RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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कौन है दोस्त, कौन है दुश्मन: एक : इन हवाओं को क्या हो गया, इन फिजाओं को क्या हो गया? हर तरफ चल रही हैं लुएँ, इन सबाओं को क्या हो गया? लड़खड़ाने लगे हैं कदम, इन युवाओं को क्या हो गया? खेत बेचैन हैं प्यास से, घन-घटाओं को क्या हो गया? हर समय जो रहीं वे-असर, उन सदाओं को क्या हो गया? हम खड़े हैं जहाँ के तहाँ, योजनाओं को क्या हो गया? मंजिलें दूर-ही-दूर हैं, ‘जीत’ पाओं को क्या हो गया? : दो : न जाने कैसी हवा चली है, सभी दिशाओं में बेकली है। चले परिंदे घरों को अपने, भले ही संध्या नहीं ढली है। घुली है दहशत फिजा में इतनी, डरी-डरी सी गली-गली है। भरोसा करके ठगों पे हमने, स्वयं की किस्मत स्वयं छली है। कभी थी सेवा की राह लेकिन, न अब सियासत रही भली है। हजारों ताने, हजारों शिकवे, इसी फिजा में वफा पली है। टहलने पहुँचे वे छत पे ज्यों ही, मची सितारों में खलबली है। : तीन : फर्ज से भागना नहीं चलता, हाँ कभी हौसला नहीं चलता। मंजिलें तय बशर ही करते हैं, खुद कभी रास्ता नहीं चलते हैं। कौन है दोस्त, कौन है दुश्मन, आजकल कुछ पता नहीं चलता? प्यार तो है पवित्र-सा एहसास, इसमें घाटा-नफा नहीं चलता। जो चला राह बेईमानी की राह, साथ उसके खुदा नहीं चलता। वक्त बाँका पड़े तो दुनिया में, दोस्त! सिक्का खरा नहीं चलता। घर में विश्वास है जरूरी ‘जीत’, सिर्फ शिकवा-गिला नहीं चलता। : चार : एक दरिया में बहता पानी है, जिंदगी की यही कहानी है। चंद साँसें हैं, दुःख है, सुख है, कैसी उम्दा यह बागबानी है। अब्र छूने का जोश जिसमें नहीं, कैसे कह दें कि वह जवानी है। झूठ के साथ है खड़ी दुनिया, कितनी मुश्किल में हकबयानी है। उम्र भर का विलाप और तड़पन, प्यार की बस यही निशानी है। कर लिया है प्रबंध जन्मों का, यह सियासत की मेहरबानी है। ‘जीत’ इस भीड़ में न खो जाना, यह नहीं गाँव, राजधानी है। —ब्रह्मजीत गौतम |
अप्रैल 2024
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