तलाक, तलाक, तलाक

तलाक, तलाक, तलाक

ईद के दिन सेवइयों में थोड़ा मीठा ज्यादा हो गया और गोश्त में मिर्च-मसाले की अधिकता ने घर का माहौल पहले से थोड़ा-थोड़ा बिगाड़ा, पर जब ईद के जश्ननुमा-खुशनुमा तसवीर के धुँधलाने पर उसी रात कहा खाविंद ने बेगम से, ‘‘क्या मैं नहीं समझता कि आज के दिन मेरी रुसवाई करने के लिए ही तुमने मिर्चों की भरमार कर दी थी गोश्त में और सेवइयों में इतनी मिठास भर दी थी कि जुबान तालू के साथ चिपट-चिपट जा रही थी। ऐसा तुमने जान-बूझकर मेरी जग-हँसाई के लिए किया था न?’’

‘‘नहीं मेरे सरताज, ऐसा मैं क्यों करूँगी? इस सोलह साल की शादीशुदा जिंदगी में क्या कभी ऐसा किया है मैंने, जो आज करूँगी?’’

‘‘आज तो किया ही है न बेगम आपने।’’

‘‘नहीं मेरे आका! ऐसा अनजाने में हो गया है शायद।’’ मुझसे कहते तो सही, मुझे तीन मिनट से ज्यादा नहीं लगता दोनों को आपके स्वादानुसार लजीज कर देने में। आपने तो पहले चखा था न? बता देते। सोलह वर्षों के इम्तिहान में न भी पास हुई हूँ तो भी आज जरूर हो जाती, परंतु कहते तो सही, बताते तो सही। मैं तो आखिर में बचा-खुचा ही खाती हूँ। अपनी ओर से तो उम्दा, मुहब्बत में डूबा हुआ पकवान परोसने की कोशिश की थी मैंने।’’

‘‘चुप रहो बेगम, चुप रहो। एक तो गलती की और दूसरे गलत बयानी भी कर रही हो।’’

‘‘यह गलत बयानी नहीं, हकीकत है मेरे प्यारे खाविंद।’’

‘‘अभी भी जुबानदराजी किए जा रही हो तुम, बेगम।’’ मियाँ अशरफ जामे से बाहर हुए जा रहे थे। उनकी नाक पर चढ़ा गुस्सा नथुने से बाहर निकलने को बेताब सा नजर आने लगा था।

‘‘मियाँ, काहे लाल-पीले हो रहे हैं आप। आज ईद है, खुशियाँ बाँटिए। बच्चे बडे़ हो रहे हैं, उन्हें दुलारिए-पुचकारिए, ईदी दीजिए। आइए, चलिए खुश रहने के लिए ख्वाबगाह में।’’

‘‘बेगम, ख्वाबगाह में जाएँ मेरे दुश्मन। मैं तो तुम्हें तलाक देता हूँ—तलाक, तलाक, तलाक।’’

अचानक बेगम रुबिया पर वज्राघात हो गया जैसे। मियाँ अशरफ इस तीन बार के तलाक उच्चारणोपरांत बाहर निकल गए। रुबिया काठ मारने की स्थिति में आ गई। न वह रो पा रही थी और न हँस पा रही थी। साँप सूँघ गया जैसी स्थिति में घंटों बैठी रही वह। बच्चे सो गए। खाविंद बाहर चले गए थे—कहाँ? नहीं जानती वह। स्वयं वहीं बैठी-बैठी ऊँघने लगी वह, संभवतः सो भी गई। तभी खिड़की से आती आफताब की किरणों ने उसे छुआ और उसकी आँखें खुल गईं। आँखें खुलते ही रात के वे तीन उच्चारित शब्द कानों में गूँजने लगे। हाँ, चुभ जरूर नहीं रहे थे वे। वह नित्य-क्रिया से निवृत्त हुई। बच्चे खुशी-खुशी स्कूल चले गए। मियाँ अशरफ लगता है कि रात ही लौट आए थे। परंतु टेबुल पर रखे नाश्ते की ओर बिना निगाह किए ही घर से बाहर निकल गए और जब साँझ गए आए तो आग-बबूला हो गए, ‘‘बेगम रुबिया! मैंने कल रात आपको तलाक दे दिया था, फिर भी आप मेरे दौलतखाने में कैसे दिखाई पड़ रही हैं?’’

‘‘अशरफ मियाँ, वह तलाक मुकम्मल नहीं है?’’

कुरान शरीफ के विषयों पर शोध कर चुकी और तीन शोध-पत्रों के साया होने के पश्चात् रुबिया बेगम काफी आश्वस्त थीं तथा उन्हें किसी प्रकार का कोई भय भी नहीं सता रहा था। थोड़ी देर तो ऐसा लगा कि खाविंद अशरफ पर रुबिया की बातों का माकूल प्रभाव पड़ा है, क्योंकि वे थोडे़ गंभीर और शांत नजर आने लगे थे। वे भी पी-एच.डी. थे। भले ही इसलामिक विषयों पर नहीं, पर मुगलकालीन इतिहास के भारत प्रसिद्ध विद्वानों में से एक थे वे। भारत के इतिहासकार उन्हें पहली पंक्ति में बैठाकर गौरवान्वित महसूस करते थे। हाँ, यह जरूर था कि वे क्रोधी स्वभाव के थे और क्रोध में पूरी तरह अपना विवेक खो देते थे। केवल इतना ही नहीं, क्रोध! वह भी अशरफ मियाँ का, महीनों अपनी जकड़ में रखता था और कोई भी तर्क उन्हें शांत करने में सक्षम नहीं हुआ करता था। रुबिया के इस तर्क ‘तलाक मुकम्मल नहीं हुआ है’ ने आग में घी का काम किया। ‘‘रुबिया बेगम! तीन बार तलाक मुँह से निकल जाने पर मुकम्मल हो जाता है और अब आप से हमारा खाविंद-बेगम का रिश्ता खत्म हो चुका है।’’

‘‘नहीं, अशरफ मियाँ! यह आपके नावाकिफ होने की कहानी दोहरा रहा है। आप मुगलकालीन इतिहास के विद्वान् अवश्य हैं, परंतु इसलाम और कुरान की बारीकियों से पूरी तरह नावाकिफ हैं। कहीं क्रोध में तीन बार तलाक कह देने से विवाह-संबंध टूटता है भला, मेरे पति-परमेश्वर।’’

‘‘बेगम किस खाम-खयाली में हो तुम?’’

‘‘जिसमें तुम हो, मेरे कामदेव।’’

‘‘ये चोंचले हैं।’’

‘‘नहीं, यह हकीकत है।’’

‘‘नहीं, यह बदतमीजी है, जिसे बेगैरत करने में मुझे कोई हर्ज नहीं होगा। आज तुम मुझे बेगैरती से भरी दिख रही हो।’’

‘‘नहीं अशरफ मियाँ, मैं तलाकशुदा नहीं हूँ, कल रात के उच्चारणों के बाद भी।’’

‘‘वह कैसे भला?’’

चुप रही रुबिया बहुत देर तक। जवाब देना तो चाह रही थी, पर गुत्थी सुलझाने की ब्योंत में लगी हुई थी। वह जानती थी कि अशरफ मियाँ को समझ में तो आएगा, पर जब तक उनका गुस्सा शांत नहीं होता, तब तक तार्किक होना बुद्धिमानी नहीं। उनका क्रोध तो क्रमागति से नीचे की ओर आएगा, पर तब तक उनकी चटोरी जुबान और पेट की चाहत को ध्यान में रखकर उन्हें थोड़ा समय देने की जरूरत पर उसने गौर करना शुरू कर दिया तथा योजनाबद्ध तरीके से कार्य को अंजाम देने के लिए उठी। रात के गोश्त के मिर्च को अपने तकनीक का प्रयोग करके कम करके भून लिया, ऐसा जैसे अभी-अभी नई डिश तैयार की हो और सेवइयों में मलाई की बहुतायत करके उसके मीठेपन को नीचे उतारा तथा दो रुमाली रोटी ताती-ताजी बनाईं। सबकुछ डाइनिंग टेबल पर सजाकर, ‘‘मेरे हुजूर आइए, नोश फरमाइए। क्षुधा तो शांत होनी चाहिए न, शेष फिर कभी।’’

‘‘नहीं, रुबिया बेगम! शेष फिर कभी नहीं, बल्कि अभी और इसी वक्त।’’

‘‘चलिए आपकी बातें सिर-माथे पर। हाँ, खाने से क्या बेवफाई। आइए, नोश फरमाइए।’’

अशरफ मियाँ को भूख तो लगी ही थी। थोड़ा इसरार भी था और रुबिया के व्यंजन की खुशबू नाक में समाती जा रही थी। वे खाने का लोभ सँवरण न कर सके और टेबल से लगी कुरसी पर बैठ ही गए। रुबिया ने भी सुगढ़ता से परोस दिया। हलकी सी मुसकान तैर गई मियाँजी के होंठों पर और बड़ी ही शालीनता से उन्होंने खाना खत्म किया। हाथ-मुँह धोया, ब्रश किया और अपने बेडरूम में पहुँच गए।

बच्चों को खिलाकर उनके कमरे में उनको भेजकर रुबिया भी बेडरूम में पहुँची तो मियाँ अशरफ की आँखें लाल हो गईं।

‘‘बेगम! आप यहाँ कैसे? तलाक हो चुका है हमारा।’’

‘‘नहीं, अशरफ मियाँ! अब आप वह राग तो अलापिए मत। सोइए और सोने दीजिए। ईद तो काली कर दी थी आपने।’’

‘‘बेगम, काली-गोरी मैं नहीं जानता। मेरा बिस्तर अब आप शेयर नहीं कर सकतीं।’’

‘‘चलिए, अभी तो गरमी ही है। हम आपके बगल में जमीन पर लोटायमान हो जाते हैं। नींद तो आ ही जाएगी। आपका सान्निध्य न सही, आपके पलंग का किनारा ही सही।’’

‘‘नहीं बेगम रुबिया, आप मेरा कमरा भी इस्तेमाल नहीं कर सकतीं तलाक के बाद।’’

‘‘छोडि़ए इन बातों को, हुजूर। थूक दीजिए गुस्सा। आज न तो आपको मिर्च ज्यादा लगी और न ही चीनी की मिठास ज्यादा थी। हाँ, मेरे हाथों की मिठास और मेरी उँगलियों का स्पर्श तो मिला ही न आपको, फिर काहे की यह बेमुरव्वती?’’

‘‘बेगम रुबिया, फुसलाओ नहीं मुझे। अब आप तलाकशुदा हैं।’’

‘‘हरगिज नहीं, मिस्टर अशरफ!’’ तिलमिला गई इस बार रुबिया बेगम। अशरफ की आँखें भी खौफजदा सी दिखने लगीं। वे कुछ कह नहीं सके। आँखें मुँद सी रही थीं। माथे पर चिंता नहीं, एक डर की रेखा दिखने सी लगी थी। तभी रुबिया शांत, परंतु बहुत ही गंभीर आवाज में बोली, ‘‘अशरफ मियाँ! आप अब भी शौहर हैं और नौ माह तक रहेंगे, क्योंकि मैं एक महीने के पेट से हूँ और मेरे दोनों बच्चे दस-दस महीने मेरे गर्भ में रह चुके हैं। तीसरा भी ऐसे ही दस महीने बाद ही पैदा होगा।’’

‘‘तो?’’

‘‘तो कुरआन शरीफ की विभिन्न आयतों, कानूनजादों एवं न्यायालयों के उद्घोषों के मुताबिक एक ही बार में तीन बार तलाक कह देने से तलाक पूरा नहीं होता। उसके लिए ‘इद्दत’ (इंतजार समय) का भी ध्यान रखना पड़ता है। अर्थात् या तो तीन रजस्वला समयावधि अथवा तीन माह अथवा बच्चा होने तक, वह भी एक समयावधि के मध्य केवल एक, एक, एक बार ‘तलाक’ कहने से, जिससे छह माह का समय तो निकल ही जाता है, और खाविंद अशरफ मियाँ, मेरी स्थिति में तो पूरे नौ महीने बाकी हैं। साथ ही हम-आप आपसी पति-पत्नी का संबंध कायम रखने के लिए एक बार समझौता का रास्ता तो अपना ही सकते हैं, इतिहास विद्वानजी। इतिहास में तो बडे़-बडे़ समझौते हुए हैं। अकबर ने जोधाबाई से निकाह इसलिए किया था, जिससे मुगलों-राजपूतों के बीच रोटी-बेटी का संबंध हो जाए। बोलो मेरे सरताज, बोलो। मैं गलत हूँ क्या?’’

अशरफ मियाँ ने रुबिया बेगम को खींच लिया पलंग पर। अपने आगोश में लेते हुए अस्फुट स्वर में फुसफुसाए, ‘‘मैंने तलाक ही कब दिया था मेरी जानेमन, वह तो जुबान की दरिंदगी थी। ऐसी जुबान को तुम ही अपनी जुबान के मीठेपन से रसदार बना  सकती हो, बेगम।’’

मदन मोहन वर्मा
 एस.बी. ९७, शास्त्री नगर
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