भारत भिक्षा शिक्षा संस्थान

भारत भिक्षा शिक्षा संस्थान

दुनिया के हर धर्म में दान या भिक्षा का प्रावधान ही नहीं, प्रतिष्ठा भी है। सबका लक्ष्य निर्धन का कल्याण है। समर्थ का काम असमर्थ को भीख देना है, वह भी अपने खुद के भले के लिए। इसलाम आय के कुछ प्रतिशत दान को अनिवार्य मानता है, दूसरे अधिकतर धर्म स्वैच्छिक। हमें लगता है कि इनसान पर धर्म की पकड़ कमजोर हुई है, वरना तीन-चार हजार वर्षों के इतिहास में गरीबी का सफाया क्यों नहीं हो पाया? यदि हो रहा है तो गरीब का ही सफाया हो रहा है। चीन और रूस जैसे धर्म के प्रति आस्था-विहीन देशों को छोड़ भी दें तो संसार के हर देश का धर्म और सरकार गरीबों की भलाई के लिए प्रतिबद्ध और तत्पर है, फिर भी गरीबी है कि अंगद के पाँव सी अडिग है।

इससे कौन इनकार कर सकता है कि भारत दुनिया का सबसे विशाल धर्म-पीडि़त देश है? हर शहर और गाँव में गेरुआधारी और जटाजूट संपन्न साधू-संत भक्तों के शोषण में व्यस्त हैं। चौराहे-चौराहे भिखारियों की भीड़ आने-जानेवालों का परलोक सुधारने को आमादा है। हमारे एक समाजशास्त्री मित्र भिखारी-उन्मूलन में खासे सक्रिय हैं। उन्होंने एक ‘भिखारी सेवा संगठन’ नामक स्वैच्छिक संस्था भी बना रखी है। वे बताते हैं कि भीख माँगने का मुख्य कारण सिर्फ आर्थिक अभाव नहीं है। कुछ व्यक्ति जन्मजात आलसी हैं, कुछ स्वच्छंद। ऐसा मानते हैं कि जब सबके दाता राम हैं तो वे शरीर को क्यों कष्ट दें। यह भी सच है कि दास मलूका को पढ़ना तो दूर, उन्होंने ऐसा कोई नाम तक नहीं सुना है। जरूरी नहीं है कि ऐसों को किसी ऊपरवाले पर विश्वास हो। वह तो देनेवालों की परीक्षा लेते हैं। उसे राम या रहीम, खुदा या भगवान् पर यकीन है कि नहीं? वे भीख माँगकर सिर्फ उसे पुण्य कमाने का अवसर दे रहे हैं। उसे उनका आभार मानना चाहिए।

कई ऐसे हैं, जिन्हें किसी भी अनुशासन से परहेज है। कहीं भी काम करो तो सात-आठ घंटे का श्रम-परिश्रम लाजिमी है। नागा किया तो पैसा कटा। यहाँ उनका मूड है। आए तो आए, नहीं तो गोल कर गए। खाने-पीने को उनके पास कमी नहीं है, औसतन देनेवाले से कहीं अधिक।

वे अकेले भी नहीं हैं। उनका पूरा गैंग है। वे दिन भिक्षा-कर्म में बिताते हैं, रात चोरी में। वरदीवाले सिपहिए को हफ्ते की भीख देते हैं तो उसका पूरा फायदा भी तो उठाएँ। वे जानते हैं। यह कोई घूस-फूस नहीं है। जैसे आकाश में उड़ना चिडि़या का अधिकार है और अजनबी पर भौंकना पालतू कुत्तों का, वैसे ही वसूली पुलसिया का। देश में प्रभु को चढ़ावे और जरूरतमंद की मदद की एक पावन और विकसित परंपरा है। वे खुद इमदाद के सुपात्र हैं और प्रभुता-संपन्न हर व्यक्ति भेंट-चढ़ावे का। जगत् की यही रीत है और यही कर्तव्य का बँटवारा भी, लेन-देन सिर्फ सुविधा का पारस्परिक सौदा है। वे सब और वरदीवाले हक की कमाई खाते हैं।

उन्हें आजतक समझ नहीं आया है कि इसमें गलत क्या है? एक आजाद मुल्क में सबको अपने धंधे के चयन की स्वतंत्रता है। उन्होंने जान-बूझकर भिक्षावृत्ति चुनी है। इससे कितने बाबू कार में बैठी चहकती लड़कियों और व्यापारियों के लिए वे आत्मसंतोष के सहज उपलब्ध माध्यम हैं। पाँच-दस रुपए की अब वकत ही क्या है?

उनका एक दोस्त होटल में वेटर है। दोनों का आवास सरकारी जमीन पर अगल-बगल को छाई किराया-मुक्त झुग्गी है। झुग्गियों के वोट पाने को प्रतिबद्ध हर सरकार इस अनधिकृत कब्जे को नियमित करने की घोषणा ही नहीं करती, बल्कि जन-सुविधाओं के नाम पर वहाँ बिजली-पानी की सौगात देने की भी। चुनाव के बाद सरकार की वरीयताएँ बदलना स्वाभाविक है। वादे पर अमल अगले इलेक्शन तक टल जाता है।

वेटर ने भिखारी को सूचित किया है कि उसके होटल में अब आठ-दस रुपए की ‘टिप’ कोई कंगाल भी नहीं लेता है। उलटे वह ससम्मान ग्राहक को लौटा देता है। देना है तो कम-से-कम सौ-पचास तो दो। भिखारी एक संवेदनशील इनसान है। उसके मन में देनेवाले की भावनाओं की कद्र है। उसने आज तक ऐसी हरकत नहीं की है। उसकी व्यवहार-संहिता में हर संभावित दानी का दरजा भगवान् का है। उसका उसूल है— देनेवाले को भी दुआ दो, न देनेवाले को भी। होटल कर्मचारियों की है। गनीमत है कि भिखारियों की कोई यूनियन नहीं है, वरना क्या पता, वह भी भीख के न्यूनतम स्तर का निर्धारण करने से बाज न आती!

भिखारी भारतीय दर्शन के ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ के सिद्धांत से जुड़े हुए हैं। मसलन, झुग्गीवाला भिखारी जानता है कि जीवन की मूलभूत जरूरत ‘पेट में दाना, सिर पर छत और प्यास में पानी है।’ उसके अंदर इतना है कि बाहर के अँधेरे से उसे डर लगता है। शहर में दिन को सूरज की रोशनी है और रात में बिजली के बल्बों की चाँदनी। इन परिस्थितियों में झुग्गी का अंधकार उसे कैसे बरदाश्त हो? नेता के चुनावी आश्वासन को उसने हकीकत में बदल दिया है। सामान्य भारतीय मानस की विलक्षण प्रतिभा को सिद्ध करती जुगाड़ तकनीक से उसने बिना मीटर और इजाजत ‘कटिया’ द्वारा झुग्गी रोशन कर ली है। इसीलिए कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। साथ ही सादगी के उसूल के अनुरूप झुग्गी में रेडियो है, टी.वी. नहीं। जब उसने जीवन भर आँखों को किताबों से बचाए रखा तो उन्हें टी.वी. पर क्यों जाया करे? यों भी दुनिया में देखने को सुंदर लड़कियों से लेकर बाग-बगीचे और पर्वत-घाटी की क्या कमी है?

संक्षेप में, भीख माँगना आर्थिक अभाव का द्योतक नहीं है। झुग्गीवाले भिखारी के लिए यह एक उपयोगी पार्टटाइम धंधा है। कभी चोरी कर ली, कभी भीख माँग ली। इससे पुलिसवालों को भी शक नहीं होता है। हुआ भी तो क्या कर लेंगे? उनमें से ज्यादातर चंदे-चढ़ावे की उगाही में बिके हुए लोग हैं। कुछ सबूत मिला तो बस वसूली में इजाफा कर देंगे। गुनाह और कानून का यही भाईचारा देश में अमन-चैन का अघोषित रहस्य है।

एक विद्वान् का ज्ञान है कि हर मानव के अवचेतन में राम और रावण दोनों का वास है। उसके आचरण में कभी राम उजागर होते हैं तो कभी रावण। यों देखने में आया है कि रावण वृत्ति लोकप्रिय है। उसका अनुपालन आसान है। एक दफ्तर में किसी कर्मचारी ने भ्रष्टाचार की पहल की तो वह देश के दफ्तरों में इबोला की तरह फैलती है। हमारे सूबे में पंचायत के सदस्य और प्रमुख न सिर्फ पक्के मकानों में रहते हैं बल्कि उनकी चहेती सवारी भी सिर्फ बड़की एस.यू.वी. है। अब हर सियासी नौसिखिये में चोरी-डकैती, सीनाजोरी से एस.यू.वी. हथियाने की होड़ है। एस.यू.वी. महज चार पहियों की गाड़ी न होकर जनसेवा का पर्याय हो गई है। नेता का परिचय-पत्र समझकर शरीफ उससे बचकर निकलते हैं। सच है, मन की आसुरी प्रवृत्तियाँ छूत की बीमारी की तरह फैलती हैं।

पहले हम भ्रमित थे। हमें आश्चर्य होता कि समाज में अर्थाभाव से जूझते तबके से लेकर समृद्ध और संपन्न वर्ग तक भिक्षावृत्ति क्यों लोकप्रिय है, अब अपने पल्ले पड़ा है, विद्वान् की बात के बाद। भीख माँगने में प्रारंभिक संकोच है। एक बार झिझक मिटी तो फिर बस चाँदी-ही-चाँदी है। इसीलिए ज्ञानी कमेटी की मैंबरी से लेकर छोटे-छोटे पद और पुरस्कार के लिए अनपढ़ खुर्राट मंत्री के आगे घिघियाते नजर आते हैं। सरस्वती और लक्ष्मी के सम्मुख ऐसों का इन्ही करतूतों से ही नत-मस्तक होता है। मंत्री के पास एक ही नहीं, सैकड़ों शिक्षित मंगतों की भीड़ है। उसे चयन करने की प्रक्रिया में अपना अतीत याद आ जाता है।

वह भी भीख माँग-माँगकर पहले विधायक और फिर मंत्री बना है। उससे कहीं योग्य, पढ़े-लिखे और कर्मठ जनसेवक कतार में थे। पर उनकी भिक्षा-कला उसकी तुलना में मात खाती। वह देनेवाले के सम्मुख माँगने की मुद्रा में कभी दोहरा हो जाता, कभी चरणों में लोटने लगता। उसके प्रतिद्वंद्वियों को अपनी योग्यता और श्रेष्ठता का आभास था। वह अकसर खड़े-खड़े भीख माँगते, कभी थोड़ा झुककर। जैसे उन्हें दंडवत् करना आता ही न हो। कोई उन्हें कैसे समझाता कि याचना के दौरान आत्मसम्मान अकड़ का प्रतीक है। ऐसे याचक देनेवाले से सिर्फ तिरस्कार के अलावा कुछ नहीं पाते हैं, सहानुभूति तक नहीं।

भिखारी मंत्री को खयाल आया कि उस विधायक से लेकर मंत्री पद की भीख मिलने का एक अन्य कारण भी है। यों माँगने की कला में उसके कई समकक्ष भी थे। वे माँगते-माँगते केवल दाता के चरणों पर लोटते ही नहीं, कभी-कभी रोने भी लगते। पर जन्म की दुर्घटना के कारण उसने उनको पछाड़ दिया। हर इनसान की जात एक संयोग है। पर यही उसका सौभाग्य बन गया है। दाता और उसकी जात एक है, इसीलिए वह मंत्री है। उससे कहीं अधिक योग्य केवल विधायक। उनमें से कुछ को तो अगले चुनाव में विधायक का टिकट तक नहीं मिल पाया। उन्होंने सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया है। विधायक रहकर उनकी दो-तीन पुश्तों का इंतजाम तो हो ही गया है। पर बिना पावर वैसा ही है, जैसे बिना नमक का खाना। वह नहा-धोकर इंतजार करते हैं कि कोई मिलने आए। मिलना तो दूर, कोई गेट के अंदर झाँकता तक नहीं है। अफसर उनसे ऐसे कतराते हैं, जैसे वह इनसान न होकर कोई दुर्गंध फैलाती लाश है।

जात और भीख के अभिनय में पारंगत होने के कारण बने मंत्री उन्हीं भिखारियों को पद, कमेटी आदि की भीख देते हैं, जो उनकी जात के हों। उन्हें यह भी बताया गया है कि इससे उनकी लोकप्रियता में इजाफा होगा। जाहिर है कि आदमी एक बार कामयाब हुआ तो उसी अनुभव को वह बार-बार दोहराता है। उनकी सफलता का इकलौता सूत्र जात है। वह इसी को तुरुप का पत्ता समझते हैं और बदलते समय तथा परिस्थितियों में बार-बार उसका प्रयोग कर स्वयं जनता के सन्मुख जोकर बन चुके हैं। न उनको अपनी इस बदली हैसियत की खबर है, न उनमें खुद को बदलने की कूवत।

देखने में आया है कि वह जमाना कभी का लद चुका है, जब बिन माँगे मोती मिलते थे और माँगे मिले न भीख। अब भिक्षावृत्ति शिक्षा, साहित्य और सरकार सभी जगह वैसे ही व्याप्त है जैसे गटर में मच्छर। विश्वविद्यालय में शोध से नहीं, भीख में महारत से छात्र पी-एच.डी. की डिग्री पाते हैं और प्राख्याता का पद। लेखक लेखन में आत्मसम्मान के गुण गाते हैं, वहीं जीवन में भिखारी बनकर पुरस्कार पाकर इतराते हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है कि लेखक रचना की गुणवत्ता से महान् होता है, भीख में मिले पुरस्कारों से नहीं! फिर भी वह हर पुरस्कार के लिए भीख माँगकर जाने क्या सिद्ध करने पर उतारू है!

भीख के व्यापक प्रसार और महत्त्व को ध्यान में रखकर एक सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी ने उसके भरपूर शोषण का प्रबंध किया है। वह भीख की अहमियत से परिचित है। पूरे शासकीय जीवन में उन्होंने भीख माँगकर कमाऊ पद पाए हैं और भीख देकर पैसा। दुर्भाग्य से भिक्षा द्वारा कमाई यह धनराशि काले धन की श्रेणी में आती है। काले को सफेद करने की हर जुगत के वे उस्ताद हैं। उन्होंने शहर के बाहर एक बड़ा भूखंड खरीदकर पहले से ही डाल रखा है। कुछ अपने, कुछ बिल्डर भाई के नाम। इसपर उनका बिल्डर भाई बहुमंजिली इमारत का प्रारंभ पहले ही कर चुका है। दरअसल, अफसर ने शिक्षा संस्थान खोलकर कमाई का निश्चय सरकारी सेवा के दौरान ही कर लिया था। निजी शिक्षा संस्थान एक फलते-फूलते उद्योग का दर्जा ले चुके हैं। कई तथाकथित हिंदी के पक्षधर नेता अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा संस्थाएँ चलाकर करोड़ों पीट रहे हैं तो कई पूँजीपति भी। शिक्षा उद्योग एक पंथ दो काज का जीता-जागता उदाहरण है। कहने को ऐसे समाज-सेवक हैं, वास्तव में ‘डोनेशन’ के भुखमरे भक्षक!

अब वह गहन विचार-विमर्श के बाद भारत भिक्षा शिक्षा संस्थान की स्थापना यथाशीघ्र कर रहे हैं। देश में प्रबंधन मेडिकल और तकनीकी संस्थानों की भरमार है। उनकी गुणवत्ता और प्रशिक्षण की विश्वसनीयता संदेहास्पद है, फिर भी सब डिग्रीधारी बेकारों की फौज तैयार करने के लिए तो उपयोगी है ही। इनकी तुलना में भिक्षा का दायरा विस्तृत है। तिजारत हो या सियासत, कुशासन हो या सुशासन, सबमें भीख की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। हर क्षेत्र में भीख की तकनीक और तरीके भिन्न-भिन्न हैं। दुखद है कि किसी ने इसके विधिवत् अध्ययन पर ध्यान ही नहीं दिया है। इस अभाव की पूर्ति करना एक राष्ट्रीय दायित्व है। इसे निभाना उनका कर्तव्य!

इसमें पढ़े-लिखे पेशेवर भिक्षु तैयार किए जाएँगे, सड़क छाप भिखारी नहीं। इसीलिए इस वातानुकूलित संस्थान का प्रवेश-शुल्क पंद्रह-बीस लाख रुपए प्रतिवर्ष होगा। यहाँ राजनीति, प्रशासन और व्यापार क्षेत्रों की विशेषज्ञ तकनीक का अलग-अलग प्रशिक्षण दिया जाएगा, साथ ही एक से जाकर दूसरे क्षेत्र में कैसे भीख माँगे। वास्तविकता में देश का समग्र विकास तभी संभव है, जब एक-दूसरे पर निर्भर यह क्षेत्र आपसी सहयोग से भीख का अधिक-से-अधिक लेन-देन करें।

भिक्षा-शिक्षा का विश्वास व्यावहारिक ट्रेनिंग में है। यदि एक व्यापारी दूसरे से भीख माँगता है तो कैसे माँगे? उसके हाथ पूरी तरह जुड़े हों— थोड़ा कम, सिर कितना झुके, कमर कितनी, चेहरे पर मुसकान हो कि मातमी मुद्रा, भिक्षा का निवेदन रुँधे गले से करें कि भर्राती आवाज में, पूरे प्रकरण की भूमिका कैसे बाँधें? इसके लिए योग्य, अनुभवी, प्रसिद्ध और अपने क्षेत्र के जाने-माने विद्वानों से संपर्क का सूत्रपात हो चुका है। सरकारी क्षेत्र की भीख का विशेषज्ञ तो स्वयं स्थापक-अफसर है ही। इसमें उसके दूसरे साथी भी हाथ बँटाने को प्रस्तुत हैं।

भीख का प्रचलन भारत में ही केंद्रित न होकर एक विश्वव्यापी प्रक्रिया है। भारत भिक्षा शिक्षा संस्थान में विदेशी विद्वानों को भी सादर आमंत्रित किया जाएगा। इससे प्रशिक्षार्थियों के आत्मविश्वास में इजाफा होगा। वह भिक्षा के अंतरराष्ट्रीय आयाम और महत्ता से परिचित होंगे। भीख माँगने में कैसी हेयता, जब दुनिया भर में यही हो रहा है। ग्लोबल गाँव में रहनेवालों को एक-दूसरे के तौर-तरीके, तकनीक और प्रवृत्तियों की समझ आवश्यक है, साथ ही भिक्षा की लेन-देन की विधियाँ भी। भारतीय अधिकारी भीख लेने अकसर विदेशों में जाते हैं। यह संस्था उन्हें इसकी विशिष्ट जानकारी मुहैया कराने को कृतसंकल्प है। यही बात व्यापारियों पर भी लागू है।

धीरे-धीरे अफसर का इरादा इस संस्थान की शाखाएँ देश के साथ विदेश में भी खोलने की है। उसे यकीन है कि इनका वहाँ लोकप्रिय होना लाजिमी है। अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि भारत का संसार में महाबाजार बनकर उभरना तय है। समझदार देश भविष्य की तैयारी वर्तमान में ही प्रारंभ कर देते हैं। भारत भिक्षा शिक्षा संस्थान का वर्तमान भारत है और भविष्य पूरा संसार!

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