हुकुम का गुलाम

हुकुम का गुलाम

राधे मेरी बाँसुरी

जब से तुम मथुरा गए मेरे प्राण

पथ पर प्रतीक्षारत आँख की पलकें

पथरा गईं पर तुम नहीं लौटे

शापित तो नहीं किया था

अहिल्या की तरह फिर यह देह

शिला बनकर रह गई है क्यों?

तुम्हारे चरणों की प्रतीक्षा में 

एक सूनापन छा गया है ब्रज में

पंछी मौन हैं,

मयूर नाचा ही नहीं तब से

और में बिल्कुल अकेली हो गई हूँ

तुम नहीं लौटे प्यारे, तुम नहीं लौटे।

व्यर्थ ही तुमने अकू्रर को भेजा

वह सब समझने की

न क्षमता है, न अभिरुचि

मुझे मेरे कान्हा लौटा दो!

अब तक याद है एक बार

कदंब के नीचे चाँदनी में

बैठे हुए थे हम,

मेरे बाल सहलाते हुए

तुम ने कहा था—

‘राधे, तुम मेरी बाँसुरी हो

बजाता हूँ जब तुम्हें तो

डूब जाता है ब्रजमंडल

तुम्हारे प्यार में।’

मेरे अपने होते हुए भी तुम

क्यों इतने पराए हो गए हो?

कब तक तुम्हारे होंठ की

प्यासी रहेगी यह बाँसुरी?

अपनी बाँसुरी को साथ

तुम क्यों नहीं ले गए मोहन?

बजा देते समय पर तो

महाभारत होता ही नहीं,

न तुमको अपने भक्त पर

यों दौड़ना पड़ता रथ का

पहिया चक्र-सा उठाए हाथ में।

मैं हूँ मोहन, क्योंकि तुम हो

मैं तुम्हारी सृष्टि,

तुम्हारी इच्छा, तुम्हारा प्यार हूँ,

तुम्हारी परछाईं छाया तुम्हारी।

तुम्हारे बिना है एक गहरा अँधेरा

एक सागर नीलवर्णी 

सब डूबा हुआ उसमें

जब इच्छा करोगे                 

मेरे चाँद-सूरज प्रकट हो जाएँगे,

वृंदावन हरा हो जाएगा फिर से

लौट आओ मेरे देवता

अपनी पगली प्रेमिका के पास।

धूप और ताप झेलता रहा है

मेरा विरह बरसों से,

झमाझम बरस जाओ मेरे साँवरे

मैं तुम्हारे साथ बहना चाहती हूँ

नीले सिंधु की गहराइयों में।

स्वतंत्रता दिवस

मिट्टी को अपनी शहादत से

चंदन बनाकर जो गए 

उन सरफरोशों की मजारों

पर लगा है आज फिर मेला।

तूफान से कश्ती निकालकर

जो सौंपी गई थी हम को

उस धरोहर की कसम खाने को  

लगा है आज फिर मेला।

आजादी जब उतरी थी आसाम में

जय हिंद का उद्घोष करती

हजारों सैनिकों की बलि चढ़ा

उस कुँवारे बलिदानी विजय की

याद में लगा है आज फिर मेला।

बहुत पानी बह गया इन

सत्तर जुझारू बरसों में,

नई चुनौतियों को मात देने

लगा है आज फिर मेला।

तिल के ताड़वाले अँधेरों से

हम दीवाने नहीं डरते

डर को मात देने को

लगा है आज फिर मेला।

शहीद मरते नहीं बिस्मिल

एक बग्गी

पीछे कैबिन में बैठा हुआ अंग्रेज

आगे ऊँची सीट पर बैठा रईस

पुलिस की ड्रेस

एक हाथ में घोड़े की रास

दूसरे हाथ में चाबुक

हुकुम का गुलाम

आगे कसा हुआ घोड़ा

चाबुक की मार खाता दौड़ता घोड़ा

गुलाम हिंदुस्तान का नक्शा।

कोई शिकायत नहीं

घोड़े ने कर लिया था समझौता

अस्तबल में रहने के लिए

खाने के लिए रातिब

यह नागरिक डरा-सहमा

गुलामों का गुलाम।

क्या इस घोड़े को

आजाद करवाने के लिए

सरफरोशी की तमन्ना की थी?

क्या इसके लिए

सर पर कफन बाँधा गया?

वह तो अपने नरक में खुश था।

क्या उनके लिए जो लड़ रहे थे

आजादी के लिए अपने तरीके से

और तुम्हारे रास्ते से डरते

तुमसे घृणा करते थे,

जिन्होंने तुम्हारे त्याग को

बलिदान को कभी समझा नहीं?

नहीं-नहीं तुम लड़े थे पूरे देश की

आजादी के लिए

देश की माटी के लिए।

१८५७ के बाद जो दमनचक्र चला था

गाँव के गाँव फूँके गए

खेत-खलिहान जलाकर

भुखमरी और दहशत फैलाई गई

जवानी लटका दी गई पेड़ों से।

इस भयानक तांडव के बाद

जो तुम्हारे जैसे सरफरोशों

की टोलियाँ निकलीं

देश में नवोदय होने लगा।

दुनिया के हर देश ने

आजादी के लिए उत्सर्ग

को पूजा है, सराहा है

मजार पर श्रद्धांजली दी है 

पर हाय आजाद भारत देश के शासन

न तुमको शहीद का दर्जा मिला

न तुम्हारी चिताओं पर

लगाए गए मेले

न दी गई परिवार को पेंशन।

स्वतंत्रता-संग्राम बहुतों ने लड़ा   

अपने-अपने तरीकों से

पर श्रेय सत्तारूढ़ दल ने

केवल अपनों को दिया।

तुम्हारा रास्ता सही था या गलत

तुम्हारी शहादत ने आजादी के

नव जागरण को हवा तो दी थी।

हवा में आज भी गूँजते हैं

सरफरोशी के तराने,

शहीद मरते नहीं बिस्मिल

दिलों पर राज करते हैं।

२४/डी के देवस्थली फेज-२
दाना पानी रेस्टोरेंट के पास
बाबडिया कला, भोपाल (म.प्र.)
शिवनारायण जौहरी विमल

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