अमरीका में हिंदी की दशा एवं दिशा

अमरीका में हिंदी की दशा एवं दिशा

मैं दिल्ली शहर में पली-बढ़ी, इसलिए हिंदी बोलना स्वाभाविक था, लेकिन हिंदी भाषा के प्रति प्रेम विरासत में मिला। परिवार में हिंदी साहित्य से जुड़े नामों की कमी नहीं थी। प्रोफेसर विजयेंद्र स्नातक को नाना के रूप में पाना मेरा सौभाग्य था। बचपन से उनके निजी पुस्तकालय में छोटी-बड़ी असंख्य किताबों को देखा। माता-पिता दोनों हिंदी के अध्यापक थे, इसलिए कबीर, सूर, रहीम, महादेवी, प्रसाद जैसे नामों की चर्चा भी आए दिन सुनी। सौभाग्यवश हिंदी साहित्य के कई दिग्गजों को घर में आते-जाते भी देखा। यही सब देखकर बचपन से हिंदी पढ़ाने का सपना देखा, जो २००५ में पूरा भी हो गया। दिल्ली के इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय में जब हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाने का अवसर मिला तो हर्ष से फूली न समाई। अप्रैल २००६ में जब मिरांडा हाऊस महाविद्यालय में नौकरी लगी, तब हिंदी कहानी और अनुवाद की कक्षाओं में पढ़ाने में बहुत आनंद आया।

लेकिन इसी बीच जब शादी की बात हुई और शादी के बाद मेरा अमरीका आना तय हुआ तो एक बार तो लगा कि हिंदी से लगाव छोड़ना पड़ेगा। कई लोगों ने कई प्रकार के कोर्स करने का सुझाव दिया। कई सहकर्मियों ने, सहपाठियों ने मजाक भी उड़ाया कि अमरीका में हिंदी का क्या करूँगी! कुछ शुभचिंतकों ने चिंता जताई।

मैंने २००४ में अमरीका में हिंदी का वर्चस्व देखा था। एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में ‘संस्कृत नाटकों की प्रासंगिकता’ पर परचा पढ़ा था, तब हिंदी प्रेमियों की झलक मिली थी। श्री हरि बिंदलजी ने तब अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की जानकारी दी थी और साथ ही दो हिंदी कवि-सम्मेलनों का आयोजन भी किया था। दोनों ही कवि-सम्मेलनों में अमरीका की राजधानी और उसके आसपास रहनेवाले कवि आए थे। भाषा की समझ रखनेवालों की और साहित्य को सराहने वालों की कमी नहीं है, यह समझ आ गई थी। तब मुझे ज्ञात न था कि एक दिन मैं इस हिंदी समिति की सदस्य बनूँगी, पर आज मैं अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति से जुड़ी हूँ और इसके कई कार्यक्रमों में भाग भी लेती रहती हूँ। इसी समिति द्वारा ‘विश्वा’ पत्रिका का प्रकाशन भी होता है।

सन् २००६ में न्यूजर्सी में स्थित हिंदी यू.एस.ए. के संस्थापक दंपती श्रीमती रचिता सिंह और श्री देवेंद्र सिंहजी से मिलना हुआ, जिन्होंने पाँचवें हिंदी महोत्सव में मुझे कवयित्री के रूप में बुलाया। हिंदी का वर्चस्व और उसके प्रति प्रवासी भारतीयों का लगाव देखते ही बनता था। हजारों की संख्या में छोटे-छोटे भारतीय मूल के अमरीकी बच्चे हिंदी बोल रहे थे। मंच पर हर उम्र के बच्चे नाटक, कविता, संगीत, नृत्य आदि हिंदी में ही प्रस्तुत कर रहे थे। मैं मन-ही-मन सोच रही थी कि सरल हिंदीवाली कविता सुनानी होगी या कुछ शब्दों का अनुवाद करना होगा, पर खचाखच भरे भवन में सभी ने भावुक और गहरी कविताओं का स्वागत किया। उसी दिन मैं आश्वस्त हो गई थी कि मुझे हिंदी को त्यागना नहीं होगा, बल्कि नए देश में हिंदी मेरा सहारा बनेगी।

इससे पहले कि मैं अपनी बात करूँ, पाठकों को बता दूँ कि हिंदी-यू.एस.ए. एक नॉन प्रोफिट संस्था है, जिसके बीस से अधिक हिंदी पढ़ानेवाले स्कूल हैं। न्यू जर्सी के स्कूलों में हिंदी को मान्यता दिलाने में इस संस्था का बड़ा योगदान है।

सन् २००७ में शादी के बाद पति के साथ हिंदी का हाथ थामे मैं अमरीका बसने आ गई। हिंदी ने मुझे एक पल के लिए भी अकेला नहीं होने दिया। प्रवासी भारतीयों के लिए मानो बहुत सारी इ-पत्र-पत्रिकाओं ने अपनी बाँहें खोल रखी हैं। विदेश में आने के बाद मैंने भी इ-पत्रिकाओं में अपनी कविताएँ भेजनी आरंभ कीं। सबसे पहले कनाडा की इ-पत्रिका ‘साहित्य कुंज’ ने प्रोत्साहन दिया। उसके बाद ‘विश्वा’, ‘प्रवासी दुनिया’ आदि में मेरी कविताएँ छपने लगीं। उसी वर्ष न्यू जर्सी के षष्ठम हिंदी महोत्सव में भाग लेने का फिर से अवसर मिला। संयोगवश आठवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयॉर्क में हुआ। उस सम्मेलन में विश्व भर से जो हिंदीसेवी आए सो आए, उनसे मेरा मिलना हुआ तथा अमरीका के कोने-कोने में बसे हिंदी प्रेमियों से भी। वहीं मिलना हुआ प्रसिद्ध साहित्यकार व गीतकार पंडित नरेंद्र शर्माजी की सुपुत्री लावण्या शाहजी से, जो स्वयं भी साहित्य से जुड़ी हैं, सुषम बेदीजी, सुनीता जैनजी, गुलाब खंडेलवालजी के परिवार से, रेणु राजवंशी, अनूप भार्गव व उनकी पत्नी रजनी भार्गवजी से। मैं नवविवाहिता, नए शहर में ही नहीं, नए देश में भी थी। मिली तो ऐसे कई प्रवासियों से थी, जो हिंदीसेवा में मग्न हैं, लेकिन सभी के नाम आदि याद न रख सकी। कई नामों का बार-बार उल्लेख सुना, जैसे विजय गंभीर और सुरेंद्र गंभीर, लेकिन मिलना न हो पाया।

कविता, कहानी सुनना-सुनाना कला का हिस्सा है, पर फिर भी आम जिंदगी में ये सब आय का साधन नहीं बन सकते। जब गृहस्थी नई हो तो धनार्जन की चिंता भी काफी होती है। एक बार फिर अमरीका में हिंदी प्रेम को छोड़ने की सलाह मुझे थोक में मिली। चाहे परिवार के लोग हों या पड़ोस के, बूढ़े हों या हमउम्र, सभी ने हिंदी में कविता की तो सराहना की, लेकिन हिंदी को नए घर की बागडोर सँभालने लायक न समझा। हिंदी-प्रेम डगमगाने ही वाला था कि ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ में कार्यरत सुमन गुप्ताजी से मिलना हुआ। पता चला कि हिंदी का रेडियो है, जो केवल शौकिया नहीं, आय का साधन भी हो सकता है। सुमनजी ने मुझे हिंदी को आजीविका का साधन कैसे बनाएँ, इस मूल्यवान जानकारी से अवगत कराया।

इन सभी हिंदी-सेवियों का हिंदी प्रेम इतना अधिक था कि इन्होंने मुझे भी बिना जाने-पहचाने अपना लिया तथा हिंदी के प्रति मेरे लगाव को और गहरा किया। उसी सम्मेलन में पता चला कि अमरीका के हर बड़े शहर में जहाँ भारतीय हैं, वहाँ हिंदी भी है। उन्होंने जानकारी दी कि प्रतिवर्ष अमरीका में हिंदी से जुड़े कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, जिनमें से कवि-सम्मेलन सर्वाधिक पसंद किए जानेवाला कार्यक्रम है। अमरीका में रहनेवाले हिंदी कवियों के दिन-त्योहारों पर तो कवि-सम्मेलन होते ही हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष भारत से कवियों को बुलाया जाता है। कविगण पूरे अमरीका में घूमते हैं, जिनका भरपूर स्वागत किया जाता है।

इस जानकारी से तय हो गया कि हिंदी की कविता अमरीका में जीवित है। धीरे-धीरे मैं भी कवि-सम्मेलनों का हिस्सा होने लगी। जो समाज कविता को समझ सकता है, वह भाषा को अवश्य ही प्यार करेगा। इसी से आप अमरीका में हिंदी भाषा के स्थान का अनुमान लगा सकते हैं।

कविता, कहानी सुनना-सुनाना कला का हिस्सा है, पर फिर भी आम जिंदगी में ये सब आय का साधन नहीं बन सकते। जब गृहस्थी नई हो तो धनार्जन की चिंता भी काफी होती है। एक बार फिर अमरीका में हिंदी प्रेम को छोड़ने की सलाह मुझे थोक में मिली। चाहे परिवार के लोग हों या पड़ोस के, बूढ़े हों या हमउम्र, सभी ने हिंदी में कविता की तो सराहना की, लेकिन हिंदी को नए घर की बागडोर सँभालने लायक न समझा। हिंदी-प्रेम डगमगाने ही वाला था कि ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ में कार्यरत सुमन गुप्ताजी से मिलना हुआ। पता चला कि हिंदी का रेडियो है, जो केवल शौकिया नहीं, आय का साधन भी हो सकता है। सुमनजी ने मुझे हिंदी को आजीविका का साधन कैसे बनाएँ, इस मूल्यवान जानकारी से अवगत कराया।

मुझे तो लगता था कि हिंदी कवि-सम्मेलनों, भारतीय खाद्य पदार्थों और हिंदी सिनेमा तक ही सीमित होगी; लेकिन हिंदी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में अपना बलशाली प्रभाव और स्थान रखती है। हिंदी भाषा तो प्रवासी भारतीयों के कारण अमरीका में फैली हुई है, पर इसके साथ-साथ हिंदी भाषा का पठन-पाठन अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में अमरीका के कई भाषा संस्थानों में किया जाता है। हिंदी के मानक रूप का ज्ञान, बोलचाल की हिंदी का ज्ञान, सभी कुछ तन्मयता से सीखा व सिखाया जाता है। इस बात की जानकारी बहुत कम प्रवासी भारतीयों और स्वदेश में बसे भारतीयों को होती है। अफसोस की बात है कि जिस भाषा को विश्व में इतना सम्मान मिलता है, उस भाषा के मूलभाषी ही उसका सम्मान नहीं करते। कई बार जब मैं यह सब जानकारी हिंदी भाषियों को देती हूँ तो न जाने क्यों, उन्हें गर्व के स्थान पर केवल संदेह या आश्चर्य होता है।

जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं तो साल-दर-साल अमरीका में हिंदी की दशा और दिशा से प्रभावित ही होती रही। अभी मुझे अमरीका में रहते केवल दो साल ही हुए थे कि मेरी नौकरी ऐसे संस्थान में लगी, जहाँ चार हिंदी भाषियों को मिलकर अमरीकी सेना के लिए हिंदी का इ-कोर्स बनाना था। पाठकों को जानकर शायद आश्चर्य हो कि अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी के कई इ-कोर्स यानी ऑनलाइन पढ़ाए जानेवाले कोर्स उपलब्ध हैं। अब तो स्मार्ट फोन पर हिंदी प्रश्नोत्तरी, हिंदी अभिवादन, हिंदी के प्रसिद्ध शब्दों के लिए एपलिकेशन भी हैं।

‘डिफेंस लैंग्वेज इंस्टीट्यूट’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, एक ऐसा संस्थान है, जो अमरीकी जल, थल और नौसेना के अफसरों को अलग-अलग भाषाएँ सिखाता है। अमरीका में इस संस्थान के लिए कई छोटे-बड़े संस्थान कार्य करते हैं। ऐसे ही एक वाशिंगटन डी.सी. के इंटरनेशनल सेंटर फॉर लैंग्वेज स्टडीज में मैंने चार साल लगातार कार्य किया और प्रथमिक से उच्च स्तरीय हिंदी के ऑनलाइन पाठ बनाए। हिंदी के ज्ञान के कारण ही मैं अपने नवजीवन में बराबर का साथ निभा सकी। पति की नौकरी के साथ-साथ मेरी नौकरी ने हमें अपना घर और गाड़ी खरीदने का साहस दिया।

योग और पर्यटन भी हिंदी भाषा को यहाँ बढ़ावा दे रहे हैं। भारत हमेशा से ही पर्यटकों के लिए आकर्षक स्थल रहा है। कई अमरीकी भारत आने से पहले हिंदी सीखना चाहते हैं। २०११ में मुझे वाशिंगटन स्थित अमरीकी सरकार के कॉमर्स विभाग में हिंदी पढ़ाने का सुअवसर मिला। यह कक्षा उन वयस्कों के लिए थी, जो लगातार भारत के साथ व्यापार आदि करते हैं। इन लोगों को हिंदी लिपि की नहीं, पर भारतीय त्योहारों और खान-पान की हिंदी में जानकारी चाहिए थी। सभी छात्र बड़े-बड़े पदों पर थे और हिंदी में नमस्कार से लेकर धन्यवाद बोलने में बहुत आनंद लेते थे।

मुझे हिंदी पर कभी भी संदेह नहीं था, लेकिन आस-पड़ोस के लोगों को बहुत संदेह था। हिंदी को न जाने क्यों, कई लोग शक की नजर से देखते हैं। पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि अमरीका में हिंदी का ज्ञान हमें मनोरंजन और साहित्य की दुनिया के साथ-साथ आजीविका भी दे सकता है। सप्ताह के पाँच दिन मैं वाशिंगटन डी.सी. जाती रही और सप्ताहांत में लगभग छह साल तक एक भारतीय स्कूल में पढ़ाया, जिसका नाम है—इंडिया इंटरनेशनल स्कूल। जब हम अपने देश से दूर होते हैं तो अपने साथ-साथ अपने बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ना चाहते हैं। ऐसे में मैंने अनुभव किया कि अलग-अलग प्रांत से आए हुए भारतीयों को जोड़ती है हिंदी भाषा। भारत से गुजराती, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, बंगाली आदि भाषा बोलनेवाले माता-पिता अपने बच्चों को हिंदी सिखाना चाहते हैं। पूरे अमरीका में जहाँ-जहाँ भारतीय बसे हैं, वहाँ-वहाँ भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देनेवाली छोटी-बड़ी पाठशालाएँ हैं। इनमें भारतीय संगीत, नृत्य, योग आदि के साथ-साथ हिंदी अवश्य सिखाई जाती है। मैंने जिस पाठशाला में कई वर्ष पढ़ाया, वहाँ के संस्थापकों में लेखक व योगाचार्य धनंजय कुमार हैं। प्रमुख अध्यापिकाओं में वाशिंगटन डी.सी. की प्रख्यात कवयित्री मधु महेश्वरी, प्रख्यात रंगकर्मी पुष्पा अग्निहोत्री कई वर्षों से वहाँ अध्यापन कार्य में रत हैं।

देश से बाहर आकर हम भारतीय अपने पड़ोसी देशवासियों के करीब हो जाते हैं। देश का बँटवारा, लाइन ऑफ कंट्रोल की सीमाएँ यहाँ अमरीका में मायने नहीं रखतीं। भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का खान-पान, पहनावा, रिवाज आदि सभी मिलते-जुलते हैं, जिनके कारण हम सब विदेश में एक हो जाते हैं। इसमें भी हिंदी का बहुत बड़ा योगदान है। चाहे भाषाविद् माने या न मानें, हिंदी के प्रति लोगों के प्रेम का श्रेय हिंदी सिनेमा को दिए बिना हम नहीं रह सकते। भारतीय हिंदी फिल्मों का प्रचार अमरीका में बहुत अधिक है। पाकिस्तानी, नेपाली, बांग्लादेशी और श्रीलंकाई मूल के लोगों के विवाह में ६० प्रतिशत हिंदी के गाने ही चलते हैं। केवल फिल्में ही नहीं, हिंदी के केबल चैनल पर प्रसारित होनेवाले हिंदी कार्यक्रम भी यहाँ लोकप्रिय हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के साथ-साथ रूसी, यूरोपीय, अफ्रीकी लोगों में भी भारतीय फिल्में प्रसिद्ध हैं। मेरी एक रूसी सहेली ने बाताया कि उसकी मनपसंद फिल्म ‘सीता-गीता’ है। वह राजकपूर और मिथुन की फिल्मों की बात अकसर किया करती है। उसे ऐश्वर्या रॉय खासी पसंद है।

वर्ष २००९ में मैंने एक अनोखी वर्कशॉप (स्टारटॉक वर्कशॉप) में भाग लिया। अनोखी इसलिए, क्योंकि इसमें हमें सिखाया गया कि हिंदी को एक विदेशी भाषा के रूप में कैसे पढ़ाया जा सकता है। जब भाषा की बारीकियों के बारे में जाना और भाषा के सामान्य प्रयोग से जुड़े सवालों से जूझना पड़ा तो साहित्य पढ़ाना प्राथमिक हिंदी पढ़ाने से सरल लगा। यह वर्कशॉप न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में हुई, तभी पता चला कि मिडल ईस्टर्न एंड इसलामिक स्टडीज विभाग के तहत न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में हिंदी और उर्दू पढ़ाई जाती हैं। इस विभाग की मुख्य प्रोफेसर गेब्रीएला निक मूलतः बल्गेरियन महिला हैं, जो हिंदीसेवी हैं। गेब्रीएलाजी को २०१७ में श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा हिंदी सेवी सम्मान से सम्मानित किया गया था। इन्हीं के संपर्क में आकर पता चला कि हिंदी को आधुनिक तरीकों से कैसे पढ़ाना चाहिए।

कई वर्षों से अमरीका में हूँ, इसलिए भारत में हिंदी पढ़ाने के तरीकों के विषय में अधिक जानकारी नहीं रखती। लेकिन अमरीका के सबसे बड़े शहर में स्थित विश्वविद्यालय ने मेरे जैसे कई हिंदी अध्यापकों को तकनीक एवं आधुनिक सोच के साथ हिंदी पढ़ाने के तरीके सिखाए। इसी वर्कशॉप द्वारा पता लगा कि केवल न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय ही नहीं, बल्कि अमरीका के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। कुछ विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों से मेरा मिलना निजी तौर पर हुआ। टेक्सास विश्वविद्यालय के जिश्नू शंकरजी, (टेक्सास विश्वविद्यालय ने हिंदी-उर्दू फ्लैगशिप कार्यक्रम चलाया है, जो यहाँ भाषा सीखनेवालों में प्रसिद्ध है।) कोलंबिया विश्वविद्यालय की सुषम बेदी (सुषम बेदीजी को साहित्य से जुड़े जन तो जानते ही हैं, साथ ही सुषमजी हिंदी टेस्टिंग की भी ट्रेनिंग देती हैं।) कॉरनेल विश्वविद्यालय की सुजाता सिंहजी, जिनके साथ २०११ में मुझे रहने का और सीखने का अवसर मिला। येल विश्वविद्यालय की सीमा खुराना और स्वप्नाजी। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की बिंदेश्वरी अग्रवाल और रजनी भार्गवजी से भी बहुत कुछ सीखने को मिला।

इसके अतिरिक्त कुछ और विश्वविद्यालयों में हिंदी की चहलकदमी के किस्से भी सुने। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, पैनसिलवेनिया विश्वविद्यालय, शिकागो विश्वविद्यालय, प्रिंसटन विश्वविद्यालय और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। सभी विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक हिंदी सेवा में संलग्न हैं और उसे संस्कृति से जोड़ते हुए आधुनिक रूप प्रदान कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त कई अमरीकी महाविद्यालयों में भाषा विभाग के अंतर्गत हिंदी अध्यापन भी होता है। जिनमें से मोंटगमरी महाविद्यालय में आजकल मैं हिंदी पढ़ा रही हूँ।

कोई भी भाषा सीखना सरल नहीं है, फिर भी हिंदी को विदेशी भाषा की तरह बहुत से लोग सीखना चाहते हैं; यही हिंदी के वर्चस्व का बखान करती है। आप यह न समझें कि अमरीका में हिंदी पढ़ने-पढ़ानेवाले केवल अध्यापकगण हैं। मेरी तरह भारत में हिंदी शिक्षक रहे बहुत कम लोग हैं। यहाँ हिंदी का आकर्षण कुछ ऐसा है कि पेशे से वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, सी.ए. आदि सभी हिंदी को बढ़ावा देने के लिए एकजुट हैं।

मैंने यहाँ रहकर कुछ ऐसे भी लोगों को जाना, जिन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अपनी लगी लगाई नौकरी छोड़ दी। २०११ में जब मैंने पुनः स्टारटॉक वर्कशॉप की, तब कैलीफोर्निया स्थित अंशु जैनजी से मेरा मिलना हुआ। वे पेशे से इंजीनियर हैं, लेकिन अमेरिका में रहकर अपने बच्चों को हिंदी सिखाते हुए उन्हें अपना दायित्व लगा कि वे नई सोच से हिंदी सिखाने का कार्य करें। उन्होंने हिंदी पढ़ाने में तकनीकी जानकारी का सहारा लिया। आज कैलीफोर्निया में ‘इंडस हेरीटेज सेंटर’ की कई शाखाएँ हैं, जो मुख्यतः बच्चों को हिंदी सिखाती हैं। साथ ही अमरीका और अन्य देशों में भी अंशुजी और उनके द्वारा नियुक्त अन्य हिंदी अध्यापक वयस्कों और बच्चों को ऑनलाइन हिंदी सिखाते हैं।

योग और पर्यटन भी हिंदी भाषा को यहाँ बढ़ावा दे रहे हैं। भारत हमेशा से ही पर्यटकों के लिए आकर्षक स्थल रहा है। कई अमरीकी भारत आने से पहले हिंदी सीखना चाहते हैं। २०११ में मुझे वाशिंगटन स्थित अमरीकी सरकार के कॉमर्स विभाग में हिंदी पढ़ाने का सुअवसर मिला। यह कक्षा उन वयस्कों के लिए थी, जो लगातार भारत के साथ व्यापार आदि करते हैं। इन लोगों को हिंदी लिपि की नहीं, पर भारतीय त्योहारों और खान-पान की हिंदी में जानकारी चाहिए थी। सभी छात्र बड़े-बड़े पदों पर थे और हिंदी में नमस्कार से लेकर धन्यवाद बोलने में बहुत आनंद लेते थे।

वर्ष २०१३ में मैंने वाशिंगटन डी.सी. स्थित मिडल ईस्टर्न साउथ एशियन लैंग्वेज इंस्टीट्यूट में सायंकाल कक्षा में पढ़ाया, जहाँ सभी विद्यार्थी अपनी नौकरी के बाद पढ़ने आते थे। अधिकांश छात्र २५ से ३५ वर्ष के बीच के थे। उनसे पता चला कि हिंदी सीखने का कारण प्रेम भी हो सकता है। कई भारतीय मूल के लोगों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं पीढ़ी यहीं बड़ी हो रही है। तीसरी-चौथी पीढ़ी के लोगों में प्रेम-विवाह सामान्य बात है, इसलिए इस कक्षा में मुझे अधिकांश छात्र ऐसे मिले, जो अपने साथी के परिवारवालों को खुश करने के लिए हिंदी सीखना चाहते थे।

हिंदी का वर्चस्व इतना बढ़ रहा है कि आए दिन हिंदी भाषा जाननेवालों के लिए नौकरियाँ बन रही हैं। बहुत से सरकारी दफ्तरों में हिंदी का एक इम्तिहान पास करने पर पदोन्नति मिलती है। अस्पतालों में, कचहरियों में, हवाई अड्डों पर, यहाँ तक कि कई मेक डॉनल्ड जैसे रेस्टोरेंट में भी हिंदी जाननेवालों की माँग है।

मुझे बचपन से बताया गया है कि सोच को सकारात्मक रखना चाहिए, इसीलिए मैंने हिंदी के उज्ज्वल पहलुओं की बात पहले की है। ऐसा नहीं है कि हर जगह गुलाब-ही-गुलाब खिले हैं। हिंदी के भविष्य को लेकर कई प्रकार की चिंताएँ भी हैं। सबसे बड़ी चिंता है लिपि की। नए बच्चे हिंदी लिखने से कतराते हैं। बोलना, सुनना और पढ़ना सभी को ठीक लगता है। मेरे अधिकांश छात्र हिंदी बखूबी पढ़ लेते हैं, पर लिखने में उनकी हिचक स्पष्ट नजर आती है। स्मार्ट फोन में हिंदी लिपि आने से इस हिचक में बदलाव आना आरंभ हुआ है। हिंदीवालों को तकनीक से जुड़ने की आवश्यकता है। हिंदी अपने आप में सशक्त है, आवश्यकता है इस पर भरोसा करने की। हिंदी भाषा में तो कोई कमी मुझे नहीं दिखाई देती, लेकिन हिंदी भाषियों में बहुत बड़ी कमी है। हिंदी भाषी चाहे अमरीका में हों या स्वदेश में, अपनी भाषा का सम्मान नहीं करते। दूसरी भाषाएँ सीखना अच्छी बात है, पर अपनी भाषा का निरादर करना ठीक नहीं है।

प्रवासी भारतीयों में कई ऐसे लोग हैं, जो स्वयं हिंदी का पठन-पाठन करते हैं। दुनिया में हिंदी का परचम फैलाने की घोषणा भी बार-बार करते हैं, लेकिन अपने परिवार में, अपने बच्चों को हिंदी नहीं सिखा पाते। मेरे कई शिष्यों के माता-पिता बच्चों को हिंदी सिखाना चाहते हैं, पर घर पर हिंदी में बात नहीं करते। वैसा ही वातावरण मैं जब-जब दिल्ली जाती हूँ तो देखती हूँ। बच्चे घर में, स्कूल में केवल अंग्रेजी में बोलते हैं। अपनी भाषा को छोड़ दूसरी भाषा के पीछे भागना बताता है कि कहीं-न-कहीं आज भी हम मन से अंग्रेजों के पराधीन हैं।

मैं फिर भी आशावान हूँ कि मेरी हिंदी, हम सबकी हिंदी का भविष्य उज्ज्वल ही है। मैंने इसका वर्चस्व अमरीका में देखा है। प्रतिवर्ष मैं ५-६ हिंदी काव्य गोष्ठियों में भाग लेती हूँ। कम-से-कम दो या तीन हिंदी के नाटक देखती हूँ, जिनमें एक भी सीट खाली नहीं रहती। ४-५ हिंदी फिल्में सिनेमाघर में देखती हूँ, जो खचाखच भरे होते हैं। अमरीका से निकलनेवाली कई हिंदी की इ-पत्रिकाएँ पढ़ती हूँ और उनमें योगदान भी देती हूँ।

जिन्होंने मुझे हिंदी-प्रेम त्यागने की सलाह कई बार दी थी, उन सभी को बताना चाहती हूँ कि विदेश में हिंदी मेरी सखी की तरह है, जिसने मेरा हाथ कसकर थामे रखा। मैं आशावान हूँ और आप सभी से आग्रह करती हूँ कि हिंदी के लिए शंकित न हों। अपने बच्चों को हिंदी के प्रति उदासीन न होने दें। हिंदी में पत्रकारिता, अभिनय हिंदी की जानकारी के साथ सीक्रेट सर्विस आदि हर जगह लाभ होता है।

हर भाषा में इतिहास छिपा होता है। हिंदी हमारी संस्कृति का हिस्सा है। जितना विदेश में सहेजने की आवश्यकता है, उतना ही देश में सँवारने की भी। अन्य भाषाएँ सीखिए, लेकिन हिंदी से मुँह न फेरिए। कभी अमरीका आएँ तो ‘नमस्ते’ की ताकत को स्वयं अनुभव कीजिए। मैं तो पिछले ११ वर्षों से अनुभव कर रही हूँ और इसी अनुभव से कह सकती हूँ कि हिंदी की दशा और दिशा अमरीका में आशावान है।

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आस्था नवल

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