आम आदमी, खास आदमी

इधर कुछ वर्षों से आम आदमी खासतौर पर चर्चा में है। चुनाव केसमय विशेष रूप से खास आदमी आम आदमी की बेहतरी के लिए चिंतित दिखाई देता है। आम आदमी के लिए भाँति-भाँति की लुभावनी योजनाएँ बनती हैं। यह बात दीगर है कि आम आदमी को इन योजनाओं का कुछ खास लाभ नहीं मिलता, वरन् कुछ खास आदमियों की चाँदी हो जाती है। नाम तेरा काम मेरा। आम आदमी का ढिंढोरा पिटते सुन-सुनकर मेरे दिमाग ने प्रश्न किया कि आम आदमी है कौन? उसकी परिभाषा क्या है? फौरन भीतर से उत्तर आया—‘‘आम आदमी वह है, जिसमें कोई खासियत न हो।’’ फिर सोचा, अरे! यह मैंने क्या कह दिया। बुद्धि ने तर्क किया कि कोई खासियत न होना भी तो एक खासियत है। मेरा प्रश्न बेताल की तरह कन्फ्यूजन के श्मशानी वृक्ष पर उल्टा लटक गया, बिना उत्तर पाए। अब मैं कोई विक्रम तो हूँ नहीं, जो सही उत्तर दे सकूँ, जिसे जानते हुए न देने पर सिर के हजार टुकडे़ हो जाएँगे। तब विवेक ने कहा, परिभाषा को मारो गोली, परिभाषा देना आसान नहीं होता। परिभाषा आखिर क्या है? कुछ पहचाने शब्दों में परिभाष्य वस्तु या शब्द का वर्णन करना ही तो। अब आम आदमी को तो परिभाषा के बिना ही हम, तुम, सब जानते हैं तो फिर परिभाषा का क्या अचार डालना है?

खास आदमी वह है, जिसकी खबरें अखबारों में छपें, फोटो छपें, जो दूरदर्शन पर दिखाई दे। जिसका भाषण सुनने या दर्शन करने के लिए आम आदमियों की भीड़ इकट्ठा हो। जिसकी एक झलक पाने के लिए ठट्ठ-के-ठट्ठ लोग कूद पडें़। वह अपना नाम भले ही आम आदमी रख ले, किंतु यथार्थ में वह खास ही होता है। वैसे अखबारों में खबर, फोटो और दूरदर्शन पर सूरत आम आदमी की भी दिख जाती है, भीड़, कतार या सिनेमा के परदे पर एक्टर के रूप में। परंतु आम आदमी की कोई खास पहचान नहीं होती, क्योंकि आम आदमी व्यक्तिवाचक संज्ञा न होकर जातिवाचक है। आम आदमी आपको सड़क पर दिखेगा, बाजार में, रेलवे स्टेशन पर, बस में दिखेगा और यदि आप खास नहीं हैं तो स्वयं में दिखेगा। खास पहचानवाला व्यक्ति आम नहीं होता, वह तो खास ही होता है।

वैसे हर औसत आदमी की दिली ख्वाहिश होती है कि वह कुछ खास दिखे। इसके लिए वह कुछ खास जतन करता है, एक कान में बाली पहनना, अलग तरह से बाल कटवाना, दाढ़ी बढ़ाना, बेढंगे कपडे़ पहनना आदि। लेकिन वह आम ही रहता है। हाँ, कोई खास आदमी लीक से हटकर कोई खास अदा अपना ले तो वह बड़ी जल्दी फैशन बन जाता है। जैसे कुछ वर्ष पहले एक खास नेता साहब ने खसखसी दाढ़ी रखनी शुरू की तो वह फैशन बन गई। क्या नेता, क्या अभिनेता, सब आज खसखसी दाढ़ी रखने लगे, शायद यह जताने के लिए कि वे सादगी पसंद हैं या इतने व्यस्त हैं कि दाढ़ी बनाने/बनवाने की उन्हें फुरसत नहीं। यों तो फैशन प्रायः फिल्मी अभिनेताओं से चलता है, लेकिन शायद यह पहली बार है कि फैशन नेता से शुरू होकर अभिनेताओं तक पहुँचा।

कुछ अंग्रेजी पसंद लोग आम आदमी को ‘मैंगो मैन’ कहते हैं। हालाँकि कुछ मैंगो आम होकर भी खास होते हैं, जैसे कि हापुस, लँगड़ा, दसहरी आदि। यह कलमी आम आम आदमी के देशी आम की तरह सस्ते नहीं होते और न ही जंगल में पैदा होते हैं। वे कीमती, गुदारे, बहुत नफीश होते हैं, खास आदमी की तरह। इनकी बड़ी कदर होती है। पर जो आम तौर पर आम हैं, वे बेचारे तो आम आदमी जैसे मात्र चूसने और निचोड़ने का सामान हैं। उनकी कोई पूछ नहीं होती। उसे तो केवल देहाती, गरीब किसान-मजदूर ही जानते हैं। हाँ, आम आदमी की पूछ केवल चुनाव के समय होती है। तब प्रत्येक विशिष्टापेक्षी उसके हाथ जोड़ता है, पाँव छूकर आशीर्वाद माँगता है, अपनापन दिखाकर मिन्नतें करता है। उनमें से जो प्रत्याशी अधिकांश वोट निचोड़ पाता है, वह रातोरात खास बन जाता है और आम आदमी को वैसे ही भूल जाता है, जैसे देशी आम को चूसकर गुठली फेंक दी जाती है। आम की यही नियति है। खास आदमी वह है, जो चाहता है कि आम आदमी उसका मुरीद हो, दर्शनार्थी हो, उसकी प्रशंसा, जयजयकार करे, लेकिन उससे नजदीकी बढ़ाने की कोशिश न करे। खास और आम में दूरी बनी रहनी चाहिए।

आम और खास का विभाजन शायद प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है। कबीलों में सरदार खास हुआ करता था, गाँव में मुखिया या जमींदार खास होता था, अब सरपंच खास हो जाता है। राजशाही के जमाने में राजा, उसके मंत्री और अन्य अमला खास माना जाता था। मध्यकालीन मुगलिया जमाने में दीवाने आम तथा दीवाने खास हुआ करते थे, आज भी हमारी संसद् में लोकसभा (आम) तथा राज्यसभा, (खास) हैं। इंग्लैंड की संसद् में ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ (आम) तथा ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स (खास) हैं। सच पूछो तो इस प्रकार आम नाम भर के हैं। वास्तव में आम आदमी की तो संसद् में पहुँच ही नहीं होती, उसमें तो कुछ खास आदमी ही प्रवेश पा सकते हैं। वही जा सकता है, जिसे आम जनता चुनाव जिता दे। चुनाव में खडे़ होते ही वह आधा खास बन जाता है और चुनाव जीतने पर पूरा खास। यदि मंत्री पद का जुगाड़ बन गया तो खास-उल-खास (वी.आई.पी.) बन जाता है।

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