RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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लोककंठ से निकली बरखा की फुहारकाले-कजरारे बादलों को देखते ही मन-मयूर नाच उठता है। बारिश की नन्हीं-नन्हीं, इठलाती-लहराती बूँदें तपती धरा को शीतल और तृप्त कर देती हैं। चौमासे की दस्तक मानव के साथ पशु-पक्षी, प्रकृति सभी को पुलकित-पल्लवित और हर्षित कर देती है। बरखा की ऋतु संतृप्त विरही प्रेमी-हृदय को अपने प्रेमी की याद ताजा कर देती है। तब ही तो मेघों को विरही यक्ष के माध्यम से अपनी प्रियतमा को प्रेमासिक्त संदेश भेजने की कल्पना को लेकर महाकवि कालिदास ने ‘मेघदूतम्’ काव्य की रचना कर डाली। आसाढस्य प्रथम दिवसे, मेघामाष्लिष्ट वप्र क्रीडा। परिणत गज प्रेक्षणीय, ददर्ष मेघदूतम्। लोकगीतों में यों तो सभी ऋतुओं का वर्णन मिलता है, पर पावस ऋतु की सुंदरता को देखकर लोककंठ, कविहृदय भला कैसे मौन-मूक रह सकता है। लोकगीत माटी की सौंधी महक के साथ समूचे परिवेश को भाव-विभोर कर जाते हैं। बुंदेली लोकसंस्कृति की तो बात ही निराली है। बुंदेली लोककंठ से निकली बरखा की फुहार लोकमानस को हर्षित, पुलकित, आनंदित और पल्लवित कर देती है। मोरी दई भई सराबोर, रस की बूँदें परी। चौमासे की खबर आते ही गौरैया भी घूरे में लोट-पोट कर अपनी खुशी को अभिव्यक्त करती है। बुंदेली लोकगीतों में कितना सहज चित्रण है— खबरें चौमासे के आवन की आई। गौरैया घूरा में भई लोट-पोट। प्रकृति का अपार, अपूर्व सौंदर्य, शृंगार मानवमन के साथ पशु-पक्षियों को भी हर्षित कर देता है। चहुँओर हरे-भरे पेड़, बारिश की नन्हीं-नन्हीं बूँदों का स्पर्श, मंद, सुगंधित, शीतल बयार के झोंकों से सराबोर बरखा ऋतु में मन-मयूर नृत्य करने से कैसे रुक सकता है। उठी-उठी रे घटा घनघोर, चमचम चमके बिजुरिया। वन नाच रहे जोड़ा मोर, छनक उठी पायलिया रे। मेघों के गर्जन से और बारिश की बूँदों से हर्षित मोर अपने पंखों को फैलाकर नाच उठता है— रिमझिम-रिमझिम मेऊ बरसे, छाई घटा घनघोर। चहुँ दिस चमके, चारू चंचला शोर मचावे मोर। वहीं सावन की झड़ी लगते ही परदेश गए प्रियतम को संदेश भेजती हुई नारी के हृदय को पपीहा की पीहू-पीहू बोली भी ठेस पहुँचाती है— सावन की लागी झड़ी, पिया गए परदेश रे! पीहू-पीहू बोले पपीहा, मोरे हियरा को लागी ठेस रे! बरखा की फुहारों से प्रकृति ने नव शृंगार कर लिया है। बरखा की बूँदें जहाँ एक ओर प्रेमीजन-मन को पुलकित करती हैं, वहीं विरही मन को और भी संतृप्त कर जाती हैं। बिजली की चमक बादल की गरज से भयभीत हुई नायिका अपने प्रीतम से जल्दी ही घर लौटने की मनुहार करती हुई कहती है— बदरा रे रए, चमके-चमके बिजुरिया छलके है, नैंका करोए, जल्दी घरे लौट आओ। रिमझिम बरखा की ऋतु में बिजली कड़कने से भयभीत होकर नायिका प्रियतम को याद करके अपने विरही मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करती है— बरसत घहरात गगन बिच, चपला चमके न्यारी। मैं अति डरती भवन के भीतर, प्रियतम बिन बूँद कटारी। आकाश में कारी बदरिया के छाते ही गाँव की युवतियाँ मदमस्त सुहानी रुत में पानी भरने पनघट की ओर चल देती हैं— ऊपर बादर घहराएँ, गोरी घना पनियाँ को निकरी। कजरी-गीतों, राछरें, सैरों गीतों में भी चौमासे की रुत का मनमोहक वर्णन हुआ है। बुंदेलखंड अंचल में वर्षा ऋतु में सैरों-गीतों का विशेष प्रचलन है। सैरों-गीतों में भाई-बहन के स्नेहपूर्ण संबंध, पति-पत्नी के उलाहने, खेती में बढि़या उपज होने की खुशी की अभिव्यक्ति कितनी सहज लगती हैं। बरखा की रुत तीज-त्योहारों को अपने साथ लाती है। कजरी तीज, हरियाली तीज, सावन तीज, राखी, साँझी और मामुलिया पर्व के आने का बेसब्री से इंतजार करती ससुराल में नव विवाहित बेटियाँ अपने भाई के आने की बाट जोहती स्नेह से पगे शब्दों में कह उठती हैं— असड़ा तो लागे रे। असड़ा तो लागे, अरे मोरे प्यारे, दूब-लुबौआ नई आय, धरै चुनरी,धरी रँगाय। चुनरी को रँगाकर बहनें अपने भाइयों के आने का इंतजार कर रही हैं कि कब वे आएँ और उन्हें ले जाएँ। नारी मन की कोमल भावनाएँ छिपी हैं इस लोकगीत में। वहीं सावन की रिमझिम झड़ी के बीच झूलागीत मन में भक्ति-भाव को भर देता है— झूला डारो कदम की डार। झूलत नंद किशोर जमुना के तीरे। सावन के आते ही ब्रज में कृष्ण के संग राधा झूला झूल रही हैं। कितना सुंदर चित्रण है— झूला झूल रही ब्रज बाला, झूलो लाला नवल बाला। गावे राग-मलार एक संग, हेर-हेरी एक ओर। शादी-ब्याह में गाए जानेवाले गारी-गीतों में भी वर्षा अपना प्रभाव जमाए बिना भला कैसे रह सकती है— किवरियाँ खोल दो मोरे राजा रस की बूँदें परी, पैलऊँ आँधी बैहर आई, तीजे कठिन अँधेरी छाई। ऐसी सुहावनी रुत में सुंदरियों के पैर भी थिरक उठते हैं। ऐसे में पायल की आवाज लोकगीतों की मधुर सुर-लहरियों के साथ कानों में अमृत रस की बौछार करने लगती है। पावस की पहली फुहार प्रस्फुटित होते अंकुर, पल्लवित होते पत्ते, खिलती हुई बेला-जूही की कलियाँ नायिका के केशों का शृंगार करने को लालायित हो उठती हैं। बेला फूलो, आधी रात, गजरा पिब गरे डारौ। सावन के महीने में नव विवाहिताएँ अपने मायके जाती हैं। मायके जाकर वे अपनी सहेलियों से मिलती हैं, सोलह शृंगार कर झूला झूलती हैं। और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए गाती हैं— एक चना दो, देउली माई सउन आए। कौना सी बिटिया, सासरे गई माई साउन आए। गौरा सी बिटिया सासरे, माई साउन आए। को जौं लुआउन जाय री, माई साउन आए। प्रस्तुत लोकगीत में बेटी का भी अपने भाई की तरह ही मैके पर हक है, इसका मार्मिक चित्रण किया गया है। एक ही चना के दो हिस्से यानी दाल कहकर यह प्रगट किया गया है कि बेटा-बेटी एक ही समान होते हैं। अतएव दोनों का एक समान ही हक होता है। गौरा किसी विवाहित बेटी के प्रतीक में और सूरजमल भाई के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नारी की सुंदरता, संपूर्णता उसके माँ बनने पर ही होती है। बुंदेली लोकगीत मन को छू लेता है— साऊन सुहानी मुरली बजै, भादों सुहानी मोर। तिरिया सुहानी जबाई लगै, बारों खेले पीर के दौर। सावन के महीने में मुरली की धुन सुनने में प्रिय लगती है, भादों के माह में मोर का नृत्य। लेकिन नारी तभी अच्छी लगती है, जब उसके घर के आगे बच्चा खेल रहा हो। वर्षा का सैरों-गीत व नृत्य से अटूट नाता है। सैरों छोटे-छोटे गीत होते हैं, जिनमें बहिन-भाई-स्नेह, प्रेमी-प्रेमिका की मनुहार, कृषि एवं पावस ऋतु के संग पोखर, कुएँ, नदी, तालाबों के भरने का वर्णन होता है— चौरेई नौनिया तोरे दिन कड़ गए, कनकनउआ लहरिया लेय। ठाड़ो घूमा अरे विनती करै, टोर फुदरया लेय। वहीं कारे-कजरारे बादलों को देखकर इंद्रदेव को प्रसन्न करने कृषकों के होंठों से बोल फूट पड़ते हैं— दूर गरजी नजीक, बरसो रे इंदर राज। धरती अबोलो क्यों लियो जी हमार राज। रसिया गीतों में भी पुरबाई चलते ही बदरी के आकाश में छा जाने पर सहज प्रकृति से जुड़ी भावनाओं की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है— गाड़ी बारे मसक दे बैल, पुरवइया के बादर नए। गाड़ी बारे मसक दे बैल, कौन बरस नए मेऊ। ऋतु गीतों के अलावा सैरों-नृत्य भी बुंदेलखंड में वर्षा से संबंधित हैं। कजलियों के मेलों में साउन तीज के मौके पर, अच्छी फसल होने की आशा में किसान बुवाई के बाद नाच-गाकर अपनी खुशियाँ अभिव्यक्त करते हैं। सैरों-नृत्य सामूहिक नृत्य है। खेती से जुडे़ सभी लोग वर्षा का स्वागत ढोलक की थाप, मंजीरे की खनखनाहट व लाठी-डंडों की ठक-ठक ध्वनि के साथ गोल घेरा बनाकर करते हैं। दोनों तरफ डंडों से आपस में चोट की जाती है। घेरे के बीच प्रमुख गायक होता है, जो गीत गाता है और नाचते हुए लोग पूरे जोश से गीत दुहराते हैं। नर्तक नाचते हुए कारी बदरिया को प्रसन्न करते हुए बरसने का अनुरोध कर रहे हैं— घाय घरिल्ला रे डूबो, न मोरो परदेसी प्यासो जाय। कारी बदरिया री तोही सुमरो पुरवाई परो तिहारे पाँय॥ सैरों-नृत्य बुंदेलखंड की संस्कृति को सहज ही अभिव्यक्त करता है। सैरों के अलावा राजा अमान सिंह के राछरे गीत भी बुंदेलखंड में विशेष लोकप्रिय हैं। राछरे गीतो में महिलाएँ प्रश्नोत्तर संवाद-शैली में प्रलंब-गीत गाती हैं। ये प्रलंब-गीत पन्ना के राजा अमान सिंह के समय से प्रचलित हैं। पन्ना के राजकुमार अमान सिंह की बहिन की शादी जालौन के एक गाँव में हुई थी। बहनोई प्रान सिंह धँधरे से एक बार अमान सिंह की लड़ाई हो गई और बहनोई मारा गया। वर्षा ऋतु आई। सावन के झूले पडे़। विवाहित बेटियाँ मायके आईं। ऐसे में अमान सिंह की माँ को अपनी बेटी की याद आई। उसने अमान सिंह से अपनी बहिन को लाने की बात कही। तोरईया सदा न फूलें, सदा न सावन होय। सदा न राजा रनचढै़ सदा न जीवें कोय। राजमाता ने कहा, ‘‘तुरइयाँ सदा नहीं फूलतीं, सदैव सावन नहीं रहता, राजा भी सदा युद्ध नहीं करता और यौवन भी सदा नहीं रहता।’’ जनजीवन और लोकसंस्कृति, प्रकृति व परंपरा से जुडे़ लोकगीतों में चौमासे के आगमन से जुडे़ लोकगीतों में चौमासे के आगमन का स्वागत मधुर सुर लहरियों के संग किया जाता है। जीवन के मूल्यों, रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों प्रकृति और ऋतुओं से जुडे़ लोकगीत हमारे अंतर्मन को छूते हुए मधुर रिश्ते बनाते हैं। बुंदेली संस्कृति में माटी की सौंधी सुगंध के साथ लोक से जुड़ीं परंपराएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं। —सुधा तैलंग |
अप्रैल 2024
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