लघुता में एक महामानव : बालकवि बैरागी

लघुता में एक महामानव : बालकवि बैरागी

कविवर बालकवि बैरागी निरंतर गूँज रहे हैं। गूँज रहा है लघुता में एक महामानव। उस विराट् की अनुगूँज सुनाई दे रही है। अनुगूँज उनकी गगनचुंबी कविताओं की, उनकी लोकप्रियता की, बिन माँगे की तालियों की, हिंदी के प्रबलतम समर्थन की। अनुगूँज यारानापूर्ण यायावरी की, आवारा फक्कड़पन की, दूसरों को परास्त करनेवाली हँसी की, बुक्काफाड़ ठहाकों की, भावनाजन्य निर्भीकता की, विदेशी शत्रु के प्रति हुंकार की, देशी के प्रति प्यार की। अनुगूँज की भी अनुगूँजें सुनाई दे रही हैं, लगभग छह दशक के सान्निध्य की स्मृतियों की अनुगूँजें।

मेरे पिता श्री राधेश्याम प्रगल्भ को वे अपना बड़ा भाई मानते थे। वे हमारे घर आते थे। हम जिन-जिन शहरों में रहे, वे घर आए—खुर्जा, हाथरस, मथुरा और दिल्ली, कोई भी शहर रहा हो। वे कहीं भी रहे, हम उनके घर गए—मनासा, नीमच, भोपाल और दिल्ली। दरअसल, हमारे घुमंतू घरों में कवियों का आना-जाना निरंतर रहता था। बैरागी चचे, काका हाथरसीजी और मेरे पिताजी छोटी-छोटी बातों पर खूब हँसा करते थे। और उनके हास्य का कारण चलित-प्रचलित लतीफे नहीं होते थे, बल्कि वे लतीफे बनाते थे, गढ़ते थे। प्रत्युत्पन्न मतियाँ गतिपूर्वक संवाद करती थीं। वे जो कह देते थे, हास्य का नया प्रकार बन जाता था। कविता में तरह-तरह के वाद उन्होंने चलाए, जैसे पर्यायवाद, वर्णविपर्ययवाद। खेलो शब्दों के साथ, नए गढ़ो। शब्दों के आगे-पीछे विशेषण-उपमान मढ़ो। वर्णों का क्रम बदल दो। शब्दों को नई अर्थवत्ता दे दो। अर्थों को नए शब्द दे दो। सिर्फ दो नहीं तीन-तीन चार-चार दे दो। बैरागीजी पूछते हैं मेरे पिता से, कहाँ हो? पिताजी उत्तर देते हैं, व्योम के, आकाश के, नीले गगन में! काकाजी पूछते हैं, वहाँ कौन मिलौ? उत्तर मिला, एक विद्युत्, एक बिजली, दामिनी थी। बैरागीजी पुनः पूछते हैं, महल के, प्रासाद के, ऊँचे भवन में कौन था? पिताजी कहते हैं, एक महिला, एक रमणी, कामिनी थी। काकाजी सराहना में छड़ी उठा लेते हैं, पिटौगे दोनों! काकाजी मुसकराते हैं, शेष दो ठहाके लगाते हैं।

काकाजी मेरे पिता को बेटा राधेश्याम कहते थे। बैरागीजी काकाजी को गोद लिये हुए पिताजी कहते थे। वर्ण-विपर्यय का खेल चला तो सबके नाम बदल गए। काका हाथरसी, हाका काथरसी हो गए। राधे श्याम प्रगल्भ, प्रादेशाम रगल्भ हो गए। बाल कवि बैरागी, काल बबी गैराबी हो गए। फिर मिलते तो परस्पर इन्हीं नामों से संबोधित भी करते। हाँ, काथरसी जी! सुना रगल्भ! हाँ, गैराबी बोल! यहाँ तक तो ठीक, कुछ भदेस प्रयोग भी कर लेते थे, उन पर तो और ज्यादा हँसते थे। समझ की सीमा के कारण मेरे किशोर मन को पता नहीं कैसा लगता था। जैसे लोहे के पुल को पोहे का लुल कहते थे। काकाजी विकट शब्द-शोधी थे। उन्होंने वर्ण-विपर्यय, नाम-विपर्यय, काम-विपर्यय की अनेक कविताएँ रचीं। उन्नीस सौ सत्तावन में अठारह सौ सत्तावन के मुक्ति-संग्राम की शत-वार्षिकी मनाई जा रही थी। लाल किले के कवि-सम्मेलन में काकाजी ने वीररस में हास्य घोल दिया। ‘युद्ध-भूमि में मैंने मुर्दे पटक-पटककर दे मारे। इतनी ताकत है मेरी इस टूटी हुई कलाई में, आज्ञा दें तो आग लगा दूँ फौरन दियासलाई में। लालकिले का घंटाघर मेरे धक्के से टूटा है।’ मैंने बैरागीजी को कहते हुए सुना लालकिले का धक्काघर, मेरे घंटे से टूटा है। मैंने मंच के पीछे दबे-घुटे, कम आवाज के अथमनीय ठहाके सुने हैं।

स्मृतियों से स्मृतियाँ जुड़ी हैं। सन् चौंसठ या पैंसठ की बात होगी, लालकिले के कवि-सम्मेलन के अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी, कवि-सम्मेलन वाज स्टार्टेड बाई ए चाइल्ड पोएट अशोक शर्मा, अनदर चाइल्ड पोएट बैरागी ऑल्सो रिसाइटेड हिज पोयम्स। मैं तो बालकवि था ही, बैरागीजी मुझसे दो दिन कम बीस साल बड़े थे, उनके नाम के बालकवि को भी चाइल्ड पोएट कर दिया। अखबार बैरागीजी ने ही मुझे दिखाया था। अब तक है मेरे पास वह कतरन।

नाम तो उनका नंदराम था। बालकवि बैरागी कैसे हुआ, डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने बताया कि तब की बात है जब बैरागीजी मुश्किल से आठ-नौ बरस के रहे होंगे। जावरा के कैलाशनाथ काटजूजी ने, जो बाद में गृहमंत्री रहे, बालक से कहा, कोई कविता सुनाओ! बालक नंदराम ने राष्ट्रप्रेम की ऐसी जबरदस्त कविता सुनाई कि वे ही नहीं, आसपास के सब लोग गद्गद हो गए! काटजू बोले, अब से इस लड़के का नाम होगा—बालकवि बैरागी।

बैरागीजी के बचपन में गरीबी गूँजती थी। अपने दिव्यांग पिता को चार छोटे-छोटे पहियों की गाड़ी पर बिठाकर वे रस्सी से खींचते थे, और टीपदार स्वर में देशभक्ति के गीत गाते थे। लोग कटोरे में सिक्के डाल देते थे। उनसे घर का खर्च और स्वाभिमान से उनकी पढ़ाई चलती थी। अपनी गरीबी का गौरवीकरण करने में उन्हें अंत तक कोई संकोच नहीं हुआ। मँगता से मिनिस्टर होने की अपनी गाथा गर्व से सुनाते थे।

जब मैं किशोर से युवा होने की दहलीज पर था, तब हमने एक प्रिंटिंग प्रेस लगाई थी। कम पूँजी में बढि़या काम करने के संकल्प के साथ उसका नाम पिताजी ने ‘संकल्प प्रेस’ रख दिया था। शुरू के कुछ महीने जॉबवर्क किया। मैंने कंपोजिंग सीखी, छोटे भाई ने मशीन से कागज उठाना। हमने जो पहली किताब प्रकाशित की, वह थी बालकवि बैरागीजी की ‘दादी का कर्ज’! अभी मैं जब समाचार-पत्रों में उनकी प्रकाशित पुस्तकों की सूची पढ़ रहा था, तो हैरान रह गया। दादी का कर्ज कहाँ गई? वह पुस्तक तो मैंने खुद कंपोज की थी! उसका कवर दुरंगी था। मथुरा के एक कलाकार ने बनाया था। दो ब्लॉक बने थे। लाल और आसमानी रंग में दो बार छपाई हुई थी। एक चित्ताकर्षक पुस्तक लेकर मैं प्रकाशक और सप्लायर के तौर पर भोपाल पहुँचा। तब वे नए-नए मंत्री बने थे। पिताजी को आशा थी कि यह किताब सरकारी खरीद में आ जाएगी, अब तो मंत्री बन गए हैं। खैर, मैं भोपाल गया तो खूब आवभगत हुई। मिलनेवालों की भीड़ को छोड़कर वे मुझे अंदर अध्ययन-कक्ष में ले गए। पुस्तक देखकर बेहद प्रसन्न हुए। मुझे उन्होंने अपनी आनेवाली फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ का गीत उसी धुन में सुनाया, जो बाद में हमने फिल्म में सुना—तू चंदा मैं चांदनी...।

मैं पहाड़ी पर उनके बँगले में दो दिन रुका। पेड़ों से घिरे हुए, ऊँचाई पर बने उस बँगले में चाचीजी ने बड़ा स्नेह दिया। उनके बडे़ पुत्र मुन्ना और छोटे गोर्की के साथ भी खूब खेले। वे दोनों मुझसे छोटे थे। बहुत अच्छा लगा। शानदार विदाई के साथ मैं मथुरा लौट आया। कुछ दिन के बाद पिताजी के पास बैरागीजी का पत्र आया कि क्योंकि अब मैं मंत्री हो गया हूँ, इसलिए सरकारी खरीद में अपनी किताब का प्रस्ताव नहीं रख सकता। कोई और रखेगा तो समर्थन नहीं करूँगा। आप मध्य प्रदेश में नहीं किसी और प्रांत में प्रयत्न करें। पिताजी भी घर-फूँक, तमाशा देख संप्रदाय के थे। उन्होंने कहीं और प्रयास किया हो, मुझे याद नहीं पड़ता। वह पुस्तक उदारता से बाँट दी गई। दोबारा छपी नहीं। शायद इसीलिए सूची में उस पुस्तक का नाम नहीं आया। बिना अपनी पूरी उम्र पाए काल के चक्र में समा गई। मुन्ना और गोर्की से पूछूँगा, एक प्रति तो हो शायद उनके पास।

फिर तो उनके साथ सैकड़ों कवि-सम्मेलन किए। उनके पोस्टकार्ड्स और अंतरदेशी पत्र मेरे पास भी आते रहे। ऊपर लिखते थे ‘माँ’। सुंदर-सुंदर मोती जडे़ अक्षर। हृदय से निकले अक्षर। हृदय में प्रवेश करने की क्षमता रखनेवाले अक्षर।

अस्सी के आसपास मैंने एक व्यंग्य-कविता लिखी थी—‘अपना देश तो महान् है।’ उसकी शुरुआत कुछ इस तरह करता था, ‘हमारे मित्र शार्दूल सिंह विक्रीड़ति, देश की दशा से बहुत पीड़ति! मैंने कहा, इन बहते पनालों को रोकिए, आँसुओं को अंदर ही सोखिए! वे बोले, भैया अशोक! इन आँसुओं को मत रोक!’ कविता लंबी थी। ये बात मैंने आपको इसलिए बताई कि पिछले पैंतीस सालों में चचे बैरागी मुझे जब भी मिलते थे, दुःख की नाटकीय मुद्रा बनाकर चहकते हुए कहते थे, भैया अशोक! इन आँसुओं को मत रोक! मैं हँसकर उनके पैर छूता था। बीच में कुछ दिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जब चची बीमार थीं और उनसे मिलने मैं ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट जाता था। आदरणीया चची को कैंसर था। रोग ने हरा दिया, वे चली गईं। मैंने पहली बार चचे को रोते देखा। मेरी आँखें भी आँसुओं से भरी थीं। इस बार उन्होंने पहली और अंतिम बार दुःखी स्वर में गले लगाते हुए कहा था, बेटा अशोक! इन आँसुओं को मत रोक! हम दोनों के पास रुमाल नहीं थे।

अभी पिछले साल, सन् दो हजार सत्रह के नवंबर महीने की ग्यारह तारीख को उनसे उदयपुर के कवि-सम्मेलन में भेंट हुई थी। संवाद अपने मूल नाटकीय रूप में बहुत पहले ही आ चुका था, इस बार भी चंचलता के साथ मुखरित हुआ, भैया अशोक! इन आँसुओं को मत रोक! आवाज में वही खनक, सम्मोहन और प्रेम का जादू। हालाँकि चची के गोलोक-गमन के बाद से उन्होंने गाना छोड़ दिया था, पर स्वर में नाटकीयता की चुंबक थी। घुटने के दर्द के कारण बैठकर, लेकिन घंटे भर कविताएँ सुनाईं। वाणी की ऊर्जा में कोई कमी नहीं थी। उनकी कविताएँ, हमेशा लगेगा जैसे आज भी खड़ी हैं समय के श्रोताओं के सामने! इस इंटरनेट के जमाने में भी डाक विभाग का भला करते रहे अंत तक। खादी परिधान और खादी के झोले में खूब सारे पोस्टकार्ड रखते थे।

सकर्मक क्षमताओं के बावजूद कितनी सहजता से वे चले गए। किसी कार्यक्रम से घर लौटे थे। परिवार के साथ गप-गोष्ठी की। भोजन किया और सो गए। देर तक नहीं उठे तो पुत्र ने जगाने की कोशिश की। उनकी लाडली पौत्री रौनक ने भी उन्हें हिलाया, लेकिन वे तो जा चुके थे मेरी चची को गाकर गीत सुनाने।

वे चले गए। धरती पर उनके अपार आत्मीयों के आसपास उनके असंख्य संस्मरण गूँज रहे होंगे। हिंदी भवन में एक श्रद्धांजलि सभा हुई। प्रारंभ में ही संचालक चिराग जैन ने उसी दिन लिखी अपनी एक कविता सुनाई—

शब्दों को ईंधन करने का

जीवट ठंडा होता है क्या?

ज्वाला में दहकर भी कंचन

अपनी आभा खोता है क्या?

यम के आदेशों से डरकर

कब कीर्तियान रुक पाते हैं,

कुछ श्वासों के थम जाने से

क्या झंझावात चुक जाते हैं?

मिट्टी को भस्म बना देना

बस यही चिता कर पाती है,

अक्षुण्ण वज्र रह जाता है

’ स्वयं चिता मर जाती है।

काया ने आँखें मूँदी हैं

चिंतन के नेत्र प्रखर ही हैं,

जिह्वा ने चुप्पी ओढ़ी है

भावों के शब्द मुखर ही हैं।

दीपक की पीर समझने को

बलिदान कई रातें करके,

जो थका नहीं क्षण भर को भी

नक्षत्रों से बातें करके।

जिसने जर्जर पीड़ाओं को

समिधा का मान दिलाया हो,

जिसने जग की तृष्णाओं को

अंजलि से अमिय पिलाया हो,

जिसने कविता में जीवनभर

अनहद का अंतर्नाद रचा,

जिसने ज्वाला की लपटों का

कविताओं में अनुवाद रचा।

जिसने आँसू की आह सुनी

जिसने करुणा का रोर सुना,

जिसने युग की पीड़ा गाई

जिसने आशा का शोर सुना,

यमदूत उसे ले जाने का

उपक्रम कैसे कर सकता है!

जिसने शब्दों में प्राण भरे

वह स्वयं कहाँ मर सकता है!

करुणा में जब पग जाते हैं

फिर अक्षर ध्वस्त नहीं होते,

सूरज-वूरज होते होंगे,

बैरागी अस्त नहीं होते।

प्रायः किसी श्रद्धांजलि सभा में ऐसा नहीं देखा गया कि किसी के उद्बोधन के बाद तालियाँ बजें, लेकिन चिराग ने इतने ढंग से अपनी बात कही कि स्वतःस्फूर्त तालियाँ नहीं रुकीं। वाचिक परंपरा की कविता की यही तो ताकत है कि हर मर्मस्पर्शी कविता पर तालियाँ बजती हैं। शोक की मनोभूमि पर भी हम तालियाँ बजा सकते हैं। चिराग ने अपने शब्दों में सजीव कर दिया बैरागीजी के व्यक्तित्व को। सूरज-वूरज होते होंगे, बैरागी अस्त नहीं होते।

रह-रहकर गूँज रही हैं बैरागीजी की शब्द-ध्वनियाँ—हैं करोड़ों सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के, जो न दें सबको उजाला, सूर्य वे किसे काम के।

अनेक नामचीन कवि थे उस श्रद्धांजलि सभा में। सभी ने अपने-अपने संस्मरण सुनाए। अंत में डॉ. गोविंद व्यास ने सारगर्भित बातें कहीं कि बैरागीजी दिनकरजी के बाद उदात्त कविता के प्रथम पंक्ति के हस्ताक्षर थे। हिंदी के मंच पर वे पहले ऐसे कवि थे, जिन्होंने कविता को परफॉर्मिंग आर्ट के बहुत निकट ला दिया था। उन्हें मालूम था कि किस माहौल में कैसी कविता सुनानी चाहिए। किसकी तरफ देखकर सुनानी चाहिए। माइक से कितना पीछे हटकर बोलना चाहिए। कौन व्यक्ति नहीं सुन रहा है, इसकी उन्हें पहचान थी। कौन अच्छी तरह सुन रहा है, इसकी उनको अच्छी जानकारी थी। सही कहा गोविंद भैया ने।

हमारी वाचिक परंपरा को गति देनेवाले, मति देनेवाले अचानक इति तक चले जाएँगे, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था। वहाँ एक यति है, विराम, अर्धविराम के बाद भी चीजें चलेंगी। एक ऐसा व्यक्तित्व, जो लघुतम में महत्तम था। वे बडे़ थे, लेकिन अपने बड़प्पन को दिखाने के स्थान पर सदैव धरती से जुडे़ रहते थे। नैतिक आदर्शों में चूक नहीं होती थी। एक साफगोई के साथ आत्मीयता के सारे अलिखित नियमों का पालन करते हुए वे लोगों के अपने हो जाते थे। बारंबारता के साथ गूँज रहा है, लघुता में एक महामानव।

अशोक चक्रधर
जे-११६, सरिता विहार, मथुरा रोड,
नई दिल्ली-११००४४
इ-मेल : chakradhar@gmail.com

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