माओ-त्से-तुंग ने इस प्रकार की भावना व्यक्त की है कि कम्युनिस्ट देशों को काश्मीर के सवाल पर तटस्थ रहना चाहिए। इस संबंध में हमें रूस की नीति को भी याद रखना आवश्यक है। काश्मीर पर पाकिस्तान ने आक्रमण किया, वह कोई नई बात नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ में हम इस सवाल को ले गए, लेकिन जब तक पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ सैनिक गठबंधन करके अपने को खुले रूप में रूस के खिलाफ नहीं कर दिया, तब तक रूस ने काश्मीर के सवाल पर हमारे पक्ष का समर्थन नहीं किया। काश्मीर के सवाल पर तो हमारा पक्ष पहले भी न्यायपूर्ण था। जब पाकिस्तान ने अमरीका से गठबंधन नहीं किया था, तब भी हमारा पक्ष न्यायपूर्ण था, मगर उस समय रूस के नेता नहीं बोले। खैर, अब बोल रहे हैं, हम उसका स्वागत करते हैं, लेकिन चीन के नेता जो नहीं बोल रहे हैं, उसके बारे में हमारे हृदय में शंका होना स्वाभाविक है, और मैं प्रधानमंत्री महोदय से निवेदन करूँगा कि वे इसका निराकरण करें, अगर वे ठीक समझते हों तो।

इस संबंध में एक बात और स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है। वह यह है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति नैतिकता के आधार पर नहीं चलती है। उसमें निष्काम कर्मयोग के लिए स्थान नहीं है। हम हवन करते हुए अपने हाथ जलाएँ—दूसरों की समस्या को हल करने में अपने लिए नई समस्याएँ पैदा कर लें, इस नीति को आज की स्थिति में, जबकि हमें सभी देशों का सहयोग चाहिए, सबका समर्थन चाहिए, सबकी सहायता चाहिए, जरा सावधानी से अपनाने की आवश्यकता है। जहाँ तक भारत सरकार की नीति का प्रश्न है कि हम किसी गुट में नहीं मिलेंगे, हम उसका पूरा समर्थन करते हैं। जहाँ तक मेरी पार्टी, भारतीय जनसंघ का सवाल है, हम इस नीति से सहमत हैं कि हमको न अमेरिकी गुट से और न रूसी गुट से मिलना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय हितों की यही माँग है।

दूसरों के झगड़ों में टाँग न अड़ाएँ

आज हम राष्ट्र के निर्माण में लगे हैं। किसी गुट के साथ अपने को जोड़कर किसी को नाराज करने की स्थिति में इस समय हम नहीं हैं। लेकिन उसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि हम दूसरे देशों के झगड़ों में अपनी टाँग न अड़ाएँ। अगर उन झगड़ों से हमारा सीधा संबंध नहीं है तो हम उन पर चुप रह सकते हैं। कभी-कभी राजनीति में चुप रहना भी आवश्यक होता है और अपने देश के हितों के संवर्धन की दृष्टि से ही हमें अपना मुँह खोलना चाहिए। इस संबंध में मेरा निवेदन है कि दुनिया में अनेक समस्याएँ हैं और उन समस्याओं के बारे में हमारा एक निश्चित दृष्टिकोण भी है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि उस दृष्टिकोण को प्रकट ही किया जाए। मैं एक ही उदाहरण दूँगा। रूस के साथ हमारा पंचशील का समझौता है। इस समझौते के अनुसार न वह हमारे देश के अंदरूनी मामलों में दखल दे सकता है, और न हमें यह अधिकार है कि हम उनके अंदरूनी मामलों में दखल दें।

पिछले कुछ महीनों में रूस में कुछ आंतरिक परिवर्तन हुए हैं, कुछ मंत्री बदल गए, कुछ स्थान से हटा दिए गए। यह रूस का घरेलू मामला था, मगर हमारे प्रधानमंत्री महोदय ने उसके बारे में अपनी राय प्रकट की। यह तो एक आकस्मिक घटना है कि रूस का यह परिवर्तन शायद हमारी दृष्टि से, और संसार की दृष्टि से लाभदायक होगा, मगर कल रूस में ऐसा भी आंतरिक परिवर्तन हो सकता है, जो हमारी दृष्टि से हानिकारक हो, लोकतंत्र की दृष्टि से, विश्व-शांति की दृष्टि से हानिकारक हो। उस समय हम क्या कहेंगे? अगर हम उस समय चुप रहेंगे, तो आज हमारे बोलने का कोई अर्थ नहीं रहता, और अगर आज हम बोले हैं, तो उस समय भी बोलने के लिए हमें मजबूर होना पड़ सकता है। रूस में जो भी परिवर्तन होते हैं, वह रूस का घरेलू मामला है। उसके बारे में हमें नहीं बोलना चाहिए। लेकिन दुनिया में जो भी सवाल आते हैं, उनके ऊपर बोलने का लोभ हम सँवरण नहीं कर पाते। हमारी और विशेषकर हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री महोदय की कठिनाई यह है कि वे विश्व के इतिहास के निर्माण में इतना लीन रहते हैं कि भारत के इतिहास के कुछ परिच्छेद उनकी आँखों से ओझल हो जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आनेवाली संतति हमारे प्रधानमंत्री को विश्व-इतिहास के निर्माता के रूप में याद करेगी, लेकिन ऐसा न हो कि भारत की संतति इस बात को भी याद करे कि हम विश्व की समस्याओं में इतने उलझ गए कि हमारी अपनी समस्याएँ ठीक तरह से हल नहीं हो पाईं, उनमें कठिनाइयाँ पैदा हो गईं।

मैं समझता हूँ कि अगर हम अपनी नीति में इस दृष्टि से संशोधन करें और सबकी मित्रता प्राप्त करने का प्रयत्न करें, तो जिन कठिनाइयों में आज हम अपने को पाते हैं, उनसे हम अपने को निकाल सकते हैं।

विदेशों में बसे भारतीयों पर ध्यान दें

मैंने प्रारंभ में विदेशों में जो भारतीय बसे हुए हैं, उनका उल्लेख किया है। मुझे खेद है कि उन भारतीयों की ओर हमें जितना ध्यान देना चाहिए था, हमने नहीं दिया है।

विदेशों में पचास लाख भारतीय हैं। बर्मा में आठ लाख हैं और उनकी संख्या कम होती जा रही है। हम बर्मा को हर तरह से सहायता प्रदान कर रहे हैं। हमने उसे कर्ज दिया है। हमारे प्रधानमंत्री ने बर्मा की सरकार को बचाने के लिए बंदूकों का दान भी दिया था। मगर बर्मा में जो भारतीय हैं, उनके साथ ठीक तरह का व्यवहार नहीं किया जा रहा है। लंका में दस लाख भारतीय हैं। उनको नागरिकता के अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। दक्षिण अफ्रीका की सरकार जो कुछ कर रही है, उसको देखते हुए हमने वहाँ की सरकार से संबंध तोड़ लिए हैं। लेकिन ऐसा करके वहाँ के भारतीयों को हमने वहाँ की सरकार की दया पर छोड़ दिया है। केवल संबंध तोड़ लेने से वहाँ के भारतीयों की समस्या हल नहीं हो सकती। मॉरीशस में ६४ फीसदी भारतीय हैं। वे हमारे अधिक निकट आ सकते हैं। लेकिन मुझे यह देखकर खेद हुआ है कि हमारे जो भी कमिश्नर मॉरीशस में जाते हैं, वे वहाँ के लोगों की पार्टीबंदी में फँस जाते हैं। वहाँ के अखबार हमारे कमिश्नर के खिलाफ तरह-तरह के आरोप लगाते हैं। वे आरोप भारत में प्रकाशित होनेवाले एक सम्मानित दैनिक पत्र में भी छपे थे। मैंने इस संबंध में एक प्रश्न भी किया था, लेकिन यह कहकर कि ये आरोप गलत हैं, उस प्रश्न को स्वीकार नहीं किया गया। यदि वे आरोप गलत हैं तो हमारे विदेश मंत्रालय को अधिकृत रूप से उसका खंडन करना चाहिए और मॉरीशस में हमारे कमिश्नर के संबंध में जो गलतफहमी पैदा हो गई है, उसका निराकरण करना चाहिए। ब्रिटिश गायना और फिजी में जो भारतीय हैं, वे ४४ फीसदी और ४५ फीसदी हैं। ये सभी भारतमाता के पुत्र हैं और समान संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं। उनको हमें निकट लाने का प्रयत्न करना चाहिए, किंतु उनकी ओर हमें जितना ध्यान देना चाहिए, उतना ध्यान हम नहीं दे पाए हैं। हमारी आँखें, जो हमसे दूर हैं, उनकी ओर अधिक लगी रहती हैं और उनकी कठिनाइयाँ भी इतनी हैं कि आज हम में इतनी शक्ति नहीं है कि हम उनको दूर कर सकें और उनकी समस्याओं को हल कर सकें।

मध्य-पूर्व के हालात

आज के वाद-विवाद में मध्य-पूर्व की चर्चा की गई है और यह कहा गया है कि सीरिया में, स्याम में एक नया संकट पैदा हो रहा है। वह संकट पैदा न हो, इसके लिए हम जो कुछ भी कर सकते हैं करें। लेकिन एक बात ध्यान में रखने लायक है, वह यह है कि मध्य-पूर्व में जितने भी देश हैं, वे दुर्बल हैं, बीसियों साल की गुलामी ने आर्थिक दृष्टि से उनका शोषण कर दिया है। अब प्रधानमंत्रीजी यह कहते हैं कि वहाँ पर जो वैक्यूम पैदा हो गया है, जो रिक्तता पैदा हो गई है, उसे वहाँ के देश भरें। यह बात सिद्धांततः ठीक है, होना ही ऐसा चाहिए। मगर व्यवहार में ऐसा नहीं हो सकता। उन देशों में आज अपने पैरों पर खडे़ होने की ताकत नहीं है। जनसंख्या की दृष्टि से, सैनिक बल की दृष्टि से और औद्योगिक विकास की दृष्टि से वे इतने पिछडे़ हुए हैं कि उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है। यह सहारा अमेरिका दे सकता है या रूस दे सकता है और अगर ये देश सहारा देने का प्रयत्न करें तो कठिनाइयाँ पैदा होंगी। एक तीसरा रास्ता भी है, और वह यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ वहाँ जो रिक्तता पैदा हो गई है, उसमें कुछ सहायक सिद्ध हो सकता है, इसका विचार किया जाना चाहिए।

मैं प्रधानमंत्री महोदय से निवेदन करूँगा कि केवल इतना कह देने से काम नहीं चलेगा कि वहाँ के लोग उस वैक्यूम को भर लें। प्रश्न व्यवहार का है। संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य एशियाई-अफ्रीकी देश मिलकर इस प्रकार कोई व्यवस्था कर सकते हैं, जिसमें मध्य-पूर्व के पिछडे़ हुए राष्ट्रों को अपना राजनैतिक, आर्थिक तथा औद्योगिक विकास करने का मौका दिया जाए, सुविधा मिले। इस दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार होना चाहिए।

मध्य-पूर्व का सवाल आता है तो इजराइल की समस्या भी आकर सामने खड़ी हो जाती है। कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि मध्य-पूर्व में तब तक शांति नहीं होगी, जब तक अरब राष्ट्र इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर लेते। और अगर अरब राष्ट्र इस बात पर कमर कसकर बैठे हैं कि इजराइल को खत्म कर देंगे तो मध्य-पूर्व में युद्ध की चिनगारी भड़कती रहेगी। कभी शांति हो जाएगी, मगर फिर से अशांति की ज्वाला प्रचंड हो जाएगी। इस संबंध में सरकार का जो कर्तव्य था, उसका उसने अभी तक पालन नहीं किया है। दुनिया के सभी देशों के साथ हमने दौत्य संबंध स्थापित कर लिए हैं, मगर इजराइल से हमारे दूतावास के स्तर पर संबंध कायम नहीं हुए हैं। क्यों नहीं हुए हैं, इसका क्या कारण है, यह मैं जानना चाहूँगा। मैं चाहता हूँ कि इजराइल का दूत दिल्ली में हो और भारत का दूत इजराइल की राजधानी में रहे और वहाँ जो घटनाचक्र चलता है, उसके संबंध में हमें जानकारी हो। मैं समझता हूँ कि हमारे प्रधानमंत्री महोदय अपने प्रभाव का प्रयोग करके अरब राष्ट्र और इजराइल के बीच में सद्भावना उत्पन्न कर सकते हैं और उनको ऐसा करना चाहिए। मगर इसके पहले जो कदम हमें उठाना चाहिए, वह यह है कि हम इजराइल के साथ दूतावास का संबंध स्थापित करें। इस दृष्टि से अभी तक हमारी सरकार ने कदम नहीं उठाया है, जिसको उठाने की आवश्यकता है।

अब मैं गोआ के बारे में एक बात कहना चाहता हूँ। जब गोआ के सवाल की चर्चा होती है तो कहा जाता कि हमारी नीति शांति की नीति है, अहिंसा की नीति है और हम किसी तरह का सैनिक बल प्रयोग नहीं करेंगे। गोआ का सवाल किसी पार्टी का सवाल नहीं है। गोआ भारत का अंग है, इतना कह देने से काम नहीं चलेगा। पिछले चार सौ सालों से गोआ की जनता गुलामी और अत्याचारों के पाटों में पिस रही है और हमें स्वाधीन हुए दस साल हुए हैं और दस साल बाद भी उसकी गुलामी बरकरार है। हम कहें कि भारतीय क्रांति, इंडियन रिवोल्यूशन तब तक पूरा नहीं होगा जब तक गोआ आजाद नहीं होगा, तो इससे तो गोआ के निवासियों की कठिनाइयाँ दूर नहीं होती हैं।

सवाल यह है कि गोआ के लिए हम क्या करने जा रहे हैं? कभी-कभी गोआ की चर्चा होती है तो मकाओ का उदाहरण दिया जाता है और कहा जाता है कि कम्युनिस्ट चीन ने मकाओ में बल प्रयोग नहीं किया है, तो हमें गोआ पर बल प्रयोग नहीं करना चाहिए। मेरा निवेदन है कि गोआ की परिस्थिति मकाओ से थोड़ी सी भिन्न है। गोआ मेनलैंड में है, मुख्य भूमि का अंग है, जब कि मकाओ पृथक् और मकाओ को कम्युनिस्ट चीन ने अवैध माल लाने के लिए खोल रखा है। क्या हम यह चाहते हैं कि जो अवैध व्यापार होता है, वह जारी रहे। दिल्ली में देखिए, गोआ से चोरी से आनेवाली घडि़यों से नई और पुरानी दिल्ली की दुकानें भरी हुई हैं और इसका हमारी आर्थिक स्थिति पर भी बुरा असर पड़ रहा है।

गोआ के प्रति हमारी नीति वहाँ की जनता का मनोबल तोड़ रही है। गोआ के लोग अगर यह समझें कि भारत की सरकार तथा जनता ने उनके साथ विश्वासघात किया है तो हमें इसकी कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। उनकी गुलामी, उनके कष्टों को कम करने के लिए हमने क्या किया है, और अगर हम कुछ नहीं कर सकते तो हमें स्पष्ट शब्दों में अपनी असमर्थता प्रकट कर देनी चाहिए तथा आर्थिक प्रतिबंध जो हमने लगा रखे हैं, उनको हटा देना चाहिए और गोआ के निवासी पुर्तगाल की गुलामी में थोड़ी सी सुविधा प्राप्त करें, इसका प्रयत्न करना चाहिए। अगर प्रलय काल तक हम यही आशा करते रहेंगे कि जैसे फल पेड़ से टूटकर भूमि पर आ गिरता है, उसी प्रकार पुर्तगालरूपी पेड़ से गोआ गिरकर हमारी गोदी में आ जाएगा तो हमारी यह आशा कभी पूरी नहीं होगी।

इस संबंध मे ब्रिटेन और फ्रांस का उदाहरण देना ठीक नहीं है। पुर्तगाल एक तानाशाही देश है, वहाँ पर विरोधी दल नहीं है, वहाँ पर सरकार की आलोचना नहीं हो सकती, वहाँ पर जनमत को वहाँ के शासकों के खिलाफ नहीं खड़ा किया जा सकता, जबकि ब्रिटेन और फ्रांस में यह परिस्थिति नहीं है। ऐसी सूरत में गोआ कैसे आजाद होगा, यह मैं पूछना चाहता हूँ। मुझे याद है कि हमारे प्रधानमंत्री ने एक बार भविष्यवाणी की थी कि गोआ ही आजाद नहीं होगा, पुर्तगाल में सालाजार का जो शासन है, वह भी समाप्त हो जाएगा। हमारे प्रधानमंत्री ज्योतिष में विश्वास नहीं करते। शायद यही कारण है कि उनकी भविष्यवाणी पूरी नहीं हुई। गोआ गुलामी से मुक्त नहीं हुआ और सालाजार का पुर्तगाल में शासन खत्म होना तो अभी दूर की बात है। हमारा संबंध तो गोआ की आजादी से है।

इस बारे में उपाध्यक्ष महोदय, मैं एक बात कहूँगा कि जब हम अहिंसा और शांति की बातें करते हैं तो दुनिया इस बात को देखती है और चाहती है कि उसका व्यवहार देश के भीतर ही होना चाहिए, उसका अवलंबन किया जाना चाहिए। जब हम दुनिया के सामने पंचशील की बात कहते हैं, शांति की तथा अहिंसा की उद्घोषणाएँ करते हैं तो हम क्यों देश में जनता को दबाने के लिए लाठी और गोली का प्रयोग करते हैं। ऐसी सूरत में दुनिया पंचशील की घोषणा पर हँसती है तो यह दुनिया का दोष नहीं है, उसको हम दोष नहीं दे सकते हैं। जिस देश में छोटे-छोटे बच्चे पुलिस की गोली के शिकार बना दिए जाते हैं, जिस देश में जेल के अंदर लाठी चार्ज करके शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, उस देश के प्रधानमंत्री और पार्लियामेंट के मेंबर शांति और अहिंसा की बातें करें, इससे बढ़कर विडंबना कोई नहीं हो सकती। पंचशील देश के बाहर भी चाहिए और भीतर भी चाहिए। अहिंसा चाहिए तो पाकिस्तान और पुर्तगाल के साथ ही नहीं चाहिए, बल्कि अपनी जनता के साथ भी उसी अहिंसा की तथा शांति की नीति का अवलंबन किया जाना चाहिए। सारा देश विदेश नीति के सवाल पर प्रधानमंत्री के पीछे है। हमारे मतभेद भीतर के मतभेद हैं। लेकिन उस सहयोग को लेने का प्रयत्न नहीं किया जा रहा है। उस सहयोग से जो जनता की शक्ति जाग्रत् होनी चाहिए, उसे जगाने की कोशिश नहीं की जा रही है।

हम तटस्थ रहना चाहते हैं। तटस्थ का मतलब है, तट पर स्थित, तटस्थ। जो किनारे पर खड़ा है, वह तटस्थ है। अब कौन किनारे पर खड़ा रह सकता है।

छोटा-मोटा देश और कमजोर आदमी किनारे पर खड़ा नहीं रह सकता। छोटा-मोटा पौधा एक ही लहर की लपेट में बहकर चला जाएगा। छोटा-मोटा पत्थर का टुकड़ा एक ही प्रवाह की आँधी में नदी की बीच धारा में जाकर टूट जाएगा। किनारे पर खड़ा वही रहता है, जिसकी जड़ें पाताल से जीवनरस प्राप्त करती हैं। जो देश अपने सम्मान, गौरव और गरिमा के साथ और राष्ट्रीय शक्ति, चारित्रिक बल और अनुशासन के साथ जनता के समर्थन से आगे बढ़ता है, वही देश तटस्थ रहता है। आज आवश्यकता इसी बात की है। यदि हम तटस्थता की नीति अपनाना चाहते हैं और उस पर चलना चाहते हैं तो सच्चे अर्थों में हम उसको अपनाएँ। धन्यवाद!

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