साहित्यकारों के लिखने के ढंग और मनःस्थिति

साहित्यकारों के लिखने के ढंग और मनःस्थिति

साहित्यकार अनेक विधाओं में बडे़-बडे़ ग्रंथ लिखते हैं। उनकी रचनाएँ—कहानी, उपन्यास, निबंध, समीक्षा और कविता आदि हम सब पढ़ते तो अवश्य हैं, परंतु हम उनके व्यक्तिगत जीवन, उनके संघर्ष और उनकी साहित्य साधना के विषय में नहीं जानते। महान् लोगों की आत्मकथा या जीवनी पढ़कर उनके व्यक्तिगत जीवन और अनुभवों के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलता है। साहित्यकार अपनी रचना का सृजन कब, किस प्रकार, किन परिस्थितियों में करता है, वह भी जानना जरूरी है। वे कभी स्वांतः सुखाय, कभी यश अर्जन और कभी अर्थक्रते लिखते हैं। वे विद्यार्थियों के लिए भी लिखते हैं और पाठकों के लिए भी। लेखक के लिखने के ढंग अलग-अलग होते हैं। कोई देर रात तक जागकर लिखता है तो कोई सुबह सूर्य उदय से पहले या फिर दिन में जब उसका मूड हो। कोई मेज-कुरसी पर बैठकर लिखता है, कोई अपने पलंग पर ही। कोई एक लेख को एक ही बैठक/सिटिंग में पूरा कर लेता है तो कोई बड़ा लेख हो तो दो-तीन सिटिंग में पूरा करता है। कोई अपने लेख को एक बार लिखने के बाद दुबारा उसमें काट-छाँट नहीं करता तो कोई अपने ही लेख में काट-छाँट घटा-बढ़ाव करता है। कोई फुलस्केप पेपर पर लिखता है तो कोई जो भी कागज उपलब्ध हो, चाहे बच्चों की कॉपियों के पन्ने ही क्यों न हों, लिखना शुरू कर देता है। बडे़ रोचक और ज्ञानवर्धक होते हैं उनके लिखने के ढंग। मैं डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेशजी की पुस्तक ‘मैं इनसे मिला’, जिसमें उन्होंने कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकारों से लिये साक्षात्कार संकलित हैं, उनमें से कुछ अंश यहाँ दे रहा हूँ। देखिए—

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को लोग ‘अज्ञेय’ के नाम से अधिक जानते हैं, जिन्हें ‘ज्ञान पीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। उन्होंने ‘शेखर : एक जीवनी’, ‘नदी के द्वीप’ तथा ‘अपने-अपने अजनबी’ उपन्यास तथा ‘विपथगा’, ‘परंपरा’, ‘जय बोल’, ‘काठारी की बात’, ‘शरणार्थी’, अमखल्लरी कहानियों की रचना की। अपने लिखने के ढंग के बारे में उन्होंने कहा है, ‘‘कहानी तो मैं आम तौर पर दो सिटिंग में लिखता हूँ। कभी-कभी एक सिटिंग में भी लिख डालता हूँ। उपन्यास के लिए ४-६ महीने सोचना पड़ता है। नोट्स लेता हूँ। जब सामग्री तैयार हो जाती है, तब १०-१२ घंटे की सिटिंग में लिखता हूँ। ‘शेखर’ के दूसरे भाग का आखिरी खंड एक सिटिंग में सबेरे ८ बजे से रात के २:३० बजे तक लिखा। बीच में दो बार चाय पी थी। थकने पर टहलने लगता था और उँगलियों के दुखने पर दो उँगलियों से कलम पकड़कर लिखता था। ५०-५५ फुलस्केप पेज तक एक सिटिंग में लिख लेता हूँ। उन दिनों पढ़ना बंद रहता है। डाक खोलकर भी नहीं देखता। परिचितों से भी नहीं मिलता। किसी प्रकार की बाधा नहीं चाहता।

‘‘मैं प्रयत्न करता हूँ कि अनुभव के विस्तार और गहराई को बनाए रखूँ। इसलिए नोट्स लेता रहता हूँ और प्लानिंग करता रहता हूँ। यहाँ तक कि कागज पर लिखने से पहले दो-एक बार तो रचना को मन में ही लिख लेता हूँ। अच्छे वाक्यों, कथोपकथन के अंशों, मार्मिक उक्तियों आदि को नोट करता रहता हूँ। कोई अच्छी इमेज सूझती है तो उसे लिख लेता हूँ। कभी वाद-विवाद के लिए कोई प्रश्न लिख लेता हूँ। एक अच्छे संचय में से उपन्यास लिखते समय अवसर के अनुकूल उपयुक्त सामग्री ले लेता हूँ या तत्काल पुनः ढाल लेता हूँ।’’

उदय शंकर भट्टजी ने कई नाटक लिखे हैं। भट्टजी के ऐतिहासिक, पौराणिक नाटकों में ‘सागर विजय’, ‘अंबा’, ‘विक्रमादित्य’, ‘दाहर या सिंघ विजय’, ‘मत्स्यगंधा’, ‘विश्वामित्र’, ‘शक विजय’ प्रमुख हैं। इनके ‘एकला चलो रे’ और ‘कालिदास’ नाम के रेडियो नाटक भी प्रकाशित हुए हैं। श्री भट्टजी कहते हैं, ‘‘लिखने का मेरा ढंग यह है कि मैं साल में ५-६ महीने पढ़ता हूँ। इधर-उधर की यात्रा करता हूँ और फिर लिखने की बात सोचता हूँ। कविता तो रात भर लिखता रहता हूँ। पान-तंबाकू पास होता है। सामने कागज, दवात और कलम रख लेता हूँ। सुपारी काटकर तंबाकू बनाता हूँ। मुँह में तंबाकू डाला कि लिखना शुरू किया, और फिर तो लिखता ही चला जाता हूँ। चार-पाँच घंटे लगातार लिखता रहता हूँ। मैं मेज-कुरसी पर नहीं लिखता, बल्कि बडे़ तकिए पर पैड रखकर लिखता हूँ। थकने पर तकिए के सहारे लेटकर लिखता हूँ। पान को मुँह में रखने से प्रेरणा मिलती है और तंबाकू, चूना तथा सुपारी से उसमें तीव्रता आती है। स्वभाव में अव्यवस्था होने से न कागज ठीक से रहता है, न चिट्ठियों का ढंग। इसलिए जो कागज मिल जाता है, उसी पर लिखने लगता हूँ। कभी-कभी तो लिफाफे पर ही कविता लिख डालता हूँ। रात को दो बजे लिखने की प्रेरणा होने पर दवात के लिए किवाड़ खटखटाता रहता हूँ। कागज के लिए टं्रक तक छान मारता हूँ और जब कागज नहीं मिलता तो बच्चों की कॉपी पर ही लिखना शुरू कर देता हूँ। कई बार तो ऐसा होता है कि छत पर सो रहा हूँ और लिखने की इच्छा हुई, बस चुपचाप नीचे उतरता और १-१:३० बजे तक लिखता रहता। लिखने का कोई नियम नहीं है। हाँ, सवेरे नहीं लिखता। जो कुछ लिखा है, वह रात के पहले पहर में ही लिखा है। नींद कम ही आती है। आम तौर पर ३-४ बजे सोता हूँ। कविताएँ प्रायः एक-दो सिटिंग में लिख डालता हूँ। हाँ, पुस्तक नियम से लिखता हूँ। जो समय निश्चित होगा, उसी पर लिखूँगा। समय के व्यवधान में क्रम बिगड़ जाएगा। नाटक लिखते समय एकांत छोड़ देता हूँ। उस समय मैं लोगों की बातचीत और हँसने के ढंग को पढ़ने की चेष्टा करता हूँ। नाटक के पात्र मुझे आस-पास ही मिल जाते हैं। बहुत लिखने की इच्छा होने पर कॉफी-हाउस या सिनेमा में जाकर स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों की बातचीत का ढंग देखता हूँ। नाटक लिखना इसीलिए शुरू किया कि मुझे मनुष्य केचरित्र को ठीक-ठीक उतारना था।’’

महादेवी वर्मा विरह-वेदना की कवयित्री हैं। वे दुःख को ही आराध्य मानती हैं। ‘दीपशिखा’ इनकी प्रमुख कृति है। ‘नीहार’ और ‘रश्मि’ के बाद इनकी ‘नीरजा’ और ‘सांध्या-गीत’ नाम की दो पुस्तकें निकली हैं। वे ‘साहित्य-सृजन के विषय में कहती हैं, ‘‘मेरा मन क्रियात्मक कार्यों में अधिक रमता है। साहित्य-सृजन मेरे लिए उतने महत्त्व का नहीं, जितना कोई क्रियात्मक जनोपयोगी कार्य। इसलिए मैं बिना दूसरा कार्य किए जी नहीं सकती। यह पहला ध्येय है। साहित्य तो विराम के क्षणों की वस्तु है। जब कार्यों से छुट्टी मिलती है, जब मैं थकान दूर करने के लिए लिखती हूँ। लिखने के लिए कभी पहले से सोचती भी नहीं। न अच्छे कागजों पर ही लिखती हूँ। रद्दी-सद्दी जो भी कागज मिला, उसी पर लिख डाला। कभी-कभी तो अखबार के खाली हाशिए पर ही लिखती हूँ और जहाँ-जहाँ जगह होती है, लिखती जाती हूँ। हाँ, प्रेस-कॉपी करते समय मैं अवश्य ढंग से लिखती हूँ। गीत में एक ही क्षण का लेखा होता है, इसलिए पूरा गीत एक ही बार में लिख देती हूँ। जब कभी अधिक कार्यवश उसे बीच में छोड़ना पड़ता है तो वह बेकार हो जाता है, क्योंकि फिर उसमें वह आनंद नहीं रहता। प्रबंध-काव्य में तो ऐसा चल सकता है, परंतु गीतों में नहीं। सृजन मेरा ध्येय नहीं और न मैं चाहती हूँ कि मेरा नाम हो। मुझे तो इससे कोई ममता भी नहीं। प्रधान काम तो जनहित का है और उसी में मेरा जी अधिक रमता है।’’

सुदर्शन—इनका पूरा नाम पं. बदरीनाथ भट्ट था। ये सुदर्शन उपनाम से लिखते थे। मुंशी पे्रमचंद की भाँति ये भी उर्दू में लिखते थे। बाद में हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए और हिंदी पाठकों ने पढ़ा। उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके ‘अमर अभिलाषा’, ‘भागवंती’ आदि उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। सृजन के पूर्व और सृजन के बाद की उनकी क्या मनःस्थिति थी, देखिए उन्हीं के शब्दों में—

‘‘अर्ज (urge) आती है और परेशानी बढ़ती है। कुछ खटपट-सी मचती है। क्या चीज है, इसे जानने की बेचैनी होती है। कुछ अच्छा नहीं लगता। लिखते समय प्रसन्नता होती है। लिखने के आठ-दस दिन बाद असंतोष होता है।

‘‘मेरे लेखन का समय दो-ढाई बजे दिन का होता है। अकसर घर से बाहर चला जाता हूँ। अर्ज (urge) आते ही एकदम लिख डालता हूँ। एक बार मैं बनारस में ठहरा था। सुबह के ८ बजे थे। मैं नहाने जा रहा था। सामने सड़क पर एक ताँगा और साइकिल में टक्कर हो गई। एकदम प्लाट सूझा। मैं नहाने न गया। बीच से लौट आया। कमरा बंद कर लिया। तब ९-९:३० बजे थे। लिखना शुरू किया और शाम के ५ बजे तक लिखता रहा। यह कहानी ‘घोर पाप’ थी। यह सन् १९२५ की बात है।

‘‘कहानी को शुरू करना मुश्किल होता है, मुश्किल क्या, एक समस्या होती है—कैसे शुरू किया जाए? शुरू होने पर कहानी अपने आप चलती रहती है। खत्म होना उसका काम है। प्लाट जो सोचता हूँ, बीच में ही बदल जाता है। कई प्लाट वर्षों से दिमाग में हैं, पर उनके लिए अर्ज (urge) (प्रेरणा/ललक) नहीं आई। फिल्म-स्टोरी छोड़कर मैंने कोई कहानी पूर्व-संयोजित (Preplanned) नहीं लिखी। कहानी में थीम शुरू की रहती है, केवल उसका रूप बदल जाता है।’’

बाबू गुलाबराय ने उत्तर द्विवेदी युग में समालोचना, निबंध, दर्शन-साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने ‘नव रस’, काव्य विमर्श नाट्य विमर्श, काव्य के रूप, सिद्धांत और अध्ययन, मेरी असफलताएँ ठुलुआ कल्ब, जीवन रश्मियाँ, कुछ उथले कुछ गहरे व तर्क-शास्त्र, कर्तव्य-शास्त्र जैसे अनेक ग्रंथ लिखे हैं। बाबूजी ने अपनी पुस्तक ‘मेरी असफलता’ में लिखा है—‘‘मैं लिखता तो बिना विचारे ही हूँ, कभी-कभी पछताना भी पड़ता है, लेकिन बहुत कम। लेख के प्रारंभ में थोड़ा अवश्य परिश्रम कर लेता हूँ। बिना तीन-चार कागजों का बलिदान दिए किसी सफल लेख का श्रीगणेश नहीं होता। मेरे लेख में काट-छाँट और घटा-बढ़ी भी होती है। बीच में वे ऐरो (Arrow) लगाकर जोड़ा भी जाता है; इस कारण अक्षर-ब्रह्म को उँगलियों पर नचाने वाले कंपोजीटर लोग मेरे लेखों से बहुत परेशान रहते हैं।’’

बाबूजी लेखन का कार्य घर में कभी मेज-कुरसी पर बैठकर करते थे तो कभी अपने पलंग पर। लिखने का समय कोई निश्चित नहीं होता था। वे कभी सुबह के समय तो कभी दोपहर में। बाबूजी लेख लिखने के लिए कागज के साईज की चिंता नहीं करते थे; परंतु फुलस्केप साइज के पेपर पर लिखना अधिक पसंद करते थे। कभी बच्चों के स्कूल की कॉपियों के पन्ने हों, विज्ञप्तियों के खाली पृष्ठ हों या लिफाफे, वे इन पर भी लिखते थे। कागज सफेद हो, बादामी हो या लाइनदार, उसकी चिंता लिखने के लिए नहीं की। लिखने के लिए दवात-कलम, पेंसिल, फाउंटेन पेन, जो मिल जाए, उससे लिखने बैठ जाते थे। कभी-कभी लकड़ी में निब बाँधकर या बच्चों की सरकंडे की कलम से भी लिखते थे।

बाबूजी ने लिखा है ‘मेरी दैनिकी का एक पृष्ठों में’—‘‘मैं उन लोगों में से हूँ, जो अपने निजी निबंधों के लिए बिना कुछ पढे़ नहीं लिख सकता। वास्तव में मेरे लेखन में एक-तिहाई दूसरे से पढ़ा होता है। एक बटा छह उसके आधार से स्वयं प्रकाशित और ध्वनित विचार होते हैं, एक बटा छह सप्रयत्न सींचे हुए विचार होते हैं और एक-तिहाई मलाई के लड्डू की बर्फी बना चोरी छिपाने वाली अभिव्यक्ति की कला रहती है।’’

बाबूजी ने डॉ. पद्म सिंह शर्मा कमलेश को दिए गए साक्षात्कार में कहा था, ‘‘लिखना ही मेरा मुख्य व्यवसाय है। मैं इस कार्य में पर्याप्त सावधानी से काम लेता हूँ। मेरा विश्वास है कि जब तक अच्छा, चटपटा आरंभ न हो तब तक लेख शुरू ही नहीं करना चाहिए। लिखने से पूर्व कभी-कभी मैं प्रारंभिक एक-दो अनुच्छेदों का मानसिक प्रारूप तैयार कर लेता हूँ। जब तक किसी विषय से प्रभावित नहीं होता, तब तक मैं उस विषय पर लेखनी नहीं उठाता। मैं विद्यार्थियों के हित को ध्यान में रखकर लिखता हूँ और इससे मुझे प्रसन्नता होता है। इसीलिए मेरी रचनाएँ ‘अर्थकृते’ होते हुए भी ‘स्वांतः सुखाय’ का रूप धारण कर लेती हैं। जब मैं किसी विषय से प्रभावित हो जाता हूँ और मेरे हृदय में लेखन-रस उत्पन्न हो जाता है, तब घर का शोरगुल, बच्चों का ऊधम और जीवन की समस्याएँ उसमें बाधा नहीं डालतीं।’’

हिंदी समालोचना को प्रगतिशील विचारधारा की ओर उन्मुख करने में डॉ. रामविलास शर्माजी का नाम सर्वप्रमुख है। इनकी आलोचना बड़ी प्रखर और मौलिक सूझबूझ वाली होती है। ‘प्रेमचंद और उनका युग’, ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’, ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’, ‘निराला की साहित्य साधना’ (तीन भाग), ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नव-जागरण’, ‘भाषा और समाज’ इनकी महत्त्वपूर्ण समीक्षा पुस्तकें हैं।

डॉ. रामविलास शर्माजी सृजन पर मनःस्थिति के बारे में कहते हैं, ‘‘लिखने से पहले सोचना आवश्यक होता है। जिस विषय पर मुझे लिखना होता है, उस पर रात के वक्त मैं काफी देर तक सोचता रहता हूँ। यह काम विषय और समस्या के अनुसार कभी दो-चार दिन में होता है, कभी दो-चार हफ्तों में और कभी दो-चार महीनों में। रात्रि की शांति में जब सब लोग सो जाते हैं, तब छत पर टहलते हुए तरह-तरह की समस्याओं पर विचार करने में मुझे काफी आनंद आता है। सवेरे उठकर घूमकर लौटने तथा अन्य क्रियाएँ समाप्त करने के बाद जब लिखना होता है, लिखने बैठ जाता हूँ। लिखते समय मुझे सबसे अधिक भद्र मित्रों का लाभ होता है। इसलिए जब वे आ जाते हैं तो कहने पर भी जल्दी उठने का नाम नहीं लेते। इसके लिए मैंने ‘अतिथि’ शीर्षक एक लेख लिखा था और उसे ‘रानी’ में छपाया था तथा असमय आनेवाले मित्रों को उसे दिखा देता था। नतीजा यह हुआ कि कुछ मित्र उस लेख को देखने के बहाने आने लगे, तब मैंने उसे बंद कर दिया।’’

‘‘लिखने के विषय में एक बार सुभद्राकुमारी चौहान से बात हो रही थी। उन्होंने बताया कि चिकना कागज और सुंदर फाउंटेन पेन कविता लिखने के लिए जरूरी है और इसके बिना उन्हें लिखने में विशेष उत्साह नहीं होता। यह सुनकर कि मेरे पास चिकने कागज का अभाव है तो कविता लिखने के लिए उन्होंने मुझे सुंदर सजिल्द कॉपी भेंट की। और हुआ यह कि मैं एक भी कविता न लिख सका। फाउंटेन पेन से लिखने में मुझे दिक्कत होती है। कॉपी साइज के कागज पर लिखने से भी जी ऊब जाता है। कलम-दवात और फुलस्केप साइज का कागज लिखने में मदद करते हैं। शायद इसका कारण यह है कि कॉपी और फाउंटेन पेन देखकर मुझे हमेशा क्लासरूम की याद आ जाती है।’’

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ‘हृदय की प्यास’, ‘हृदय की परख’, ‘गोली’, ‘सोमनाथ’, ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘धर्मपुत्र’, ‘खग्रास’, ‘वयं रक्षाम’ ‘आत्मदाह’, मंदिर की नर्तकी आदि अनेक उपन्यास और ‘अक्षत’, जरकण, ‘सिंहगढ़’, ‘विजय’ आदि कहानी-संग्रह की रचना की। उन्होंने ८५ के लगभग ग्रंथ, २५० के लगभग कहानियाँ तथा एकांकी तथा १० हजार पृष्ठ का फुटकर साहित्य लिखा। अपने लिखने के ढंग के बारे में वे कहते हैं, ‘‘वास्तव में इसका कोई नियम नहीं है। कभी-कभी तो मैं हफ्तों, दिन-रात सोता रहता हूँ। और कभी लिखने में दिन-रात कब व्यतीत हुए, इसका ज्ञान नहीं रहता। ८-८ दिन तक अपने कमरे से बाहर तक न निकलना साधारण घटनाएँ हैं। लोगों से मिलना-जुलना मुझे पसंद नहीं। उनकी बातों से मैं तुरंत ऊब जाता हूँ। परंतु साधारणतया मैं रात को २ से ५ बजे तक नियमित रूप से लिखता हूँ। लिखते समय मैं केवल लेखक ही नहीं रहता, बल्कि अपनी-अपनी सृष्टि का दृष्टा भी रहता हूँ। भावुकता के नाजुक प्रसंगों पर कभी-कभी मेरी हालत ऐसे खराब हो जाती है कि मैं कई दिनों तक किसी से बात करने के योग्य भी नहीं रहता। लिखने से पहले कोई तैयारी नहीं करता, खासकर कथा-साहित्य की रचना में।

‘‘आजकल एक सस्ता कलम काम में ला रहा हूँ, जिसका निब हर महीने घिस जाता है तो फिर नया बदल देता हूँ। कलम-घिसाई जो ठहरी।

‘‘जब नुस्खे लिखता था और बडे़-बडे़ हिज़ हाइनेस अर्दली में खडे़ साँस रोककर मेरे एक-एक वाक्य को ब्रह्म-वाक्य की भाँति समझते थे। तब सोने की कलम से लिखता था और सोना बरसता था। परंतु अब क्या? साहित्यिक और सोने की रास तो एक है, पर है—जन्म का बैर।’’

मैंने यहाँ केवल सात सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के बारे में जो कुछ लिखा है, वह सब उन्हीं द्वारा कही बाते हैं, जो उन्होंने डॉ. पद्मसिंह शर्माजी को इंटरव्यू के समय बताई थीं। अंत में यहाँ मैं एक रोचक संस्मरण डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेशजी के संबंध में दे रहा हूँ, जो बाबू गुलाबरायजी ने अपनी पुस्तक ‘मेरी असफलताएँ’ में ‘मेरी दैनिकी का एक पृष्ठ’ में लिखा है—‘‘बच्चों को मैं पढ़ाता बहुत कम हूँ। यहाँ तक कि मेर बच्चे भी मुझ पर इस बात का व्यंग्य करने लगते हैं। मेरे एक शिष्य (डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेश) प्रवर ने किसी प्रसंग से कहा कि हम तो आपके बच्चे हैं। आपका आशीर्वाद चाहते हैं। मेरे कनिष्ठ पुत्र विनोद ने, जिसकी उम्र प्रायः बारह साल की है, तुरंत उत्तर दिया—‘आप बाबूजी के बच्चे बनेंगे तो वे आपको पढ़ाना छोड़ देंगे, क्योंकि वे बच्चों को नहीं पढ़ाते।’ डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेशजी मेरे पिताजी के प्रिय शिष्यों में से एक थे। मैं उन्हें बडे़ भाई साहब के समान सम्मान देता था।’’

ए-३, ओल्ड स्टाफ कॉलोनी,
जिंदल स्टेनलैस लि.
ओ.पी. जिंदल मार्ग, हिसार
दूरभाष : ९४१६९९५४२२
—विनोद शंकर गुप्त

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