आनंद का उद्गम अमरकंटक

आनंद का उद्गम अमरकंटक

‘ऊधौ! मन नाही दस-बीस।

एक हुतो सो गयौ श्याम संग को आराधे ईश।’

हे उद्धव! हमारे पास एक ही मन था, जिसे हमने कृष्ण को दे दिया। दस-बीस मन होते तो एक-दो तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना में लगा देतीं। अब हम विवश हैं। हमारे पास मन ही नहीं है।

बंधुओ, जब मैं अमरकंटक से घर लौटा तो मेरी स्थिति भी सूरदासजी की इन गोपियों जैसी हो गई। तन तो मेरा घर तक जरूर आ गया, लेकिन मन वहीं नर्मदा-तट पर ही रह गया। अब यहाँ आराधने के लिए वहाँ की स्मृति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

नर्मदा का सौंदर्य बार-बार आँखों में झिलमिला उठता है। कल-कल बहता स्वच्छ निर्मल जल सहसा भाव-विभोर कर देता है। मैंने जब पहली बार छोटे-से एक कुंड में नर्मदा का उद्गम स्थल देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह इतनी पतली-सी जलधारा आगे जाकर कैसे इतना विराट् रूप धारण कर लेती है? कहते हैं कि यहाँ नर्मदा का बचपन है। वैसे अमरकंटक में ही थोड़ा आगे चलकर नर्मदा नटखट, अल्हड़ और चंचल भी हो जाती है।

मैं अपने पिताजी और मित्र पुष्पेंद्र चौरे के साथ अमरकंटक आया हूँ। पिताजी ने बताया कि धर्मशास्त्रों में नर्मदा को इतना पवित्र माना गया है कि इसके दर्शनमात्र से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है। और तो और यह गंगा से भी पवित्र नदी है। यही कारण है कि वर्ष में एक बार गंगा नदी स्वयं काली गाय का रूप धारण कर रात में नर्मदा में स्नान करने आती है और सुबह सफेद गाय बनकर जाती है।

सच में नर्मदा की पवित्रता निर्विवाद है। यह अपने संपर्क में आनेवाले प्रत्येक मनुष्य, जीव-जंतु और प्रकृति को आनंदित कर देती है। इसका प्रमाण हमें जगह-जगह देखने को मिला।

बात टैक्सी ड्राइवर से ही शुरू करें। पेंड्रा रोड से अमरकंटक तक के ३५ किमी. के सफर में उसकी मीठी वाणी और मृदु व्यवहार ने हमारा मन मोह लिया। उसने कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ भी हमें दीं। वह अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हुए हमसे बार-बार यह कहता रहा कि नर्मदा के सम्मान और उसकी पवित्रता बनाए रखने के लिए वह कुछ भी कर गुजरने को तत्पर है। उसी टैक्सी में एक साधुबाबा भी विराजमान हैं और वे भी टैक्सी ड्राइवर की बातों से सहमत होकर किसी हाल में नर्मदा का किनारा छोड़ने को तैयार नहीं हैं। वे अपने परिवार सहित विभिन्न प्रकार से नर्मदा की सेवा में जुटे हैं। सस्नेह भोजन के लिए आमंत्रित करते हुए हमसे कहने लगे कि आप लोग माँ का प्रसाद (भोजन) लेने सुबह मेरे घर जरूर आइए। टैक्सी ड्राइवर ने भी निवेदन किया कि वापस जाने पर मुझे अवश्य याद करें। निश्चित रूप से दोनों की आँखों में निश्छल प्रेम ही हमें दिखाई दिया। समयाभाव के कारण साधुबाबा के घर हम नहीं जा सके, इसका हमें दुःख रहा। उन्होंने हमारी प्रतीक्षा की होगी। क्षमा करें!

नर्मदा उद्गम स्थल पर कई छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं। वहाँ जब मैं एक मंदिर में दर्शन कर रहा था तो मेरे और भगवान् की प्रतिमा के बीच आसन लगाए बैठे पंडितजी बार-बार आँखों से एक थाली की ओर संकेत कर मुझसे कुछ कहना चाह रहे थे। मैं उनका मंतव्य समझ गया और थाली में कुछ पैसे डाल दिए। बस फिर क्या था, उन्होंने जोर-जोर से मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया। वे मेरा हाथ पकड़कर लाल डोरा बाँधने और सिर पर तिलक लगाने का उपक्रम करने लगे। मैंने उन्हें ऐसा करने से मना किया तो वे चिंतित हो गए और मत्र पढ़ते-पढ़ते ही भौंहें उचकाकर कारण जानना चाहा, पर मैं चुप ही रहा। वे देर तक मुझे देखते रहे और मैं उन्हें। मैं कर्मकांड का घोर विरोधी हूँ, इसलिए मुझे यह सब पसंद नहीं है। भाई कर्म ही करना है तो अपना पुरुषार्थ कब काम आएगा? मुझे मंदिर से बाहर निकलते देख उन्होंने फटाफट एक चुनरी में नारियल लपेटकर मेरे हाथ में थमा दिया। जब नारियल और चुनरी लेकर मैं पिताजी और मित्र के पास पहुँचा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

‘‘अरे! तुम्हें नारियल और चुनरी दी। हम दोनों को तो बेरंग लौटा दिया पंडितजी ने। तुम तो किस्मतवाले हो भाई!’’

मैंने कहा, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है। मैंने थाली में सौ रुपए चढ़ाए थे और आप दोनों ने १०-१० रुपए, बस!’’

मैंने वह नारियल और चुनरी भी पिताजी और मित्र में बाँट दी। वे प्रसन्न हो गए। माथे से लगाकर सामान झोले में रख लिया। सबकी अपनी-अपनी आस्था है। कहाँ मैं पंडितजी से जान छुड़ाकर भाग रहा था और कहाँ ये लोग उनका दिया हुआ सामान सिर-माथे से लगा रहे हैं।

यहाँ मंदिर परिसर के बाहर छोटी-छोटी दुकानें हैं, जिनमें प्रसाद और कई सजावटी सामान के अलावा नर्मदा-किनारे के जंगल में उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। ऐसी ही टेंटनुमा एक दुकान में जड़ी-बूटियाँ सजाकर ३०-३५ वर्षीय दुबली और साँवली-सी महिला बैठी थी। वह अपने नवजात शिशु को दूध पिला रही थी। मैंने उससे बूटियों की ओर देखते हुए यों ही पूछ लिया कि यह क्या है? उसने नॉनस्टॉप बोलते हुए सभी जड़ी-बूटियों के नाम, उनके गुण-धर्म और विभिन्न बीमारियों में उनकी भूमिका सविस्तार बता दी। एक जड़ी की ओर संकेत करती हुई वह कहने लगी कि इसे घर में रखने से बाहरी बाधाएँ घर में नहीं घुसती हैं। मैंने उससे कहा कि जिस दिन मेरी शादी हुई थी, उसी दिन से बाहरी बाधा मेरे घर में घुसी हुई है। वह झट से बोली, ‘‘तो फिर दे दूँ साहब?’’ मेरी खुशकिस्मती रही कि वह मेरा मजाक समझी नहीं, वरना महिला आत्मसम्मान पर एक निबंध सुनने को मिलता। मैंने बहाना बनाकर इनकार में सिर हिला दिया। वह हँसती हुई फिर अपने बच्चे की ओर मुखातिब हो गई। मैं कायल हो गया। मित्रो, ऐसी सादगी सिर्फ नर्मदा किनारे ही मिल सकती है।

उस दिन हम बहुत घूमे। इतने कि प्यास से व्याकुल हो गए। कंठ सूख गया। पानी तलाशे, पर नहीं मिला। मन-ही-मन सोचते रहे कि हे प्रभु! नर्मदा-किनारे प्यासे? तभी हमें एक व्यक्ति कुएँ से पानी खींचता हुआ दिखा। हम दौड़ पडे़। हमने खुद कुएँ से पानी खींचा और पीया। कुआँ क्या, एक सँकरी कुइयाँ थी, पर थी बहुत गहरी। शीतल व अमृत समान जल पीकर आत्मा तृप्त हुई। तभी मित्र ने पूछा, ‘‘क्या यह पानी भी नर्मदा का है?’’ उसने बड़ा सुंदर उत्तर दिया, ‘‘यहाँ तो कण-कण में माँ की ममता है।’’ मेरी दृष्टि में तो नर्मदा के प्रति अगाध श्रद्धा का यह भव्य स्वरूप है।

घूमते-घामते सुस्ताने के इरादे से हम चाय की दुकान पर जा बैठे। वहाँ हमने देखा कि दो छोटी बच्चियाँ चाकू न होने के बावजूद कटोरी की धार से पत्तागोभी काट रही थीं। उनमें गजब की फुरती थी। मशीन की तरह उनके हाथ फटाफट चल रहे थे।

पिताजी उनसे पूछ बैठे कि तुम दोनों स्कूल जाती हो? वे बिना बोले हँसते हुए अपना काम करती रहीं। पीछे से उनकी माँ बोली, ‘‘हाँ, जाती हैं, उधरवाली छठी में है और इधरवाली सातवीं में है।’’ मैंने मजाकिया अंदाज में पूछा, ‘‘उधरवाली का क्या नाम है और इधरवाली का क्या नाम है?’’ माँ भी हँसते हुए बोली, ‘‘उधरवाली का नाम नर्मदा है और इधरवाली का नाम सोना है।’’

दरअसल बात यह है कि अमरकंटक में नर्मदा के अतिरिक्त सोन नदी का उद्गम भी हुआ है। हालाँकि दोनों नदियों की दिशाएँ अलग-अलग हैं। कहते हैं कि दोनों बहनों नर्मदा और सोन में किसी बात पर झगड़ा हो गया था, इसलिए दोनों ने अपनी-अपनी दिशाएँ बदल लीं। सोन तो अपने उद्गम स्थल से ही एक गहरी खाई में कूद पड़ी। फिर नजर नहीं आई। नर्मदा ने भी अपनी दूसरी राह पकड़ी। ऐसा भी क्या रूठना?

खैर, रास्ते में हमें कुछ नर्मदा परिक्रमावासी भी दिखे। मुझे तो हर परिक्रमावासी में श्री अमृतलाल वेगड़ ही दिखाई देते हैं। हजारों-लाखों लोग नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं, लेकिन श्री वेगड़ न होते तो हमें इन परिक्रमावासियों का दुःख, प्रसन्नता और कष्टप्रद यात्रा का अनुभव नहीं हो पाता। धीरे-धीरे और सबसे पीछे चल रहे एक परिक्रमावासी ने सफेद, किंतु मटमैला कुरता-पायजामा और नायलोन के फटे जूते पहन रखे थे। इन्हें देखकर मुझे प्रेमचंद के फटे जूते याद आ गए। दुबली काया के बावजूद उन्होंने पीठ पर काफी बोझा लाद रखा था। दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड और लंबा-कठिन यात्रा-पथ। यह सब सोचकर मैंने उनसे सहर्ष पूछ लिया कि मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ? मैं आर्थिक मदद के लिए तत्पर था, किंतु उन्होंने बस इतना कहा, ‘‘प्रसन्न रहो!’’ मैं हक्का-बक्का रह गया। दूसरों की प्रसन्नता के अलावा इन्हें कुछ नहीं चाहिए! प्रणाम भगवन्। वस्तुतः हमारी आँखों पर जिस रंग का चश्मा चढ़ा हो, उसी से हम दुनिया को देखते हैं, जबकि दुनिया तो बहुरंगी है।

जंगल से गुजरती इठलाती सड़क पर हम चले जा रहे हैं। वैसे जंगल से गुजरना बड़ा हिम्मत का काम है, लेकिन सड़क हमें यह आश्वासन जरूर दे देती है कि यहाँ मनुष्य की आमद बनी हुई है, इसलिए घबराने की जरूरत नहीं है। यह आश्वासन पगडंडी पर थोड़ा कम हो जाता है और पगडंडी खत्म होते ही जंगल अट्टहास कर उठता है। एक चेतावनी मिल जाती है कि आ बेटा! अब मेरे पास; देखता हूँ तुझे! खैर, हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि हमने तो वह इठलाती सड़क छोड़ी ही नहीं। हम जा रहे हैं—कपिलधारा और दूधधारा।

अमरकंटक कई ऋषि-मुनियों की तपस्या स्थली रही है। कपिलधारा भी एक ऐसा ही स्थान है। दूर से ही हमें नदी के बहने की धीमी-धीमी आवाज सुनाई दे रही है। ऐसा लग रहा है, मानो किसी संगीतकार ने कोई मधुर तान छेड़ रखी हो। नर्मदा का जल पीकर उसके सम्मान में अदब से हाथ बाँधे चुपचाप खड़े साल के वृक्ष, कभी-कभी हवा चलने पर झूम उठते हैं, लेकिन फिर गंभीरता से खडे़ हो जाते हैं। अनुशासन कोई इनसे सीखे। स्थानीय लोग भी इनकी प्रशंसा करते नहीं थकते। उनका कहना है कि इसकी लकड़ी इतनी मजबूत होती है कि ‘सौ साल खड़ा या सौ साल पड़ा, बात बराबर।’ यानी पेड़ सौ साल तक खड़ा रहे या सौ साल तक जमीन पर पड़ा रहे तो भी लकड़ी की मजबूती बरकरार रहेगी। यह सब नर्मदा का ही प्रताप है। इन वृक्षों के बीच से ही बहकर नर्मदा ने यहाँ दूधधारा में प्रपात के रूप में छलाँग लगाकर रफ्तार पकड़ी है। विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतमाला को सिंचित करती हुई नर्मदा अपना रास्ता स्वयं बनाती हुई चलती है।

यहाँ बंदरों की बहुतायत है। भोले बंदर! परेशान तो बिल्कुल नहीं करते। बस, सब मिलकर पर्यटकों को घेर लेते हैं। एकता की मिसाल हैं। हाँ, जब खाने को कुछ मिल जाए तो फिर एकता गई भाड़ में, झगड़ा होना सौ प्रतिशत तय है—‘एक अनार सौ बीमार।’ अब किस परिवार में लड़ाई नहीं होती, फिर ये तो वानर हैं। हालाँकि इनमें समझ बहुत है। ये स्थानीय लोगों को बखूबी पहचानते हैं और उनसे डरते भी हैं। कल की ही बात है, नर्मदा उद्गम स्थल पर एक सयाना बंदर बैठा सुबह की धूप का आनंद ले रहा था, तभी एक व्यक्ति ने उसे देखकर उसकी ओर धनुष-बाण चलाने का अभिनय किया तो वह बंदर सतर्क हो गया और एक पेड़ की आड़ में छिप गया। थोड़ी देर बाद उस बंदर ने झाँककर देखा तो उस व्यक्ति ने फिर धनुष-बाण चलाने का अभिनय किया, वह फिर छिप गया। लुकाछिपी का यह खेल देर तक चलता रहा। आखिरकार उस सयाने बंदर ने हार मान ली। वह एक हाथ सिर पर और एक हाथ पेट पर रखकर आत्मसमर्पण की मुद्रा में सामने आकर खड़ा हो गया। उस व्यक्ति ने उसे हाथ से ही जाने का इशारा किया तो वह चला गया। मैं दूर खड़ा यह घटनाक्रम देख रहा था। मैंने पूछा, ‘‘भाई, यह माजरा क्या है? तुम यह धनुष-बाण चलाने का अभिनय क्यों कर रहे थे?’’ वह बोला कि मैं धनुष-बाण चलाने का अभिनय नहीं कर रहा था, मैं तो गुलेल चलाने का अभिनय कर रहा था। हम लोग इन्हें भगाने के लिए गुलेल का प्रयोग करते हैं। मार लगने के कारण ये डरे हुए हैं और गुलेल चलाने का अभिनय करने पर ये डरकर भाग जाते हैं। मैंने पलटवार किया, ‘‘तो आप ऐसा क्यों करते हो?’’ वह बोला, ‘‘आप तो देख ही रहे हो कि मेरी प्रसादी की दुकान है। यदि ध्यान न दो तो ये बंदर दस मिनट में दुकान खाली कर दें।’’ सच है कि इनसान के सामने आखिर कौन ठहर सका है!

न जाने कितने पशु-पक्षियों के आवास का गवाह यह जंगल सूर्य की पहली किरण के साथ ही चहक उठता है। सोनमुड़ा के पहाड़ों के बीच से निकला लाल गोला सबसे ऊँचे पेड़ की सबसे ऊँची शाखा को सुनहरी करते हुए धीरे-धीरे पूरे पेड़ को और फिर सब पेड़ों को सुनहरा कर देता है, मानो किसी ने पेड़ों से पारस पत्थर को छुआ दिया हो। यही सुनहरापन देखनेवालों के मन पर भी छा जाता है। मुझे तो यहाँ आकर ऐसा लगा, मानो अमरकंटक सिर्फ नर्मदा और सोन का ही उद्गम नहीं है, बल्कि यह आनंद का भी उद्गम क्षेत्र है। यहाँ आकर ही अनुभव हुआ कि मन में आनंद की अनेक नदियाँ बह निकली हैं, जो शायद आजीवन बहती ही रहेंगी हमारी नर्मदा की तरह।

विनय शर्मा
प.म.ब. गुजराती कॉमर्स कॉलेज, इंदौर (म.प्र.)
दूरभाष : ९८२६०३७१०६

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