प्रादेशिक भाषाओं की पालना हिंदी से ही संभव

प्रादेशिक भाषाओं की पालना हिंदी से ही संभव

मुझको बहुत लोग जानते हैं कि मैं वाचाल हूँ, लेकिन मुझको जब काम पड़ता है तो मैं देखता हूँ कि मेरी वाणी रुक जाती है। यही दशा इस समय मेरी हो रही है। प्रथम तो जो अनुग्रह और आदर आप लोगों ने मेरा किया है, उसके भार से ही मैं दब रहा हूँ, इसके उपरांत मेरे प्रिय मित्रों और पूज्य विद्वानो ने जिन शब्दों में मेरे सभापतित्व का प्रस्ताव किया है, उसने मेरे थोडे़ से सामर्थ्य को और भी कम कर दिया है। सज्जनों, मैं अपने को बहुत बड़भागी समझता, यदि मैं उन प्रशंसा-वाक्यों के सौवें हिस्से का भी अपने को पात्र समझता, जो इस समय इन सज्जनों ने मेरे विषय में कहे हैं। हाँ, एक अंश में मैं बड़भागी अवश्य हूँ। गुण न रहने पर भी मैं आपकी मंडली में गुणी के सम्मान पाता हूँ। इसी के साथ मुझको खेद होता है कि इतने योग्य और विद्वानों के रहते हुए भी मैं इस पद के लिए चुना गया। फिर भी मैं आपके इस सम्मान का धन्यवाद करता हूँ, जो आपने मेरा किया है। मेरा चित्त कहता है कि इस स्थान में उपस्थित होने के लिए हमारे हिंदी संसार में अनेक विद्वान् थे और हैं, जिनमें कुछ यहाँ भी उपस्थित हैं और जिनको यदि आप इस कार्य में संयुक्त करते तो अच्छा होता और कार्य में सफलता तथा शोभा होती। अस्तु, बड़ों से एक उपदेश मैंने सीखा है। वह यह है कि अपनी बुद्धि में जो आवे, उसे निवेदन कर देना। मित्रों की आज्ञा, मित्रों की मंडली की आज्ञा-पालन करना मैं अपना परम धर्म समझता हूँ। अनुरोध होने पर अंत में मैंने अपने प्यारे मित्रों से प्रेमपूर्वक निवेदन किया कि साहित्य-सम्मेलन, जिसका सभापति होने का सौभाग्य मुझे प्रदान किया गया है, उसके कर्तव्य का पालन मेरा परम धर्म है। मैं आपसे दूर रहता हूँ तो भी मैं कदाचित् निर्भय कह सकता हूँ कि हिंदी साहित्य का रसपान करने में मुझको अन्य मित्रों की अपेक्षा कम स्वाद नहीं मिलता। उसके स्वाद लेने में मैं अपने किसी मित्र से पीछे नहीं हूँ। किंतु अनेक कामों में रुका रहने के कारण मैं आपके बाहरी कामों का करनेवाला सेवक हूँ। इस काम के लिए मैं अपने को कदापि योग्य नहीं समझता हूँ और इस अवसर पर मैं जिसमें आपको पूर्व उन्नति के दृश्यों को देखना चाहिए था, जिसमें हिंदी की भावी उन्नति का पथ प्रशस्त करना चाहिए था, किसी और ही मनुष्य को इस स्थान पर बैठना चाहिए था, इसके योग्य मैं किसी प्रकार नहीं। अब यदि मैं इस स्थान में आकर आपकी आज्ञा पालन करने का यत्न न करूँ तो उससे अपरोध होता है। केवल इसी कारण मैं इस सम्मान का धन्यवाद देता हूँ और इस समय इस स्थान में आप लोगों की सेवा करने को तैयार हुआ हूँ।

हिंदी साहित्य-सम्मेलन के विषय में जो मतभेद हो रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं, उसे स्वीकार करना चाहिए। हठधर्मी अच्छी नहीं। अनेक विद्वानों के मत से यह समय सम्मेलन के लिए उपयुक्त नहीं। नवरात्र दुर्गादेवी के पूजन का समय है, नवरात्र में सरस्वती शयन करती हैं। प्राचीन रीति के अनुसार तीन दिन सरस्वती शयन के दिन हैं। यह नियम आर्यजाति ने इसलिए रखा कि तीन सौ सत्तावन दिन संसार के व्यवहार करो, अपने मस्तिष्क को पीड़ा दे लो, किंतु जाति की रक्षा के लिए इन तीन दिनों में लेखनी मत उठाओ, पत्रा मत पढ़ो, इन दिनों सरस्वती शयन करती हैं। ऐसे समय में मेरे मित्रों ने आप महाशयों को इधर-उधर से खींचकर बुलाया है और इसके लिए मेरी बुद्धि में आता है कि मुझको आपके सामने उनकी ओर से उत्तर देना चाहिए। मैं इतना ही कहूँगा कि जितना मतभेद हो, उसे आपको स्वीकार करना चाहिए और जिन लोगों का मत नहीं मिलता, उनके मत का आदर करके उनसे यही कहना चाहिए कि अब से यह समय उन्नति का होगा।

इसके विचार में यह मेरी बुद्धि में आता है कि हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के लिए यह समय बहुत ही उपयुक्त है। हिंदी की दशा इस समय शोचनीय हो रही है। हिंदी साहित्य के इस शयन की अवस्था में सरस्वती शयन कैसा? इस ध्यान से हमारे हिंदी-प्रेमियों में बहुत से लोगों का यदि यह विचार है कि सरस्वती शयन कर रही हैं तो इसमें क्या होता है? हम लोग इस सम्मेलन में उपयुक्त यत्न कर सरस्वती को जगाएँ। बात भी ऐसी ही है। जहाँ रात होती है, वहीं सूर्यनारायण की लालिमा दिखाई देती है। रात के अंधकार के पश्चात् प्रातःकाल होता है तो उसको देखना अच्छा लगता है। ऐसी अवस्था में इस सरस्वती शयन का समय मुझको आशा देता है कि हिंदी भाषा के शयन के समय में जब साहित्य-सम्मेलन होता है, तब इस सरस्वती शयन के समय के उपरांत जैसे विजयादशमी का दिन आता है, वैसे ही मुझको विश्वास है कि सोई हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य के जागने का समय निकट है। प्राचीन समय से लोग दुर्गा अष्टमी में विद्या की वृद्धि के लिए देवी की उपासना करते आते हैं। जिस तरह पहले, उसी तरह आज भी हिंदुस्तान में हिमालय के ऊँचे शिखर से लंका के छोर तक सहस्रों-करोड़ों हमारे भाई इस नवरात्र में दुर्गाजी की स्तुति करते हैं। एक ही विद्या है, एक ही भाव है, केवल भाषा इसे पृथक् करती है। तो इससे क्या हो सकता है? जब हम अपनी भाषा के साहित्य की उन्नति के दुःख में पडे़ हुए हैं, तब हमें क्या उचित नहीं कि इसकी उन्नति के लिए सब तरह के यत्न करें और उनके फल उपलब्ध कर उनका प्रकाश करें?

मुझे आशा और विश्वास है कि आपके चित्त में मेरी बातें आ गई होंगी। और बातों में यह बात भी मुझे निवेदन करनी है कि इसके उपरांत विजयादशमी का दिन आता है। यह विजयादशमी वही विजयादशमी है, जिसमें भगवान् रामचंद्रजी ने राक्षसों का नाश करके देश में फिर से सुख-शांति की मंदाकिनी बहाई थी। यह वही विजयादशमी है, जिसकी गूँज आज भी हिंदुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक सुनाई पड़ती है, जिसकी प्रतिभा का अनुकरण आज भी हिंदुस्तान के नगर-नगर में लीलाओं द्वारा किया जाता है। देशी राज्यों में उसका अनुकरण किया जाता है, जो कुछ पहले होता था, वही आज भी हो रहा है। पुराने समय में भगवान् रामचंद्रजी ने जो किया, अब वह देशी राज्यों में होता है। वही मारू बाजा बजता है, वही आर्यों के राजा-मजाराजाओं के विजय का डंका बजता है। अब विजय नहीं है, उनका शब्द है, उसे तो सुन लीजिए। आज भी केसरिया जामा पहने राजे-महाराजे अपने-अपने गढ़ों से निकलते हैं। शक्ति के बढ़ाने में आज भी इस समय की प्रतिभा आपको दिखाई देती है। शक्ति ही ने यह बातें कीं और मेरे दुर्बल शरीर और चित्त में बल का संचार किया। मैं आशा करता हूँ कि मेरे और भाइयों के चित्त में भी इसी तरह बल का संचार हुआ होगा। हम सब यही आशा करते हैं कि संकट के समय में बडे़ कार्य हो जाते हैं और इस दृष्टि से जो कुछ भूल-चूक हुई हो, उसको भुलाकर एक स्वर से, एक उद्देश्य से, हिंदी की उन्नति के विचार से सम्मेलन होना चाहिए।

सम्मेलन का उद्देश्य

सम्मेलन हुआ है सम्मेलन के लिए। इसमें विजयादशमी का उत्सव मनाने का कुछ प्रयोजन नहीं। इन दिनों जितनी लीलाएँ होती हैं, उनका उद्देश्य यही है कि एक दिन भारतवर्ष में ऐसा था कि विजय का डंका बजता था। इस दशहरे में इस सम्मेलन का भी यही उद्देश्य है और बहुत कुछ संभावना इस बात की होती है कि कोई रोग इस देश में आ गया हो तो सब एकत्र हो उसे मिटाने का प्रयत्न करें। गाँव-गाँव और जिले-जिले के लोग एक स्थान में बैठकर परामर्श करें कि किस प्रकार ऐसी बला टल सकती है। दूसरा सम्मेलन इस श्रेणी का होता है कि काम चल रहा है, लेकिन अच्छी तरह नहीं चल रहा है, इसलिए यद्यपि कुछ संतोष का विषय है तथापि विशेष रूप से एकत्र होकर इस बात का विचार किया जाता है कि कार्य कैसे चले। मेरी बुद्धि में तो हिंदी का ऐसा सौभाग्य नहीं है। हम लोग वर्तमान समय में जो मिले हैं, वह इस दूसरी श्रेणी का सम्मेलन है। कुछ लोगों के मत में हमारी उन्नति कुछ भी संतोषजनक नहीं है। अन्य लोगों के विचार ऐसे हैं कि यह कहना ठीक नहीं है। फिर भी प्रत्येक दशा में यह सम्मेलन आवश्यक हो गया है। यह आवश्यक है कि हम पहले हिंदी की दशा विचारें। किंतु इससे पहले कि हम इस बात का विचार करें, हमारे एक मित्र ने प्रश्न किया है कि पहले यह तो बताइए कि हिंदी है क्या? यह बड़ा टेढ़ा प्रश्न उठा है कि हिंदी क्या है ऐसी दशा में पहले मैं इसी को लेता हूँ। मुझको दुःख है कि मैं न संस्कृत का ऐसा विद्वान् हूँ कि इस विषय में प्रमाण के साथ कह सकूँ, न भाषा का ऐसा विद्वान् हूँ कि जब प्रमाण की रीति से कोई कुछ न कह सके तो उसका धर्म है कि वह अपने विचारों को उपस्थित करके जो प्रमाण दे सकता हो, उन्हीं को दे।

हिंदी के विषय में बहुत सा विवाद है। हिंदी के संबंध मैं हमारे देश के लिखनेवालों में जो हुए तो हुए ही हैं, हमारे यूरोपियन लिखनेवालों में विलायत के डॉक्टर ग्रियर्सन एक बड़़े शिरोमणि हैं। आपने हिंदी की बड़ी सेवा की है, हिंदी सन् १८०३ के लगभग लल्लूलालजी से लिखवाई गई। और भी लोगों ने इसी प्रकार की बात कही है। जो विदेशी हिंदी के विद्वान् हैं, वे तो यही कहते आए हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं है। इस भाषा का नाम उर्दू है। इसी का नाम हिंदुस्तानी है। ये लोग यह सब कहेंगे, किंतु यह न कहेंगे कि यह भाषा हिंदी है। विचार की बात है। सज्जनो! ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित कितने ही अंग्रेज अफसरों ने मुझसे पूछा था कि हिंदी क्या है? इस प्रांत की भाषा तो हिंदुस्तानी है। मैं यह प्रश्न सुनकर दंग रह गया। समझाने से जब उन्होंने स्वीकार नहीं किया तब मैंने कहा कि जिस भाषा को आप हिंदुस्तानी कहते हैं, वही हिंदी है। अब आप कहेंगे कि इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ यह है कि न हमारी कही आप मानें, न उनकी कही हम। इसमें न्यायपूर्वक विचार कीजिए। डॉक्टर ग्रियर्सन का क्या कहना है? मैं उनका सम्मान करता हूँ, किंतु उनकी बात पर न जाकर हमें यह देखना चाहिए कि यथार्थ तत्त्व क्या है। यहाँ इस मंडली में बडे़-बडे़ विद्वान् और विचारवान पुरुष हैं। वे इस अच्छी रीति से कह सकेंगे। इसके विचारने में हमको अपने विचारों का दिग्दर्शन करना चाहिए। इसमें बहुत-कुछ अंतर हो सकता है। किंतु मूल में कोई अंतर हो नहीं सकता। हिंदी भाषा के संबंध में विचार करते हुए सबसे पहले संस्कृत की आकृति एक बार ध्यान में लाइए, इसके हिंदी भाषा को आकृति को ध्यान में लाइए। पीछे आप विचारिए कि हिंदी कौन भाषा है और उसकी उत्पत्ति कहाँ से है? संस्कृत की जितनी बेटियाँ हैं उनमें कौन सी बड़ी बेटी है। संस्कृत की बेटियों में हिंदी का कौन सा पद है। इसका संस्कृत से क्या संबंध है? संस्कृत, जैसा कि शब्द कहता है, नियमों से बाँध दी गई है। जो व्यर्थ बातें थीं, वे निकाली गईं, अच्छी-अच्छी बातें रखी गईं, नियमों और सूत्रों से बँधे शब्द रखे गए, जो शब्द नियम-विरुद्ध थे, उनके लिए कह दिया गया कि ये नियम से बाहर हैं। नियमबद्ध शब्दों का व्याकरण में उल्लेख हो गया। आप जानते हैं कि संस्कृत से प्राकृत हुई। जो लोग यह कहते हैं कि संस्कृत कभी बोली नहीं जाती थी, वे संस्कृत को नहीं जानते। वे थोड़ी प्राकृत पढें़ तो उनको मालूम हो जाएगा कि पाकृत तो बोली जा नहीं सकती। संस्कृत के बोले जाने में कोई संदेह नहीं। संस्कृत से प्राकृत हुई। उसके पीछे सौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री, कदाचित् आपके ध्यान से होगा कि दंडी आठवीं शताब्दी में थे। अपने समय में उन्होंने लिखा था कि भारत में चार भाषाएँ हैं—‘महाराष्ट्री, सौरसेनी, मागधी और भाषा।’ ये ही चार भाषाएँ चली आई हैं।

सज्जनो! ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित कितने ही अंग्रेज अफसरों ने मुझसे पूछा था कि हिंदी क्या है? इस प्रांत की भाषा तो हिंदुस्तानी है। मैं यह प्रश्न सुनकर दंग रह गया। समझाने से जब उन्होंने स्वीकार नहीं किया तब मैंने कहा कि जिस भाषा को आप हिंदुस्तानी कहते हैं, वही हिंदी है। अब आप कहेंगे कि इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ यह है कि न हमारी कही आप मानें, न उनकी कही हम। इसमें न्यायपूर्वक विचार कीजिए। डॉक्टर ग्रियर्सन का क्या कहना है? मैं उनका सम्मान करता हूँ, किंतु उनकी बात पर न जाकर हमें यह देखना चाहिए कि यथार्थ तत्त्व क्या है।

हिंदी भाषा का स्वरूप

अब आपको मालूम हो गया होगा कि जो महाराष्ट्री भाषा थी, मागधी भाषा थी, इनके बीच में बहुत भेद था। मेरे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इन भाषाओं में संस्कृत भाषा के शब्दों के रूप का अनुरूप आपको मिलता है। यह जितना हिंदी भाषा में मिलता है। उतना दूसरी किसी भाषा में नहीं मिलता। संस्कृत से शब्दों को ले लीजिए। अब देखिए कि हिंदी में यह बात कहाँ से आई। संस्कृत से इन भाषाओं का क्या संबंध था? शकुंतला में ‘तुक मणि दबे बलीयममणाणि’ कहाँ से आया होगा। एक शब्द को आप लीजिए। उसको देखिए कि प्राकृत में उसका क्या रूप है और भाषा में क्या हुआ। इस प्राकृत को देखने से आपको मालूम होगा कि संस्कृत शब्दों का प्राकृत रूप क्या-से-क्या हो गया। भाषा के कितने ही रूप आपको मिल सकते हैं। परंतु यह बात मेरे कहने से न मानिए। मेरे सामने इस समय चंद कवि के रासो में बहुत से रूप ऐसे हैं, जिनको इस मंडली में पंडित सुधाकरजी और दो-तीन को छोड़कर बहुत कम लोग जानते हैं। मैं तो उसका चौथाई भी समझ नहीं सकता। मैं जो देखता हूँ, वह आपके सामने उपस्थित करता हूँ। आप ही देखकर यह कहें कि कौन ठीक है। संस्कृत से पालि, पालि से प्राकृत और प्राकृत से तीसरा रूप हिंदी दिखाई दिया। अब आप थोडे़ से शब्दों पर विचार करें। अग्ग का आग और योग का याग हो गया। चंद के काव्य में तुलसीदास की एक चौपाई को बीच में यदि मैं रख दूँ तो बहुत सज्जनों को यह न मालूम होगा कि दोनों के बीच कितना अंतर है। संवत् ११२५ में चंद कवि ने इसको लिखा। उनकी भाषा में जितने रूप देखते हैं, वे रूप इस भारतवर्ष की किसी दूसरी भाषा के रूप से नहीं मिलते। मिलते हैं, हिंदी से और उतने ही, जितनी आज की अंग्रेजी चौसर की अंग्रेजी से मिलती है। ऐसी दशा में हिंदी भाषा क्या है, इसका उत्तर यह है कि हिंदी भाषा वह है, जिसमें चंद कवि से लेकर आज तक हिंदी के ग्रंथ लिख गए। यह सही है कि पहले इसका नाम भाषा था, हिंदी भाषा या सूरसेनी।

क्या आप भाषा की उत्पत्ति पूछते हैं? कितने ही लोगों को अपनी माँ का नाम नहीं मालूम। बहुत सी औरतें ऐसी हैं, जिनको अपने लड़कों का नाम नहीं मालूम। प्रयाग और बनारस के कितने ही बालकों का नाम सिर्फ बच्चा है। पिता दादा के नाम का पता लगाना और भी कठिन है। नाम रखते हैं किंतु उसको याद नहीं रखते। अस्तु, देखना चाहिए कि चंद के समय से जो भाषा लिखी जाती है, वह एक है, उसी को हम हिंदी भाषा कहते हैं। कभी-कभी लोग उसका नाम बदल देते हैं। भीष्म को लीजिए। देवव्रत उनका नाम था। जब उन्होंने पिता की प्रसन्नता के लिए राज्य त्याग किया, तो ब्रह्मचर्य अंगीकार कर कहा कि हम विवाह न करेंगे, केवल इसलिए कि पिता प्रसन्न होंगे। उस दिन से उनका नाम भीष्म हुआ, छठी के समय नहीं हुआ था। इसी तरह भाषा का भी नाम बदलता है। पहले कुछ था, अब कुछ है। भाषा का नाम पहले और था पर अब तो हिंदी कहके इसे पूजते हैं, प्रेम करते हैं।

इस हिंदी भाषा का दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होगा कि हिंदी भाषा की और भाषाओं के साथ तुलना करने से क्या पता लगता है। इसमें भी मैं इतना कहूँगा कि हिंदी सब बहिनों में माँ की बड़ी और सुघर बेटी है। संस्कृत के वंश बेटयों के २२ करोड़ बोलनेवाले हैं, उनमें पाँच या छह करोड़ मंद्राज में तमिल और तेलुगु बोलते हैं। उनकी भाषा में संस्कृत का भंडार भरा हुआ है। उनके वाक्यों में संस्कृत की लड़ी-की-लड़ी आती है। फलतः संस्कृत की महिमा इस देश में गाज रही है और बहुत दिन तक गाजेगी। अब रहा कि इन बहनों में कौन बड़ी और कौन छोटी है। यह पक्षपात है कि हमारी भाषा हिंदी है और हम हिंदू हैं, हिंदी का पक्ष करें या हमारा यह विचार है कि (छोटे मुँह बड़ी बात होती है, मगर चित्त में जो कुछ है कह देंगे) दंडी कवि ने भी उसमें पक्षपात किया है। किंतु हिंदी भाषा को यदि मैं आपके सामने यह कहूँ कि यही सब बहनों में माँ की अच्छी पहली पुत्री है, अपने-अपने पिता और माता की होनहार मूर्ति है, तो अत्युक्ति न होगी। सौरसेनी में शब्द बँधे हुए हैं, महाराष्ट्री में उखड़ते-पुखड़ते नाचते-कूदते जाते हैं। आपको अनेक शब्द हिंदी भाषा में मिलते हैं, जिनके सात-सात रूप हैं।

भारतीय सभी भाषाओं में हिंदी की न्यूनाधिक झोली-की-झोली भरी पड़ी है। हाँ, यह मानना पडे़गा कि इनके रूप में बड़ा परिवर्तन है। जैसे कि बनारस से नीचे बंगाल में चलिए तो आगे चलकर बिहार में बिहारी मिलेगी, बंगाल में जाइए तो लकारों का संगीत पाया जाता है, हरिद्वार से जब गंगा चलीं और उनके संग में जो पत्थर के टुकडे़ बहते हुए चले तो हरिद्वार से काशी आते-आते रगड़ते-रगड़ते कोमल और चिकने हो गए। इसी प्रकार यह बिहार में गाजीपुर और बनारस से नीचे रगड़कर प्रिय कोमल स्वरों के हो गए। जब आप बंगाल में पहुँचे तब आपको कोमलता का घर मिला। वहाँ आपकी भाषा भी अधिक कोमल दिखाई दी। यहाँ की भाषा का रूप देख हमारे यूरोपियन विद्वान् भी भ्रम में पड़ गए हैं कि क्या हिंदी महाराष्ट्री और सौरसेनी, पंजाबी और बँगला सब वस्तुतः एक हैं। हमें भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि इनके बीच बड़ा अंतर हो गया है।

चंद कवि के रासो को ले लीजिए। लल्लूजी, कबीरदास, गुरु नानकजी, मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास, सूरदास, अष्टछाप, केशवदास, दादूदयाल, गुरु गोविंदसिंहजी, बिहारीलाल, किस-किसके नाम गिनाऊँ। मुझे सब गिनाना भी नहीं। बिहारीलाल को ले लीजिए। इन्होंने १६५० के लगभग ग्रंथ लिखा है। बहुत वृक्ष वाटिकाओं में उगते हैं, कितने ही आपसे आप उगते हैं, उनका झाड़ भी बड़ा फैला हुआ होता है।

संस्कृत शब्दों का हिंदी ही में कितना परिवर्तन हो गया है। जो कर्ण या वह कान, नासिका थी वह नाक है, जो हस्त था वह हाथ है, पानीय का पानी है। यह परिवर्तन सभी जगह दिखाई देता है। लक्ष्मी की भाषावालों ने लिखा लच्छमी या लक्खी। लच्छमी कहने में जो प्रेम आया वह लक्ष्मी कहने में नहीं। जैसे-जैसे भाषा बंगाल की ओर बढ़ी वैसे-वैसे कहा गया कि इसमें जितना कर्कशपन है, उसे काट दो। अब बेटियों में बड़ा रूपांतर हुआ। यहाँ तक यह कह दिया कि भाषा की उत्पत्ति क्या है। सिवाय इसके यह निवेदन करता हूँ कि जितने और प्रमाण हैं, जिनसे भाषा की अवस्था को जान सकते हैं, अब उसको जाँचना चाहिए। भाषा के रूप की शब्दमाला क्या है? इन दोनों के विचारों से हिंदी भाषा ही प्राचीन है। डॉक्टर ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हिंदी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है। आप कहेंगे कि इसमें कौन फूहड़ मालूम होती है? यह मेरा कहना आवश्यक भी नहीं है। यह समझा जा सकता है कि हिंदू हूँ और पक्षपात से कहता हूँ। आज मैं अपने बंगाली, हिंदुस्तानी, गुजराती भाइयों से पुकारकर कहता हूँ कि भाषा एक चली आई और संस्कृत भी एक है। जब प्राकृत हुई तब अंग की प्राकृत हो गई किंतु मूल में एक ही रही। जितनी भाषाएँ हैं, हमारी हैं। बंगाली हमारी भाषा, पंजाबी हमारी भाषा और गुजराती हमारी भाषा है। अब इसके विचार से कौन किसको कहे कि कौन बुरी है।

हिंदी में ग्रंथ-रचना

हिंदी अपनी बहनों में सबसे प्राचीनतम और बड़ी बहन है और माता की रूप-आकृति इससे बहुत मिलती-जुलती है। यह सब जो बड़ी-छोटी बातें मैं आपसे निवेदन करता हूँ, इसका दूसरा प्रमाण मिलना चाहिए। शब्दमाला, शब्दों की रचना यह तो हो गया। दूसरा प्रमाण है ग्रंथमाला। अधिक हिंदी ग्रंथमाला का, भाषाओं की ग्रंथमाला का शिवसिंहजी ने, जैसा कि मालूम होगा, इन बातों को दिखाया है। प्रथम हिंदी भाषा का काव्य ७७० में हुआ। भाषा के ग्रंथों में राजा नाम की सहायता और आदेश से दूसरा जो हमें मिलता है, वह पूज्य कवि ८०२ में हुआ और तीसरा लेख जो मिलता है, वह राव खुमान सिंह ने एक ग्रंथ हिंदी में लिखा। ९०० में खुमान रासो प्रसिद्ध हुआ। चौथा ग्रंथ, जैसा कि मैं अभी आपसे निवेदन कर चुका हूँ, चंद कवि कृत रासो है। जो भाषा के विद्वान् हैं और जो भाषा की रूप-रचना जानते हैं, वे बिना शंका के यही कह देंगे कि जिस भाषा में चंद कवि ने ग्रंथ लिखा है, वह भाषा बहुत पहले से हुई है। यह नहीं हो सकता कि जिसकी भाषा प्रिय होने लगी, उसी में ग्रंथ लिख डाला। चंद कवि से पहले अनेक कवि हो चुके थे। हिंदुओं में ब्राह्मण और कायस्थ उर्दू अधिक पढ़नेवाले थे। पर हमारे क्षत्रिय भाइयों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उनमें पढ़ने का प्रचार कम हुआ। वह इसके बदले जमींदारी और खेतीबारी में रहे और उसी से प्रेम रहा और विद्या को कम पढ़ा। वैश्य जो हमारे भाई हैं, उन्होंने कहा कि जिसको नौकरी करनी हो, वह पढ़ना जाए, उन्हें इतनी फुरसत कहाँ। वह दूसरी ओर उन्नति करते रहे। आपको उर्दू के ज्ञाता मिलेंगे—ब्राह्मण और कायस्थ। ब्राह्मणों में काश्मीरी ब्राह्मण बुद्धि में प्रखर, भाषा के विशेष योग्य थे। इनका प्रेम उर्दू की ओर बढ़ गया और वे इसी तरफ झुके। कायस्थ भाइयों का भी यही हाल हुआ कि सरकारी दफ्तरों में उर्दू गाज रही थी, हिंदी सभ्य भाषा भी नहीं समझी जाती थी।

हमारे पंडित मथुरा प्रसाद, राजा शिवप्रसाद कह गए हैं कि हिंदी भाषा को यह कहना कि हिंदी कोई भाषा ही नहीं, अनुचित है। यह दशा थी। इसी कारण से हिंदी की उन्नति न हुई। अब क्या होता है। बस बीच में और-और प्रांतों की उन्नति हुई। बंगाल में, जैसा कि मैं आपसे निवेदन कर चुका हूँ, भाषा का बड़ा सुधार हुआ। एक अंश में सर माइकल मधुसूदन को लीजिए। हेमचंद्र, बंकिमचंद्र इत्यादि बंगाली बडे़-बडे़ कवि हुए हैं, उन्होंने उपन्यास, इतिहास और काव्य से अपनी भाषा को बनाया-सजाया। इसके उपरांत कबीरदास हुए, १५४० में मलिक मुहम्मद जायसी हुए। गोस्वामी तुलसीदास जी, श्री केशवदासजी, दादू दयालजी, गुरु गोविंद सिंह जी, बिहारीलाल को ही देखिए। हर एक की भाषा में हिंदी के पुष्ट रूप दिखलाई पड़ रहे हैं। यह सिद्ध है कि भाषाओं में मरहठी भाषा में, जो सबसे पुष्ट है, नामदेव १३वीं सदी में थे। बँगला भाषा में, जिसे आज देखकर हम आनंदित होते हैं और यदि सच कहूँ तो ईर्ष्या भी होती है, बडे़ प्रसिद्ध चंडीदासजी १४वीं सदी में हुए। चंद के समय तक न मराठी में, न बँगला में, न गुजराती में इतना बड़ा काव्य नहीं था, जितना बड़ा काव्य चंद कवि का हिंदी में मिलता है। इस प्रकार से हिंदी भाषा आरंभ हुई।

भाषाओं की उन्नति

यदि यह जानना चाहते हैं कि किसका भंडार, किसका रूप और कौन अधिक थी, तो इसके देखने के लिए मैं आपके सम्मुख कुछ बातें उपस्थित करता हूँ। यह जो सन् १८५७ ई. में विप्लव हुआ, उस समय से भाषाओं की और उन्नति हुई। १८३५ ई. में बंगाल में और पंजाब में फारसी भाषा दफ्तरों में थी। अंग्रेजी गवर्नमेंट ने इसको मिटाकर मराठी, गुजराती, बंगाली और उर्दू को इनके स्थान पर किया। वहीं से देशी भाषाओं की उन्नति की रेखा बँधी। अब इस बात का विचार कीजिए कि सन् १८३५ के पूर्व और १८५८ के उपरांत इन सब भाषाओं का कैसा भंडार था? इनमें ग्रंथमाला कैसी थी। ७७० से लेकर आप केवल बडे़-बडे़ कवियों को लीजिए। उनके ग्रंथ आज तक हिंदी भाषा का भंडार भर रहे हैं। चंद कवि के रासो को ले लीजिए। लल्लूजी, कबीरदास, गुरु नानकजी, मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास, सूरदास, अष्टछाप, केशवदास, दादूदयाल, गुरु गोविंदसिंहजी, बिहारीलाल, किस-किसके नाम गिनाऊँ। मुझे सब गिनाना भी नहीं। बिहारीलाल को ले लीजिए। इन्होंने १६५० के लगभग ग्रंथ लिखा है। बहुत वृक्ष वाटिकाओं में उगते हैं, कितने ही आपसे आप उगते हैं, उनका झाड़ भी बड़ा फैला हुआ होता है। जैसे-जैसे वे ऊपर उठते हैं, वैसे-वैसे उनकी छाया अधिक होती जाती है। कुछ ऐसे होते हैं, जिनको आप काटकर मिट्टी को बनाकर किसी स्थान में लगाते हैं और अपनी वाटिकाओं में उगाते हैं। इसी तरह भाषा में जो बहुत शब्द हैं, जैसे कर्ण से कान, हस्त से हाथ संस्कृत से उत्पन्न हुए हैं, वे प्राकृत रूप में अपने आप उपजे। जो शब्द संस्कृत के उठाकर रख दिए हैं, वे वैसे ही हैं जैसे कि गुच्छा, कितने ही वृक्ष थोडे़ समय में सूख जाएँगे, फिर उनमें शक्ति नहीं कि दूसरे फल उत्पन्न करें। जहाँ ये मुर्झाए, फिर इन्हें हटाना ही पडे़गा। इसी प्रकार से हिंदी भाषा के तद्भव शब्द जो हैं, वे निज की संपत्ति हैं, उनके जिन के अवयव पुष्ट हैं, वे फूले-फलेंगे और अपने आप बढ़ते चले जाएँगे। ये सब प्रबल और पुष्ट होते हैं। किंतु जिन शब्दों में किसी का पैबंद लगा दिया जाता है, वे बनने को बन जाते हैं किंतु पुष्ट नहीं होते। जो लिये हुए शब्द हैं, उनमें भाषा की शक्ति नहीं। बच्चा माता के दूध से जितना पुष्ट होता है, ऊपरी दूध से उतना पुष्ट नहीं होता। जो बच्चा धीरे-धीरे माता का दूध पीता है, वह पुष्ट होता जाता है और अंत में संसार में काम करने योग्य होता है। फिर भी हरेक भाषा में हरेक तरह के शब्द मिलेंगे ही, जैसे भोजन में दाल, भात, रोटी इत्यादि। और संस्कृत की जितनी बेटियाँ हैं, वे सब भी माँ के गहनों को पहनेंगी, चाहे वह अच्छा हो चाहे बुरा। सब माँ का गहना है। उनमें एक गहना, दो गहना, चार गहना माँ का है। माँ के गहने से बड़ा प्रेम होता है। उस समय उनको धारण करने में विशेष आनंद होता है। किंतु जो सब गहने माँ के ही हों तो सब कहेंगे कि यह सब माँ की संपत्ति है। इस लिए हिंदी भाषा का यह सौभाग्य है कि उसके जो शब्द हैं, वे सब माता के ही प्रसाद हैं। किंतु माता ने कहा—हे बेटी! ये तेरे हैं, तू इनका व्यवहार करना।

बिहार में, बंगाल में विद्यापतिजी ने हिंद भांडार से फूल-पत्ते ले जाकर अपने काव्य-ग्रंथ को भरा है। इस प्रकार आप देखेंगे कि दक्षिण में मराठी में भी जो शब्दों का मेल है, उसमें जो कुछ तद्भव शब्द व्यवहार में लाए जाते हैं, वे यहीं के हैं। हम आप ‘मुझ, तुझ’ कहते हैं, मराठी में ‘माझा, तुझा’ कहते हैं। हाँ, यह मानना पड़ेगा कि इन शब्दों का उच्चारण बंगाल में और है, महाराष्ट्र में और। हमें इस बात की ईर्ष्या नहीं है, अगर वह सबकी माँ नहीं तो मौसी है। हम तो सबके बालक हैं, सबके पैरों पर लोटेंगे। माँ ने भोजन दे दिया तो ले लेंगे, मौसी ने दे दिया तो ले लेंगे। वह हमारी, हम उनके हैं। आप देखेंगे कि हिंदी भाषा में शब्दों का अधिक भांडार है, यह बड़ा प्रबल है और हिंदी की यह बड़ी संपत्ति है। इस प्रकार से आपकी ग्रंथमाला की शब्दावली का भांडार भरा हुआ है। सन् १८३४ से १८५८ तक महाभारत का प्रथम अनुवाद हुआ। इसके उपरांत एक विशेष दशा आई। आप जानते हैं कि रीति जो पड़ जाती है, वह छोड़े नहीं छुटती। जिस-जिस स्थान में आप देखेंगे, लता वृक्ष के सहारे फैलती पाएँगे। सबसे बड़ा सहारा प्रत्येक भाषा का राजा ही होता है। बिहारी ने जयपुर के महाराज के यहाँ जाकर अपनी कविताशक्ति का चमत्कार दिखाया। शिवाजी महाराज के आश्रय में भूषण कवि ने अपनी कविताशक्ति का परिचय दिया। एक ओर युद्ध में तलवार नाचती थी, दूसरी ओर उनकी कविता नाचती थी। राजा का आश्रय दो प्रकार का होता है। एक तो प्रत्यक्ष, दूसरा गुप्त। इन दोनों की आवश्यकता है, किंतु इस समय मैं प्रत्यक्ष को ही लूँगा। जब अँगरेजी गवर्नमेंट इस देश में आई, तब उसने बड़ी ही सुव्यवस्था की, जिसके लिए उसे सच्चे हृदय से धन्यवाद देना चाहिए। इसने इस देश में ऐसा नियम स्थापित किया, जिससे आज इतना बड़ा समारोह हो रहा है।

संस्कृति का प्रचार

याद रहे कि कोई व्यक्ति चाहे वह ऊँचे घर का बालक ही क्यों न हो, गिरता है, तब बुरा गिरता है। यह पवित्र आर्य जाति तो अपनी प्राचीन महिमा से गिरी तो ऐसी गिरी कि फिर से उसका पुनरुद्धार न हुआ। इस आर्य जाति के पतन के कारण इससे महाराष्ट्रों और सिक्खों का अलगाव हुआ। जबसे अँगरेजी गवर्नमेंट आई, तब से आप देखते हैं कि विद्या की चर्चा बढ़ गई। यंत्रालय आया, साथ-ही-साथ बड़ी भारी शिक्षा आई। आपने देखा होगा कि अँगरेज लोग अपनी भाषा की कैसी उन्नति करते हैं। अँगरेजी गवर्नमेंट ने यहाँ आ अँगरेजी विद्या के प्रचार का उपाय किया, साथ-साथ आपकी संस्कृति-भाषा की उन्नति का भी पथ प्रशस्त किया। इस काशीपुरी में सबसे पहले क्वींस कॉलेज और संस्कृति कॉलेज स्थापित हुआ, जिससे हिंदुओं की भाषा की रक्षा हुई। गवर्नमेंट के उत्तम कार्यों का धन्यवाद हम हिंदू किसी प्रकार कर नहीं सकते और आज जो आपके भारतवर्ष में कुछ जनों में संस्कृत का प्रचार देख पड़ता है—इस काशी ही में धुरंधर पंडित मिलते हैं, जिनका सम्मान बड़े-बड़े लोग करते हैं—उसका अन्यतम कारण अँगरेज सरकार का संस्कृत प्रचार है। इस नीति का फल है। मैंने आपके इसको सुनकर नहीं कहा है। डॉक्टर बालेष्टाइन जब पिं्रसिपल थे, तब उन्होंने लेख लिखा था कि हमको केवल संस्कृत के ग्रंथों का अनुवाद कर के हिंदी भाषा में प्रचार करना चाहिए, सो उन्होंने अपने समय में जो आवश्यक था, वह कर डाला। किंतु खेद की बात है कि इतना अवसर पाने पर भी हम जगाए जाने से आप नहीं जागे। गवर्नमेंट की सहायता से भी नहीं जागे। इस प्रांत में भाषा की उन्नति का बीज सबसे पहले बोया गया था किंतु उसी प्रांत की हिंदी भाषा अपनी और बहिनों के सामने मुँह मोड़ खड़ी है।

अब १८३५ के लगभग आ जाइए। उस समय गवर्नमेंट के सरकारी दफ्तरों में फारसी में काम होता था। गवर्नमेंट ने १८३५ में यह आज्ञा दी कि हिंदुस्तान की भाषाएँ भी काम में लाई जाएँ। इस आशा के फल से इस प्रांत में उर्दू जारी हो गई, हिंदी जारी नहीं हुई, इसका फल यह हुआ कि हिंदी की बड़ी अवनति हुई। यह सत्य है कि सन् १९४४ में जब टामसन साहब लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, सरकार ने हिंदी भाषा का पढ़ना-पढ़ाना आरंभ किया। यदि यह न हुआ होता, तो आज आपको हिंदी को जाननेवाले इतने भी न मिलते, जिनसे लोगों को पढ़ाने का अवसर मिलता। फिर भी, अदालतों में हिंदी के प्रवेश न करने से हिंदी की उतनी उन्न्ति नहीं हुई। उर्दू सरकारी दफ्तरों में जारी थी, उसी का प्रचार था। फिर भी उर्दू का वैसा प्रचार नहीं हुआ जैसा होना चाहिए था। उर्दू पुस्तकों की उतनी उन्नति नहीं हुई, जितनी बंगाली, महाराष्ट्री और गुजराती की। मैं जानता हूँ कि मुसलमान अब जागे हैं, किंतु पचास-साठ वर्ष तक उन्होंने उर्दू की वैसी उन्नति नहीं की, जैसी करनी चाहि थी। उर्दू की उन्नति में बाधा पड़ने का एक कारण यह है कि उर्दू, विशेष करके वह उर्दू, जिसे अधिकतर उर्दू के प्रेमी लिखते हैं, अरबी और फारसी के शब्दों से भरी होती है, जिसके जाननेवाले लोग कम हैं और जिसके लिखनेवाले लोग भी कम हैं। सन् १८५८ में जब गवर्नमेंट ने विद्या के विभाग के नियम बनाए, उन्हीं दिनों स्कूल के लिए हिंदी पुस्तकें छपवाईं और बहुतेरे विद्वानों की सम्मति ली। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने सन् १८७३ के लगभग २३१ पुस्तकों का संचय किया। गवर्नमेंट की सहायता से आदित्य रामजी ने एक-दो अनुवाद अँगरेजी पुस्तकों के किए। राजा शिवप्रसादजी से सम्मति ली गई। लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि हिंदू-मुसलमान दोनों की तरफ से, जहाँ तक मुझको मालूम हुआ है, इन पुस्तकों के पढ़नेवाले आधिक नहीं थे, इसलिए दोनों की उन्नति नहीं हुई।

प्रादेशिक भाषाओं की उन्नति

और प्रांतवालों ने जिन्होंने अँगरेजी पढ़ी, उनकी दूसरी भाषा मातृभाषा थी, बंगालियों ने अँगरेजी पढ़ी, उनकी दूसरी भाषा बँगला थी। बंगालियों को ले लीजिए, चार विद्वानों ने बंगाली भाषा को जन्म दिया। पचास वर्ष में बँगला ने ऐसी उन्नति की कि उसको देखकर न केवल संतोष ही होता है बल्कि ईर्ष्या भी होती है। मराठी में ऐसा ही हुआ कि जिन्होंने अँगरेजी पढ़ी, उन्होंने साथ-साथ अपनी भाषा भी पढ़ी। गुजरात में वर्नाक्यूलर सोसाइटी बनी। संस्कृत से अनुवाद करना आरंभ किया गया। उनकी भाषा की पुस्तकें जितनी बिकने लगीं, वह सभी को मालूम है। अनुवाद का अंत नहीं। आज ऐसा होता है कि अंग्रेजी भाषा में जो अच्छी पुस्तकें छपती हैं, उनका अनुवाद हो जाता है। इधर हिंदू, मुसलमान, काश्मीरी, कायस्थ, हमारे सब भाइयों ने सिर्फ उर्दू लिखना आरंभ किया। ‘गुलजारे नसीम’ पंडित दयाशंकर नसीम ने लिखी। हिंदुओं को यह तो शौक हुआ कि वह लिखें, लेकिन हिंदी में लिखने का शौक नहीं हुआ। पंडित रत्ननाथ सरशार ने ‘फिसानये आजाद’ लिखकर उर्दू भाषा को अनमोल हार पहना दिया। पर हिंदी जाननेवालों को उस हार का पता नहीं कि वह कैसा है—मूँज का हार है या किसका? यह सत्य है कि मुसलमान कवियों ने हिंदी भाषा की भी सेवा की है। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखा है, जब तक हिदीं भाषा रहेगी, उनका नाम रहेगा। किंतु मैं आपको यह दशा दिखलाता हूँ कि काश्मीरी भाइयों ने जो लिखा, वह उर्दू में। हमारे हिंदू भाइयों में कायस्थ भाइयों ने बहुत समय से बहुत कुछ लिखा किंतु वह भी उर्दू में। उन्होंने विज्ञान काव्य की कितनी ही पुस्तकें लिखीं। हिंदू मुसलमानों द्वारा उर्दू की उन्नति का यह यत्न किया गया सही, किंतु हमें तो बँगला की उन्नति और वृद्धि से संतोष होता है; मराठी, गुजराती से भी ऐसा ही होता है। वहाँ विद्या सरस्वती आप-ही-आप चली आई। इधर हिंदी के लिए काम करनेवाले नहीं। यह दशा आपकी है। १८३५ और ५८ से पहले आपकी हिंदी भाषा अपनी माँ की सुंदर छवि को लिये हुए अपने भांडार को भरे आनंद के साथ बैठी हुई आपको देखती है। १८३५ और ५८ के बाद इसकी और बहिनें आगे बढ़ गईं, यह जहाँ की तहाँ रह गई। कहते हुए दुःख होता है कि जिस हिंदी के लिखनेवालों में चंदकवि, तुलसीदास, सूरदास, बिहारीलाल हो गए हैं, बबुआ हरिश्चंद्र हो गए हैं, वह हिंदी आज अपनी बहनों के सामने आँखें नीची किए खड़ी है। हिंदी के प्रेमियो! तुम्हारे और हमारे लिए यह बड़ी ही लज्जा की बात है। यह सच है कि अंग्रेजी कार्यालयों में हिंदी का प्रचार अधिक नहीं। १८५८ में जब राजा शिवप्रसाद विद्यमान थे, उस समय अनेक सज्जनों ने इस बात को कहा था कि सरकारी दफ्तरों में हिंदीभाषा का प्रवेश हो, किंतु उस समय यह बात बातों ही में रह गई।

अदालतों में हिंदी

अंत में सर एंटनी मेकडानल का भला हो, उन्होंने यह आज्ञा दी कि कचहरियों में जो दरख्वास्तें दी जावें, हिंदी-उर्दू दानों में लिखी जावें। उस समय से हम लोग हिंदी भाषा की विशेष उन्नति करने लगे हैं। जब रोगी दुर्बल हो सन्निपात की दशा को पहुँच जाता है, तब पहले उसका ज्वर छुड़ाया जाता है, फिर उसका आहार आदि ठीक किया जाता है अंत में यह पहाड़ हट गया। किंतु बड़े धिक्कार और बड़े लज्जा की बात है कि यद्यपि यह हमारे मार्ग से काटकर हटा दिया गया तो भी हम लोगों ने आज तक इससे पूरा लाभ न उठाया है, हम वकील, हम मुख्तार, हम व्यवहार करनेवाले महाजन और वह लोग जो कचहरी में वकालत करते हैं और अपने हिंदू भाइयों के मुकदमे में उनका धन व्यय कराते हैं, वे लोग भी हिंदी भाषा की ओर से उदासीन हैं। कितने लोग हैं, जो जाति का उपकार करते हैं। कहते हैं कि जाति बिना भाषा जीवित नहीं रह सकती, जैसे कि नाल के बिना बालक नहीं जीवित रह सकता। किंतु क्या यह बात सत्य है? जरा बंगाली, मराठी आदि को देखिए। हिंदी भाषा के कितने लोग हैं, जिनको इस बात से दुःख और लज्जा होती है कि यह आर्यावर्त्त देश, जहाँ कि आप देखेंगे कि लाखों लोग ऐसे हैं, जो अपनी माँ की बोली से परिचय नहीं रखते। सब आशा-उन्नति को छोड़ दीजिए। उन्नति करनेवालों के सामने खड़ा होना छोड़ दीजिए। जब तक आप इस लज्जा को न मिटावें, अपनी माँ की बोली न सीखें, तब तक आप मुँह न दिखाएँ। मातृभाषा के सीखने में कौन लज्जा करता है? अब आप लोग अपने हृदय में आज से इस बात का प्रण कर लें कि जब तक आप मातृभाषा को सीख ने लेंगे, तब तक आप मस्तक ऊँचा न करेंगे। कोई अंग्रेज को अंग्रेजी भाषा  से परिचित न हो या कोई और देश का पुरुष, जो अपने देश की भाषा न जानता हो, क्या कभी गौरवान्वित हो सकता है? जब हमारी यह दशा है, तब क्यों ने इस भाषा की दुर्दशा होगी और क्यों न हम को औरों के सामने दुर्बलता स्वीकार करनी पड़ेगी? यह सत्य है कि कुछ लोग अपनी मातृभाषा का काम करते हैं, किंतु ऐसे लोग कितने हैं?

 

जरा बंगाली, मराठी आदि को देखिए। हिंदी भाषा के कितने लोग हैं, जिनको इस बात से दुःख और लज्जा होती है कि यह आर्यावर्त्त देश, जहाँ कि आप देखेंगे कि लाखों लोग ऐसे हैं, जो अपनी माँ की बोली से परिचय नहीं रखते। सब आशा-उन्नति को छोड़ दीजिए। उन्नति करनेवालों के सामने खड़ा होना छोड़ दीजिए। जब तक आप इस लज्जा को न मिटावें, अपनी माँ की बोली न सीखें, तब तक आप मुँह न दिखाएँ। मातृभाषा के सीखने में कौन लज्जा करता है? अब आप लोग अपने हृदय में आज से इस बात का प्रण कर लें कि जब तक आप मातृभाषा को सीख ने लेंगे, तब तक आप मस्तक ऊँचा न करेंगे।

मेरा यह प्रस्ताव नहीं है, मेरा यह निवेदन है कि जो हुआ वह हुआ, अब क्या करना चाहिए। आपको यह आवश्यक है, कि सरकारी दफ्तरों से जो नकलें ली जाती हैं, उनको आप हिंदी में लें, जो डिग्रियाँ तजबीजें आदि मिलती हैं, उनको आप हिंदी में लें। यह सब आपके लिए आवश्यक है। गवर्नमेंट ने आपको जो अवसर दिया है, उसे आप काम में नहीं लाते। इसके उपरांत यह भी सत्य है कि आज तक इस कारण से आपके अंग्रेजी पढ़नेवालों में केवल उर्दू का अधिक प्रचार है। अब मैं यह आशा करता हूँ और सोचता हूँ कि जब तक यह प्रचार रहेगा, तब तक हिंदी भाषा को उन्नति में बड़ी रुकावट रहेगी। उर्दू भाषा रहे, कोई बुद्धिमान पुरुष यह नहीं कह सकता कि उर्दू मिट जाए। यह अवश्य रहे और इसके मिटाने का विचार वैसा ही होगा, जैसा हिंदी भाषा के मिटाने का। दोनों भाषाएँ अमिट हैं, दोनों रहेंगी। उर्दू भाषा के प्रेमी करोड़ों हैं और इस पचास वर्ष में उन्होंने बहुत कुछ उन्नति की है। मौलवी जकाउल्लह साहब, मुहम्मद हुसेन आजाद और देहली के नजीर अहमद को लीजिए, उस शब्दकोष को लीजिए, जो हैदराबाद दक्खिन में छपकर तैयार हो गया है। हैदाराबाद में मुसलमान भाई २५ वर्ष से उर्दू की उन्नति का बड़ा यत्न कर रहे हैं। हमको संतोष और सुख होता है कि मौलवी शिबली के काम से उसकी उन्नति में अधिकता हुई है और उसकी उन्नति हमारे देश की उन्नति है। हम इसकी भलाई चाहते है, किंतु इसी के साथ-साथ हमें यह जो कहना चाहिए, कि हिंदी जानने वाले इस प्रांत में बहुत हैं। पिछले मनुष्यगणना से जान पड़ा है कि एक उर्दू जाननेवाला है, तो चार हिंदी जाननेवाले। हमारे मुसलमान भाई, जिनको इसका प्रेम है और जो देशभक्त हैं, जिनसे हमारे देश की सब तरह की उन्नति है, वे उर्दू की उन्नति का यत्न करें और हिंदी जाननेवाले हिंदी की उन्नति का। इस देश में हिंदी जाननेवालों की कमी नहीं है, कोई दस-बारह करोड़ है। इनकी हिंदी-भाषा की उन्नति करने के लिए हमें क्या उपाय करना चाहिए? जितना अब विचार हो चुका है, उससे आपने यह देख लिया कि भाषाओं की अवस्था में कैसा उलटफेर हुआ और हिंदी ज्यों की त्यों रही। यह दशा जो हमारी है, उसमें क्या करने की आवश्यकता है? इस बात को विचारने में मैंने आपसे कहा कि राजा के सहारे से बड़ा सहारा होता है। यदि आपको, जैसा कि नागरी प्रचारिणी सभा के लिए गवर्नमेंट सहारा देती चली आई है, राज साहाय्य मिले तो काम बहुत बन जा सकता है। किंतु बड़े दुःख की बात यह है कि अंग्रेजी गवर्नमेंट ने इसका कितना प्रचार करना चाहा था, हमारी उपेक्षा से उसका उतना प्रचार नहीं हुआ। हम लोगों को जितना करना चाहिए था, उसका सिर्फ कुछ अंश हमने किया। अब यह सम्मेलन ही विचार करे कि इसकी उन्नति का क्या उपाय होना चाहिए।

हिंदी की उन्नति—हमारा कर्तव्य

हिंदी-भाषा की उन्नति की साधना के लिए अब क्या करना चाहिए? हिंदी-भाषा की ऐसी स्थिति में इसका उन्नति का अब हमारा कर्तव्य क्या है, इसके विषय में राजा का सहारा है। यदि उसके लिए यत्न करेंगे तो वह भी मिलेगा। जो माँगा गया, वह मिला। हमने कहा था कि कचहरियों की भाषा हिंदी भी कर दी जाए, राजा ने हमारे प्रदेशों में कचहरियों की भाषा हिंदी भी कर दी। इन दिनों इस देश में कचहरियों की जो भाषा है, वह हिंदी है। यत्न और चेष्टा का प्रयोजन है, आदमी जिस बात के लिए यत्न और चेष्टा करता है, वह हो जाती है; आदमी के लिए क्या असंभव है? जो स्कूल, कॉलेज स्थापित किए गए हैं, उनमें लड़के हिंदी पढें़। यूरोपीय इतिहास, काव्य, कला-कौशल आदि की पुस्तकें हिंदी में अनुवादित हों। हिंदी में उपयोगी पुस्तकों की संख्या बढ़ाई जाए। सरकार ने स्कूलों में हिंदी जारी कर दी है, अब हमें चाहिए, कि हम हिंदी की उत्तमोत्तम पाठ्य-पुस्तकें तैयार करें। इस प्रदेश में अँगरेजी जाननेवालों की कमी नहीं। बहुतेरे लोगों ने शेक्सपियर के काव्य समझकर देख डाले हैं, कितने ही लोग हैं, जिन्होंने अंग्रेजी कविता की रचना को सीखा है। कितने ही लोग अंग्रेजी में इतिहास लिखते हैं। परमेश्वर के अनुग्रह से इस देश के लोगों को अंग्रेजी में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ है। मैं चाहता हूँ कि वह ज्ञान अपने ही तक रखा न जाए, उसे हमें अपने भाइयों को भी देना चाहिए। उन भाइयों को भी देना चाहिए, जिनका अंग्रेजी से परिचय नहीं।

आप यह कह सकते हैं कि ऐसी पुस्तकों के पढ़नेवाले बहुत कम हैं। हिंदी पाठकों में ऐसी पुस्तकों के पढ़ने के नए अनुराग का संचार करना होगा, इसमें संदेह नहीं कि इस काम के लिए यत्न करना होगा। पाठकों के सामने का एक तरह का भोजन हटा कि दूसरी तरह का भोजन परोसना होगा। क्षुधा उत्पन्न हो चुकी है, बिना भोजन के काम न चलेगा। ईश्वर के परमानुग्रह से पढ़ने का प्रेम और हिंदी का प्रेम बढ़ रहा है, हिदीं पाठकों की संख्या अधिक हो रही है, पढ़ने का व्यसन बढ़ रहा है। लोगों को उचित है, कि वे अब पढ़ाने के लिए पुस्तकें बनाएँ। जो लोग सामर्थ्य रखते हुए भी यह काम नहीं करते, वे कर्तव्य की उपेक्षा करते हैं।

पुस्तकों के लिखने में हमें भाषा की ओर ध्यान देना होगा। हमें उचित है कि भाषा में जो दोष आ गए हैं, उन्हें हम मिटाएँ। सरकार की ओर से जिन बातों के करने का हमें अवसर नहीं मिला है, उन्हें हम सामने से हटा दें, किंतु जिन बातों के करने का अवसर मिला है, उन्हें क्या न करें? हमें ऐसी भाषा लिखनी चाहिए, जिसे इस प्रांत के लोग समझ सकें। बंगाल में बगाली, उड़ीसा में उडि़या, मद्रास में मद्रासी (तमिल) चलती है, बंबई में मराठी और गुजरात में गुजराती चलती है। जिस भाषा  में यहाँ अंधकार है, यहाँ वही भाषा चलानी चाहिए। कहते दुःख होता है कि सरकारी विज्ञापनों की जो नकलें छपती हैं, वे हिंदी-भाषा में नहीं होतीं। हमीं लिखनेवाले हैं, हम जैसी भाषा लिखते हैं, वैसी ही भाषा चलती है। आपका कोई मुँह नहीं कि इसके संबंध में आप सरकार से कुछ कहें। आपकी यह दशा है और आपकी भाषा की यह अवस्था। ऐसी कोई बात नहीं, जो हिंदी में कही न जा सकती हो। ऐसी दशा में हमारी भाषा हिंदी होनी चाहिए। हिंदी में लिखे जिस वाक्य को देखिए, वह हिंदी में दिखाई दे। यहाँ बहुत बड़ा दोष यह है कि लिखने की भाषा और है बोलने की और। यह बहुत बड़ा दोष है। जैसी बातें कहिए, वैसी ही लिखिए।

कुछ लोगों का सिद्धांत है कि उर्दू कोई भाषा नहीं। उर्दू में ‘परमेश्वर’ न आएगा, ‘खुदा’ हो जाएगा। हिंदी में ‘खुदा’ की जगह ‘परमेश्वर’ आएगा। उर्दू भाषा हिंदी की एक शाखा है और उर्दू की एक शाखा तैयार होने पर भी हिंदी का प्रवाह ज्यों का त्यों है। हिंदीभाषा की शक्ति का प्रवाह बदला नहीं जा सकता। मौलवी मुहम्मद हुसेन आजाद कह गए हैं कि उर्दू जो है, वह हिंदी से बनी है। मौलवी साहब खूब समझाकर कह गए हैं कि उर्दू दूसरे देश की भाषा नहीं, हमारे ही देश की चीज है। हमें इस बात को समझ लेना चाहिए। सबसे पहले यह देखना चाहिए कि भाषा में कहाँ तक छेड़छाड़ होनी चाहिए। बहुतेरे शब्द ऐसे हैं, जो उर्दू में, हिंदी में, बहुतेरी भाषाओं में एक हैं। उसे हम भी कान कहेंगे, वह भी कान। किंतु कितने ही शब्द ऐसे हैं, जो हिंदी भाषा में काम में लाए नहीं जाते। जैसे ‘बच्चा, हमको दान दे, पुण्य होगा’ इसके बदले ‘बाबा, हमको दान दे, सबाब होगा’ कहना उचित नहीं। ऐसे शब्दों को छोड़ बने बनाए शब्दों को बिगाड़ना उचित नहीं। हिंदी में, फारसी-अरबी के बड़े-बड़े शब्दों का व्यवहार जैसे बुरा है, हिंदी को अकारण ही संस्कृत शब्दों से गूँथ देना भी वैसा ही बुरा है। जहाँ तक हो हिंदी में हिंदी ही रखी जाए, अनावश्यक शब्दों को हिंदी से अलग कीजिए। उर्दू और हिंदी, इन दोनों भाषाओं के रूप गँठ बन गए हैं। अब इन दोनों को यथासंभव एक स्थल में लाइए। इस बात के लिए यत्न करना जैसा हिंदुओं के लिए आवश्यक है, वैसा ही मुसलमानों के लिए भी आवश्यक है। दोनों ओर से यत्न होने से हम भाषा के क्रम को बहुत कुछ एक कर सकते हैं।

राष्ट्रभाषा का गौरव

सत्य कटु है, किंतु सत्य ग्रहण करना चाहिए। हिंदी-भाषा की योग्यता रखनेवाले बहुत थोड़े हैं। उर्दू की दशा बुरी है, किंतु हिंदी की और भी बुरी। कहीं-कहीं समासों के लच्छे-के-लच्छे लाए जाते हैं। कहीं-कहीं ऐसे शब्द भरे जाते हैं कि पढ़ने में तो भले हो, किंतु पढ़नेवालों को बेगाने जान पड़ते हैं। कहीं-कहीं ऐसे शब्द रखे जाते हैं, जो बहुत ही कठिन होते हैं, पढ़नेवालों की समझ में ही नहीं आते। ग्रीक बहुत अच्छी, किंतु ग्रीक मैं क्या समझूँ और जब समझूँगा ही नहीं तब उससे मुझे क्या लाभ? मालकोस के समय मालकोस गाया जाता है, वर्षा की बहती हुई धारा में मालकोस अच्छा नहीं लगा, उसका आनंद कम हो जाता है। जो शब्द भाषा में चलते हैं और जिन्हें हम जानते हैं, उन्हीं को हमें पुस्तकों और समाचार-पत्रों में लाना चाहिए।

इसलिए भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रधान कर्तव्य यह है, कि हम स्वच्छ भाषा में हिंदी लिखें। पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएँ। ऐसा यत्न हो, जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह ऐसी ही भाषा में लिखा जाए। जब हम कोई काव्यमाला लिखें, तो आलंकारिक भाषा से काम लें। विज्ञानादि लिखने में पहले भाषा के शब्द लीजिए। जब भाषा में शब्द न मिलें, तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए, भाषा का सुधार बड़ा ही प्रयोजनीय है। समाचार-पत्रों और स्कूल की पुस्तकों में ऐसी भाषा चल जाने पर उसके प्रसार की राह खुलेगी। एक दिन यह भाषा राष्ट्रभाषा हो सकेगी।

मद्रास, बंगाल, बंबई आदि के अनेक विद्वान् देश में एक ही भाषा चलाना चाहते हैं। देश के बहुतेरे लोगों को जब ऐसी रुचि है, तब आपका भी एक कर्तव्य है। आप भी ऐसा यत्न करें, जिससे आपकी भाषा राष्ट्रभाषा हाने का गौरव पाए। झगड़ों में फँसने के बदले उन्हें मिटाना चाहिए। उर्दू के प्रेमी कहते हैं कि हिंदी भाषा उर्दू भाषा है। यही सही। यदि आप झगड़ा मिटाना चाहते हैं, तो कह दें कि अच्छा यही सही। वह उसे एक नाम से यदि पुकारना चाहते हैं, तो पुकारने दीजिए, उसी में उन्हें संतोष करने दीजिए। और वह कीजिए कि हिंदी में जो उर्दू-फारसी शब्द आ गए हैं, उनका व्यवहार कर उर्दू वालों को और भी संतुष्ट कीजिए, आपकी हिंदी में कितने ही शब्द ऐसे हैं, जो देश की बहुतेरी भाषाओं में ज्यों के त्यों या कुछ बदले हुए रूप में काम में लाए जाते हैं। आप इन शब्दों के व्यवहार में संकोच न कीजिए। हमें यह देखना चाहिए कि हमारी भाषा के शब्द ऐसे हों, जिनसे सब प्रदेश के लोग लाभ उठाएँ।

देशी राज्य के निजाम चालीस हजार रुपए की लागत से एक उर्दू कोष तैयार करा रहे हैं। यह कोष शीघ्र ही तैयार हो जाने से लोगों का उत्साह बढ़ेगा और साहित्य बढ़ेगा। यह बड़े ही हर्ष का विषय है कि काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा ने भी बहुत बड़ा एक कोष तैयार कराने का प्रशंसनीय कार्य आरंभ किया है। हमार कर्तव्य है कि इस काम में सभा को सहारा दें, सभा की विशेष उन्नति करें। सभा के संबंध में लोगों में जो मतभेद फैल रहा है, उसे मिटाएँ। सत्य का अवलंबन कर सभा को और भी हितैषिणी बनाएँ। बिना अधिक लोगों के एकत्र हुए बड़े-बड़े कार्य नहीं होते। ऐसी अवस्था में हमें उचित है कि सभा के सहायकों की संख्या बढ़ाएँ। सभा की शक्तियों को बढ़ाएँ। सभा ने जिस कोष के संपादन का कार्य प्रारंभ किया है, वह अधिक रूप से विचार करने योग्य है। यह सब काम शीघ्रता से नहीं होते, इसलिए इसमें शीघ्रता का प्रयोजन नहीं। कितने ही लोग बड़े परिश्रम के साथ इसका काम कर रहे हैं और इसके लिए उन्हें धन्यवाद है। हमें सिर्फ शब्दकोष की त्रुटि ही निकालनी न चाहिए, उसके बनाने में सहारा भी देना चाहिए। यह काम कोष के संपादक बाबू श्यामसुंदरदास या नागरी प्रचारिणी सभा का ही नहीं, यह काम समस्त हिंदी प्रेमियों का है। हम सब को इस काम में हृदय से लगकर इसे संपूर्ण करना चाहिए। यह काम बड़ा है। बड़े-बड़े काम बड़े श्रम से होते हैं। वेदव्यास का मंत्र यही है। भगवान् के उद्दश्यों को समझ, हमें उन्हीं के अनुसार कार्य करना चाहिए। हम सबके मिल-जुलकर यत्न करने से ही हिंदी के सब अंग पुष्ट होंगे। इसी से सब बातों की उन्नति होगी।

सभी भाषाओं में अनुवाद से कार्य आरंभ हुआ है। अंग्रेजी भाषा आज दिन बहुत ही उन्नत दिखाई देती है, इसके साहित्य के सभी अंग पूर्ण हैं। इसी अंग्रेजी भाषा की पुष्टि पहले जर्मन आदि भाषाओं के अनुवाद से हुई है। हमें जगह-जगह से और विभिन्न भाषाओं से अच्छे-अच्छे विचारों को चुनना चाहिए। हमें इस बात में अंग्रेजी को अपना गुरु बनाना चाहिए और उनसे सहारा भी लेना चाहिए। देखिए, अंग्रेजों ने आपके प्रायः कुल प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद कर डाले हैं। अंग्रेजी भाषा का साहित्य अनुवादों से भरा हुआ है। आप अंग्रेजी भाषा और देशी भाषा दोनों भाषाओं के ग्रंथों से सहारा ले सकते हैं। यह दिन बड़ा ही शुभदिन है, परमेश्वर से प्रार्थना कीजिए कि अब से हिंदी-साहित्य पुष्ट हो, जिससे केवल हिंदी-भाषा ही जाननेवाले हिंदी भाषा में विविध विषय के ग्रंथ पढ़ें और उन्हें पढ़कर लाभ उठाएँ।

सम्मेलन जब होगा तब दो कामों के लिए होगा। एक तो इसमें देश भाइयों का मिलन होगा, दूसरे एक भाई दूसरे भाई की यथा साध्य सेवा करेगा। कितनी ही बातें हैं, जो निवेदन करने से ही फल उत्पन्न करती हैं, निवेदन कर दी गई। करना न करना आपके अधिकार की बात है। इसी के साथ-साथ और एक काम है।

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अधिवेशन के समापन के अवसर पर दिए गए भाषण के अंश, जिनमें विद्या, बुद्धि है, वह भाषा का भांडार भरने में कुछ-न-कुछ अपना समय लगाएँ। अधिक श्रम न करके लोग यदि अंग्रेजी, फारसी आदि भाषाओं से अनुवाद ही करें तो भाषा का भांडार भर जाएगा। उर्दू भाषा की बात कह चुका हूँ। उर्दू के कितने ही ग्रंथों का अनुवाद अबतक हिंदी में नहीं हुआ है। हमारी भाषा से लोग लेते हैं, किंतु हम आलस्य से दूसरी भाषाओं से नहीं लेते। जो संस्कृत के ज्ञाता हैं, उनके लिए अनुवाद करने को बहुतेरे ग्रंथ हैं। बाबू गजाधर सिंह के हम कृतज्ञ है कि उन्होंने संस्कृत कादंबरी का भाषा में अनुवाद किया। हमें ऐसे अनुवादकों का बड़ा प्रयोजन है। ऐसे अनुवादकों को संस्कृत में प्रवीण होना चाहिए। साथ-साथ इनमें भाषा का पूर्ण ज्ञान भी बड़ा ही आवश्यक है। पुस्तकें उठाइए, जिस भाषा को जानते हो, उस भाषा से अपनी भाषा में अनुवाद कीजिए। सुधाकरजी ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद वह है, जिसमें प्राण आए, भाव आए। जब उन बातों में आप पंडित होंगे, तभी आपसे अच्छा अनुवाद होगा और ऐसे ही अनुवादों से हिंदी भाषा की श्रीवृद्धि होगी। अनुवाद में मूल पुस्तक का भाव, मूल पुस्तक की बातें अवश्य आएँ। मैं उन लोगों को कभी भूल नहीं सकता, जिन्होंने महाभारत, उपनिषदों आदि के अनुवाद से हिंदी भाषा का भंडार भरा है, उनका मैं हृदय से धन्यवाद करता हूँ। संस्कृत पुस्तकों के अनुवाद की ओर ध्यान देना चाहिए। मौलाना हाफिज आदि की पुस्तकों का अनुवाद होना चाहिए। ऐसे अनुवादों से आपके भाई मूल ग्रंथकारों के ऊँचे विचारों का परिचय पा सकेंगे। याद रखिए कि जितने अच्छे विचार हैं, वे सब मानव जाति की संपत्ति हैं। बँगला, गुजराती पुस्तकों का अनुवाद करने से पहले उन पुस्तकों से अनुवाद करें, जिनसे बँगला, गुजराती में अनुवाद हुआ है। जीवन बहुत थोड़ा है, ऐसी अवस्था में हमें जो काम करना चाहिए, वह इस तरह करना चाहिए, जिससे चिरकाल तक जीएँ। गुजराती, बँगला की तरह हमें भी अंग्रेजी से हिंदी भाषा में अनुवाद करना चाहिए। श्री शुकदेवजी ने कहा कि शृंगाररस बहुत हो चुका, अब शृंगार की आवश्यकता नहीं है। अब तो वह रस हो, जिससे महत्त्व प्राप्त हो। पश्चिम ग्रंथों में बहुत सा सामान भरा पड़ा है। हिंदी साहित्य सम्मेलन से मासिक पचास पृष्ठों की पुस्तक निकले, जिससे लोगों के हृदय में सद्विचार उत्पन्न हों और भाषा का भंडार भरे। अब इस बात पर कटिबद्ध हो जाइए।

जहाँ से अच्छा उपदेश मिले, वहाँ से उसे लेना चाहिए। भँवरा जैसे फूलों से अच्छा रस लेता है, उसी तरह आप अच्छी-अच्छी पुस्तकों से अच्छा-अच्छा रस लें। उपन्यास बुरी चीज नहीं। उपन्यासों ने पाश्चात्य देशों में बड़े-बड़े काम किए हैं। उनमें देशभक्ति का प्रचार किया गया, कायरों में वीरता को लाया गया, हिंदी-भाषा में भी ऐसे उपन्यास बने, जो इन कामों के उपयुक्त हों। लोग कहते हैं कि यदि हम जोला, रिहेन आदि की पुस्तकों का अनुवाद करेंगे तो हमें उनके पढ़नेवाले न मिलेंगे। जो उपन्यास लिखे जाएँ, वे सत्पुरुषों, वीरता आदि को बढ़ाएँ, देशहितैषिता की बातें, देशप्रेम की बातें उपन्यासों में लिखी जाएँ। कविताएँ भी बनाई जाएँ तो ऐसी ही बनाई जाएँ। इतने दिनों से हम पुरानी लकीर पीटते आते हैं, अब हमें उन्हें छोड़ना चाहिए; किंतु इस मार्ग में अभी और श्रम तथा उत्साह का प्रयोजन है। इसे बढ़ाएँ, इसे बढ़ाने के लिए थोड़ा-थोड़ा समय दें। लोगों में साहित्य-सेवा का उत्साह बढ़ाना चाहिए, तभी पढ़नेवालों में भी उत्साह बढे़गा और तभी अच्छी-अच्छी पुस्तकों का भी अधिक प्रचार होगा।

पं. मदनमोहन मालवीय

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