नर्मदापुत्र अमृतलाल वेगड़

नर्मदापुत्र अमृतलाल वेगड़

६ जुलाई, २०१८ को ९० वर्ष की आयु में अमृतलाल वेगड़जी का जबलपुर में निधन हो गया, मध्य प्रदेश के लिए यह अपूरणीय क्षति है। नर्मदा को कला-साहित्य और संस्कृति में पुनर्स्थापन के लिए उनका नाम प्रथम और अमिट है। नर्मदा के प्रति उनका अनुराग उनकी अमरकंटक से भरूच तक की गई यात्राओं से झलकता है। उन्होंने नई पीढ़ी के बीच भी नर्मदा माँ की परंपरा के बीज रोपे, साथ ही प्रकृति संरक्षण का पाठ पढ़ाया। ३ अक्तूबर, १९२८ को जबलपुर में जनमे स्व. वेगड़ ने प्रारंभिक शिक्षा तो जबलपुर में ग्रहण की, पर कला के अध्ययन के लिए वे १९४८ में शांति निकेतन चले गए थे। १९५३ में शांति निकेतन में नंदलाल वसु, विनोद बिहारी मुखर्जी, रामकिंकर बैज जैसे प्रख्यात कलाकारों के सान्निध्य में कला शिक्षा और संस्कार लेकर वापस जबलपुर लौटे। जबलपुर के कला निकेतन संस्थान में शिक्षक और फिर प्राचार्य पद पर भी रहे, इसी दौरान नर्मदा के प्रति आकर्षण और लगाव के चलते उन्होंने अपनी साहित्य और कला साधना नर्मदा को समर्पित कर दी।

स्व. वेगड़ ने १९७७ में ५० वर्ष की आयु में नर्मदा पदयात्रा प्रारंभ की। नर्मदा भारत की एकमात्र ऐसी नदी है, जिसका उद्गम स्थल अमरकंटक से लेकर संगम स्थल भरूच तक दोनों किनारे पर चलते हुए परिक्रमा की जाती है। हर वर्ष हजारों साधु-संन्यासी, गृहस्थ साल भर नर्मदा परिक्रमा पर चलते रहते हैं, जो लगभग २६२४ कि.मी. की होती है। परिक्रमा के कुछ धार्मिक नियम हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। परिक्रमा के समय न्यूनतम सामग्री साथ लेकर चलना प्रमुख नियम है। अमृतलाल वेगड़जी ने अपनी नर्मदा परिक्रमा पदयात्राएँ टुकड़ों-टुकड़ों में पूरी की, जो ८२ वर्ष की उम्र होने तक चलती रही। उन्हीं यात्राओं के दौरान हुए अनुभवों और देखे हुए दृश्यों पर उन्होंने लिखा तथा चित्र बनाए। नर्मदा व उनकी सहायक नदियों की यात्रा के वृत्तांत की तीन पुस्तकें हिंदी के साथ गुजराती, मराठी, बंगाली, अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं में प्रकाशित हुईं।

उन्होंने गुजराती और हिंदी में साहित्यिक अकादमी पुरस्कार, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, शरद जोशी सम्मान के साथ ही राष्ट्रीय स्तर के अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। पदयात्रा से संबंधित उनके चित्रों की प्रदर्शनी मुंबई, कोलकाता सहित देश के विभिन्न शहरों में लगाई गई। वेगड़जी ने नर्मदा के उस स्वरूप का चित्रण और कथन प्रस्तुत किया, जो पुरानी पीढि़यों के हृदय में आज भी बसी है।

अंतिम दिनों में अपनी शेष इच्छाओं में अपने बनाए हुए स्केचों की एक किताब निकालना चाहते थे। शांति निकेतन में पढ़ाई के दौरान नंदलाल वसु, विनोद बिहारी मुकर्जी, रामकिंकर वैज ने अपने हाथों के बनाए हुई कई पोस्टकार्ड वेगढ़जी को उपहारस्वरूप दिए थे। ये सभी स्केच उस बुक में शामिल रहते, जो भारतीय कला की अमूल धरोहर भी है। अमृतलाल वेगड़जी ने गुजरात में छोटी-छोटी हास्यप्रद कहानियाँ लिखी थीं, उन्हें भी वे प्रकाशित कराना चाहते थे।

पर्यावरण के प्रति उनका लगाव कितना गहरा था, यह एक घटना से पता चलता है। अपनी देह छोड़ने के दो दिन पहले उन्होंने अपने बेटे से कहा, मुझे घर ले चलो, मुझे वे नीम के पेड़ देखने हैं, जो मैंने लगाए हैं। उनकी शारीरिक स्थिति एैसी नहीं थी कि उन्हें कहीं ले जाया जा सके, तो बच्चों ने उनके लगाए नीम के पेड़ों की फोटो खींचकर दिखाई, तब उन्हें संतोष हुआ।

वेगड़जी के शब्दों में नर्मदा यात्रा

‘नर्मदा मेरे लिए सम्मोहन की किताब है, जिसे बार-बार पढ़ने का मन करता है। मेरी पहली पदयात्रा १९४७ में और अंतिम २००९ में हुई। ३३ वर्षों के दौरान ४ हजार कि.मी. से अधिक चला। यह मेरी गाढ़ी कमाई है। प्रथम यात्रा के समय ५० का था और अंतिम के समय ८२ का। आज तक उन यात्राओं के बारे में सोचता हूँ, तो खुद हैरान हो उठता हूँ कि इतनी सारी यात्राएँ मैंने कैसे कर लीं। मैं कोई हट्टा-कट्टा सूरमा नहीं, सूखे डंठल सा शरीर है मेरा। फिर भी इतना चला, लेकिन अब और अधिक यात्राएँ करना मेरे लिए संभव नहीं। इस शरीर से मुझे ज्यादा माँग नहीं करनी चाहिए। अपना काम मैं अब युवकों को सौंपता हूँ। नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है। ऐसे कई लोग हैं, जो इन पुस्तकों को पढ़कर नर्मदा की खंड यात्राएँ कर रहे हैं। नर्मदा को संक्षिप्त यात्रा भी स्वीकार्य है। नर्मदा पदयात्राओं में नई कोपलें फूट रही हैं, अब मुरझाए हुए पत्तों को झड़ जाना चाहिए।’

प्रसिद्ध साहित्यकार ज्ञानरंजन का कहना है कि वेगड़जी से मेरी गहरी मित्रता रही। वे मेरे घर पैदल ही आ जाया करते थे, उनके जीवन में सादगी थी। वे साहित्य में यात्रा विधा के अद्भुत रचयिता थे। उन्होंने नर्मदा के सौंदर्य को उकेरा, वह हिंदुस्तान में बहुत लोकप्रिय हुआ। नर्मदा के ट्रेवलाग की पहचान वेगड़जी की ही देन है। उन्होंने अपने जीवन में नर्मदा के सौंदर्य को देखा और उसी जीवन में सौंदर्य से खिलवाड़ होते हुए भी देखी।

अमृतलाल वेगड़ की कला

अमृतलाल वेगड़जी की कला शिक्षा शांति निकेतन ने वाटर कलर और ऑयल कलर के माध्यम से हुई। शिक्षा के बाद वे जबलपुर आकर आर्ट कॉलेज में पढ़ाने लगे। इसी दौरान उन्होंने नर्मदा की पहली यात्रा की। यात्रा के बाद कला में शिक्षित होने की बात जानकर किसी ने उन्हें अपना काम दिखाने के लिए कहा। उन्हीं दिनो उन्हें पेपर कटिंग से नर्मदा परिक्रमा के अनुभव कोलाज बनाने का विचार आया। उन्होंने कुछ कोलाज बनाकर कॉलेज में प्रदर्शित किए, बाद के सालों में उनके बनाए हुए पेपर कटिंग कोलाज उनकी पहचान बने।

‘यह ठीक है कि मैं चित्रकार हूँ और लेखक भी हूँ, लेकिन मैं साधारण चित्रकार हूँ और लेखक भी साधारण ही हूँ। पहले मैं प्रायः सोचता था कि क्या ही अच्छा होता, भगवान् मुझे केवल चित्रकार बनाता, लेकिन उच्च कोटि का चित्रकार। या सिर्फ लेखक बनाता, लेकिन मूर्धन्य कोटि का लेखक। भगवान् ने मुझे आधा इधर और आधा उधर, आधा तीतर आधा बटेर क्यों बनाया। किंतु आज सोचता हूँ कि यदि भगवान् ने मुझे केवल चित्रकार बनाया होता—भले ही श्रेष्ठ चित्रकार, तो नर्मदा के बारे में लिखता कौन? और केवल लेखक बनाया होता, भले ही प्रकांड लेखक, तो नर्मदा के चित्र कौन बनाता? नर्मदा को असाधारण लेखक या असाधारण चित्रकार के बजाय एक ऐसे आदमी की जरूरत थी, जिसमें ये दोनों बातें हों—फिर चाहे वह साधारण ही क्यों न हो।’

वेगड़जी ने बताया था कि प्रकृति और सौंदर्य से प्रेम करने की प्रकृति उन्हेंउनके पिता से मिली थी। अपने चित्र बनाने के लिए वे नर्मदा तट के आस-पास जाते रहते थे। चित्र और स्केच के लिए बेहतर दृश्य की खोज में वे पहले आसपास फिर दूर-दराज के गाँव-देहात तक पहुँचे। इस तरह उन्हें नर्मदा किनारे का सौंदर्य दिखाई दिया। नर्मदा परिक्रमा करते लोग मिले तो परिक्रमा को लेकर जिज्ञासा जागी। ऐसे ही दृश्यों से यह संकल्प दृढ़ हुआ कि नर्मदा की परिक्रमा की जाए। वे अपनी प्रथम पुस्तक ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ में लिखते हैं—‘कभी-कभी मैं अपने आप से पूछता हूँ, यह जोखिम भरी यात्रा मैंने क्यों की? और हर बार मेरा उत्तर होता है अगर मैं यह यात्रा न करता तो मेरा जीवन व्यर्थ जाता। जो जिस काम के लिए बना हो, उसे वह काम करना ही चाहिए और मैं नर्मदा पदयात्रा के लिए बना हूँ। किंतु, जब तक इस सत्य का पता मुझे चलता, मैं ५० के करीब पहुँच चुका था। प्रथम पदयात्रा मैंने १९७७ में की और अंतिम १९८७ में।

शहडोल जिले के निवासी श्री संतोष शुक्ल पिछले १८ वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। आपने स्थानीय चैनल से लोगो को रूबरू करने के बाद ई. टी.वी. न्यूज में काफी अरसे तक रिपोर्टर का काम किया; और आदिवासी बहुल जिले की सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं को सामने लाया। वर्तमान में आप आजतक चैनल के संवाददाता हैं।

‘अगर सौ या दो सौ साल बाद किसी को एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे, पति के हाथ में झाड़ू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फेंकती हो और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों, तो समझ लीजिए कि हम ही हैं—कांता और मैं (वेगड़जी)। कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जन्म में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जन्म से करेंगे।’

वेगड़जी ने बहुत पीड़ा के साथ कहा था, ‘हम हत्यारे हैं, अपनी नदियों के हत्यारे। क्या हाल बना दिया है हमने नदियों का? नर्मदा तट के छोटे-से-छोटे तृण और छोटे-से-छोटे कण न जाने कितने परिव्राजकों, ऋषि-मुनियों और साधु-संतों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहाँ के वनों में अनगिनत ऋषियों के आश्रम रहे होंगे। वहाँ उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा, जीवन-मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही। लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है।’

‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ के कुछ अंश

इस पुस्तक की सबसे बड़ी बात यह है कि यह महज जलधारा की बात नहीं करती, उसके साथ जीवन पाते जीव, वनस्पति, प्रकृति, खेत, पक्षी, इनसान सभी को इसमें गूँथा गया है और बताया गया है कि किस तरह नदी महज एक जल संसाधन नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन से मृत्यु तक का मूल आधार है। इसकी रेत भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी जल धारा और इसमें मछली भी उतनी ही अनिवार्य है, जितना उसके तट पर आनेवाले मवेशियों के खुरों से धरती का मथना।

‘पर अब चलना चाहिए। धूप तेज हो रही है। आगे का मार्ग कठिन है। थोड़ी देर के लिए किनारा छोड़ना होगा। चलते-चलते एक टीले पर आ गए। इस ऊँचे झरोखे से सहस्रधारा के नन्हे-मुन्ने प्रपात एक साथ दिखाई दे रहे थे। नन्हे-मुन्ने क्या, एकदम दुधमुँहे। इनके मुँह से दूध अभी छूटा ही कहाँ! ढालखेड़ा में राघवानंदजी के आश्रम में रहे। यहाँ किसी ने बताया कि नर्मदा में वह जो टापू दिखाई दे रहा है। एक फ्रेंच युगल उसमें छह महीने तक रहा। बरसात में उस तट पर चला गया। कुछ समय पहले फ्रांस लौट गया।

‘ऐसी कौन सी डोर होगी, जो सात समंदर पार के फ्रेंच नौजवान पति-पत्नी को नर्मदा के इस सुनसान टापू में खींच लाई होगी—सौंदर्यपिपासु मन, एकांत साधना की चाह या पश्चिम के आपाधापी से विलग होकर पूर्व की शांति में डुबकी लगाने की प्रबल इच्छा?

‘रात को बाहर खुले में सोए। इस बार की यात्रा में नर्मदा में इतने टापू देखे हैं कि रात को आकाश-गंगा में भी मुझे अनेक टापू दिखाई दिए। सुबह चल दिए। आज दीवाली है। दोपहर तक साटक-संगम पहुँच जाएँगे, वहाँ नर्मदा का प्रसिद्ध खलघाट पुल है। वहीं इस बार की यात्रा समाप्त करेंगे। थोड़ी देर में साटक-संगम पहुँच गए। साटक एक छोटा सा झरना है, लेकिन इसे पार करने में एक नाटक हुआ। साटक में एक नन्हा प्रपात था, उसे देखते हुए मैं पानी में उतरा। उतरते ही काई लगे पत्थर पर से फिसलकर गिरा। किसी तरह उठा कि दुबारा गिरा। साटक ने अपने अंक में मुझे दो बार लिया, इसलिए यह नाटक एकांकी न रहकर द्विअंकी हो गया!

‘पास ही एक मंदिर है। मंदिर की देखभाल एक महाराष्ट्रियन महिला करती है। माता के स्नेह से हमें मंदिर में ठहराया। मैंने कहा, ‘हमारी इस बार की यात्रा यहाँ समाप्त हो रही है। कल सुबह घर लौट जाएँगे। अगले साल फिर यहाँ आएँगे और दशहरे से आगे बढे़ंगे।’

‘आगे शूलपाण की झाड़ी पड़ेगी। उसके बारे में तो आपने सुना ही होगा।’

‘सुना क्यों नहीं! कितने ही परकम्मावासियों से कितनी ही बातें सुनी हैं। झाड़ी में तीर-धनुष लेकर भील आते हैं और सबकुछ लूट लेते हैं। अंत में परकम्मावासी के पास बच जाती है केवल लँगोटी और तूँबी। लेकिन इन्हीं बातों ने हमारे अंदर झाड़ी के प्रति विशेष आकर्षण जगा दिया है। राजघाट (बड़वानी) से झाड़ी शुरू होगी। आपके पास यह जो सामान है न, इसमें से कुछ न बचेगा। कपड़े और चश्मा तक उतार लेंगे।’

‘लँगोटी लगाकर रह लूँगा, लेकिन मेरी स्केच-बुक ले ली, चश्मा ले लिया तो समझिए मेरे कवच-कुंडल ही उतार लिये।’

‘नंगे बदन ठंड कैसे बरदाश्त होगी?’

मुझे कुछ सोच में देखकर उसने कहा, ‘एक काम करो। झाड़ी में से मत जाओ, बाहर-बाहर से निकल जाओ।’

‘नहीं, हरगिज नहीं! झाड़ी में से ही जाएँगे, चाहे जो हो। हाँ, एक काम कर सकते हैं। दीवाली की छुट्टी की बजाय गरमी की छुट्टी में चलें। गरमी में नंग-धडंग रह लेंगे, ठंड बरदाश्त न होगी।’

रात का अँधेरा जल में उतर आया था और काजल-सा काला हो चला था। बिस्तर में पड़ा-पड़ा तारों को निहारता मैं गुनगुना रहा था। जटाजूट बढ़ाएँगे, भिक्षा मागँकर खाएँगे, निर्धन-निर्वस्त्र हो जाएँगे, पर झाड़ी में से जाएँगे!

नर्मदा यात्रा—वेगड़जी के शब्दो में

सन् १९८८ के दौरान मैं १८०० किलोमीटर पैदल चला था। इसका वृत्तांत मैंने अपनी पुस्तक ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’, ‘नर्मदा के किनारे-किनारे’ १९७७ में दिया है। नर्मदा की लंबाई १३१२ किलोमीटर है। दोनों तट मिलाकर परक्म्मावासी (परिक्रमावासी) को २६२४ किमी. चलना चाहिए। मैं १८०० किमी. चला था। किंतु उत्तर तट के अभी ८०० किमी. बाकी रह गए थे। नौ बरस बीत गए। नौ वर्षों के लंबे अंतराल के बाद नर्मदा पदयात्री के रूप में मानो मेरा पुनर्जन्म हुआ। १९९६ से १९९९ के दौरान मैंने नर्मदा के उत्तर तट की बाकी बची परिक्रमा भी पूरी की। उत्तर तट की इन्हीं यात्राओं का वृत्तांत है ‘अमृतस्य नर्मदा’। एक प्रकार से यह उत्तरनर्मदाचरित है।

विशाल आकार की मूर्तियों की ढलाई खंडों में की जाती है। फिर उन्हें सफाई से जोड़ दिया जाता है। मेरे लिए नर्मदा-परिक्रमा के ढाई हजार कि.मी. से अधिक एक साथ चलना संभव नहीं था, इसलिए मैंने ये यात्राएँ खंडों में कीं। टुकड़ों में बँटी इस लंबी यात्रा को मैंने इन किताबों में जोड़ दिया है। वैसे खंड-यात्राओं का यह तरीका मेरे लिए बिल्कुल सही था। घर आकर मैं यात्रा-वृत्तांत लिख लेता, कोलाज बना लेता, विश्राम पाकर तरोताजा हो जाता और आगे की यात्रा के लिए नई शक्ति पा लेता।

इन यात्राओं में मैंने अकूत सौंदर्य बटोरा। उसी को व्यक्त करने का मेरा प्रयास रहा है—कभी रेखाओं में, कभी रंगों में, तो कभी शब्दों में।

नई पीढ़ी के लिए वेगड़जी का संदेश

‘याद रखो, पानी की हर बूँद एक चमत्कार है। हवा के बाद पानी ही मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। किंतु पानी दिन-पर-दिन दुर्लभ होता जा रहा है। नदियाँ सूख रही हैं। उपजाऊ जमीन ढूहों में बदल रही है। आए दिन अकाल पड़ रहे हैं। मुझे खेद है, यह सब मनुष्यों के अविवेकपूर्ण व्यवहार के कारण हो रहा है। अभी भी समय है। वन विनाश बंद करो। बादलों को बरसने दो। नदियों को स्वच्छ रहने दो। केवल मेरे प्रति ही नहीं, समस्त प्रकृति के प्रति प्यार और निष्ठा की भावना रखो। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि मुझे तुमसे बेहद प्यार है। खुश रहो मेरे बच्चो!’

कथावाचक जैसी रोचक शैली में नर्मदा-परिक्रमा के अनुभव वास्तव में साहित्य और पर्यावरण हितैषी समाज की धरोहर है। वेगड़ ने एक मुलाकात में बताया था कि उनके गुरु ने उन्हें कहा था, ‘‘जीवन में सफल मत होना, यह बेहद आसान है। तुम अपने जीवन को सार्थक बनाना।’’ आज जब ९० वर्षीय वेगड़ के अवसान पर यह बात याद करते हैं तो महसूस होता है कि उन्होंने अपने गुरु को सार्थक जीवन की ही गुरु दक्षिणा प्रदान की है। वे बार-बार कहते रहे हैं, ‘‘नर्मदा को समझने-समझाने की मैंने ईमानदार कोशिश की है और मेरी कामना है कि सर्वस्व दूसरों पर लुटाती ऐसी ही कोई नदी हमारे हृदयों में बह सके तो नष्ट होती हमारी सभ्यता और संस्कृति शायद बच सके।’’

उन्होंने अपनी किताब ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ की भूमिका में ही लिखा है—‘‘नर्मदा-तट की भूगोल तेजी से बदल रही है। बरगी बाँध, इंदिरा सागर बाँध और सरदार सरोवर बाँध तथा अन्य बाँधों के कारण अनेक गाँवों का तथा नर्मदा के सैकड़ों किमी. लंबे किनारों का अस्तित्व समाप्त हो गया। जब मैंने ये यात्राएँ की थीं, तब एक भी गाँव डूबा नहीं था। नर्मदा कुछ हद तक वैसी ही थी, जैसी हजारों वर्ष पूर्व थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौंदर्य को मैंने सदा के लिए इन किताबों के पन्नों में सँजोकर रख दिया है। इसमें जो कुछ अच्छा है, वह नर्मदा का है। सौंदर्य उसका, भूल-चूक मेरी।

मेरी इस यात्रा के सौ साल बाद तो क्या २५ साल बाद भी कोई इसकी पुनरावृत्ति नहीं कर सकेगा। २५ साल में नर्मदा पर कई बाँध बन जाएँगे और इसका सैकड़ों मील लंबा तट जलमग्न हो जाएगा। न वे गाँव रहेंगे, न पगडंडियाँ। पिछले २५ हजार वर्षों में नर्मदा-तट का भूगोल जितना नहीं बदला है, उतना आनेवाले २५ वर्षों में बदल जाएगा।

उनकी किताबें और रेखांकन नर्मदा के सौंदर्य को हमें और हमारी आनेवाली पीढि़यों को भी नदियों के प्रति हमारे व्यवहार को सुधारने और उनका निरादर करने से रोकते रहेंगे। उन्होंने कहा था कि जीवन में रोटी से पहले पानी जरूरी है। हमारे लिए पानी का मतलब नर्मदा से है। नर्मदा को हमारी जरूरत नहीं, बल्कि हमें नर्मदा की जरूरत है। नर्मदा किनारे हर शहर-गाँव के गंदे नाले-नालियाँ नदी में मिल रहे हैं, इन्हें रोकना शासन की प्रमुखता में शामिल होना चाहिए। बिना शोधन के नर्मदा में मिल रहा कारखानों का पानी प्रतिबंधित होना चाहिए। नर्मदा का पानी इतना दूषित नहीं है, जितना गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियों का। जैविक गंदगी, जैसे फूल-पत्ती बहाना उतना घातक नहीं है, जितना रसायन उड़ेलना। किसान रासायनिक खाद डालकर खेती को नशेड़ी बना रहे हैं, वहीं यह बरसाती पानी के साथ बहकर नदी को भी प्रदूषित कर रहा है। हमें जैविक खेती की ओर लौटना होगा।

दुबली-पतली काया, करीब पाँच फीट का सामान्य कद-काठी, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा पहने इस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के साथ हजारों किलोमीटर नर्मदा के साथ-साथ पहाड़ों, जंगलों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों को अपने मजबूत इरादों से यात्रा करते हुए इसके अलौकिक सौंदर्य को हमारे सामने रखा है, इसका बड़ा अभिप्राय नदियों के सिर्फ आध्यात्मिक दृष्टि से ही पूजने या सम्मान की पैरवी नहीं करता बल्कि उसे पर्यावरण संपन्न दृष्टि से देखने और बिगड़ते हुए स्वरूप पर गहरी चिंता के साथ उसे बचाने के लिए समाज को सचेत और सजग बनाने की नजर भी साफ है। उन्होंने अपना पूरा जीवन नर्मदा को समर्पित कर दिया था।

नर्मदा समग्र के अध्यक्ष के रूप में वेगड़जी के मार्गदर्शन में हुए कार्य

सन् २००८ में पूर्व केंद्रीय मंत्री नर्मदा प्रेमी पर्यावरणविद् स्व. अनिल माधव दबेजी ने नर्मदा नदी के लिए कुछ काम करने का विचार किया। और ‘नर्मदा समग्र’ नामक संस्था का गठन किया। अमृतलाल वेगड़जी को मार्गदर्शक और पितृपुरुष का स्थान दिया। वेगड़जी ने नर्मदा समग्र संस्था का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। उनके मार्गदर्शन में नर्मदा समग्र ने नर्मदा संरक्षण और संवर्धन के क्षेत्र में पहल करके पूरे देश का ध्यान नर्मदा की वर्तमान स्थिति की ओर खींचा, साथ ही २००८ से २०१८ तक पाँच नदी महोत्सवों का आयोजन कर देश-विदेश में नदियों और पर्यावरण पर कार्य करनेवाले लोगों को एक साथ नर्मदा-तट पर इकट्ठा किया। इन सभी लोगों ने देश-विदेश में नदियों पर हो रहे कार्यों के अनुभवों को आपस में साझा किया और भविष्य में नदियों के लिए क्या किया जाना चाहिए, इसकी योजना बनाई। इन्हीं प्रयासों से लोगों, संस्थाओं और सरकारों का ध्यान नर्मदा की ओर गया, इसके बाद नर्मदा के संरक्षण और संवर्धन के लिए लोगों ने निजी तौर पर कार्य शुरू किया तथा सरकार ने नर्मदा के लिए कई योजनाएँ शुरू कीं।

अमृतलाल वेगड़जी के मार्गदर्शन में नर्मदा समग्र ने पिछले १० वर्षों में नर्मदा संरक्षण और संवर्धन के लिए कई योजनाओं पर कार्य किया।

• देश में नदियों का संरक्षण व संवर्धन आम लोगों का विषय बना।

• पहली बार नदियों पर कार्य कर रहे लोगों से संवाद कर एक मंच उपलब्ध कराया। इन प्रयासों से नर्मदा के किनारे नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए लोगों ने सक्रिय समूह का गठन किया। यह समूह वर्तमान में कार्यरत है।

• नर्मदा समग्र के प्रयासों से नदी जलग्रहण क्षेत्र में वृक्षारोपण की अवधारणा जन-जन तक पहुँची। चुनरी चढ़ाने के स्थान पर हरियाली चुनरी बुनने का भाव विकसित हुआ।

• नदी में मूर्ति विसर्जन के स्थान पर कुंड बनाकर मूर्ति विसर्जन की प्रथा की शुरुआत की, साथ ही पी.ओ.पी. के स्थान पर स्व निर्मित मिट्टी की मूर्ति बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाएँ आयोजित कीं, जिसे लोगों द्वारा सराहा गया।

• २००८ से नर्मदा समग्र ने नदी को उद्गम से संगम तक एक जीवन मान इकाई मानने और उसके अधिकार सुनिश्चित करने का दर्शन दिया, जिसे समाज और सरकारी स्तर पर भी मान्यता मिली।

• नदी के उद्गम से संगम तक स्वास्थ का नियमित परीक्षण और उसके प्रकाशन की पहल, भारत सरकार को नदी आयुर्विज्ञान संस्थान बनाने के लिए परिकल्पना प्रस्तुत की। नदी के जल परीक्षण कार्यक्रम में नदी किनारे से विद्यार्थियों, नर्मदा सेवकों को सहयोगी बनाकर सामाजिक भागीदारी से नदी के जल परीक्षण की पहल की, जिससे समाज में और नई पीढ़ी में जागरूकता बढ़ी।

• देश में नदी या जल नीति की कड़ी को ध्यान में रखकर नदी महोत्सव २०१३ में नदी नीति के लिए आवश्यक व महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को शामिल कर ‘बांद्रामान दृष्टि-पत्र’ का प्रकाशन किया गया, जिसे केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय जल नीति बनाने हेतु चल रही प्रक्रिया में स्वीकार किया गया।

• नदी महोत्सव २०१५ में मध्य प्रदेश की ३१ नदियों का प्रतिनिधित्व रहा। नर्मदा जल ग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक कृषि करनेवाले कृषकों व उपभोक्ताओं के बीच कड़ी का निर्माण हुआ।

• जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चिंता के समाधान हेतु देश भर की संस्थाओं संगठनों विद्वज्जनों धर्मगुरुओं व विशेषज्ञों को एक मंच पर एकत्र कर भारतीय जीवन-दर्शन में उपलब्ध पर्यावरण चिंतन और उसकी वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता पर व्यापक चर्चा व मंथन के लिए मध्य प्रदेश विधानसभा परिसर में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ।

• इस कड़ी में उज्जैन सिंहस्थ के दौरान अंतरराष्ट्रीय वैचारिक महाकुंभ के आयोजन में नर्मदा समग्र की महती भूमिका रही। वैधानिक महाकुंभ में परिपूर्ण मानव जीवन के लिए प्रासंगिक मार्गदर्शी सिद्धांतों को ‘सिंहस्थ २०१६ के सार्व मौन अमृत संदेश’ के रूप में जन-जन तक पहुँचाया।

• नदी महोत्सव २०१८ में सहायक नदियों और परिवेश विषय पर दो दिवसीय विचार मंथन किया गया, जिसमें प्रमुख्यतः नदी किनारे का संभाग, संस्कृति दृष्टि और आजीविका का परस्पर संबंध, नदी का अस्तित्व व जैव विविधता, सहायक नदियों का संरक्षण, नीति नियम व संभावनाएँ आदि विषयों पर बात की गई।

• नदी संरक्षण का अभियान स्कूल/कॉलेज के छात्र-छात्राओं तक पहुँचे, इस दिशा में नर्मदा समग्र ने नर्मदा की पंचकोशी यात्रा को पर्यावरण से जोड़कर पर्यावरण पंचकोशी यात्राओं का आयोजन कर छात्र-छात्राओं की सहभागिता बढ़ाई।

बाणगंगा पेट्रोल पंप के पीछे
शहडोल (म.प्र.)
दूरभाष : ९४२५३३१०४१
संतोष शुक्ला

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