मनुष्य नहीं हुआ पुराना

मनुष्य नहीं हुआ पुराना

अरस्तू ने सदियों पहले कहा था कि जितना सोचा जा सकता था, वह सोचा जा चुका। तब फिर आज क्या हो रहा है? अरस्तू के पहले और बाद में हजारों चिंतक हुए। अरस्तू ने यह भी नहीं बताया कि अंतिम बार सबसे नया कब सोचा गया? अरस्तू के समय में कंप्यूटर भी नहीं थे, जो अपने ढंग से सोचते। यंत्र की सोच और यांत्रिक सोच तो आज की देन है।

फिर क्या बात है कि हम आज भी किसी चिंतन विशेष पर उद्वेलित हो उठते हैं? क्यों किसी कविता पर मुग्ध हो जाते हैं? क्यों किसी को सुनकर, कुछ पढ़कर बेचैन हो जाते हैं? आखिर यह सब भी तो पहले कहा, सुना और लिखा गया होगा?

वास्तव में हम दुहराव पर उद्विग्न, मुग्ध या बेचैन नहीं होते, उसके प्रस्तुतीकरण पर होते हैं। हू ब हूपन दुहराव है, प्रस्तुतीकरण नहीं। वह ऐसा पुनर्संयोजन है, जो यह आभास कराता है कि वह बिल्कुल नया है। तब क्या यह संसार अनंत सदियों से नएपन और मौलिकता के भ्रम में जी रहा है?

हम प्रस्तुतीकरण की नई भंगिमा को नएपन की संज्ञा दे देते हैं, उसे मौलिक कह देते हैं। प्रस्तुतीकरण तो रोज दृश्य का भी होता है, लेकिन उसके संबंध में प्रश्न नहीं उठते। सुबह उदित होते, दोपहर में दमकते और साँझ को अस्त होते सूरज, अपनी घटती-बढ़ती कलाओं वाले चंद्रमा, सरसराते वृक्ष, बहती हवा, कलकल प्रवहमान नदी और उपवन में फूले फूलों को देखकर हम मुग्ध हो लाते हैं, लेकिन उद्विग्न नहीं होते, बेचैन नहीं होते, इसलिए कि वे हमारी चेतना के अंग बन गए हैं, लेकिन नया सुनना और पढ़ना चेतना को झकझोरता है। इसलिए कि वह चेतना का अंग नहीं है, वह बाहरी है। वह नई भंगिमा में प्रस्तुत हो रहा है। कुछ नया दिखाई दे तो उसके बारे में भी यही प्रतिक्रिया होती है, इसलिए कि वह सूरज, चाँद, वृक्ष, हवा, नदी और फूल नहीं है।

सृष्टि के ये उपादान मनुष्य के चिंतन की तरह नहीं हैं। ये उसके मस्तिष्क से भिन्न हैं। यदि मनुष्य का मस्तिष्क भी इन उपादानों की तरह होता तो फिर इस संसार में एक चिरंतन स्थिरता, अखंड नीरवता और निश्चल गति होती, लेकिन मानव मस्तिष्क ने इस संसार को चिरनूतन बना दिया। उसके चिंतन की प्रयोगधर्मिता ने विश्व को नित्य परिवर्तन के परिधान पहना दिए, ऐसे परिधान जो पलक झपकते बदल जाते हैं, जिनके रंग पल-पल में बदलते हैं और जिनकी कोई स्थायी पहचान नहीं रह पाती।

कृष्ण, महावीर और बुद्ध, आर्यभट और भास्कराचार्य, शंकर और वल्लभ, आइंस्टीन और स्टीफन हॉकिंग जैसे अनेक व्यक्तित्व वे हैं, जिन्होंने संसार को नित्य नए परिधान पहनने का संस्कार सौंप दिया।

मनुष्यता इसीलिए प्रणम्य है, वह इसीलिए देवत्व को पराजित करती है, क्योंकि देवताओं के स्वर्ग जैसी एकरसता मनुष्य ने धरती पर नहीं रहने दी। स्वर्ग जैसी एकरसता और मोक्ष जैसा निर्जन मौन सच्चा मनुष्य कभी नहीं चाहेगा, क्योंकि स्वर्ग और मोक्ष की भूमि सृजन के लिए बंजर है, इसलिए मौलिकता यदि भ्रम भी है तो ऐसा भ्रम इस सृष्टि का सौभाग्य है।

रचना, फिर मिटाना; मिटाना, फिर रचना और मिटाते-मिटाते अपने आपको मिटाकर मनुष्यता के लिए रचना मानव की फितरत रही है और इसी फितरत के कारण यह दुनिया आज प्रत्येक क्षण नए-नए रूपों में सृजित होकर चिरनवीन बने रहनेवाली दुनिया है।

मिटने और रचने की इस हठ को पालकर मनुष्य स्वयं को भी रचता आया है। यही कारण है कि रचनात्मकता उसका संस्कार बन गई, ऐसे स्पंदन बन गई, जिनके बिना वह जी नहीं सकता। मनुष्य कभी पुराना नहीं हुआ। वह अपने आपको नया बनाता रहा और विश्व को विकसित करता रहा।

तब यह सवाल है कि फिर मनुष्य का यह जो दानवीय रूप दिखाई देता है, वह क्या है? प्रदूषण से लेकर आतंक तक जो कुछ इस मनुष्य ने संसार को दिया, क्या यह उसकी रचना है, उसका सर्जनात्मक अवदान है? क्या विध्वंस को रचाव कहा जाएगा?

नहीं, विध्वंस रचना नहीं है। मनुष्य की फितरत की देन सिर्फ सृजन नहीं है, संहार भी है। मनुष्य फितरती नहीं होता तो फिर संहार नहीं होता। उसकी एक फितरत यह भी है कि वह संहार को भी सृजन मान लेता है। अल्फ्रेड नोबेल डायनामाइट जैसे विस्फोटक का आविष्कार करते हैं और अपनी वसीयत में शांति के लिए उस पुरस्कार को भी स्थापित करते हैं, जो किसी शांतिदूत मनुष्य को या संस्था को दिया जाता है। लेकिन सच यही है कि संहार के मुकाबले सृजन ही सदैव विजयी हुआ है, इसीलिए तमाम आशंकाओं के बीच भी संसार का रथ समय के पथ पर कभी रुका नहीं। इस रथ का सारथी मनुष्य है। अर्जुन का रथ हाँकते उसके सारथी बने कृष्ण इसी मनुष्य की उज्ज्वल अस्मिता के रूपाकार हैं।

मनुष्य के इसी उजास से भरपूर स्वरूप का उद्घोष करते हुए भागवतकार कहते हैं कि मैं एक गुप्त रहस्य की बात कहता हूँ कि मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी तो नहीं है—

‘‘गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचिद्।’’

और चंडीदास कहते हैं कि मनुष्य से बड़ा सत्य कुछ भी नहीं है—

‘‘सबार ऊपरे मानुष सत्य ताहार ऊपरे नाहीं।’’

इतिहास की गवाही है कि ईश्वर की गति तब तक नहीं है, जब तक वह मनुष्य नहीं बनता। ईश्वर से जुड़े तमाम रूपक, कथाएँ, किंवदंतियाँ और आख्यान उसके मानव रूप से जुड़े हैं। निराकार ईश्वर का न तो कोई आख्यान है और न इतिहास।

मनुष्य इसीलिए मौलिक है, अभिनव है, चिरनूतन और चिरंतन सर्जक है, क्योंकि वह सूरज, चाँद, वृक्ष, हवा, नदी और फूल नहीं है। यदि वह यह सब होता तो फिर दुहराव होता। वह मनुष्य इसीलिए है, क्योंकि उसके पास नित्य-नए प्रस्तुतीकरण की भंगिमाएँ हैं और उसका मूल स्वर संहार का नहीं, सृजन का है। इसीलिए जब कभी कवि को सृजन के आहत होने की आशंका होती है तो महुए की बाँसुरी और साँझ के तारे की याद आती है। स्वर्गीय केदारनाथ सिंह की यही अमर स्मृति मनुष्य की पहचान के रूप में अब सुरक्षित रह गई है—

आम की सोर पर

मत करना वार,

नहीं तो महुआ रात भर

रोएगा जंगल में,

कच्चा बाँस कभी काटना मत

नहीं तो सारी बाँसुरियाँ हो जाएँगी बेसुरी,

कल जो मिला था राह में

हैरान-परेशान

उसकी पूछती हुई आँखें

भूलना मत,

नहीं तो साँझ का तारा

भटक जाएगा रास्ता।

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