'रवांई' में सरनौल का पांडव नृत्य

'रवांई' में सरनौल का पांडव नृत्य

विश्व भर में देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखंड राज्य का सीमांत जनपद उत्तरकाशी गंगा व यमुना की उद्गमस्थली होने के कारण सदैव से चर्चित रहा है। उत्तरकाशी वर्षों टिहरी-गढ़वाल रियासत का अभिन्न हिस्सा रहा। १ अगस्त, १९४९ को इसका भारतीय संघ में विलय हुआ और २४ फरवरी, १९६० को टिहरी गढ़वाल से पृथक् होकर उत्तरकाशी अलग जनपद बना।

उत्तरकाशी का पश्चिमोत्तर क्षेत्र रवांई क्षेत्र के नाम से विख्यात है। इस क्षेत्र में यमुना एवं टौंस (तमसा) नदियों के उद्गम स्थल होने के कारण इसे यमुना घाटी व टौंस घाटी क्षेत्र भी कहा जाता है। समुद्र-तल से २२२० मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित ‘राड़ी डाँडा’ रवांई क्षेत्र का प्रवेशद्वार कहा जा सकता है। संपूर्ण रवांई क्षेत्र नौगाँव, पुरोला एवं मोरी विकासखंडों में बँटा हुआ है।

ईसा से लगभग ६७५० वर्ष पुराने माने जानेवाले रवांई क्षेत्र के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में यह क्षेत्र ‘कुलिंद क्षेत्र’ के नाम से विख्यात था। कुलिंद का राजा सुबाहु था, जिसने वनवास के समय पांडवों का स्वागत किया था। कुलिंद जाति की सत्ता इस क्षेत्र में दूसरी शताब्दी तक रही। ग्रीक साहित्यकार टाल्मी ने भी कुलिंदों की मूलभूमि यमुना क्षेत्र में बताई है।

संपूर्ण उत्तराखंड की तरह रवांई क्षेत्र में भी अनेक देवी-देवता पूजे व माने जाते हैं। क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सो में रह रहे लोगों के अपने अलग-अलग ईष्ट देव हैं—भद्रकाली, राज-राजेश्वरी, रेणुका, लुदेश्वर, रघुनाथ, कौंल, महासू, ओडारु, जखंडी, पोखू, सोमेश्वर, जमदग्नि, कपिल मुनि, कालिक नाग, नरसिंह, भूतराजा, कंडारिया, जाख के अलावा यहाँ महाराज कर्ण एवं शल्य भी माने व पूजे जाते हैं। यमुना घाटी पांडवों की वनवासस्थली मानी जाती है और यहाँ के वासी अपने आपको पांडवों का वंशज मानते रहे हैं। बताते हैं कि यहीं से पांडवों ने स्वर्गारोहण किया था। पांडवों की परंपरा में यहाँ बहुपति एवं बहुपत्नी प्रथा भी बहुत समय तक रही।

पांडव यहाँ के निवासियों के आराध्य रहे हैं, इसलिए उनके नाम पर गाँव-गाँव में पांडव नृत्य का आयोजन ‘पंडौं (पांडव) की सराद’ के रूप में होता है। यमुना घाटी में यक्ष को ‘जाख’ के रूप में पूजते हैं तो टौंस घाटी में दानवीर कर्ण को। देवरा गाँव में इनका भव्य मंदिर है। उनकी पूजा-अर्चना होती है, साथ ही शल्य भी यहाँ के निवासियों के ईष्ट देव हैं।

इस क्षेत्र में अनेक गाँवों में पांडवों के स्मृति स्थल ‘चौंरी’ के रूप में देखने को मिलते हैं, जहाँ लौह व काष्ठ से बनी गदाएँ, धनुष-बाण, दीपक व वल्डे़ रखी होती हैं। लोग इन्हें पांडवों से जुड़ा मानते हैं। चौंरी के समीप ही पांडव नृत्य होता है।

पांडव नृत्य के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती। गाँव के स्त्री-पुरुषों पर वे अवतरित होकर नृत्य करते हैं। इसके लिए गाँव के परंपरागत स्थानीय ढोल, रणसिंहा, तालकी, दमाड़ा बजानेवाले बाजगी ‘जुमरिया’ अपने अनूठे वाद्य कौशल का परिचय देकर उन्हें अवतरित कराते ‘औतारते’ हैं। अवतरित होनेवाले स्त्री-पुरुष पांडवों के ‘पसवा’ (पात्र) कहलाते हैं। प्रत्येक पसवा के लिए पृथक् ताल, लय व थाप का वाद्य बजता है। पहले एक-एक कर पसवा औतरते हैं, फिर यह सामूहिकता का रूप ले लेता है। स्थानीय बोली में अर्जुन के लिए ‘खाती’, द्रौपदी के लिए ‘द्रुपता’ एवं कृष्ण के लिए ‘नागरजा’ कहा जाता है। सारे स्त्री एवं पुरुष पसवा एक साथ औतरते हैं तो यही पांडव नृत्य का रूप ले लेता है। इसमें प्रत्येक की भाव-भंगिमा व शरीर संचालन का ढंग अपने-अपने ढंग का होता है, जो दर्शकों को रोमांचित किए बगैर नहीं रहता। प्रत्येक पसवा अपने नृत्य के चरम पर होता है। काष्ठ व लोहे के भारी-भरकम गदे से अपनी नंगी पीठ पर प्रहार, लोहे की गरम सलाखों को जीभ से चाटना, जहरीले साँप पकड़कर उन्हें अपने गले में लपेटकर नचाना जैसे उनके हैरतंगेज कारनामे देखकर आँखें फटी-की-फटी रह जाती हैं।

यों तो यमुना घाटी क्षेत्र के अनेक गाँवों में पांडव नृत्य होता है, किंतु सरनौल गाँव का पांडव नृत्य अपने अनूठेपन के कारण खासा रोचक एवं प्रसिद्ध है।

सरनौल रवांई क्षेत्र के विकासखंड नौगाँव का सुदूर गाँव है, जो तहसील मुख्यालय बड़कोट से ४५ कि.मी. की दूरी पर बसा है। ठकराल पट्टी के बडे़ से इस गाँव की ईष्टदेवी रेणुका है तथा गाँव के मध्य में इनका छत्र-शैली में बना प्राचीन मंदिर अवस्थित है। वर्ष भर में अनेक अवसरों पर इसी मंदिर के प्रांगण में पांडव नृत्य संपन्न होता है। मंदिर के एक छोर पर पार्श्व की ओर चौंरी भी विराजमान है।

यहाँ आयोजित होनेवाले ‘पंडौं की सराद’ में पांडवों के अज्ञातवास की स्थिति को दरशाते ‘जोगड़ा नृत्य’ के अलावा ‘घोड़ी नृत्य’, ‘हाथी नृत्य’ ऐसी प्रस्तुतियाँ हैं, जिन्हें देखकर अद्भुत रोमांच होता है। इनके साथ ही गैंड़ा वध का प्रसंग भी मन को मोह लेता है। स्थानीय बोली ‘रवांल्टी में इसे गैंड़ी मारना’ कहते हैं। लोक में प्रचलित कथा के अनुसार एक बार जब भगवान् को कोढ़ हुआ और उससे बचने के लिए बाण की आवश्यकता थी। बाण भगवान् शंकर के पास था। बाण की रक्षक एक राक्षसी थी, जो पाताल लोक में रहती थी। अर्जुन राक्षसी को लेने पाताललोक पहुँचा, जहाँ उसकी मुलाकात वासुदंता से हुई। अर्जुन से प्रणय के बाद वासुदंता ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नागार्जुन रखा गया। पांडु के श्राद्ध के लिए गैंडे़ की राख की आवश्यकता पड़ी तो अर्जुन उसे लेने चल पड़ा। उसने जाकर उस गैंडे का वध किया, जो नागार्जुन का पाला हुआ था। इस बात को लेकर अर्जुन व नागार्जुन में युद्ध हुआ, जिसमें नागार्जुन ने अर्जुन को मार दिया। वासुदंता को पता चला तो उसने सारी बात नागार्जुन को बताई। उसने अर्जुन को जीवित कर दिया और फिर पिता-पुत्र का परिचय हुआ। पांडव नृत्य को लेकर उल्लेखनीय है कि इसमें स्त्री व पुरुषों की भागीदारी समान रूप से होती है। प्रत्येक पसवा के लिए अलग अंदाज में वाद्य बजते हैं और अपने अनुरूप वाद्य सुनकर फिर नृत्य संचालन स्वतः लय व गति पकड़ने लगता है। पहले एक-एक, फिर सभी की सामूहिक भागीदारी इस नृत्य को मोहक बनाकर चरम की ओर ले जाती है। परंपरागत वाद्यों को बजानेवाले ‘जुमरियों’ की इस नृत्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक तरह से वे ही पूरे नृत्य का संचालन करते हैं।

नंगी पीठ पर काँटेदार छड़ी का प्रहार, लोहे के ‘गजा’ (गदे) का प्रहार, गरम सलाखों को जीभ से चाटना, साँप पकड़कर उसे गले में लपेटकर नचाना, जलती आग में कूदने जैसे कृत्यों के अलावा मृत्यु के देवता यमराज से साक्षात्कार के लिए ‘श्मशान साधना’ जैसे करतब भी सरनौल के पांडव नृत्य में सम्मिलित हैं, जिन्हें देखकर सहज ही विश्वास होने लगता है कि पांडव नृत्य के चरम पर उनके साथ निश्चित रूप से दैवीय शक्तियाँ आरूढ़ हो जाती हैं, जो हमें आस्था और विश्वास की किसी और ही दुनिया की ओर ले जाती हैं।

आमतौर पर ‘पंडौं सराद’ की शुरुआत मुख्य आयोजन से एक दिन पूर्व ही हो जाती है, जिसे स्थानीय बोली में ‘रात काटना’ कहा जाता है। इसी रात्रि को ‘ओसागड़ी’ भरी जाती है। शाम को सभी ‘पसवा’ मुख्य देव स्थल ‘मंदिर’ अथवा ‘थात’ में इकट्ठे हो जाते हैं। ओसागड़ी भरने के लिए शाम को ही समय निश्चित किया जाता है। इसके लिए चावल के दानों की दो-तीन ‘पूँजी’ (ढेरी) रखकर उनमें से एक को छूकर तय किया जाता है कि इसे कौन भरेगा तथा समय क्या रहेगा। अधिकांशतः यह कार्य ‘खाती’ के जिम्मे होता है। शाम को जुमरिया अपने ढोल पर थाप देकर परंपरागत ढंग से पांडवों के लिए प्रचलित वाद्य बजाते हैं, जिसे ‘चसिण देना’ कहा जाता है और पांडव औतरता शुरू कर देते हैं।

मध्यरात्रि को खाती खाली लोटा लेकर गाँव के प्राकृतिक जलस्रोत ‘नाले’ पर जाता है और वहाँ से पानी भर लाता है। पानी भरने को लेकर यह बात खास होती है कि लोटा भरते ही उसे नाले से इस तरह हटा दिया जाता है कि पानी की एक बूँद भी बाहर न छलके। सराद वाले दिन सुबह ही ओसागड़ी में एक सिक्का डाला जाता है, जिसके ऊपर खाती द्वारा बारी-बारी से गाँव के प्रत्येक पसवा की कुशलक्षेम को लेकर चावल के दाने डाले जाते हैं। यदि वे सीधे ही सिक्के के ऊपर बैठ जाते हैं तो सबकुछ कुशल समझा जाता है, अन्यथा अपशकुन की आशंका रहती है।

दोपहर से पांडव नृत्य आरंभ हो जाता है। उस दिन सभी पसवा निराहार रहते हैं। दोपहर से ही वहाँ पर भोजन की भी व्यवस्था होने लगती है। यदि सराद गाँव के किसी एक परिवार की ओर से दी जा रही होती है तो खाद्य सामग्री की व्यवस्था उसकी ओर से होती है, अन्यथा सारा गाँव करता है। किसी एक परिवार की ओर से सराद दी जाने की स्थिति में भी गाँव का हर परिवार अपनी ओर से आटा, चावल देना नहीं भूलता। इस अवसर पर पकनेवाला भोजन एकदम सादा होता है—दाल-भात और पूड़ी।

 सराद के लिए आटे के नन्हे गोले बनाकर तेल में तलकर तैयार किए जाते हैं, जिन्हें खाती को ही पकाना/तलना होता है। इन्हें लेकर यह बात महत्त्वपूर्ण होती है कि इन्हें खौलते तेल में हाथ से डाला, पलटा और निकाला जाता है। इन्हें ‘फल’ कहा जाता है। इन्हें चौंरी के ऊपर रखा जाता है और सराद के समापन पर प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है, जिससे मनोकामना पूर्ण हो।

पांडव नृत्य में प्रत्येक पसवा को अपना परिचय परंपरागत लयबद्ध शैली में एक हाथ में ‘धुप्याना’ (धूपदान) व दूसरे में चावल उछालकर गाते हुए देना होता है, जिसे ‘छाड़या’ लगाना कहा जाता है। इसी से उसके परिचय की पुख्ता पुष्टि भी होती है।

अँधेरा घिरने के साथ ही पंडौं की सराद अपने चरम पर होती है, तभी स्थानीय वाद्यों के साथ सभी पसवा नाले की ओर जाते हैं और पूर्वजों को तर्पण देने के बाद वहाँ से पाजू (पारिजात) के पत्ते लेकर लौटते हैं तथा इन्हें ग्रामीणों में बाँटना शुभ माना जाता है। ‘भात’ के गोले बनाकर पिंडदान होता है, फिर लोगों में बाँटा जाता है। सभी पसवों को वहीं पर भोजन कराया जाता है और फिर प्रत्येक परिवार के लिए जहाँ से पसवा होता है, पूड़ी भेज दी जाती है। इसके गाँव के दूसरे लोग भी वहीं पर भोजन करने जाते हैं।

इसके साथ ही पंडौं की सराद का समापन हो जाता है। लोग अपने-अपने घरों की ओर लौटने लगते हैं।

हर्ष के अतिरेक में कुछ स्त्री-पुरुष एक-दूसरे से गुँथकर रवांई के सर्वाधिक प्रचलित ताँदी गीतों की शुरुआत कर देते हैं और फिर देखते-ही-देखते लोगों की भागीदारी बढ़ने लगती है। लोक संस्कृति के रंग में सभी सराबोर होने लगते हैं और यह सिलसिला देर रात्रि तक बराबर चलता रहता है।

अपनी अनूठी नृत्यकला व कौशल के कारण सरनौल का पांडव नृत्य अपने क्षेत्र व प्रदेश से बाहर अनेक स्थानों पर प्रशंसा बटोर चुका है। राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल (म.प्र.) एवं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में महाभारत पर केंद्रित ‘जय उत्सव’ में सरनौल के पांडव नृत्य की सफल प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। कहा जा सकता है कि सरनौल का पांडव नृत्य न केवल पांडवों के प्रति यहाँ के निवासियों की अगाध आस्था को दरशाता है, अपितु लोक में छुपी कलाओं के माध्यम से दुनिया के सामने अपनी पहचान को भी पुख्ता करता है।

महाबीर रवांल्टा
संभावना-महरगाँव,
पत्रालय—मोल्टाड़ी, पुरोला,
उत्तरकाशी-२४९१८५ (उत्तराखंड)
दूरभाष : ०९४११८३४००७

हमारे संकलन