वर दे, आया तेरे द्वार

वर दे, आया तेरे द्वार

बह्म मुहूर्त का समय, सुप्रसन्न धरा, सुरभित गगन मन के पूजा मंदिर में देव प्रतिमाओं का जमघट सजा है। कंठ से शंकराचार्यजी का अन्नपूर्णा स्तोत्र स्रवित हो रहा है। जगदंबा के महाद्वार पर आकर उपस्थित हूँ, ‘ओम भवति भिक्षां देहि’ घोष प्रकट हुआ। मन पूछ रहा है, यहाँ कौन भिक्षा माँग रहा है? किससे माँग रहा है? क्या वे अपने आपके लिए भिक्षा माँग रहे हैं? क्या वे अपनी माँग के लिए महाद्वार पर आकर माता से प्रार्थनारत हैं? मेरा मन यह सबकुछ नहीं मानता है। मैं सोच रहा हूँ भगवती अन्नपूर्णा के महाद्वार पर प्रार्थनारत आचार्य प्रवर की याचक मुद्रा मेरे मन को एक विलक्षण ऊर्जा अर्पण कर रही है। यह भिक्षा प्रेम की है। यह भिक्षा ज्ञान की है। यह क्षुद्रता का मोह टालनेवाली है। यह भव्यता की पूजा करनेवाली है। यह सीने पर गुलाब पुष्पों के हार को सुशोभित करा लेने जैसी है। यह भोग प्रधान जीवन को भाव प्रधान बनानेवाली है। यह भिक्षा उत्तुंग है, पावन है, उन्नत है। आत्मपरायण बनानेवाली है। अध्यात्मपरायण बनानेवाली है।

ऋषि-मुनियों ने देवी माँ की स्थापना सर्वोच्च मूल्यवत्ता के लिए की। सामर्थ्य, सृजन और सात्त्विकता इन तीन प्रधान गुणों का प्राकट्य इस नारायणी रूप में ऋषि प्रज्ञा ने किया। विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं महासरस्वती। वैभव संपदा की ऊर्जस्वल देवी हैं महालक्ष्मी। बल संपन्नता की वरेण्य देवी हैं महाकाली। सत्त्व, रज और तम के मानदंडरूपी ये महिला शक्ति के प्रारूप हैं। ये नारी देवता हैं। नवरात्र का अर्थ है नव ज्ञान का प्रकाश विकीर्ण करनेवाली महासत्ता। इनका पूजन कभी व्रतों के माध्यम से तो कभी साधना के माध्यम से हुआ। कभी प्रदक्षिणा के माध्यम से तो कभी नृत्य के माध्यम से, कभी जाप के माध्यम से हुआ तो कभी कलाविष्कार के नाना मनोरम माध्यमों से प्रकट होता रहा। देशभर में जगज्जननी की आराधना अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग दृष्टि-बिंदुओं से अखंड रूप में जारी रही।

मैं दुर्गा सप्तशती की वाक् गंगा में अवगाहन कर रहा हूँ। उसका विलक्षण दैवी रूप मन को अपूर्व प्रसन्नता अर्पित करता है। मन की थकान को हरता है। क्षुद्रता को दूर करता है। कल्मष के बीज को नष्ट कर देता है। उदासभाव को समाप्त कर देता है। चैतन्य जगाता है। उन्नतता का प्रकाश फैलाता है। समनुभाव को प्रकटाता है। आप-पर भेद को हटाता है। हे सिंहवाहिनी माँ! मेरी प्रार्थना है कि मेरे अंतःकरण के कालिख भरे कोष में काम-क्रोध के समान व्याघ्र-सिंहों की बस्ती है। हे माँ! तुम वहाँ आकर सिंह पर सवार होना। मुझे यह वाक्शक्ति लगती है। धनलक्ष्मी लगती है। महाकाली तो वह होती ही होती है।

पुराणों में एक कथा आती है। रुद्र के माथे पर ब्रह्महत्या का पातक सवार होता है। रुद्र शिव के हाथों साक्षात् ब्रह्मदेव की हत्या हो जाती है। अब रुद्र के हाथों जगत् की निर्मिति करनेवाले ब्रह्मदेव का सिर है। रुद्र का उन्मत्त नृत्य जारी है। हाथ में ब्रह्मकपाल है। अब वही भिक्षापात्र बन गया है। घर-घर जा शिवजी भिक्षा माँग रहे हैं। वे रुद्र भैरव रूप में हैं। वे महाविष्णु के जगमगाते आँगन में भिक्षा पात्र लिये खड़े हैं। विष्णु के पार्षदों ने उन्हें रोक लिया है। पार्षद का नाम है विश्वक्सेन। रुद्र ने त्रिशूल विश्वक्सेन के गले पर स्थिर किया है। अब उस पार्षद की गरदन रुद्र के त्रिशूल के मध्यवर्ती हिस्से में टँगी है। रुद्र ने अपना भिक्षापात्र सीधे महाविष्णु के सम्मुख धर दिया है। विष्णु ने अपने मस्तक की एक शिरा खींचकर रुद्र के भिक्षापात्र में अर्पित कर दी है। भिक्षापात्र में खून टपक रहा है, फिर भी भिक्षापात्र भरता नहीं है। ब्रह्महत्या का पातक मस्तक पर शाप के समान तिर रहा है। रुद्र विष्णु से पूछ रहे हैं, ‘इस ब्रह्महत्या से बचने के लिए मैं भला कहाँ जाऊँ?. विष्णु का उत्तर है कि वे वाराणसी की राह अपनाएँ। रुद्र की गति बढ़ जाती है। आक्रोश भयंकर हो जाता है। अब रुद्र शिव का कंपन बढ़ता रहता है। हाथ में खप्पर है। मस्तक पर ब्रह्महत्या का जलता शाप है, घाव है। साथ में महाविष्णु हैं। चलते-चलते वाराणसी का सीमा प्रदेश दिखाई देने लगता है।

वाराणसी का पुण्यपावन विस्तीर्ण भू-प्रदेश। इस प्रदेश पर किस-किस की अधिसत्ता स्थापित हुई थी। बौद्धों के मतानुसार रेणु राजा के महागोविंद नामक महामंत्री ने वाराणसी को बसाया। पुराणों के निवेदनानुसार राजा दिवोदास को इस नगरी की निर्मिति का श्रेय जाता है। वाराणसी के पुण्यवान भू-क्षेत्र में महाविष्णु के पीछे-पीछे रुद्र का आगमन होता है। रुद्र के हाथ में जो ब्रह्मकपाल है, वह सहस्र खंडों में बिखर जाता है। सारे खंड एक जलकुंड में समा जाते हैं। यह ब्रह्म कमल बनता है। ब्रह्मकपाल का ब्रह्मकमल बनता है। यही कपालमोचन क्षेत्र है। ब्रह्महत्या इस कुंड में समा जाती है। रुद्र को ब्रह्महत्या के पातक से त्राण मिलता है। पुराण की कथा आगे जारी रहती है। मुझे यह कथा इस बिंदु तक मौल्यवान लगती है।

कथा में आया हुआ ब्रह्महत्या का संदर्भ मुझे अलग कोण से संकेत करते रहता है। रुद्र ब्रह्मदेव की हत्या करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुए। रुद्र का ही तमस तत्त्व आगे चलकर शिव में मांगलिक सत्त्वसंपन्न बनकर शेष बचता है न? ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया। इस सृष्टि से उसकी प्रीत हो गई। यह पिता के लिए सहज घटना थी, लेकिन इस प्रीति का अर्थ वात्सल्य न रहते हुए काम भावना में परिवर्तित हो गया। वाक् उनकी कन्या थी। ब्रह्मदेव साक्षात् उसी पर मोहित हो गए। आसक्ति जागी। इससे शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, साक्षात् जन्मदाता पिता की यह हरकत देखकर वाक् चकित हो गई। वह अपनी जान बचाने के इरादे से दौड़ने लगी। ब्रह्मदेव उसका पीछा कर रहे थे। अपने जन्मदाता को अपने पीछे कामातुर हो दौड़ते देख वाक् शक्ति ने हिरनी का रूप धारण किया। फिर ब्रह्माजी भी हिरन बन उसके पीछे दौड़ने लगे। यह दौड़ अरण्य में गूँज उठी। यह भयंकर दृश्य रुद्र ने देखा। उसके धनुष की प्रत्यंचा तन गई। रुद्र शेर ने मृग रूपी ब्रह्मा का शिकार किया। सृष्टि निर्माता ब्रह्मदेव का मस्तक अधिकार भावना से उन्मत्त हो गया था। अहंकार से त्रस्त हो गया था। रुद्र ने उस मस्तक का भेदन कर डाला था। फिर वाक्शक्ति ने, नाद शक्ति ने रुद्र को नृत्य का अर्थ समझाया। विश्व के पालनकर्ता महाविष्णु ने स्वरक्त से रुद्र का खप्पर भर दिया।

वाराणसी में रुद्र को ब्रह्मदेव के अहंकारी कपाल से मुक्ति मिल गई। महासरस्वती ने शिव के तांडव महानृत्य को अभिनव पदन्यास से अभिमंत्रित किया। यह महासरस्वती। यह विद्या की अधिष्ठात्री देवी। यह सृष्टि निर्माता की मानस कन्या। कामगंध मुक्त साधक पर वह प्रसन्न होती है। शिव मदनहर्ता सिद्ध होते हैं। माँ भगवती, तू ही तो वाक्शक्ति बनकर रुद्र के हाथों बाण सौंपती है न। तू ही तो ब्रह्मद्वेष्टाओं के विरोध में अभियान जगाती है न। अपनी निर्मिति के बारे में अहंकार भाव रखना यही तो है ब्रह्मद्वेष की भावना। अपने ही कोष में बंदिस्त रहनेवाले ही तो ब्रह्म द्वेष करनेवाले हैं। आत्मसंतुष्ट लोग ही तो सही माने में ब्रह्मद्वेष्टा हैं न? अपनी निर्मिति के बारे में अहंभाव, आग्रह और मोह की स्थिति जागना ही तो ब्रह्म का द्वेष करना है न? मोह ही तो है ब्रह्म द्वेष। फिर ब्रह्मा के ध्वस्त हो जाने से क्या होता है? उसकी नश्वर काथा सायंकालीन लालिमा धारण कर लेती है। यह संध्या का समय है। यह ध्यान का समय है। यह आत्मचिंतन का समय है। वाक्शक्ति का यह अभिराम रूप है। यह महासरस्वती की अनोखी पहचान है। ब्रह्म के अहंभाव को, मद को चकनाचूर करनेवाला रूप है यह। कालिदास ने कुमारसंभव के अष्टम सर्ग में सांध्यकालीन समय का वर्णन करते हुए लिखा है कि पश्चिम का आसमान शुष्क सरोवर की तरह दिखाई दे रहा है। एक ओर क्वचित् जल झलक रहा है। यह जल वाक्शक्ति के अस्तित्व की निशानी है। शुष्क सरोवर मानो ध्वस्त ब्रह्मा की निस्पंद काया दुर्गा सप्तशती का घोष मेरे मन के किले के चहुँओर मजबूती से घिरा हुआ है। मातेश्वरी राक्षस समूह को बरजती है, यह कहकर गर्ज-गर्ज क्षण मूढ़ यावत् मधु पिबाम्यहम् मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः अर्थात् हे महामूर्ख! तू क्षणभर गर्जना कर ले, देख रहा है न मेरे हाथों में यह मदिरा भरा चषक। इसमें समाया हुआ है तुम्हारा मद, अहंकार मोह और दंभ। इस रसायन का मैं प्राशन कर रही हूँ। इसे गटकने के बाद मेरे हाथों तुम्हारी मौत निश्चित है। यह सुनकर देवगणों के हर्षोल्लास की शुरुआत होगी। देवसत्ता के अधिराज्य का विलास आरंभ होगा।

तमाम भक्तों को मोहित करनेवाली जगदंबा का यह रूप क्या हिंसक है। क्या यह दुर्गा शस्त्रधारिणी हैं? मुझे तो यह मातृरूपिणी लगती हैं। माँ के हाथों में भी तो संटी होती है न बच्चों को अनुशासित करने के लिए। गलतियों को ठीक करती है। माँ अज्ञान को दूर करती है। इस मंत्र में वर्णित राक्षस मुझे तो कहीं भी नजर नहीं आ रहा है। मेरा ही विकारी मन गरदन झुकाए मेरे सम्मुख खड़ा है। अपराध भाव से वह झुका हुआ है। जगदंबा मुझे ही लक्ष्य कर तो कह रही हैं न कि मैं तेरे ढोंग और दंभ को प्राशन कर रही हूँ, क्या तू अपने आपको विद्वान् समझता है? क्या अपने आपको नियंता मान बैठा है? अभिभावक मानता है, क्या तू अपने आपको, अपने आपको मालिक समझ बैठा है क्या? तू अधिकारों से प्रमत्त हो गया है। मैं तेरे मद को कुचल दूँगी। तुममें बैठे हुए उन्मत्त भैंसे को खड्ग के एक ही प्रहार से छिन्न-विच्छिन्न कर दूँगी। तलवार के एक ही आघात से बेल धराशायी हो जाती है न, उस प्रकार से तेरी आसक्ति की बेल को धरा पर गिरा दूँगी। देख तो तुममें स्थित देवशक्ति किस प्रकार से भयभीत हो गई है? जरा देख तो सही, देवगण कितने भयचकित हो गए हैं? मैं उन्हें भयमुक्त करूँगी। शिव का खप्पर किस प्रकार से भर गया है। जगदंबा का खप्पर मेरे उफनते अहंमद से भर जाए। माँ अहंकार को शमित करती हैं। पाशमुक्त करती हैं। पशुभाव को समाप्त करती हैं। शुंभ यह नियंता भाव है। निशुंभ यह उपभोक्ता भाव है। माता इन दोनों भावों और भावनाओं को समाप्त करती हैं।

मुझे गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय पत्रिका का एक पद स्मरण हो रहा है। प्रसंग राम-रावण युद्ध का है। इस प्रकार के रणवाद्य तो हर एक के मन में गरजते रहते हैं। कौन कहाँ का रावण? कौन रामराजा? कहाँ लंका में स्थापित रणकुंड? कौन इस समरांगण में किससे जूझ रहा है? तुलसी बाबा कहते हैं—

मोह दसमौलि तद्भ्रांत अहंकार पाकरिजित काम विश्रामहारी,

लोभ अतिकाय मत्सर महोदर दुष्ट क्रोध पापिष्ठ बिबुधांतकारी

अर्थात् हमारा अज्ञान ही मोह है, मोह दशानन, अहंकार कुंभकर्ण, काम इंद्रजीत, लोभ, मत्सर और क्रोध रावण दल के सेनाधिपति अतिकाय, महोदर और बिबुधांतक हैं। यम-नियम देवता हैं। मोक्ष का साधन तो रघुनाथ के सैन्य दल के बंदर और रीछ हैं। ज्ञान सुग्रीव है। विरागी भावनाओं का प्रत्यंतर हनुमंत के हृदय में प्रकट हुआ है। माता जगदंबा हरेक के अंतःकरण के रणांगण में जूझनेवाले असुर दल को परास्त कर राम के विजय का पथ प्रशस्त करती हैं।

महालक्ष्मी का जो वर्णन ऋषि-मुनियों ने किया है, वह ‘अनपगामिनीम्’ अर्थात् पैररहित है। लक्ष्मी आर्द्र हैं। स्निग्ध हैं। यह भाव मातृत्व का है। वात्सल्य का है। स्तन्य का है। दुग्धधारा का है, यह है सनातन भाव। इस भावना के ही कारण जगदंबा का महाद्वार सबके लिए खुला है। वह सबको पुष्टी-तुष्टी-संतुष्टी देनेवाला है। धनसत्ता को उत्कांत करनेवाला है। शुद्ध चैतन्य ही महालक्ष्मी का रूप है। महालक्ष्मी सत्त्वसंपन्न हैं। सृष्टि के मूल रहस्य की उद्गात्री हैं, उद्घोषिका हैं। यह है धनलक्ष्मी का रूप। यह असार वस्तु जगत् को सारवान बनाती है। यह मानो मोहिनी मंत्रविद्या है।

हमें महालक्ष्मी चाहिए, लेकिन अलक्ष्मी नहीं चाहिए। भगवान विष्णु ने भी अलक्ष्मी का त्याग करते हुए लक्ष्मी को अपनाया है। कौन है यह अलक्ष्मी? सागर-मंथन हुआ। कालकूट विष प्रकट हुआ। फिर आई अलक्ष्मी, लक्ष्मी नहीं जी, यह ज्येष्ठा भगिनी। लक्ष्मी की बड़ी बहन। बंगाल में आश्विन अमावस्या को गोबर से क्षणिका अलक्ष्मी गढ़ते हैं। लक्ष्मी के ही समान उसकी पूजा कर उसे विसर्जित करते हैं। महाराष्ट्र में इसे, ‘अक्का बाई’ के नाम से जानते हैं। इसका प्रकटीकरण दरिद्रता, दैन्य और आपदारूपी होता है। सागर से ऊपर उठते ही उसने पूछा कि उसके वास्तव्य का स्थान कौन सा है? देव शक्ति बोली, ‘‘सुनो, कोयला, भूसा और बाल जहाँ हैं, वहाँ पर तुम निवास करना।’’ अलक्ष्मी पिपासा-क्षुधा से भरी हुई है। इस अलक्ष्मी से कौन भला विवाह करेगा? पद्मपुराणकार का कथन है कि विष्णुजी ने इसका विवाह उद्दालक नामक एक युवक से करा दिया। लिंगपुराण के अनुसार इसका विवाह दुःसह नामक युवक से हुआ। अलक्ष्मी से विवाह होने के बाद उद्दालक खूब चिढ़ गया। उसके भाग्य में तो यह अलक्ष्मी ही लिखी हुई थी न? अलक्ष्मी को मद्य ही प्रिय है। उसे द्यूतक्रीड़ा में रस है। वह कलहप्रिय है। उसकी भाषा कर्कश एवं कठोर है। आगम और विष्णुपुराण साक्षी हैं कि अलक्ष्मी कृष्णवर्ण, रक्तनेत्र, द्विभुज, लंबी नासिका वाली है। उसके स्तन और पेट बड़े हैं। वह कमल एवं काकध्वज धारण करती है। उसका मुख वृषभाकार है। झाड़ू उसका हथियार है। इस प्रकार की पत्नी से संवाद कर गृहस्थी बसाना उद्दालक के लिए संभव ही नहीं था। आखिरकार थककर उसने एक पीपल के पेड़ तले उसका त्याग कर दिया। तपाचरण हेतु सुदूर अरण्य में चल पड़ा, अलक्ष्मी को उसका स्मरण हुआ, उसकी आँखो में आँसू भर-भर आए, लेकिन उद्दालक तो दूर चला गया था। अब उसे कोई न तो पुकारता था और न कोई बुलाता ही था। न स्वागत न सम्मान। लक्ष्मी को अपनी बड़ी बहन की यह अवस्था जान बहुत दुःख हुआ। उसने एक दिन भगवान् विष्णु से शिकायत की, जिससे भगवान विष्णु सप्ताह में एक दिन कम-से-कम उसे मिल तो लें। उसको सांत्वना तो दें। विष्णु ने यह तय किया। वह दिन था शनिवार का। इससे शनिवार के दिन पीपल की पूजा होती है।

महाविष्णु के प्रति हमारी प्रार्थना के स्वर हों , ‘हे दयाघन परमात्मा! इस अलक्ष्मी को परे धकेल। दूर हटा।’ ऋषि परंपरा ने बड़े ही सार्थक शब्द का प्रयोग किया है, वे लिखते हैं, ‘निर्णुद’, इसका अर्थ यह है कि बिना सोचे-विचारे उच्चाटन कर देना, यह अलक्ष्मी क्या है? अभूति और असमृद्धि है। आलस्य और ऐदीपना है। अकर्मण्यता और अशक्ति है। असंतोष और अतृप्ति है। आत्मरति और आत्मसंतुष्टि है। अज्ञान और अभाव है। कंगाली और उदासीनता है। प्रमाद और निद्रा है। क्षुधा और पिपासा है। हमारी करबद्ध प्रार्थना यह हो कि हे नारायण! मेरी एषणा को दूर कर। वित्तैषणा को हटा। कीर्ति की भूख से बचा। कर्महीनता को दूर धकेल। क्षुधा और पिपासा को अमल बना, मलरहित बना, निर्मल बना, मेरे घर धनलक्ष्मी का वैभव जागे। धान्यलक्ष्मी का निवास हो। धैर्यलक्ष्मी का वास रहे। शौर्यलक्ष्मी का अधिराज्य हो। विद्यालक्ष्मी विराजित हो। विजयलक्ष्मी बसे, राज्यलक्ष्मी का साम्राज्य स्थापित हो, सत्तालक्ष्मी का वैभव सजे, भाग्यलक्ष्मी की जय-जयकार हो। मन के आँगन में शंकराचार्यजी के स्तोत्र का अवतरण उजाले की दीप्ति के समान तैर रहा है।

मायाहस्तेर्पयित्वा भरण कृतिकृते मोहमूलोअवं माँ

मातः कृष्णाभिधाने चिर समय मुदासीनभावं गतासि

कारुण्यैकाधिवासे सकृदपि वदन नक्षसे त्वं मदीयं

तत्सर्वज्ञे न कर्त्तुं प्रभवति यवती किं नु मूलस्य शान्तिम्

माता कृष्णे, सुन मेरा तो जन्म ही मोह के मूल नक्षत्र में हुआ है न और तू मेरा लालन-पालन करने हेतु माया नामक धाय के हाथों सौंप रही हैं न। वह क्या दुग्धपान कराएगी भला? ना, ना, वह तो मीठा जहर ही पिलाएगी न! और हे माते, तुम ऐसी पीठ क्यों मोड़ ले रही हो, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, क्यों कठोर बनी हो मातेश्वरी? तुम तो करुणा की खान हो। भक्त जनों ने तुम्हें इसी नाम से तो पुकारा है न बार-बार। तुम्हारी महिमा तो सभी जानते हैं न माते! और तुम बालक को विमुख क्यों भला कर रही हो? जाने दो, छोड़ो भी माँ, करुणा व्रत के महिमान की बात को छोड़ देते हैं, लेकिन माते! तुम तो सर्वज्ञ हो न। माते! तुम अपने बालक को मूल नक्षत्र के कुप्रभाव से बचाने के लिए जरा भी उपाय नहीं जानती हो क्या माँ?

यह शंकराचार्य का प्रश्न है। यह कैसा अबोध और कैसा प्रबोधशील है? अजान बालक के समान, लेकिन कैसा प्रज्ञासंपन्न, इससे एक महाभाव का प्रकटीकरण हो रहा है। मातेश्वरी, मैं तेरे द्वार पर आकर खड़ा हूँ। तुम्हारे मंदिर के आँगन में नहीं, साक्षात् तुम्हारे द्वार पर, वरदे मुझे क्षमा करना। तमोगुण के प्रभाव के कारण मैं देवशक्ति से बिछड़ गया हूँ, बुद्धि में जड़ता उपज जाए तो मांगलिकता का उदय कैसे हो सकता है? आलसी को लक्ष्मी का पूजन करना कैसे भला संभव है? भीरु मनोवृत्ति वाला भी क्या कभी काली की उपासना कर सकता है? तुम्हारा बालक जड़ता को वरकर क्या कभी माँ सरस्वती की पूजा कर सकता है? मन में लाभ-लोभ की राशि को सँवारकर भी क्या कभी लक्ष्मी का पूजन कर सकता है भला? छाती में भय भरकर भी क्या कभी तेरा बालक महाकाली की वंदना कर सकेगा? वह जड़त्व को दूर हटाएगा। मन के दैन्य भाव को दूर करेगा। चैतन्य का गीत ओठों पर सजाएगा सर्वमंगल की आस मन में जगाएगा, सर्वहित की दिशा में अग्रसर होगा। कर्मपुष्पों से उसकी अंजुलि सदा ही समृद्ध रहेगी। संपूर्ण आत्मीयता से उसका हृदय द्रवित होगा। तब तेरी उपासना का अर्थ और फलितार्थ संपन्न होगा।

कृष्णाबंरी, सरस्वती कॉलोनी
जिला : नंदुरबार, शहादा-४२५४०९ (महाराष्ट्र)
दूरभाष : ०९७६७४८७४८३
विश्वास पाटील

 

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