कांग्रेस में असुरक्षा की भावना क्यों?

कांग्रेस खुद को कितना असुरक्षित महसूस करती है, इसका हास्यास्पद उदाहरण पिछले दिनों देखने को मिला। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का निमंत्रण स्वीकार कर लिया कि वे ७ जून को नागपुर में स्वयंसेवकों के शिक्षण वर्ग के समापन समारोह में स्वयंसेवकों को संबोधित करें। समाचार आते ही कांगे्रस में बवेला मच गया। दो दशकों से अधिक समय से कांगे्रस के संकटमोचक रहे प्रणब दा ने यह निमंत्रण कैसे स्वीकार किया? इस पर सवाल उठने लगे, समाचार-पत्रों में बयान आने लगे और टी.वी. पर बहस शुरू हो गई। कांग्रेसी भूल गए कि प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने के पहले कांगे्रस तथा उसकी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने के बाद अब वे देश में एक सम्माननीय वरिष्ठ नागरिक हैं। जैसा अमेरिकन कहते हैं, वे ‘सिटीजन प्रणब मुखर्जी’ हैं। उनके लिए कोई सीमा नहीं है, जैसा उनकी आत्मा कहेगी, वे अपनी बात या विचार चाहे कोई फोरम हो, प्रस्तुत करेंगे। अब किसी राजनीतिक दल के बँधुआ नहीं हैं। वैसे देखें तो राजीव गांधी के समय से पार्टी ने उनका उपयोग ही किया, उनके साथ न्याय नहीं किया। जैसी परंपरा रही है, श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अंतरिम समय के लिए कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई जाती है, जैसाकि दो बार गुलजारी नंदा को बनाया गया था। उसके उपरांत सत्तादल की संसदीय पार्टी अपना नेता चुनती है, वह प्रधानमंत्री बनता है। उस तिकड़म में जाने की जरूरत नहीं है, कैसे तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने सीधे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी थी। यही नहीं, नए मंत्रिमंडल में भी वे नहीं लिये गए थे। वे कांगे्रस से अलग हो गए, अपनी पार्टी बनाई, पर कुछ दिनों के बाद उसे भंग कर कांगे्रस में शामिल हो गए। उनको इस्तेमाल किया गया, पर उनका देय उन्हें नहीं मिला। २००४ में जब कांगे्रस आम चुनाव में जीत गई और सोनिया गांधी ने पार्टी के दबाव के बावजूद कई कारणों से प्रधानमंत्री बनना अस्वीकार किया, तब भी उन्होंने प्रणब मुखर्जी के स्थान पर मनमोहन सिंह को अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, जो उनके मातहत नौकरशाह के रूप में कार्य कर चुके थे। उनके बौद्धिक चातुर्य और कार्यकुशलता के कारण सोनिया गांधी और कांगे्रस ने उन्हें विश्वसनीय नहीं माना। प्रणब मुखर्जी इशारों पर चलकर कठपुतली प्रधानमंत्री तो बन नहीं सकते थे।

प्रणब मुखर्जी फिर भी सदैव संकट की घड़ी में कांग्रेस के संकट-मोचक साबित हुए। प्रणब मुखर्जी के अपने आत्मकथन के दो भागों, विशेषतया दूसरे भाग को ध्यान से पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है। यही नहीं, उनको वह मंत्रालय भी नहीं मिला, जिसकी वे आशा करते थे या उनको  आशा दिखाई गई थी। किंतु मुखर्जी ने पार्टी के प्रति सदैव निष्ठा बनाए रखी और हर प्रकार से सहयोग दिया। राष्ट्रपति के चुनाव के समय भी सोनिया गांधी ने सहयोगी दलों से कहा था कि दो अच्छे प्रत्याशी है—प्रणब मुखर्जी और उस समय के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी। वैसे राजनीतिक, संसदीय और प्रशासनिक तथा मंत्रिमंडलीय अनुभवकी दृष्टि से दोनों में तुलना उचित नहीं है, यद्यपि सोनिया गांधी ने अंसारी को टर्म उपराष्ट्रपति इसीलिए रखा कि वे उनको उपराष्ट्रपति बनाना चाहती थीं। अधिकतर सहयोगी दलों ने प्रणब मुखर्जी के पक्ष में राय दी, अतएव सोनिया गांधी के लिए कोई विकल्प रहा ही नहीं और प्रणब बाबू राष्ट्रपति चुन लिये गए।

हमें प्रणब मुखर्जी, जो १९७३ में इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में डिप्टी मिनिस्टर, कॉमर्स और इंडस्ट्री से थे, सर्वप्रथम मिलने का अवसर मिला। हम उस समय ‘इंडियन इनवेस्टमेंट सेंटर’ दिल्ली में निदेशक थे। जापान से एक ट्रेड का बड़ा डेलीगेशन आया था और उनको प्रणबजी को संबोधित करना था—भारत की उस समय की नीतियों और निवेश की सुविधाओं व अवसर के विषय में। एक लंबे अरसे से उनसे परिचय रहा है। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में वे अघोषित नंबर दो थे। आदेश था कि यदि प्रधानमंत्री बाहर गई हों तो प्रणब मुखर्जी कैबिनेट बैठक की अध्यक्षता करेंगे। डॉ. पी.सी. अलेक्जेंडर कैबिनेट सेके्रटरी एवं गृहसचिव थे, इंदिराजी की हिदायत थी कि यदि किसी कारण वे (इंदिराजी) उपलब्ध न हों और कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने हों तो प्रणब बाबू से बातचीत कर आगे कार्य करें। ऐसे अनुभवी, बहुपाठी तथा सफल राजनीतिज्ञ को कांग्रेस पार्टी के नौसिखिये परामर्श दे रहे थे कि वे आर.एस.एस. के आयोजन में न जाएँ। यह उनके लिए हानिकारक होगा। कहावत है—कहाँ राजा भोज और कहाँ...। जैराम रमेश और आनंद शर्मा ने उन्हें पत्र लिखे। हम समझते हैं कि उनकी भाषा में भी धृष्टता ही परिलक्षित होती है। विस्मय इस बात का है कि जैराम रमेश एक समझदार और संतुलित व्यक्ति हैं। हद हो गई जब उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी को पिता पर दबाव डालने के लिए सामने लाया गया तथा मीडिया के सामने जिस प्रकार की भावनात्मक भाषा का उन्होंने प्रयोग किया। वे अपनी राय पिताजी को घर पर भी दे सकती थीं, अपना दृढ़ विरोध प्रकट कर सकती थीं। वे यहाँ तक कह गईं कि जो टी.वी. पर दिखाई देगा, वह हमेशा याद रहेगा। उन्होंने भाषण में क्या कहा, वह तो लोग भूल जाएँगे। सब कांग्रेस के झंडाबरदार यह भूल ही गए कि प्रणब मुखर्जी राजनीति में अस्पृश्यता के समर्थक कभी नहीं रहे, और इस गुण के कारण ही वे कांग्रेस के हित में तरह-तरह के समझौते कराकर संकटमोचक कहे जाते थे। केवल गृह मंत्रालय को छोड़कर सब बडे़ मंत्रालयों के वे मंत्री रहे। उन्हें संविधान और संसदीय प्रणाली का विशद ज्ञान है। उनकी स्मरणशक्ति विस्मयकारी है। उन्हें पढ़ने का व्यसन है। वे जब राष्ट्रपति थे तो सरसंघचालक उनके प्रति सम्मान प्रकट करने गए थे। राष्ट्रपति चाहे पहले किसी दल से क्यों न जुड़ा रहा हो, शपथ लेने के बाद वह निष्पक्षता से पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने श्री मोहन भागवत को राष्ट्रपति भवन में भोजन के लिए आमंत्रित किया था। विरोध करनेवाले भूल गए कि श्री मोहन भागवत विश्व के सबसे बडे़ स्वैच्छिक संगठन के अध्यक्ष हैं, जिसका प्रभाव देश के बाहर भी है। देश के अंदर तो हर क्षेत्र में इस संगठन का जाल बिछा हुआ है। उसको नकारा नहीं जा सकता। विरोध करनेवाले चाहते थे कि प्रणब मुखर्जी नागपुर के आयोजन के निमंत्रण को अस्वीकार कर दें। उन्हें इतना भी धैर्य नहीं था कि ऐसा शालीन और अनुभवी राजनेता क्या कहता है, उसका इंतजार कर लें।

जैसा हमारा खयाल था, उन्होंने अपने वही विचार, जैसे सहिष्णुता, देश की विविधता, विश्वबंधुत्व की परंपरा, संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान, संविधान सर्वोपरि, सर्व जनहित कार्य बिना किसी भेदभाव के, व्यक्ति की श्रेष्ठता, सामाजिक सौहार्द आदि की अपनी मान्यताओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। पूर्व राष्ट्रपति के नागपुर जाने से आकाश नहीं टूट पड़ा। उनका भाषण सुनकर विरोध करनेवालों के मुँह पर थप्पड़ लगा, अपनी लाज छिपाने के लिए कहने लगे कि प्रणब बाबू से इसी की आशा थी। यदि ऐसा ही था तो फिर उनके निमंत्रण स्वीकार करने पर इतनी बेचैनी क्यों रही, अधीरता क्यों थी? मगर कांग्रेस से एक छँटे घुड़सवार आनंद शर्मा को फिर चैन नहीं आया और अपनी बुद्धिमानी का एक और उदाहरण पेश किया। पूर्व राष्ट्रपति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक की समाधि पर गए और सम्मानस्वरूप पुष्प अर्पित किए। आनंद शर्मा की यह शिकायत कि पूर्व राष्ट्रपति ने डॉ. हेडगेवार को देश का एक महान् सपूत क्यों कहा? उन्हें पता नहीं कि प्रसिद्ध क्रांतिकारी त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक ‘मेरे इकतीस वर्ष का जेल-जीवन’ में लिखा है कि हेडगेवार कलकत्ता (अब कोलकाता) में डॉक्टरी पढ़ते समय क्रांतिकारी पार्टी के सक्रिय सदस्य थे। वे समय-समय पर मध्य प्रदेश में कांग्रेस के कई उच्च पदों पर रहे, जेल गए। नागपुर के झंडा सत्याग्रह में सक्रिय भागीदार थे। उनके विषय में सही तथ्य तो जानने की कोशिश करनी चाहिए। गांधीजी वर्धा में अपने आप आर.एस.एस. के शिक्षा वर्ग में गए और उसकी सराहना की। यह तथ्य गांधीजी के कई वॉल्यूमों में लिखे गए जीवन-चरित्रों, तेंदुलकर या प्यारेलाल द्वारा रचित, दोनों में देखा जा सकता है। जिस महापुरुष ने एक छोटा बीज-रोपण किया और वह आज विशाल वटवृक्ष के रूप में विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है, ऐसे दूरदर्शी महापुरुष की महानता से कौन इनकार कर सकता है? विचारधारा से आप सहमत हों या असहमत, यह दूसरी बात है। आर.एस.एस. के भूत से कांग्रेस परेशान है, इसे राहुल गांधी तथा उनके अन्य चेले-चपाटे प्रतिदिन कोसते रहते हैं। किंतु हाथी तो अपनी मंथर गति में शालीनता और आत्मविश्वास से चलता रहता है, चलता ही रहेगा। इस प्रकार की वाचालता और व्यवहार केवल असुरक्षा की भावना के ही परिचायक हैं।

आप का प्रलाप

आम आदमी पार्टी के समय-समय पर नाटकीय कृत्यों पर हँसी आती है। उनके कथन बचकाने लगते हैं। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से यह पार्टी पैदा हुई। केजरीवाल उसके मुखिया के रूप में उभरे। एक नई राजनीति की परंपरा पडे़गी, ऐसा विश्वास जनता को दिलाया था। बहुत अच्छे विचारवान् और चरित्रवान् लोग पार्टी में शामिल हुए। जो संवैधानिक मान्यताओं को मानते थे, धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों को केजरीवाल ने अलग-थलग कर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। यदि कोई अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करना चाहे तो उसको तुरंत पार्टी विरोधी करार दे दिया गया। शुरू से ही एक शब्द केजरीवाल के मुँह पर है कि हमें दिल्ली की जनता ने चुना है, अतएव हमारी बात मान्य होनी चाहिए। संविधान में क्या लिखा है, कानून और नियम क्या कहते हैं, इसकी उनको परवाह नहीं है। जनादेश का पालन संविधान की सीमाओं में होगा, यह वे मानने को तैयार नहीं हैं। प्रारंभ से उन्होंने केंद्र सरकार और उपराज्यपाल से टकराव का रुख अपनाया। सोचा कि सत्ता का विरोध कर और जनता जनार्दन के हित की बात करके वाहवाही लूटेंगे। आज क्या कहते हैं और कल क्या करते हैं, उसमें कोई तर्क व सामंजस्य है या नहीं, इसकी उन्हें परवाह नहीं। इस प्रकार की कलाबाजियों के वे आदी हो गए हैं। आते ही उन्होंने वित्तमंत्री अरुण जेटली पर भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगा दी। दिल्ली क्रिकेट बोर्ड के प्रबंधन के विषय में कहा कि हमारे पास पक्के सबूत हैं। जब जेटली ने मानहानि का सिविल और क्रिमिनल मुकदमा दायर किया। उनके गुट के जो और सरगना हैं, उन्होंने भी वह आरोप दोहराया तो उनके खिलाफ भी मानहानि के मुकदमे दायर हो गए। प्रसिद्ध एडवोकेट जेठमलानी को केजरीवाल ने अपना वकील बनाया। कोशिश की कि उनका मेहनताना दिल्ली सरकार दे, पर यह संभव नहीं हुआ, जब तथ्य सामने आए कि ये आरोप व्यक्तिगत तौर पर लगाए थे। यही नहीं, उन्होंने जेठमलानी को जो ब्रीफिंग दी और जो सवाल पूछने को कहा, वे और भी आपत्तिजनक थे। बाद में झूठ का सहारा लिया कि हमने तो जेठमलानी को ये सवाल पूछने को नहीं कहा था, और अपनी बात से मुकर गए। जेठमलानी मुकदमे से अलग हो गए, लेकिन मेहरबानी कर अपनी फीस भी छोड़ दी। अंत में अरुण जेटली से बिना शर्त माफी माँगनी पड़ी। इन्हें न कोई शर्म-हया और न किसी प्रकार का सबक सीखा। केजरीवाल के एक साथी ने पहले माफी नहीं माँगी, पर वह बिना सबूत के मुकदमा किस प्रकार लड़ता। उसने खुलेआम कहा कि केजरीवाल ने हमें गुमराह किया, कहा था उनके पास सबूत हैं, इससे वह धोखे में आ गया। उसको भी माफी माँगनी पड़ी। यह रही आप प्रमुख की राजनीतिक नैतिकता। अभद्र भाषा का प्रयोग तो उनके लिए साधारण बात है। राजनीति में नए हैं, पर राजनीतिक पैंतरेबाजी में माहिर।

जब से दिल्ली को यूनियन टेरीटरी घोषित किया गया, तब से कांग्रेस, जनसंघ और बाद में भाजपा के मुख्यमंत्री रहे, कभी इस प्रकार की स्थिति पैदा नहीं हुई। शीला दीक्षित तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं, उनका कहना है कि जब केंद्र में बीजेपी की सरकार थी, उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। हालाँकि हर पार्टी चुनाव के समय दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की माँग करती है, पर यह संभव नहीं है, क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है। बीजेपी के अन्य मुख्यमंत्रियों का यही अनुमान रहा, जब केंद्र में दूसरे दलों की सरकार रही। केजरीवाल और आप को भी कोई दिक्कत नहीं होती, यदि वे उपराज्यपाल से मिलकर बातचीत कर नियमानुसार जो करना चाहते थे, उसकी रूपरेखा बनाते। उनकी मानसिकता रही है कि उन्होंने दिल्ली विजय कर ली है, वे चाहेंगे, वही होगा, चाहे कानून और नियम कुछ भी हो। उनका यह अहं तो टकराव ही पैदा करेगा। अपने अधिकार और दायित्व को सही रूप में न देखकर उन्होंने टकराव का रास्ता अपनाया। कोई उपराज्यपाल केजरीवाल को पसंद नहीं है। अपनी अकर्मण्मता का दोष केंद्र सरकार पर, गृह मंत्रालय पर, उपराज्यपाल पर और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर थोपना आदत में शामिल हो गया है। यही नहीं, अधिकारियों से अनबन की खबरें भी शुरू से ही आनी प्रारंभ हो गईं। बहुत से अधिकारियों ने तो तबादले करा लिये। कई बार कर्मचारियों ने दुर्व्यवहार और अभद्र शब्दों के विरुद्ध प्रोटेस्ट भी की, किंतु केजरीवाल सरकार के रवैए में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। तब तो हद हो गई, जब मुख्य सचिव अंशु प्रकाश को एक जरूरी बैठक के लिए रात को मुख्यमंत्री निवास पर बुलाया गया, जहाँ आप के दस-ग्यारह विधायक मौजूद थे और बातचीत के दौरान मुख्य सचिव के साथ हाथापाई हुई, पर न तो केजरीवाल और न सिसोदिया ने उन्हें रोकने की कोशिश की। मुख्य सचिव ने डॉक्टरी जाँच कराने के बाद पुलिस में रिपोर्ट की। केजरीवाल के अपने परामर्शदाता जैन ने पुलिस में कबूला कि यह वाकया हुआ था, पर केजरीवाल आरोप को गलत बताते रहे। पुलिस ने तफतीश के बाद मामला अदालत में पेश कर दिया है। पुलिस ने केजरीवाल से भी लंबी पूछताछ की। केजरीवाल ने कहना शुरू किया कि उन्हें फँसाने की साजिश हो रही है। आरोप अदालत के विचाराधीन है। लेकिन इस हादसे के बाद आई.ए.एस. तथा अन्य सरकारी सेवाओं के संगठनों ने तरह-तरह से प्रोटेस्ट किया। धीरे-धीरे विरोध थम गया और सरकारी दफ्तरों में कार्य होने लगा, किंतु एक अविश्वास और रंजिश की लकीर बन गई। सामान्य गति से कार्य होने लगे, परंतु शिकायतें दोनों ओर से आती रहीं। अधिकारियों और कर्मचारियों को अपनी सुरक्षा और बेइज्जती का डर है, ऐसा संगठनों का कहना रहा है। केजरीवाल और उनके मंत्री कहते रहे कि अधिकारी व कर्मचारी हड़ताल पर हैं, पर सरकारी संगठनों का कहना है कि यह गलत है। कभी-कभी अधिकारी और अन्य कर्मचारी उन बैठकों में नहीं जाते हैं, जहाँ उन्हें सुरक्षा का डर होता है। कम-से-कम पिछले सौ वर्षों में किसी प्रांत या राज्य में इस प्रकार की बदसलूकी किसी मुख्य सचिव के साथ देखने में नहीं आई। मुख्य सचिव तो मुख्यमंत्री का मुख्य सलाहकार होता है। उसी पर अन्य अधिकारी और मातहत अपने साथ न्याय के लिए निर्भर करते हैं। लोकतांत्रिक प्रशासन में चुने हुए प्रतिनिधियों और नियमित अधिकारियों के संबंध बहुत संवेदनशील होते हैं। आपसी संबंध अच्छे हैं तो शासन अच्छी तरह चलता है। एक-दूसरे के प्रति आदर की भावना होनी चाहिए, पारस्परिक विश्वास होना चाहिए। यदि तालमेल नहीं बैठता है तो जो प्रावधान के अनुसार मुख्य सचिव का स्थानांतरण हो सकता है। यदि उसने कोई गंभीर गलती की है तो उसके दंड का भी प्रावधान है। शालीन व्यवहार की सीमाओं का उल्लंघन तो नहीं होना चाहिए।

करीब एक सप्ताह से अधिक समय से केजरीवाल और उनके तीन सहयोगी मंत्री राजभवन के वेटिंग रूम में धरने पर बैठे रहे और बताया कि उनके अधिकारी अनसुनी कर रहे हैं तो अधिकारियों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट किया कि यह आरोप गलत है। सारे तथ्य प्रस्तुत किए। यह दृश्य अजीब है कि राजभवन में ही मुख्यमंत्री और उनके तीनों साथी धरना देने लगे। वैसे केजरीवाल को धरने की लत सी है, दूसरों पर दोष थोपने का मौका मिलता है। अपनी कार्यक्षमता के अभावों से लोगों का ध्यान हट जाता है, क्योंकि एक नए नाटक की शुरुआत हो जाती है। इधर नीति आयोग की बैठक में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, केरल के विजयन, पश्चिम बंगाल का ममता बनर्जी तथा कर्नाटक के कुमारस्वामी को दिल्ली की स्थिति के बहाने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना लगाने का एक और मौका मिल गया। असल में उनकी निगाह २०१९ के आम चुनाव पर है। वे इसी कोशिश में हैं कि कोई भी अवसर मिले और मोदी की छवि को धूमिल किया जाए, क्योंकि उन्हें मोदी के करिश्मे का डर है। वे अभी भी सबसे अधिक जनप्रिय राजनेता हैं। चारों मुख्यमंत्री केजरीवाल के निवास पर गए, उनके परिवार से मिले, तदुपरांत वहीं प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि उपराज्यपाल को एक पत्र लिखा है कि केजरीवाल से मिलने की उन्हें सुविधा प्रदान की जाए। पूरे मामले का राजनीतीकरण विशेष उद्देश्य से किया गया। राजनिवास को घेरने की चेष्टा विफल रही। प्रधानमंत्री निवास को घेरनेवाले जुलूस में मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव शामिल हुए, भाषण दिया। पर वह हुजूम भी प्रधानमंत्री निवास तक न पहुँच सका। केजरीवाल अपने और उपराज्यपाल के अधिकारों के विषय में दिल्ली न्यायालय गए, पर वहाँ के निर्णय से असंतुष्ट होकर वे शीर्ष न्यायालय गए, जहाँ मामले की सुनवाई पूरी हो चुकी है। कम-से-कम शीर्ष न्यायालय के निर्णय की तो उन्हें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए।

प्रायः एक माह के उपरांत कर्नाटक का मंत्रिमंडल पूरा हो सका। देरी का कारण था कि राहुल गांधी विदेश में थे। कांगे्रस ने मुख्यमंत्री का पद कुमारस्वामी को भेंट कर ही दिया था। उपमुख्यमंत्री का पद कांगे्रस के प्रदेशाध्यक्ष को प्राप्त हुआ। उसके और भी उम्मीदवार विशेषतया शिवकुमार गुजरात के चुनाव के समय कांगे्रस के सदस्यों को सुरक्षित और एक जुट रखने में सफल रहे, यही दायित्व उनका कर्नाटक में भी रहा था। दोनों दलों के जो विधायक मंत्री बने, वे ए.टी.एम. विभाग चाहते थे। वैसे भी २०१९ में आम चुनाव के लिए धन चाहिए। इस रस्साकसी के बाद अब अगली दौड़ है कारॅपोरेशन और बोर्डों के अध्यक्ष बनाने के लिए। जो मंत्री नहीं बन सके और पहले मंत्री थे, उनमें भारी असंतोष है। कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी और देवगौड़ा ने फिलहाल असंतुष्ट प्रत्याशियों को समझा-बुझा दिया है। मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने कहा कि वे अगले आम चुनाव-२०१९ तक तो कम-से-कम मुख्यमंत्री रहेंगे ही, क्योंकि सम्मिलित रूप से आम चुनाव लड़ना है। यह इशारा है अंदर चल रहे द्वंद्व का है, वैसे कांगे्रस ने वादा किया है कि वे पूरे पाँच साल मुख्यमंत्री के पद पर रहेंगे। देखना है कि २०१९ के आम चुनाव के बाद क्या गुल खिलते हैं।

उत्तर प्रदेश, राजस्थान के उपचुनावों में भाजपा की हार और कर्नाटक में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में मिली सफलता के बाद विरोधी दलों के हौसले बढ़ गए हैं। भाजपा के संगठित विरोध का प्रदर्शन कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह था। विरोधी दल जानते हैं कि अलग-अलग चुनाव लड़कर वे नरेंद्र मोदी को २०१९ के आम चुनाव में परास्त नहीं कर सकेंगे। उनकी राजनीति का एक भाग है कि हर प्रकार से मोदी की छवि को ध्वस्त किया जाए। दूसरा है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल बनें और एक-को-एक पर लड़ाया जाए, ताकि विपक्ष के वोट विभाजित न हों, किंतु इसमें कई कठिनाइयाँ हैं। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री बनने के लिए कौन सा चेहरा होगा। ममता और मायावती क्या राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगी? खैर, ये सब भविष्य के प्रश्न हैं, लेकिन एन.डी.ए. को, विशेषतया भाजपा को यह मानकर चलना चाहिए कि उनके सामने २०१९ का चुनाव एक बड़ी चुनौती होगा। वे केवल मोदी की लोकप्रियता पर ही निर्भर नहीं रह सकते। तथाकथित बुद्धिजीवी, उदारवादी, चिंतकों, मानवाधिकार के लंबरदार, देश में और विदेश में भी अंगे्रजी मीडिया के साथ व्यक्तिगत रूप से मोदी के खिलाफ अत्यंत सक्रिय हो रहे हैं। भाजपा को एन.डी.ए. की सबसे बड़ी इकाई होने के कारण इस ओर अधिक ध्यान देना होगा कि अपने सहयोगियों को कैसे संतुष्ट रखा जाए। बहुत जरूरी होगा कि जो आनुषंगिक इकाइयाँ हैं, उनको साथ रखा जाए। वे बेसुरे आलाप न शुरू करें। यह देखने में आ रहा है कि पुराने कार्यकर्ता स्वयं को हाशिये पर महसूस करते हैं। नए कार्यकर्ताओं में उत्साह है, पर धैर्य और परिपक्वता नहीं। प्रशिक्षण का अभाव है। सबसे सामंजस्य बैठाना और जनता से संपर्क बनाए रखना एक कला है, जिसे भाजपा का प्लस पॉइंट कहा जाता था, उसमें कमी देखी जा रही है।

उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल में आपसी विरोध स्पष्ट दिखाई देता है। सहयोगी पार्टी के मंत्री मुख्यमंत्री ही नहीं, पार्टी नेतृत्व की खुली आलोचना कर रहे हैं। केवल निचले स्तर पर ही भ्रष्टाचार फैला हो, ऐसा नहीं है। कानून और शांति व्यवस्था स्थापित नहीं हो पा रही है। अधिकारियों की लापरवाही जनता में विक्षोभ ही पैदा करती है। पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त, संवेदनशील और जवाबदेह बनाना है। प्रधानमंत्री ‘सब चलता है’ वाली मनोवृत्ति का विरोध करते हैं, पर व्यवस्था के कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। उदाहरण के लिए हम कन्नौज में समाजवादी सरकार द्वारा स्थापित मेडिकल कॉलेज और अस्पताल का जिक्र करना चाहेंगे। उम्मीद थी कि जिले की जनता को कुछ राहत मिलेगी। वहाँ कोई व्यवस्था नहीं, न डॉक्टर मिलते हैं और न दवाइयाँ। यहाँ कुछ एक डॉक्टर कमरे किराए पर लेकर निजी प्रैक्टिस करते हैं। आज भी गरीब जनता को कानपुर और लखनऊ भागना पड़ता है। अस्पताल के रूप में एक सफेद हाथी खड़ा कर दिया है। गोरखपुर के बाद फर्रुखाबाद में बच्चों के मरने की खबरें आई थीं। इस समय विवादास्पद बयानों की आवश्यकता नहीं है, जमीन पर कैसा काम हो रहा है, उसकी निगरानी जरूरी है। तिर्वा कन्नौज के मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल की एक एडवाइजरी कमेटी कमिशनर या कलेक्टर की अध्यक्षता में बनाई जा सकती है, जो देखे कि जनता को कैसे चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध हों। मंत्रियों को अपना वैज्ञानिक ज्ञान बघारने की जरूरत नहीं है बल्कि देखें कि जनता के अभाव-अभियोग कैसे दूर हो सकते हैं। स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाई हो, चिकित्सा सुविधाएँ ठीक से उपलब्ध हों, प्रधानमंत्री की और राज्य की योजनाएँ कहाँ तक सफल हो रही हैं, जिनके लिए वे बनाई गई हैं, उनको कितना लाभ मिल रहा है। समाचार-पत्रों में या टी.वी. पर विज्ञापन कारगर नहीं होंगे, जितना जमीन पर दो-एक अच्छे उदाहरण पेश करने से जनता में विश्वास पैदा होगा। प्रधानमंत्री का नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’। यह नारा सांसदों, विधायकों और मंत्रियों को आत्मसात् करना है। अपनी मनोवृत्ति में परिवर्तन लाना है। दलितों का उत्पीड़न हो रहा है, उसका तेजी से दुष्प्रचार भी हो रहा है और हमारे उत्तर प्रदेश के एक मंत्री समझते हैं कि होटल से खाना मँगाकर दलित परिवार के साथ उसके घर में खाकर हम उनसे मेल-मिलाप कर रहे हैं। आज के जमाने में यह ढोंग चलनेवाला नहीं है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में २०१९ के आम चुनाव के पहले एसेंबली के चुनाव होने हैं। हमारे लिए किसी विवरण में जाना संभव नहीं है और न आवश्यक। राजस्थान में हालात ठीक नहीं हैं, यह समाचार पहले से आ रहे हैं। संगठन और सरकार में तालमेल नहीं है। भाजपा की राजस्थान इकाई के अध्यक्ष का चुनाव खटाई में पड़ गया है। कार्यकर्ताओं पर इसका क्या असर होगा? राजहठ और त्रियाहठ का मिश्रण हानिकर हो सकता है। भाजपा में हर स्तर पर नेताओं, सांसदों और विधायकों को सोचना होगा कि नरेंद्र मोदी के पास जीत की कोई जादुई छड़ी नहीं है, वह तो उनकी अपनी मेहनत, ईमानदारी और सच्ची जनसेवा तथा जनसंपर्क में ही निहित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन का सही मायने में अनुसरण ही सफलता की कुंजी है। समय रहते भाजपा के सामने यह एक बड़ी चुनौती है, जब सबकी आँखें २०१९ के आम चुनाव पर लगी हैं।

जम्मू-कश्मीर की कहानी और डॉ. कर्ण सिंह

कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर समस्या के बारे में हरबंस सिंह की लिखी एक पुस्तक आई थी—‘महाराजा हरिसिंह : द ट्रब्लेड ईयर्स’। लेखक जम्मू क्षेत्र के निवासी हैं। वे पहले एक कॉलेज में पढ़ाते थे, बाद में उन्होंने पत्रकारिता क्षेत्र को अपनाया। यह पुस्तक जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण समस्याओं पर आधारित है, जो १९४६ के उपरांत पैदा हुईं, जैसे महाराजा हरिसिंह की भारत में तुरंत शामिल होने की उलझन, उसके बाद कबाइलियों को आगे कर पाकिस्तान का आक्रमण, तदुपरांत राजा हरिसिंह नेभारत में शामिल होने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए, ताकि भारत संवैधानिक तौर पर पाकिस्तानी हमलावरों का मुकाबला करने के लिए अपनी सेना भेज सके। प्रारंभ में तीन अधिकार भारत कोसुपुर्द किए, जिनमेंविदेश नीति व सुरक्षा शामिल थे। बाकी राजनीतिक अधिकार महाराजा ने सुरक्षित रखे थे। उन पर बाद में विचार होना था। दुर्भाग्य से बाद में भारत सरकार ने पाकिस्तानी आक्रमण का मामला सुरक्षा परिषद् में भेज दिया, जिससे बहुत सी पेचीदगियाँ पैदा हो गईं। नेहरू और पटेल ने शेख अब्दुल्ला, जो जेल में थे, उनको रिहा करवाकर महाराजा पर दवाब डालकर उन्हें प्रशासन का प्रमुख बना दिया। यह परिर्वतन महाराजा हरिसिंह केदस्तखत से ही संभव हुआ। शेख अब्दुल्ला १९३० से ही हरिसिंह के शासन के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे थे। एक रीडिंग रूम की स्थापना कर वहाँ सब षड्यंत्र हुआ करते थे। बाद में उन्होंने ‘मुसलिम कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना की। नेहरू के परामर्शके उपरांत उसका नाम ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ हो गया, किंतु शेख अब्दुल्ला और उनकेसाथियों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। चूँकि डोगरा गुलाब सिंह ने कश्मीर राज्य की स्थापना की थी। वे डोगरों और महाराजा को नीचा दिखाना चाहते थे। यह लंबी कहानी है, जिस पर उपर्युक्त पुस्तक प्रकाश डालती है। इतिहास की कुछ और सामग्री शामिल कर इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद ‘प्रभात प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित हुआ है। उसकेबाद लेखक की दूसरी पुस्तक अभी आई है, जिसका नाम है ‘कर्ण सिंह : जम्मू और कश्मीर १९४९-१९६७’, जिसके प्रकाशक हैं ‘बृहस्पति पब्लिकेशंस’, द्वारका, नई दिल्ली। शेख साहब को उस समय की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में खुश रखने के लिए भारत सरकार ने महाराजा हरिसिंह पर दवाब डाला कि वे राज्य छोड़कर बाहर रहें और अपने पुत्र कर्णसिंह को अपनी ओर से रीजेंट बना दें। यह सब महाराजा हरिसिंह केआदेश से संभव हुआ। उस समय कर्ण सिंह की उम्र १८ वर्ष थी। महाराजा हरिसिंह के आदेश में था कि शीघ्र ही कश्मीर की संविधान सभा की व्यवस्था कर राज्य केभावी शासन की रूपरेखा के लिए मसौदा प्रस्तुत करें। इसमें अलग-अलग नामों से कर्ण सिंह राज्याध्यक्ष रहे, पहले रीजेंट, फिर सरदारे रियासत और उसके बाद भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त गवर्नर
(राज्यपाल)। करीब १६ साल वे कश्मीर के संवैधानिक प्रमुख रहे; उसकेबाद १९६७ में उन्होंने भारतीय संसद् के लिए चुनाव लड़ा और जीते तथा कांग्रेस में शामिल हुए। इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल के वे सबसे कम उम्र केमंत्री नियुक्त हुए। उनका राजनीतिक जीवन गौरवशील रहा। १९४९-१९६७ का समय जम्मू-कश्मीर के लिए बहुत मुश्किलों का रहा। शेख अब्दुल्ला की अहमंन्यता और शेखी बढ़ती रही। सरदार पटेल ने तो शेख की असलियत बहुत पहले पहचान ली थी, पं. नेहरू भी, जिनका शेख अबदुल्ला को समर्थन मिला और जिनके कंधों पर सवार होकर वह अपना स्टेटस बना सका, उनको भी एहसास होने लगा कि शेख अब्दुल्ला क्या कहेंगे और क्या करेंगे, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अंत में मौलाना आजाद और रफी अहमद किदवई के परामर्श केबाद शेख को गिरफ्तार करना पड़ा। कितनी खूबी और परिपक्वता के साथ कर्ण सिंह ने समय-समय पर बदलती कठिन परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया, पुस्तक के अवलोकन से पता चलता है। इस पुस्तक से जम्मू-कश्मीर के अन्य राजनेताओं के बारे में जानकारी मिलती है, शेख अब्दुल्ला की कलाबाजियों का पता लगता है। मोहम्मद साहब के पाक बाल का हजरत बल दरगाह से गायब होना और फिर मिल जाना, अपने आप में एक विचित्र गाथा है। उसने उस समय देश में ही नहीं, इसलामी दुनिया में तहलका मचा दिया था। समय-समय पर उस काल में कर्ण सिंह प्रधानमंत्री पं. नेहरू को जो पत्र लिखते रहे, वे अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। खबरों में पीछे क्या हो रहा था, उसका पता चलता है। जम्मू-कश्मीर के राज्याध्यक्ष के रूप में डॉ. कर्ण सिंह की बढ़ती राजनीतिक और बौद्धिक परिपक्वता की भी जानकारी मिलती है। शेख की धमकियों का कैसे उन्होंने मुकाबला किया, क्योंकि वह उम्मीद करता था कि कम उम्र केहोने केकारण शेख अब्दुल्ला उनपर अपना दबाव डालकर बिना किसी संवैधानिक नियंत्रण के मनमानी करते रहेंगे। जम्मू के प्रजा परिषद् और डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी की असामयिक एवं दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु की चर्चा भी पुस्तक में है। उनको डॉ. मुकर्जी की मृत्यु की सूचना भी राज्य सरकार द्वारा प्राप्त नहीं हुई। लेखक हरबंस सिंह ने डॉ. करन सिंह की अपनी आत्मकथा और पं. नेहरू तथा उनकेबीच हुए पत्राचार का पूरा उपयोग किया है। विषय से संबंधित अन्य पुस्तकों और सामग्री का भी उन्होंने इस्तेमाल किया है। तथ्यों को प्रमाण केसाथ प्रस्तुत किया है। शेख अब्दुल्ला की स्वेच्छाचारी मनोवृत्ति और निरंकुश शासन की तथ्यात्मक जानकारी पुस्तक में मिलती है, जिनसे साधारणतया जनता अवगत नहीं है। पुस्तक एक ऐतिहासिक अभाव की पूर्ति करती है। पुस्तक और बेहतर होती, यदि अच्छे संपादन की व्यवस्था हो पाती। अब यह आवश्यक है कि इसका हिंदी संस्करण जल्द ही आना चाहिए। लेखक अपने प्रयास के लिए बधाई के पात्र हैं। सही जानकारी के लिए हरबंस सिंह की दोनों किताबों को पढ़ना नागरिकों के लिए आवश्यक है। अतएव कॉलेजों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में ये पुस्तकें उपलब्ध होनी चाहिए।

सी.वाई. चिंतामणि

इस माह हम ‘साहित्य अमृत’ में डॉ. होता का लेख हिंदी के आलोचक आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी की इतिहास दृष्टि पर दे रहे हैं। जुलाई में उनकी पुण्य तिथि है। दूसरा आलेख इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. हेरंब चतुर्वेदी का सर सी.वाई. चिंतामणि के संबंध में है, जिन्हें हम आज भूल गए हैं। महामना मालवीयजी द्वारा ‘लीडर’ पत्रिका के वे लब्ध प्रतिष्ठित संपादक रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने जो नैतिक मानक निर्मित किए, वे आज भी अनुकरणीय हैं। वे ‘लिबरल पार्टी’ के विशिष्ट नेताओं में थे। वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) में शिक्षा मंत्री रहे, किंतु अपने सिद्धांतों पर दृढ़ता के चलते उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। जनता में एक ऐसे स्वयं निर्मित (सेल्फ मेड) व्यक्ति का जीवन अत्यंत प्रेरणादायक है। इलाहाबाद की महिलाओं को मिलने-जुलने की सुविधा आवश्यक है, इसलिए उनकी पत्नी ने मनोरंजन क्लब की स्थापना के लिए पहल की, जो आज भी महिलाओं में सामाजिक जागृति के क्षेत्र में सक्रिय है।

 

 

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

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