ईशरदास की वसीयत

ईशरदास की वसीयत

ईशरदास मंडी गए थे, शाक-भाजी लाने।

लौटे तो थैले में आलू, प्याज, टमाटर तो थे ही, साथ ही माथे पर एक डरावना सा गूमड़ भी उभर आया था। दोनों घुटने छिले हुए थे। पाजामा फट गया था। ऐनक टूट गई थी। सिर जैसे चक्कर खा रहा था और सारा शरीर घबराहट के मारे काँप रहा था।

दमयंती ने देखा तो घबरा गई। ‘‘यह क्या कर आए!’’

‘‘शाक-भाजी ले आया हूँ।’’

‘‘मैं पूछ रही हूँ, माथे पर क्या है?’’

‘‘आलू नहीं है तो टमाटर होगा।’’ ईशरदास बोले। 

दमयंती ने माथा पीट लिया, ‘‘शाक-भाजी तो मैं घर बैठी ठेलीवाले से भी ले लेती। माथे पर गूमड़ तो नहीं पड़ता।...कहीं गिर पड़े थे क्या?’’ ईशरदास आकर चारपाई पर ढह गए, ‘‘अब गिर पड़ा तो क्या करूँ। उठकर घर तक तो आ ही गया हूँ।...जमीन पर पड़ा गूमड़ इस टूटी ऐनक से दिखाई ही नहीं दिया, नहीं तो उस हरामी को क्यों अपने माथे से चिपकने देता।...’’ और सहसा उनका स्वर बदल गया, ‘‘मेरा दिल घबरा रहा है। जाने का समय आ गया क्या!’’

‘‘पिताजी, अब आप शाक-भाजी के लिए मंडी मत जाया कीजिए।’’ बहू ने बड़े दुलार से कहा, ‘‘अब आपकी वह अवस्था नहीं रही। गिरते-पड़ते रहेंगे तो किसी दिन कोई बड़ा हादसा हो जाएगा।’’

‘‘तुम थैला मत पकड़ाया करो, मैं मंडी नहीं जाऊँगा।’’ वे रुके, ‘‘मैं कब मंडी जाता हूँ; वह तो तुम्हारा थैला ही है, जो मुझे ठेल-ठालकर ले जाता है।’’

‘‘तो अम्माँ से कहिए कि आस-पास से फल-सब्जी खरीदने को वे मेरा आलस कहकर अपनी सखियों में प्रचारित न किया करें और न उसे मेरी फजूलखर्ची बताया करें। जानती हूँ, थोड़े पैसे अधिक खर्च हो जाएँगे, पर माथे पर गूमड़ तो नहीं पड़ेगा न।’’

‘‘मैं क्या कहती हूँ।’’ दमयंती भड़क उठी, ‘‘यही तो कि जहाँ दो पैसे बचा सको, बचाओ। तुम्हारे ही बच्चों के काम आएँगे। मैं छाती पर धरकर तो नहीं ले जाऊँगी।...मैं यह तो नहीं कहती कि ससुर को थैला देकर मंडी भेजो और उससे सब्जी में जो पैसे बचें, वे डॉक्टर को भेंट कर दो। पायजामा भी फट गया है। ऐनक भी टूट गई है। उनका खर्च अलग।’’

‘‘अब आप से कौन सिर मारे।’’ बहू अपने कमरे में चली गई, ‘‘बुढि़या का माथा ही ठिकाने नहीं है।’’

जाने क्यों ईशरदास को लगने लगा कि ये सारे लक्षण अब जाल समेटने के हैं।...बाहर निकलेंगे तो कभी पैर में ठोकर लग जाएगी, कभी कोई साइकिल वाला टकरा जाएगा, कभी फुटपाथ आड़े आ जाएगा। कभी आँखों के सामने अँधेरा छा जाएगा। कभी सिर वैसे ही घूम जाएगा और वे लड़खड़ाकर गिर पड़ेंगे।...वे सारा दिन चारपाई पर पड़े, ब्रेन हैमरेज, हार्ट अटैक, सिर फटने, हड्डियाँ टूटने, चोट खाने और पट्टियाँ बँधवाने के ही दृश्य देखते रहे। यदि कूल्हे की हड्डी टूट गई तो यह भी संभव है कि वे पट्टी बँधवाने के लिए डॉक्टर के पास जाने योग्य भी न रहें। कौन ले जाएगा अस्पताल, एंबुलेंस कौन बुलाएगा...जैसे बहू ने कहा है, वैसे ही बेटा भी कहेगा, आप बाहर जाते ही क्यों हैं? चैन से घर में पड़े नहीं रह सकते? हम अपना काम-धंधा देखें या आपकी पट्टियाँ ही करवाते रहें। लोगों के घरों में वृद्ध काम में हाथ बँटाते हैं। और कुछ नहीं तो बच्चों को ही सँभालते हैं...हमारे घर में के वृद्ध हमें डॉक्टरों के पास दौड़ाने और अस्पतालों में टक्करें मारने का प्रबंध करते रहते हैं।

‘ऐसे जीवन नहीं चलता ईशरदास।’ उनकी आत्मा पुकार रही थी।

अब उनका कोई भविष्य नहीं है। आगे कुछ भी अच्छा होनेवाला नहीं है। व्यक्ति जीवन जीता है तो जीवन का अंतिम अध्याय, में बुढ़ापा भी झेलता है। वह जिया नहीं जाता, झेला ही जाता है।...वे वही झेल रहे हैं। भविष्य में कुछ नहीं धरा। अतीत की स्मृतियाँ ही उनकी पूँजी हैं। बैठे उसे ही याद करते रहें।

वे जैसे किसी गहन स्वप्न में डूब गए।...अतीत अर्थात् सत्या। उसे ही स्मरण करना होगा। जितने दिन उसके साथ बीते, वह ही जीवन था।...और उनके अतीत में क्या धरा है, जैसे किसी बच्चे को कोई मोहक खिलौना देकर छीन लिया गया हो। तब ईशरदास बूढ़े नहीं थे। व्यक्ति बूढ़ा पैदा नहीं होता। जीवन उसे बूढ़ा कर देता है। तब वे सूट पहनते थे, टाई बाँधते थे, तेजी से चुस्त और स्मार्ट लोगों के समान चलते थे। तेज-तर्रार आवाज में बोलते थे।...

कॉलेज की नौकरी करते हुए दो साल हुए थे कि सत्या मिल गई। वह बड़ी तेजी से उनकी ओर बढ़ी। छह महीनों में उन्होंने विवाह कर लिया। तब वे थैला लेकर घिसटते हुए मंडी नहीं जाते थे। उनको और सत्या...दोनों को ही बाहर जाने और बाहर ही खाने का शौक था। बाहर निकलते तो उसी चक्कर में घर का सामान भी खरीद लाते थे।...

सुधीर के जन्म के बाद तो उसे भी प्रेम्यूलेटर में डालकर साथ ले जाते थे। लौटते हुए सुधीर गोद में होता था और प्रेम घर के सामान से लदी होती थी।

तीन साल अच्छे बीते और फिर गुडि़या का जन्म हो गया। गुडि़या के जन्म के बाद ईशरदास को लगा कि सत्या के हारमोन बदलने लगे थे। उसका रस कुछ सूखने लगा था। उसका व्यवहार बदलने लगा था। वह नीरस और शुष्क ही नहीं हो गई, बेहद तुनकमिजाज और झगड़ालू भी हो गई थी। किसी खूसट बुढि़या के समान...उसके सुंदर मुखड़े पर उनके लिए कोई कोमल रेखा नहीं रह गई थी। उनकी समझ में नहीं आया कि उसमें दोष गुडि़या का था या उनका अपना।

वे सत्या से पूछते रहे; किंतु उसने कभी कोई कारण नहीं बताया।

उनकी खोज जारी रही; किंतु कोई निष्कर्ष नहीं निकला।...और एक दिन वह उनके नाम एक पत्र लिखकर घर छोड़ गई, तब उन्हें पता चला कि उन दोनों की जोड़ी सजती नहीं थी। ईशरदास उसके योग्य नहीं थे। वह परियों जैसी सुंदर थी। और ईशरदास फुटपाथ पर मिलनेवाले साधारण पुरुष थे। हूर और लंगूर वाला किस्सा था।...पर यह सब उसे पहले दिखाई क्यों नहीं दिया, अब वे जान पाए थे कि सत्या अनेक पुरुषों के लिए आकर्षण का केंद्र थी। ईशरदास उसे कभी गुलाब का एक फूल भी भेंट नहीं करते थे और वे पराए पुरुष उसे अच्छी साडि़याँ, घडि़याँ और मोबाइल भेंट करते थे। वे उसे गोवा और कश्मीर घुमाना चाहते थे। इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड ले जाना चाहते थे और ईशरदास तो अब कनॉट प्लेस भी नहीं जाना चाहते थे। उसके साथ चलना और लंगूर कहलवाना उन्हें पसंद नहीं था।

वे सबकुछ देखते रहे; किंतु इसमें उन्हें कोई भावी संकट दिखाई नहीं दिया। संकट उस दिन दिखाई दिया, जब वह अपने दोनों बच्चों का हाथ पकड़कर एक आई.ए.एस. के साथ चली गई; और उनके हाथ में विवाह-विच्छेद के कागज आ गए।

ईशरदास के मस्तिष्क को जैसे पक्षाघात खा गया। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। एक ओर तो वे स्वयं को अत्यंत अपमानित और वंचित पा रहे थे और दूसरी ओर उनका आत्मसम्मान उन्हें सत्या को मनाने से रोक रहा था। जाती है तो जाए। भाड़ में जाए। जब वह आई.ए.एस. उसको वैसा प्यार नहीं देगा, जैसा कि वे दे रहे हैं तो अपने आप रोती हुई लौट आएगी। उस आई.ए.एस. के भी पहली पत्नी से दो बच्चे हैं। सत्या सँभालेगी, चार-चार बच्चों को खेल नहीं है। बसी-बसाई गृहस्थी को छोड़, उठी और चल दी, मूर्खा कहीं की!

उन्होंने समझा था कि यह दो-चार दिनों का नाटक है। लौट आएगी अपने आप। पर वह नहीं लौटी। अब वह एक आई.ए.एस. की पत्नी थी। उसकी बड़ी सी गाड़ी में बच्चों और कुत्ते के साथ घूमती-फिरती थी। कॉलेज भी गाड़ी में ही जाती थी। अपना उपनाम भी बदल लिया था। अब वह श्रीमती मल्होत्रा थी।...और फिर उस आई.ए.एस. से एक बेटा भी पैदा हो गया था। सिद्धार्थ मल्होत्रा। सत्या को अब ईशरदास की तनिक भी आवश्यकता नहीं रह गई थी। ईशरदास को उसकी प्रतीक्षा करना व्यर्थ लगा।...और अब ईशरदास की समझ में यह भी आ रहा था कि स्त्री के बिना जीवन काटना कितना कठिन है।...घर में कोई बात करनेवाला भी चाहिए। अकेले न भोजन बनता है और न खाया जाता है। दिन कट भी जाए तो रात नहीं कटती। स्त्री कैसी भी हो, किंतु पुरुष को उस शरीर की आवश्यकता होती है। ईशरदास के कुछ परिचितों ने घर का काम करने के लिए कोई नौकरानी रखी और वह रसोई से उनके बिस्तर तक की यात्रा तय कर आई। कुछ लोगों ने तो समाज के सामने विवाह भी कर लिया; कुछ रखैल के रूप में रहीं। अब वह बहुत सम्मानजनक हो गया था। उसे ‘लिव-इन’ कहते थे।

ईशरदास को लगा, नौकरानी को पत्नी अथवा रखैल बनाने से तो अच्छा था कि वे किसी भले घर की साधारण लड़की से विवाह कर लें। उसमें सत्या का सा आकर्षण न खोजें। ज्यादा मीन-मेख में न पड़ें। बाद में जब सुविधा होगी तो वे नौकर या नौकरानी भी रख लेंगे। नौकर और नौकरानी...यदि सुंदर और स्मार्ट पत्नी ही नौकर के साथ भाग जाए तो? यदि सत्या आई.ए.एस. के साथ भाग सकती है तो दूसरी पत्नी नौकर, ड्राइवर या पड़ोसी के साथ भी भाग सकती है। नौकरानी उनके साथ सह-शयन करे या न करे, उन पर लांछन तो लगा ही सकती है। गर्भ किसी और का ले आएगी और उनके सिर मढ़ दे तो उन्हें अपवाद की कालिमा में तो डुबो ही सकती है। नहीं...उन्हें विवाह ही कर लेना चाहिए। पर वे पूर्व-विवाहित थे। उनके दो बच्चे भी थे। यह जानकर उन्हें कौन अपनी बेटी देगा...और इस सूचना को वे छिपाएँगे भी कैसे। कॉलेज और विश्वविद्यालय के इतने लोग सत्या के विषय में जानते हैं। नहीं, वे कोई नया झमेला नहीं चाहते। पर विवाह तो वे करना ही चाहते हैं। कोई प्रौढ़ युवती हो, कोई परित्यक्ता हो, कोई विधवा हो। कोई भी हो किंतु वे नौकरानी रखकर व्यभिचार नहीं करेंगे।

वे तो किसी को नहीं खोज पाए किंतु दमयंती के परिवार ने उन्हें खोज निकाला। उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा गया और उन्होंने चुपचाप स्वीकार कर लिया। गृहस्थी चल निकली। दमयंती का वय कुछ अधिक हो गया था। बहुत आकर्षक भी वह नहीं थी। शायद इसी कारण अभी तक उसका विवाह नहीं हो पाया था।

उसकी अपेक्षाएँ भी अधिक नहीं थीं। सीधी-सादी गृहस्थिन थी। रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त शायद ही उसने कोई इच्छा प्रकट की हो। ईशरदास उसके लिए कभी कुछ करना भी चाहते थे तो वह उनको रोकने का प्रयत्न करती थी। कोई गहना लाते तो वह उसे बैंक के लॉकर में रखवा देती थी।...उसने कभी कहा नहीं किंतु उसके मन में कहीं था कि वह उसे अपनी बहू-बेटी के लिए सँभाल ले।...ईशरदास उसके साथ न हों; किंतु वे एक क्षण के लिए भी भूल नहीं पाते थे कि उनके दो बच्चे भी थे। वे कहीं भी रहें, सत्या किसी की भी पत्नी बन जाए, एक नहीं चार विवाह कर ले; किंतु उन बच्चों के पिता ईशरदास ही रहेंगे। इस संबंध को न वह बदल सकती थी और न ही तोड़ सकती थी। प्रकृति का बनाया हुआ यह संबंध कोई कानून कोई न्यायालय नहीं तोड़ सकता था। पति-पत्नी का संबंध मनुष्य का बनाया हुआ था; किंतु संतान और माता-पिता का संबंध तो ईश्वर का बनाया हुआ था। वह नैसर्गिक और अटूट था...दमयंती को ईश्वर ने संतान नहीं दी। उसकी गोद कभी नहीं भरी। वह ईशरदास से चर्चा भी करती तो वे उसे टाल जाते। उसके सामने न कभी अपने बच्चों की चर्चा की और न कभी उन्हें अपनाने के लिए कहा। कहते भी कैसे, वे तो सत्या के पास थे और सत्या कभी उन्हें ईशरदास को सौंपनेवाली नहीं थी। वे चाहते तो कानून का आश्रय लेकर उन्हें प्राप्त कर सकते थे; किंतु उसके लिए कोर्ट-कचहरी करने के लिए ईशरदास तैयार नहीं थे। जाने दमयंती उन्हें अपने आँचल की छाया दे सके, न दे सके। उसने वर्षों से कभी उनसे मिलने की इच्छा भी प्रकट नहीं की थी। वह अपनी सूनी गोद के साथ भी संतुष्ट थी, किंतु अपनी सौत के बच्चों को इस घर में लाना नहीं चाहती थी। ईशरदास यदि उन्हें अपने साथ ले आते तो जाने उनकी वर्तमान गृहस्थी में कौन सा तूफान आ जाता। उन्होंने पहली बार जाना कि वे सत्या से भी डरते थे और दमयंती से भी। उनमें इतना साहस नहीं था कि इन दोनों में से किसी से भी मोर्चा ले सकें।

ईशरदास को सूचना मिली थी कि उस आई.एस.ए. ने सत्या को छोड़ दिया था। उसकी पोस्टिंग किसी और नगर में हो गई थी और उसने शायद नई शादी भी कर ली थी। ईशरदास को लगा कि यह उपयुक्त अवसर था कि वे सत्या को मना लाएँ और बच्चों को उनका घर दें। पर दमयंती...वह सत्या को या बच्चों को स्वीकार करेगी रात? को ईशरदास बिस्तर पर आए तो उन्हें लगा कि दमयंती पूरी कामिनी बनी हुई थी। आज तक उसने काम का आवेग इस प्रकार नहीं दरशाया था। पर आज वह उन पर कुछ इस प्रकार छा गई थी कि उसे झेलना कठिन हो रहा था।

‘‘आज क्या हो गया है तुम्हें।’’ उनसे कहे बिना नहीं रहा गया।

‘‘मुझे संतान चाहिए। कब तक सूनी गोद लिये बैठी रहूँगी।’’

‘‘प्रयत्न तो कर ही रहे हैं। आगे जो ईश्वर की इच्छा।’’

पर दमयंती का उद्वेग बढ़ता ही रहा। वह प्रतिदिन संतान की चर्चा ही नहीं, उसकी माँग करती रही। जैसे ईशरदास संतान के आने के मार्ग की बाधा हों।...वे डॉक्टर के पास भी गए और अस्पताल भी। पर संतान का जन्म नहीं होना था, जो नहीं हुआ।

अंत में दमयंती ने किसी के बच्चे को गोद लेने का प्रस्ताव रखा। ईशरदास इस प्रस्ताव को किसी हालत में स्वीकार नहीं कर सकते थे। वे जानते थे कि उनके अपने दो बच्चे थे, फिर वे किसी और का बच्चा गोद लेने क्यों जाते?

‘‘हैं तो मेरे दो बच्चे।’’

‘‘तुम्हारे हैं। मेरे तो नहीं हैं। सच मानो तो वे तुम्हारे भी नहीं हैं। उस चुड़ैल के हैं। तुम्हारे होते तो तुम्हारे पास होते। साहस है तो कानून की सहायता से उन्हें उससे छीन लो।’’

‘‘मैं उन्हें ले आऊँगा तो तुम उन्हें स्वीकार कर लोगी?’’

‘‘उन्हें स्वीकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।’’ दमयंती बोली, ‘‘पर उस चुड़ैल के पास तो नहीं रहेंगे न।’’

‘‘तो कहाँ रहेंगे अनाथालय में?’’

‘‘अनाथालय में रहें, सड़क पर रहें, नाले में रहें; किंतु मेरे घर में नहीं रहेंगे।’’

‘‘संतान उत्पन्न नहीं कर सकती, जो हैं, उन्हें स्वीकार नहीं कर सकती, तो फिर संतान गोद लेने का व्यर्थ का शोर क्यों मचा रखा है?’’

‘‘देखो, सीधे से मेरी बात मान जाओ। मेरी बहन का एक लड़का गोद ले लो। नहीं तो मैं भी तुम्हारे साथ नहीं रहूँगी।’’ ईशरदास का दिल दहल गया, पहलीवाली चली गई थी तो उन्हें तो कष्ट हुआ ही था, बदनामी कितनी हुई थी...जिसकी छोड़ भागी है...किसी को उनसे सहानुभूति नहीं थी। सब ओर परिहास ही परिहास था। वे उस अपमान को दूसरी बार सहन नहीं कर सकते थे। ‘‘किस को गोद लेना चाहती हो?’’ वे बोले, ‘‘मुझे विश्वास है कि तुम अब तक कहीं-न-कहीं बात तय कर चुकी होगी।’’

‘‘अनाथालय से नहीं लेना चाहती।’’ दमयंती बोली, ‘‘मेरा बड़ा भानजा है। साल भर का है। मैं पालँूगी तो बड़ा होकर उसे पता भी नहीं लगेगा कि वह हमारा बच्चा नहीं है।’’

‘‘खैर, यह तो भूल ही जाओ। ऐसी बातें छिपी नहीं रहतीं। कोई न कोई उसे बता ही देगा। और कोई नहीं तो तुम्हारी अपनी बहन ही अपने पुत्र को बता देगी।’’

‘‘वह क्यों बताएगी?’’

‘‘क्योंकि जीवन के किसी भी पड़ाव पर उसे खेद होने लगेगा कि उसने अपना बेटा क्यों किसी और को दे दिया।’’

‘‘वह मेरी बहन है। अपनी बात से नहीं टलेगी।’’

दमयंती ने कहा, ‘‘आपकी बहन होती तो बात और थी। हमारे परिवार में लोग वचन के पक्के होते हैं।’’

ईशरदास ने देखा कि बातचीत अशोभनीय होती जा रही है। दमयंती को लग रहा है कि वे उसके मायके पर आरोप लगा रहे हैं। मायके के नाम पर वह कुछ भी सहन नहीं कर सकेगी और जो कुछ वह उनके और उनके परिवार के लिए कहेगी, उसे वे सहन नहीं कर पाएँगे। ‘हाँ, जानता हूँ कि तुम्हारे परिवारवाले सीधे राजा दशरथ की संतान हैं।’ वे मन-ही-मन बोले और अपने कमरे में चले गए।

इसके बाद उन दोनों में इस विषय को लेकर कोई बात नहीं हुई। कानूनी काररवाई अवश्य हुई। वे चाहते थे कि दमयंती उसे गोद ले। किंतु दमयंती सबकुछ उनसे करवाना चाहती थी। उन्होंने आकाश को कानूनी तौर पर गोद ले लिया। वह उनका कानूनी उत्तराधिकारी था। दमयंती ने उसमें स्पष्ट रूप से लिखवाया था कि उनके बाद उनकी सारी चल और अचल संपत्ति का स्वामी वही होगा। फिर जीवन सहज गति से बह निकला। ईशरदास को कुछ भी स्मरण नहीं रहा।

और एक दिन एक युवक उनसे मिलने आया। उसने उनके चरण छुए—

‘‘प्रणाम करता हूँ पिताजी।’’ ईशरदास ने उसे ध्यान से देखा, ‘‘कौन हो भाई? मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।’’ वह हँसा, ‘‘मैं सुधीर, आपका पुत्र।’’

‘‘सुधीर!’’ उन्होंने ध्यान से देखा, इतना सुदर्शन और हृष्टपुष्ट पुत्र है उनका। और वे किसी और के पुत्र को अपना दत्तक पुत्र बनाए बैठे हैं। उन्होंने उठकर कपाट बंद किए, ताकि कोई देख न ले; और सुधीर को कंठ से लगा लिया, ‘‘कहाँ थे अब तक तुम?’’ ‘‘आपके और माँ के विरोध के बीच में फँसा हुआ था। नहीं तो मैं कबका आपके पास आ गया होता।’’ ‘‘सत्या कहाँ है?’’ ‘‘अभी कॉलेज में पढ़ा रही हैं। उनके दूसरे पति भी उनको छोड़ गए हैं।’’ ‘‘वह छोड़ गया है या सत्या ने उसे छोड़ दिया है?’’

‘‘नहीं। उसने ही अपनी पी.ए. से विवाह कर लिया है। उसके पहले विवाह से उत्पन्न बच्चे भी उसके पास ही हैं। बड़े हो गए हैं, समर्थ हैं। हम लोग माँ के भाग में आए हैं। उस बड़ी कोठी को छोड़कर एक एम.आई.जी. फ्लैट में आ गए हैं।’’ ‘‘और मैं मेरा अधिकार?’’ ईशरदास के मुख से निकला, ‘‘तुम्हारा पिता तो मैं हूँ।’’ वे कहते-कहते रुक गए कि उनके पास बहुत बड़ा मकान है। करोड़ों की जायदाद है। उनके बच्चों को एम.आई.जी. फलैट में रहने की आवश्यकता नहीं है। ‘‘उसमें किसी को क्या संदेह हो सकता है।’’ सुधीर बोला, ‘‘किंतु आप और माँ जब तक मिल नहीं जाते, तब तक हमारी स्थिति भी स्पष्ट नहीं होती।’’ ‘‘तुम जानते हो न कि मैंने भी दूसरा विवाह कर लिया है और मेरी दूसरी पत्नी ने अपने भानजे को गोद ले लिया है। वह तुम्हें स्वीकार करेगी?’’

‘‘संभवतः नहीं करेंगी।’’ वह बोला, ‘‘मैं आपके पास आया था। सुना था कि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। यदि मैं आपके किसी भी काम आ सकूँ तो...।’’

ईशरदास का मन पिघल गया। मन हुआ—कहें, वह गुडि़या को लेकर उनके ही पास आ जाए। उनके पास बहुत बड़ा मकान था। वे लोग आराम से रह सकते हैं।...किंतु सत्या उनके गिरने और माथे पर गूमड़ पड़ने का समाचार भी सुधीर को मिला था। वह अपने एक डॉक्टर मित्र को लेकर आया था कि ईशरदास की जाँच हो सके। वह देख रहा था कि दमयंती को यह सब पसंद नहीं आ रहा है; किंतु वह सुधीर को ईशरदास से मिलने से रोक नहीं सकती थी। वह दमयंती का हो-न-हो, ईशरदास का पुत्र था।...आकाश को गोद तो लिया था; किंतु ईशरदास का औरस पुत्र तो सुधीर ही था, वही रहेगा।

सुधीर विदा हुआ तो ईशरदास उसकी पीठ को देखते रहे। कैसा सुंदर और सुदृढ़ युवा था। मन होता था कि उसे बैठाकर अभी अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर दें। उनका वास्तविक उत्तराधिकारी तो वही था।...ईशरदास उसे रोक नहीं सके; किंतु वे अपने आपको भी रोक नहीं सके। सुधीर के जाने के पश्चात् दमयंती को बुलाकर अपने पास बैठाया और बोले, ‘‘सोचता हूँ कि अब समय आ गया है कि मैं अपनी वसीयत तैयार कर दूँ।’’

‘‘कर दीजिए। उसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। पर क्या बाँटना है आपको, आपके पास है ही क्या और किस को देना है।’’

‘‘मकान है मेरे पास। तीन मंजिलें हैं। सोचता हूँ कि ऊपर की एक मंजिल सुधीर के नाम कर दूँ।’’ ‘‘होश में तो हैं आप।’’

‘‘वह मेरा बेटा नहीं है क्या?’’

‘‘वह आपका नहीं, आपको छोड़ भागी स्त्री का बेटा है।’’ वह बोली, ‘‘मैं आपकी पत्नी हूँ। मकान आपके जीवन में भी मेरा है और आपके बाद भी। आप उसकी एक ईंट भी किसी को नहीं दे सकते। वसीयत लिखेंगे तो उसे भी आपकी चिता में डाल दूँगी।’’ ईशरदास उसका चेहरा देखकर ही डर गए।

अगली बार सुधीर आया तो ईशरदास ने उसे बैठा लिया।

‘‘कैसे हैं आप?’’

‘‘उसकी चिंता छोड़।’’ वे बोले, ‘‘जैसा भी हूँ। अब बहुत दिन नहीं चलना है। सोचा था कि इस मकान में से तुम्हारा हिस्सा तुम्हें दे दूँ। पर दमयंती वह करने नहीं देगी।’’

‘‘कोई बात नहीं पिताजी। मुझे वह नहीं चाहिए।’’

‘‘तुम्हें कुछ नहीं चाहिए; किंतु मुझे कुछ चाहिए।’’

‘‘क्या?’’

‘‘जो माँगूँगा, मना मत करना।’’

‘‘नहीं करूँगा।’’

‘‘तो यह ले जा। पचास लाख हैं। एक फ्लोर का मूल्य चार करोड़ है। न मैं तुम्हें चार करोड़ दे सकता हूँ और न ही फ्लोर। मेरे हाथ बँधे हुए हैं।’’ वे रुके, ‘‘ये पचास लाख ले जा। अवसर मिला तो और भी दूँगा। किसी से इसकी चर्चा भी मत करना। इसके बदले में मुझे एक वचन दे।’’

‘‘क्या पिताजी?’’

‘‘कि मुझे मुखाग्नि तू देगा...’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं पिताजी अभी से।’’

‘‘अब ऐसी बातों का समय आ गया है पुत्र।’’ वे बोले, ‘‘वचन दे।’’

‘‘वचन देता हूँ।’’

‘‘जा।’’ उन्होंने उसके सिर पर हाथ रख दिया।

* * * * *

शव को श्मशान ले जाने से पहले सुधीर और गुडि़या भी घर पहुँच गए थे। उन्हें प्रणाम तो करने दिया गया किंतु उसके पश्चात् बड़ी चतुराई से पीछे धकेल दिया गया।

सुधीर ने साहस किया, ‘‘मैं उनका बड़ा पुत्र हूँ। कुछ कर्तव्य मेरे भी हैं।’’

‘‘तुम सत्या के पुत्र हो। ईशरदासजी के नहीं।’’ आकाश तनकर अपने भाइयों के साथ उसके सामने खड़ा हो गया।

उसने सिर मुँड़वा लिया था। धोती और बनियान में वह श्मशान जाने की वर्दी में खड़ा था। उसके साथ, जैसे उसे सहारा देने के लिए दमयंती खड़ी थी। आकाश के सगे माता-पिता और भाई-बहन उसके साथ थे। पूरा कुटुंब एकत्र था...सुधीर का पक्ष लेनेवाला कोई नहीं था।

‘‘पिताजी की इच्छा थी कि उन्हें मुखाग्नि मैं दूँ।’’

‘‘तुम्हारे पास उनकी वसीयत है क्या?’’

‘‘वसीयत तो है, किंतु लिखित रूप में नहीं है।’’ वह बोला, ‘‘एक व्यक्ति जो अब जीवित नहीं है, बिना वसीयत के भी उसकी इच्छा पूरी करने में कोई बुराई नहीं है।’’

‘‘वसीयत होती भी तो उसे मैं चिता में डाल देती।’’ दमयंती ने कहा।

‘‘पर मैं मुखाग्नि दूँ तो आपको क्या आपत्ति है?’’

‘‘बहुत चतुर मत बन।’’ दमयंती ने कहा, ‘‘यह हमारे समाज की अलिखित वसीयत है कि मुखाग्नि देनेवाला पुत्र ही संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है।’’

‘‘मैं लिखित रूप में देता हूँ कि मुझे संपत्ति में से कुछ नहीं चाहिए, किंतु मुझे मुखाग्नि का अधिकार दिया जाए।’’

‘‘तू अपनी टाँगों पर चलकर घर जाना चाहता है, तो चला जा; नहीं तो यहीं टाँगें तोड़ दूँगा। श्मशान भी नहीं जा पाएगा।’’

सुधीर समझ गया कि पिताजी पहले से ही यह सब भाँप चुके थे। तभी तो अपनी वसीयत अपने वक्ष में छिपाए हुए ही चले गए। मकान पर कब्जा जिसका था, उसी का रहेगा। वसीयत किसी के भी नाम हो।

१७५ वैशाली, पीतमपुरा
दिल्ली-११००३४
नरेंद्र कोहली

हमारे संकलन