गुमशुदा की तलाश और 'खात्मा-रिपोर्ट'

गुमशुदा की तलाश और 'खात्मा-रिपोर्ट'

थाने जाने से किसी भी शरीफ का साहस जवाब दे जाता है। फिर वह तो पढ़ा-लिखा है। उसने कई बार पुलिसिया विज्ञापन देखा है, ‘आपकी सेवा में तत्काल, तत्पर और प्रस्तुत।’ यह ‘सेवा’ डंडे से होती है या पैसा वसूल कर। छपे हुए शब्दों में निरक्षर को ऊपरवाले जैसी आस्था है। छपा है तो सच ही होगा। सबसे ज्यादा मंदिर, मसजिद और गुरुद्वारों की परिक्रमा करनेवाले भी यही हैं। साक्षरों में भी आस्था की कमी नहीं है। पर वह प्रभु के द्वार भी स्वार्थवश पधारते हैं। नौकरी है तो प्रमोशन की साध से। बेरोजगार हैं तो सरकारी सेवा में चयन की कामना से।

पुलिस की कमाई अधिकार से चलती है, जैसे धर्मगुरुओं की आश्वासनों की भरमार से। एक का दावा जमीनी सत्ता की दलाली का है, तो दूसरों का अदृश्य आकाशीय शक्ति की ठेकेदारी का। एक के पास शासन द्वारा जारी नियुक्ति-पत्र है तो दूसरे के पास भविष्य बाँचने की तथाकथित सिद्धि। शंकालुओं को दोनों पर संदेह है। वे कहते हैं कि सिर्फ  समाचार ही ‘फेक’ या जाली नहीं होते हैं, कई बार सरकारी आदेश भी। जहाँ तक प्रभु के स्वयं नामित ठेकेदारों का प्रश्न है, उनकी सिद्धियाँ भक्तों का मतिभ्रम है। कुछ अस्फुट मंत्र बुदबुदाकर हाथ से यज्ञ की पवित्र राख निकालते हैं, कुछ काजू-किशमिश। दोनों हाथ की सफाई के परिणाम हैं। यह सिर्फ  विश्वासी मन का दुराग्रह है, जो इन्हें आसमानी ताकतों के अधिकृत राजदूत होने का दर्जा देता है, वरना यह केवल वर्तमान में प्रचलित छल कपट एवं पाखंड के प्रतिनिधि हैं।

रास्ते भर उसके मन में इसी प्रकार के विचार आते-जाते रहे। अचानक उसके अंतर में एक अविश्वसनीय सी कल्पना कौंधी। कहीं यह पूरा थाना ही तो ‘फेक’ नहीं है? क्या पता, सबकी नियुक्ति जालसाजों की साजिश और करतूत का नतीजा न हो? फिर उसे लगा कि जब जीवन ही माया है, दार्शनिकों के अनुसार, तो वह खुद और थाना भी कौन सा अपवाद है? यह सोचकर एकबारगी तो उसका मन उल्टे कदम लौटने का हुआ, फिर उसने स्वयं को आश्वस्त किया कि नश्वर संसार में उसका अस्तित्व तो फिलहाल सच है, थाने का भी होगा। कल किसने देखा है? इस खयाल से उसमें साहस का संचार भी हुआ। जब सब ही भ्रम की चाबी से चलते-फुदकते खिलौने हैं तो एक-दूसरे से खौफ क्या खाना?

जब थाने में दाखिल हुआ तो वह आत्म-विश्वास से लबालब था। वह कोई ऐसा-वैसा नहीं, मुल्क का आयकर-भरता नागरिक है। पूरा थाना उसके ही ऐसे लोगों के अंशदान से चलता है, नहीं तो इनका वेतन, वर्दी, गाड़ी, हथियार आदि कैसे उपलब्ध होते? जनता की मदद करके या अपराधों की रोक-थाम से यह कौन सा एहसान करते हैं, उल्टे यही तो इनका कर्तव्य है। यदि इसमें चूके तो हेल्पलाइन पर इनकी शिकायत भी की जा सकती है। प्रवेश के साथ ही उसके कानों में एक कर्कश आवाज गूँजी, ‘‘क्यों बे, सबेरे-सबेरे कैसे आ टपका?’’ उसने चौंककर आवाज के स्रोत की ओर नजर डाली। मेज पर पाजामा-बनियान पहने, आँख पर चश्मा चढ़ाए, एक सज्जन विराजमान हैं। उसे न उनकी बदतमीजी का संबोधन, न उनकी मेज पर सवारी का राज समझ आया। कौन कहे कि सभ्य बातचीत का यह थानाई अंदाज हो। जैसे दफ्तर में अफसर को गाली देते भी ‘सर’ लगाना प्रचलित है, वैसे ही थाने में ‘क्यों बे’ या माँ-बहन करके आगंतुक का स्वागत!

थानेवालों को पता है कि कोई विवशता में ही थाने का रुख करता है। कौन होगा जो यह सोचने की जुर्रत भी करे कि ‘मैं न आया था, तुम्हारे द्वार, पथ ही मुड़ गया था?’ यहाँ तो प्रवेश करते लोग दस बार अनिर्णय का शिकार होते हैं। जाएँ कि न जाएँ? जब कोई विकल्प नजर नहीं आता तो अंदर कदम रखना ही पड़ता है। ‘क्यों बे’ के बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी और झिझकते हुए बोला, ‘‘एफ.आई.आर. लिखवानी है।’’ बनियान ने अनुमान लगाया, ‘‘क्या घर में चोरी हो गई है या डकैती?’’ उसने इनकार में सिर हिलाया तो बनियान ने कु्रद्ध स्वर में दरयाफ्त किया, ‘‘तो क्या सिर पर आसमान फट पड़ा, जो ऐसे परेशान हो?’’ उसने आने का मकसद बताया तो एक अन्य सिपाही ने उसे टोका, ‘‘लड़की है। किसी दोस्त के साथ मौज-मस्ती को निकल गई होगी। जब जी ऊबेगा तो लौट आएगी।’’ उसने भी उसी स्वर में उत्तर दिया, ‘‘आप प्राथमिकी लिखेंगे कि नहीं, वरना हमें एस.पी. साहब से शिकायत करनी पड़ेगी।’’ बात आगे बढ़ती कि आवाज सुनकर इंस्पैक्टर साहब मूँछों से जैसे चाशनी पोंछते प्रगट हुए। उन्होंने ‘बनियान’ को देखकर निर्देश दिया, ‘क्यों बेकार की बहस कर रहे हैं, मुंशीजी? एफ.आई.आर. लिखिए। किसी पीडि़त से ऐसा व्यवहार उचित नहीं है।’’

बनियान ने मेज से उतरकर पीछे रखी कुरसी पर आसन ग्रहण किया। कागज के नीचे कार्बन लगाकर पहले चश्मा उतारा, फिर उसके लेंस पर मुँह की भाप छोड़ी, तत्पश्चात् बनियान से उसकी सफाई की। तब कहीं जाकर कर्तव्य की औपचारिक शुरुआत करते हुए सवाल दागा, ‘लड़की का नाम क्या है?’, ‘माँ-बाप का नाम, पता’, ‘कब से लापता है?’, ‘किसी पर शक?’, ‘किसी से उसकी दुश्मनी?’ वह जैसे प्रश्नों की मशीनगन चला रहे थे। उन्होंने कलम कागज पर रखने के पूर्व अंतिम फायर किया, ‘लड़की का कोई इश्क-विश्क का चक्कर हो तो बताइए, हम उस कंबख्त लड़के की तलाश कर उसके हाथ-पैर तोड़ देंगे।’

लिखने की श्रम-साध्य प्रक्रिया के पहले वह जैसे थककर सुस्ताने लगे। बमुश्किल, उनके कंठ से स्वर फूटा, ‘चलिए, पास के ढाबे से चाय पी आएँ, तब शुभ काम का श्रीगणेश हो।’ मरता क्या न करता? आगंतुक ढाबे तक उनके साथ गया। मुंशीजी ने परिचित ढाबे से छोले-भठूरे का डटकर सेवन किया। ‘अरे, कुछ मीठा-वीठा है?’ जैसा सवाल उछालकर गुलाबजामुन जपे, साथ आए शिकार को भी चखवाए, यह कहकर कि यह यहाँ का खास मिष्टान्न है। खाते-खाते जब पसीना छलकने लगा तो कोशिश कर, बेमन से, कुरसी छोड़कर उठे और बोले, ‘चला जाए।’ अपनी कुरसी पर धँसते ही जैसे पाचनक्रिया के नशे से उनकी पलकें झुकने लगीं। कुछ अंतराल के पश्चात् नासिका-संगीत की स्वर-लहरी भी गूँज उठी, जैसे खुद पर उनका नियंत्रण विदा होने की स्थिति में हो। उन्होंने तंद्रा में पूरी तरह गुम होते-होते आगंतुक से कल आने का निवेदन किया, ‘‘आपका नमक खाया है, आपसे क्या छिपाना, सबके उसूल होते हैं, हमारे भी हैं। एफ.आई.आर. में सरकारी कागज और समय लगता है। हम फरियादी से इसके पैसे वसूलते हैं। ऐसों की रिपोर्ट हम तत्काल लिखते हैं। आप जैसों के नमक का हक अदा करना हमारा कर्तव्य है। देर-सबेर आप जैसों का काम भी हो ही जाता है। कल इसी समय पधारिए, आपकी प्राथमिकी भी लिख ली जाएगी।’’

थाने से निकलकर पढ़े-लिखे व्यक्ति ने राहत की साँस ली। जेब पर बीती तो पर पूरी तरह कटने से बच गई। मुंशीजी ने नमक खाया जरूर पर उसका हक निभाने की भी बात की। इतना ही क्या कम है, सरकार में अधिकतर तो इसे अधिकार की कमाई समझते हैं। काम हो न हो, पर यह तो दफ्तर की मुँह दिखाई है। बाबू की शक्ल देखने की फीस। सरकार से संपर्क में आने की सजा? आका कहता है कि ‘न खाएगा, न खाने देगा’, पर नैतिकता की नंगई के नायकों के कान नहीं होते हैं। सुनें तो कैसे सुनें? कभी पकड़े गए तो देखा जाएगा। ऐसे वह जानते हैं। हर भ्रष्टाचार-निरोधक संस्था की जाँच का ताला पैसे की कुंजी से खुलता है और बंद भी होता है। वह क्यों चिंतित हों? पढ़े-लिखे व्यक्ति ने समय के इस भ्रष्टकाल में मुंशीजी की ‘ईमानदारी’ से प्रभावित होकर अगले दिन फिर थाने जाने का निर्णय किया। इस बीच उसकी खोजू प्रवृत्ति ने जोर मारा और वह गुमशुदा की तलाश में अखबारों में विज्ञापन देने के लिए निकल पड़ा।

अखबार इधर समाचार से अधिक विज्ञापन के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर इंतजार करते हैं, इसके वाबजूद संबद्ध प्रबंधक ने विज्ञापन तो सहर्ष स्वीकार किया, पर उनसे गुमशुदा का चित्र माँगते हुए यह भी माना कि यदि फोटोग्राफ साथ होता तो खोज में सफलता की संभावना अधिक रहती। ‘‘यदि चित्र सुलभ नहीं है तो प्रयास तो किया ही जा सकता है।’’ विज्ञापनदाता ने प्रबंधक को आश्वस्त किया कि ‘‘लड़की की शक्ल-सूरत में कुछ विशेष नहीं है, वही सामान्य भारतीय के समान नाक-नक्श। दो हाथ, दो पैर, दो आँखें और पाँच फीट, छह-सात इंच की लंबाई, दुबली-पतली, साँवली काया। उसके संवेदनशील, मित-भाषी, शांति-प्रिय स्वभाव वगैरह-वगैरह से तो हम परिचित हैं, पर मजबूर हैं, हमारे पास उसकी कोई तस्वीर नहीं है। कुछ को कैमरे के पास जाने का शौक है, उसे उनसे दूर भागने की आदत। कहीं कोई दिखा भी तो वह उससे बच निकलती। कहती भी थी कि ‘इस नश्वर संसार में फोटो खिंचवा-खिंचवा और छपवा-छपवाकर कोई अमर हुआ है क्या? आत्म-प्रचार से अस्थायी कीर्ति के अलावा और कुछ भी हासिल होना संभव है क्या?’

उसके दृष्टिकोण से कोई कैसे सहमत होता! भौतिक समृद्धि और प्रसिद्धि की पूर्ति कुछ के जीवन का इकलौता लक्ष्य है। वह इसके लिए सब त्यागने को तैयार है। ईमान, इनसाफ, उसूल का मोल ही क्या है? किसी की साध सत्ता से तुष्ट होती है, किसी की धन से, किसी की लेखन के काम और नाम से। वह क्या-क्या नाटक नहीं करते हैं इस महत्त्वाकांक्षा की खातिर? कभी पुरखों की पूँजी भुनाते हैं, कभी भिखारी की मुद्रा अपनाते हैं, कभी सेवक की, कभी आत्मसम्मान बेचकर खुशामद की। दूसरों को जिंदगी के फलसफे का पाठ पढ़ानेवाले दर्शनशास्त्र के विद्वान् भी इसमें कोई पीछे नहीं हैं। इनसे कोई दूसरे की चर्चा भी छेड़ दे तो यह उसकी कलई खोलने को प्रस्तुत हैं। ‘‘आप जानते ही क्या हैं? उसने कुछ मौलिक लिखा है क्या? स्वयं की पी-एच.डी. से लेकर आज तक दूसरों के विचारों और किताबों को अपना बनाकर उसने नाम ही नहीं कमाया है, पहचान बनाने का भी प्रयास किया है। दूसरों से अपने बारे में प्रशंसात्मक लेख लिखवाए हैं और सत्ताधारियों से संपर्क बनाए हैं। कुलपति का पद उसे विद्वत्ता और योग्यता से नहीं, जुगाड़ और दंद-फंद से मिला है। जीवन के मूल्य, सिद्धांत बेचकर पाई ख्याति कब तक चलेगी?’’ वहीं, वह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने से भी नहीं चूकते हैं— ‘‘कुछ है जो श्रम-परिश्रम के कीचड़ में खिले कमल हैं, वहीं कुछ ज्ञान के बगीचे के कैक्टस हैं। इनका एकमात्र गुण इनकी कहीं भी उगने और जमने की क्षमता है।’’ विद्वान् का आशय स्पष्ट है, वह स्वयं कमल हैं, दूसरे कैक्टस।

यों विज्ञापन प्रकाशित होने के बाद भी दो-तीन सप्ताह बीत गए पर कोई सूचना नहीं आई। गुमशुदा की खोज में लगा व्यक्ति कुछ निराश सा होने लगा। पुलिस का रवैया भाँपकर उसे उनसे कोई आशा न थी। यों वह अपना फोन नंबर नमक खाए मुंशीजी को दे आया था। वह चौंक उठा, जब एक दिन मुंशीजी का नाम उसके फोन की स्क्रीन पर अचानक चमकने लगा। मुंशीजी ने औपचारिकता अपनाई। कुशल-क्षेम जानकर उसे केस डायरी सुनाई। ‘‘तफशीश पूरी हो चुकी है और हमारा निष्कर्ष है कि खोई इनसानियत नामक लड़की का कोई सुराग नहीं मिला है। इनसान के नाम का दुमछल्ला लगानेवाले तथाकथित संत के जेल में होने की खबर है। फरियादी ने न गुमशुदा की कोई तसवीर दी, न नाम-पता, जो उसे खोजने में मददगार होता। यों जाँच के दौरान कई आदमियों ने इनसान होने का दावा किया, पर इनसानियत का अता-पता होने से वह मुकर गए। फरियादी ने माता-पिता के नाम के स्थान पर अनाथाश्रम का जिक्र किया है। वह आस-पास अस्तित्व में नहीं है। कम-से-कम हमारी तलाश से यही सिद्ध हुआ है। इसी दौरान हमने युनिवर्सिटी में भी दबिश दी कि कहीं छात्रावास में छिपी हो, तो इनसानियत मिल जाए। इनसानियत का सुराग तो नहीं लगा, पर एक प्राध्यापक ने इतना जरूर बताया कि इनसानियत हर धर्म के मूल में है। इनसान होने का दम भरना व्यर्थ है, जब तक किसी में इनसानियत तत्त्व न हो।

‘‘फिलहाल, हरचंद कोशिश के बाद असफल होकर हम इनसानियत की तलाश के केस में रिपोर्ट-खात्मा लगा रहे हैं।’’

थाने की खोज में इनसानियत न मिलने से वह निराश नहीं हुआ। जिसका अस्तित्व ही थाने में नहीं है, जो उससे परिचिति भी नहीं है, वह भला उसे कैसे तलाश कर पाता? पर विज्ञापन में उत्तर न आने से उसे अफसोस हुआ। कहीं ऐसा तो नहीं है कि संसार में इनसानियत पर ही खात्मा-रिपोर्ट लग गई हो? जाने, भूले-भटके उसके मिलने की आशा भी है कि नहीं?

९/५, राणा प्रताप मार्ग
लखनऊ-२२६००१
दूरभाष : ९४१५३४८४३८
—गोपाल चतुर्वेदी

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