भवाई लोकनाट्य

भवाई लोकनाट्य

हजारों सालों से संरक्षित भारतीय संस्कृति अभी तक अक्षुण्ण-अखंड रही, उसे तोड़नेवाले, नष्ट करनेवालों के कई प्रयासों के बाद भी वह लुप्त नहीं हुई; उसके खिलाफ अपप्रचार करनेवाले विविध कारकों और अभारतीय विचारधारा के बहुविध प्रकार के प्रसार-प्रचार के बाद भी वह अटूट रहकर आज तक प्रवाहित रही, उसके पीछे के कारकों की जाँच अब विश्व के अभ्यासु कर रहे हैं। इन अभ्यासुओं को कला-साहित्य की जाँच के लिए ‘कल्चरल स्टडीज’ नामक अभिगम उचित लगा है, इसलिए वे इस पद्धति से कला के अध्ययन की ओर अभ्यास करने हेतु प्रेरित हो रहे हैं।

सांस्कृतिक चेतना तो शाश्वत और सनातन है। इस सांस्कृतिक चेतना के अलावा किसी भी राष्ट्र को अखंड बनाए रखनेवाला तत्त्व उसकी संस्कृति है। इन सांस्कृतिक मूल्यों-घटक तत्त्वों से उस राष्ट्र का निर्माण और रचना होती है। ऐसे दर्शन, जीवन-मूल्यों और जीवन-व्यवहार से संस्कृति समाज में जीवंत रहती है। जिसे कलम पकड़ना नहीं आता, पढ़ना भी नहीं आता, ऐसे निरक्षर जनता-समाज भी असंस्कृत अथवा असभ्य नहीं माना जाता है। उन लोगों में भी राष्ट्र के जीवन-मूल्य संरक्षित दिखाई देते हैं, जिसका कारण दर्शन, जीवन-मूल्यों और जीवन व्यवहार से गहन रूप से जुड़ी लोक-संस्कृति तथा भारतीय दर्शन से अनुप्राणित लोककलाएँ हैं। वैदिक संस्कृति में उस समय में शास्त्र, शास्त्रार्थ और अध्ययन की बहुत अधिक महिमा थी। उसके आधार पर संस्कृति का संवर्धन एवं संरक्षण होता था। लेकिन उस समय एक बहुत बड़ा वर्ग शास्त्र या शास्त्रार्थ में रुचि नहीं रखता था या उसके लिए समय नहीं देता था। दूर-दराज के जंगलों, गिरि-कंदराओं अथवा समुद्र के बीच रहनेवाली या ग्रामीण प्रदेश में निवास करनेवाली प्रजा या जिसमें कोई पंडितों का प्रवेश नहीं था अथवा जहाँ प्रजा को उसकी फुरसत या खेवना भी नहीं थी, इन सभी श्रमजीवी प्रजा में भारतीय दर्शन, संस्कृति और जीवन-मूल्यों का संप्रेषण-संरक्षण कैसे हुआ; उसपर विचार करने पर विद्वानों को समझ में आया कि वैदिक काल से ही लोककलाओं ने लोक-संस्कृति भारतीय दर्शन को भारतीय संस्कृति को आत्मसात् करके उसके माध्यम से प्रजा के समक्ष राष्ट्र का दर्शन, राष्ट्र के मूल्य प्रस्तुत किए हैं। प्रजा सहज रूप से उसे सँभालती गई। उसे जीवन व्यवहार में दरशाती गई। ऐसी लोककलाएँ वैदिक काल से चार वेदों के साथ-साथ पाँचवाँ वेद मानी गई हैं।

‘नाटक पाँचवाँ वेद’ का अर्थ केवल नाटक तक सीमित नहीं है। नाटक मतलब पेशकश, प्रस्तुतीकरण। लोककला देखने की, पेश करने की कला है। लोककलाओं में लोक-संगीत, लोक-नृत्य, लोक-साहित्य और लोकनाट्य समाविष्ट हैं। जो अलिखित है, मौखिक है, पश्चिम के अभ्यासु उसे ओरल आर्ट अथवा फ्लोटिंग आर्ट के नाम से जानते हैं। यह कला समाज के समक्ष कंठस्थ रहकर तैरती रहती है। इस कला के शास्त्र का भी गठन हुआ है। उसे मान्यता भी प्राप्त हुई, लेकिन उसे मुख्य प्रवाह में स्थान नहीं मिल पाया और उसकी बहुत महिमा भी नहीं हुई। इसलिए उसकी पहचान मार्जिनल आर्ट के रूप में होती रही, जो हाशिए में सिमटकर रह गई है। अब कल्चरल स्टडीज करनेवाले अभ्यासुओं को समझ में आया कि यह तो समूहजन्य और समूहभोग्य कला स्वरूप है। कॉम्बिनेटिव और कोलाबरेटिव आर्ट है। उसकी कोई पाठशाला नहीं है। यह अपने आप देखने-जानने से लोक-व्यक्तित्व में से प्रकट और प्रस्तुत होती है। दूसरी बात, यह कला प्रारंभकालीन परंपरा को उजागर करती है, इसलिए वह सही अर्थ में भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की वाहक है। उसे प्रिमिटिव आर्ट भी माना जाता है। उसमें कुछ भी इंटरपोलेशन नहीं होता। उसके धारकों का अन्य संस्कृति-सभ्यता के साथ संवाद न होने से उसने निजता व अपना सही रूप तीव्रता से बनाए रखा है। उसकी विषय-सामग्री में सांप्रत का जोड़ा जाना हो या भाषाकीय उच्चारण बदले-मुड़े, लेकिन उसका टोन-सुर संपूर्ण रूप से नेटिव रहता है। यह सबसे बड़ी विशेषता लोककला के संदर्भ में समझनी होती है।

फ्रांस के सोरोबोन विश्वविद्यालय पेरिस में जब मैं विजिटर अध्यापक के रूप में था, तब वहाँ के भारतीय लोककला और कंठस्थ परंपरा के भक्ति-साहित्य के विद्वान् प्रो. फ्रांस्वा मालिजो ने मुझसे पूछा था कि ‘मुझे एक चीज समझ में नहीं आ रही। गांधीजी तो भारत के कोने-कोने में नहीं गए थे। दूर-सुदूर इलाकों में कंट्रीसाइड में रहते लोगों के पास, जहाँ अखबार, रेडियो और गांधी विचारधारा के प्रचारक नहीं पहुँचे थे, वहाँ समूह माध्यमों की अनुपस्थिति में भी गांधी-विचार, गांधी-दर्शन किस तरह पहुँचे, समझे और स्वीकृत हुए थे?’ मैंने उन्हें समझाया था कि गांधीदर्शन अनुप्राणित लोक-साहित्य द्वारा गांधी-भाव विश्व के लोगों तक पहुँचा था। कवि काग ने तो ‘मोहनायण’ प्रकार के रामायण परंपरा की लोककथा गीत बैले का गठन किया था और गांधी-संदेश गाँव-गाँव में गूँजने लगा था। लोकसमुदाय में वह लोकनायक के रूप में स्वीकृत हुआ।

लोककलाओं की जड़ें भारतीय भू-भाग में अत्यंत गहरी और मजबूत हैं। वह भले ही अक्षरज्ञान-विहीन समाज के समक्ष उसके प्रतिनिधि द्वारा प्रस्तुत होती हो, प्रदेशभेद-विस्तारभेद के कारण उसमें स्थानीय शब्दावली, सूर-स्वर बदलते हैं; लेकिन उसमें स्थित प्राणतत्त्व तो एक और अभिन्न भारतीय दर्शन है; भारतीय संस्कृति और भारतीय जीवन-मूल्य हैं। ऐसी लोककलाओं का एक उदाहरण है, गुजरात में हजारों सालों से प्रवाहित और प्रचलित लोकनाट्य स्वरूप भवाई। विविध प्रदेशों में, अलग-अलग विस्तारों में भारतीय लोकनाटक विभिन्न नाम से आज भी जीवंत है। वह जीवंत है, इसलिए भारतीय दर्शन और संस्कृति भी जीवंत है। फिर वह तमाशा हो या तैयम, गुजरात में प्रचलित नाम है ‘भवाई’।

उसका मंचीय स्थान प्राचीन भारतीय परंपरा का अनुसंधान है। स्टेज की भारतीय दर्शन की परिकल्पना ग्रीस से कितनी अलग है, उसका खयाल भवाई की पेशकश के स्थानक पर से समझ में आती है। गोलाकार में निश्चित स्थान में वह खेली जाती है और आस-पास लोग बैठकर या खड़े-खड़े उसका आनंद लेते हैं। दर्शकों के साथ संवाद भी होता रहता है। उसकी सजावट, स्टेज प्रोपर्टी, वाद्ययंत्र और साजिंदे तथा पोशाक-पहेरवेश और चहेरे पर का मैकअप भी भारतीय संस्कृति से अनुप्राणित, भूंगल जैसे वाद्य-माइक की भी आवश्यकता नहीं होती। संवाद दोहराए जाते हैं। प्रत्युत्तर में से अधिक स्पष्टता मिलती है। गान के समय लोगों की सहभागिता होती है। वंस मोर, दुबारा और फिर से सुनाने के आदेश होते हैं और कलाकारों व साजिंदों को पुरस्कृत किया जाता है। दर्शकों के साथ सहभागिता हमारी संस्कृति है। ‘सहनौभुनक्त’ शब्द का सही अर्थ यहाँ प्रकट होता दिखाई देता है।

प्रारंभ में माताजी-श्रीगणेश जैसे भारतीय देवी-देवताओं की वंदना होती है। कलाकार उनका कृपाप्रसाद लोक-समूह के समक्ष स्वीकार करते हैं। इस कारण लोकश्रद्धा की गूँज और दुगुनी होती है। झंडा-झूलण जैसे चरित्र लोगों को अपने से लगते हैं। उनके द्वारा पूछे जाते सवाल भी लोगों को अपने लगते हैं। इन सवालों में भी निहित होते हैं—भारतीय भावदर्शन, संस्कृति और जीवन-मूल्य। उसमें स्थित स्वदेशी संगीत, उसकी लय भी लोगों में प्रचलित लय के रूप में अपने से लगनेवाले होते हैं और पेशकश का ढंग भी प्रादेशिक गीत-लय से आबद्ध होता है।

भवाई भेष एवं लोकनाट्य विषय सामग्री को लोकसमाज में जिस कारण नेतृत्व मिलता है, उस बहादुरी, पराक्रम और राष्ट्र के लिए शहीद होनेवाले सपूतों के आस-पास का होता है। इसमें सत्य का पालन करते समय पुत्र-पत्नी को गौण माननेवाले हरिश्चंद्र होते हैं, पराक्रमी अभिमन्यु और रामचरित्र के उदात्त प्रसंग भी होते हैं।

इस तरह विषय-सामग्री, पेशकश का परिवेश और आहार्य अभिनय अर्थात् पहेरवेश, इन सबमें से प्रकट होते हैं—भारतीय संस्कृति, जीवन-मूल्य और जीवन-दर्शन। भारतीय कला के शास्त्र की भी समझ मिलती है। व्यवहार में उजागर होते शौर्य, विनम्रता, संवाद में से प्रकट होता राष्ट्रप्रेम; उनके तुरंत दृष्टिगोचर होते घटक हैं। लेकिन कला की भारतीय विभावना, सौंदर्य का हमारा खयाल कितना व्यापक, विस्तृत और सर्वग्राही है, उसका परिचय इसके माध्यम से प्रकट होता है, फैलता है और लोगों के दिलों में प्रवेश पाकर स्थिर होता है। प्रादेशिक संगीत, प्रादेशिक राग को बनाए रखती है भवाई। प्रादेशिक भाषास्वरूप, प्रादेशिक मान्यताओं को और वाणी-लय, लटकों-झटकों द्वारा किसी बात या विचार को मधुरता से लोगों के मन में आरोपित करने का राष्ट्रसेवा का एक बहुत बड़ा कार्य करता है भवाई का लोकनाट्य स्वरूप।

यह प्रादेशिकता, खंडभाग अखंड भारत के संस्कार, संस्कृति और दर्शन को ही पुरस्कृत करके प्रकट होता महसूस होता है। इसलिए विविधता में संरक्षित एकता है। एकात्म मानवभाव, एकात्मक बोध और एकात्मकता कितनी गहराई से अभिन्न रूप से संरक्षित है, उसका परिचय मिलता है भवाई लोकनाट्य स्वरूप द्वारा। भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन और भारतीय जीवन-मूल्यों को उजागर करती भवाई इसी कारण आज तक जीवंत रही है। उसमें भारत के शाश्वत भाव, सनातन मूल्यों और चिरंजीव विश्वभाव स्थित हैं। भवाई में उपनिषद् के सूत्र के शब्दों के ‘सूक्ष्मातिसूक्ष्म’ रूपभवाई के एक गीत में ‘झीणाथी अति झीणो रे’ में अनुरणन केवल मुझे ही नहीं, समग्र समाज को प्राप्त होता है। उपनिषद् के अभ्यासु होने के कारण उसकी महत्ता प्राप्त करता हूँ। निरक्षण, अबोध माने-जानेवाला समाज भी इस बहाने भारतीय दर्शन के भाव से दीक्षित होता है। फिर निरक्षर और अभ्यासु में कोई अंतर नहीं रह जाता है। श्लोक को लोगों तक पहुँचानेवाली, जीवंत रखनेवाली और बनाए रखनेवाली भवाई लोकनाट्य शैली इसी कारणवश केवल हमारे आस्वाद का ही नहीं, वरन् अभ्यास का विषय भी बनती है। भारतीय दर्शन से अनुप्राणित भवाई भारतीय संस्कार, संस्कृति और सदाचार दर्शन का प्रकट स्वरूप है।

‘तीर्थ’, २६४-जनकपुरी,

यूनिवर्सिटी रोड, राजकोट-३६०००५ (गुजरात)

दूरभाष : ०९८२५०७५०९८

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