हिंदी की प्रकृति के भव्य दर्शनों के लिए कर्ता, कर्म, कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य आदि की परिभ

हिंदी की प्रकृति के भव्य दर्शनों के लिए कर्ता, कर्म, कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य आदि की परिभ

यदि हमें हिंदी भाषा की रचना-प्रक्रिया, अर्थात् आंतरिक व्यवस्था के भव्य स्वरूप के दर्शन करने हों, तो हमें कर्ता, कर्म, कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य आदि हिंदी व्याकरण के इन मूलभूत पारिभाषिक शब्दों की प्रचलित परिभाषाओं को हिंदी की प्रकृति पर आधारित करना होगा। प्रश्न उठेगा कि क्या उक्त पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएँ हिंदी की प्रकृति पर आधारित नहीं हैं? विनम्रतापूर्ण उत्तर होगा—नहीं। कृपया, मेरे इस कथन को दंभपूर्ण या दुस्साहसिक न समझें। पिछले छह दशकों से इन परिभाषाओं पर मंथन करते हुए इनके खरेपन को विविध वाक्यों की कसौटी पर कसता रहा हूँ। अतः उक्त निष्कर्ष अनुमान-आधारित नहीं, वरन् अनुभव-आधारित है। प्रचलित परिभाषाओं में समय-समय पर तीन प्रकार के दोष दिखाई देते हैं। पहला दोष तो यह है कि ये परिभाषाएँ स्पष्ट नहीं हैं। विद्वानों में आज भी भ्रम रहता है कि अमुक वाक्य का कर्ता कौन सा नामपद है अथवा अमुक वाक्य कर्तृवाच्य है या कर्मवाच्य। दूसरा दोष है, इन परिभाषाओं में अव्याप्ति या अतिव्याप्ति होना। तीसरे, इन परिभाषाओं के आधार पर जो वर्गीकरण हुए हैं, उनका उपयोगी या संतोषप्रद न होना। इन दोषों का कारण संभवतः यह है कि प्रचलित परिभाषाएँ उधार की हैं, हिंदी की प्रकृति पर आधारित नहीं हैं।

अब प्रश्न है कि किस परिभाषा को हिंदी की प्रकृति पर आधारित माना जाए? उत्तर होगा, जो हिंदी भाषा-भाषियों की दृष्टि में स्पष्ट और बोधगम्य हो, अव्याप्ति या अतिव्याप्ति दोष से रहित हो और जहाँ तक हो सके, अपवादों से रहित हो।

पहले कर्ता और कर्म की परिभाषाओं पर विचार करेंगे, तत्पश्चात् कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य की परिभाषाओं पर। उक्त सभी पारिभाषिक शब्दों की तीन-तीन परिभाषाएँ दी गई हैं। हर पारिभाषिक शब्द की पहली परिभाषा आचार्य कामताप्रसाद गुरु की है, दूसरी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की और तीसरी ‘प्रस्तावित’ है।

कर्ताकारक और कर्मकारक

१. कर्ताकारक

१. क्रिया से जिस वस्तु के विषय में विधान किया जाता है, उसे सूचित करनेवाले संज्ञा के रूप को कर्ताकारक कहते हैं।

—पं. कामताप्रसाद गुरु

२. क्रिया के करने न करने में जो स्वतंत्र हो। (स्वतंत्र कर्ता)     —पं. किशोरीदास वाजपेयी

३. क्रियापद की मुख्य क्रिया से बना कर्तृवाचक कृदंत, जिसे इंगित करे, वह कर्ता।   —‘प्रस्तावित’

[आना, जाना, पढ़ना, लिखना आदि क्रियाएँ संज्ञा की तरह और पुंलिंग रूप में भी प्रयुक्त होती हैं। उसी संज्ञारूप में ‘वाला’ प्रत्यय के योग से कर्तृवाचक कृदंत बनता है—आना से आनेवाला, जाना से जानेवाला, पढ़ना से पढ़नेवाला, लिखना से लिखनेवाला आदि।]

२. कर्मकारक

१. जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है, उसे सूचित करनेवाले संज्ञा के रूप को कर्मकारक कहते हैं।

—पं. कामताप्रसाद गुरु

२. ‘हिंदी शब्दानुशासन’ में कर्म की परिभाषा तो नहीं दी गई, परंतु विवेचित विवरण से निम्नलिखित अंश उद्धृत कर सकते हैं—

कर्ता के अनंतर कर्म ही महत्त्वपूर्ण कारक हैं, जिसका क्रिया से निकटतम संबंध है। क्रिया का फल भी उन दो कारकों पर पड़ता है, कभी कर्ता पर, कभी कर्म पर। अन्य किसी कारक पर कभी भी क्रिया का फल या परिणाम नहीं पड़ता।

—पं. किशोरीदास वाजपेयी

३. क्रियापद की मुख्य क्रिया से बना कर्मवाचक कृदंत जिसे सूचित करे।   —‘प्रस्तावित’

[सकर्मक क्रियाओं के आकृदंत (भूतकृदंत) रूप में ‘जानेवाला’ के योग से कर्मवाचक कृदंत बनते हैं, जैसे ‘पढ़ना’ से पढ़ा जानेवाला, ‘लिखना’ से लिखा जानेवाला, ‘देना’ से दिया जानेवाला, ‘करना’ से किया जानेवाला।]

दो वाक्य लीजिए—

(१) कौआ उड़ता है। (२) पतंग उड़ती है।

गुरुजी के मत से ‘कौआ’ और ‘पतंग’ दोनों कर्ता हैं, क्योंकि ‘उड़ना’ क्रिया उनके संबंध में विधान करती है। वाजपेयीजी की परिभाषा के अनुसार ‘कौआ’ तो कर्ता है, क्योंकि वह उड़ने या न उड़ने के लिए स्वतंत्र है। परंतु ‘पतंग’ कर्ता नहीं, क्योंकि वह उड़ने या न उड़ने के लिए स्वतंत्र नहीं है। ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के अनुसार ‘कौआ’ और ‘पतंग’ दोनों कर्ता हैं। उड़नेवाला—‘कौआ’, उड़नेवाली—‘पतंग’।

(३) रोटी बनती है। (४) खिचड़ी पकती है।

गुरुजी की परिभाषाओं के अनुसार ‘रोटी’ और ‘खिचड़ी’ दोनों संज्ञाएँ कर्ता भी सिद्ध होती हैं और कर्म भी। कर्ता इसलिए कि ‘बनना’ क्रिया ‘रोटी’ के संबंध में और ‘पकना’ क्रिया ‘खिचड़ी’ के संबंध में विधान करती हैं और कर्म इसलिए कि ‘बनना’ का फल ‘रोटी’ पर पड़ता है और ‘पकना’ का फल ‘खिचड़ी’ पर पड़ता है। वाजपेयीजी की परिभाषा के अनुसार रोटी और खिचड़ी बनने और पकने में स्वतंत्र नहीं, इसलिए कर्ता नहीं हैं। कर्ता की ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के अनुसार ‘रोटी’ और ‘खिचड़ी’ दोनों कर्ता हैं। बननेवाली—रोटी और पकनेवाली— खिचड़ी। अर्थात् कर्तृवाचक कृदंत के अनुसार दोनों कर्ता हैं।

(५) घोड़ा एक जानवर है।

(६) मंत्री राजा हो गया।

(७) साधु चोर निकला।

(८) सिपाही सेनापति बन गया।

उक्त चारों वाक्य गुरुजी के व्याकरण से उद्धृत किए गए हैं। गुरुजी ने उक्त चारों वाक्यों में क्रमशः जानवर, राजा, चोर और सेनापति को कर्ता बताया है। सीधी सी बात है कि जो विधेय का अंश है, वह ‘कर्ता’ हो ही नहीं सकता। एक जानवर है, राजा हो गया, चोर निकला और सेनापति बन गया, ये विधेय हैं, जो कर्ता के संबंध में विधान करते हैं। आचार्य वाजपेयी के अनुसार मंत्री और सिपाही तो कर्ता हैं, क्योंकि ‘राजा होने’ और ‘सेनापति बनने’ के लिए स्वतंत्र हैं। परंतु ‘घोड़ा’ जानवर होने के लिए और ‘साधु’ चोर निकलने के लिए स्वतंत्र है कि नहीं, कहना कठिन है। ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के अनुसार घोड़ा, मंत्री, साधु और सिपाही ही कर्ता हैं—

(जानवर) होनेवाला—घोड़ा

(राजा) होनेवाला—मंत्री

(चोर) निकलनेवाला—साधु

(सेनापति) बननेवाला—सिपाही

‘हिंदी क्रियाओं की रूप-रचना’ में सुझाव दिया गया है कि जब कर्ता की पहचान में भ्रम हो तो क्रिया के निकटस्थ पद की सहायता ली जा सकती है। हम यह भी कह सकते हैं कि पूरक की अपेक्षा कर्ता को ही प्रधानता मिलती है, जैसे—

(९) लड़का आगबगूला हो गया।

(१०) लड़की आगबगूला हो गई।

‘आगबगूला’ संज्ञा पुंलिंग तथा पूरक है। ‘लड़की आगबगूला हो गई’ में क्रिया कर्ता ‘लड़की’ स्त्रीलिंग एक वचन के अनुरूप है, पूरक ‘आगबगूला’ के लिंग-वचन के अनुरूप नहीं।

(११) राम को निमंत्रण-पत्र आया है।

(१२) मुझे संदेश मिला था।

(१३) उसके लड़का हुआ।

(१४) उसके तीन गाडि़याँ हैं।

उक्त वाक्यों में विधान किसके संबंध में किया गया है, विवादास्पद है और कौन सा नामपद करने न करने, के लिए स्वतंत्र है; इसका निर्णय भी सरल नहीं है। हाँ, कुछ विद्वान् राम को, मुझे, उसके और उनके को कर्ता मानते हैं और कुछ निमंत्रण-पत्र, संदेश, लड़का और तीन गाडि़यों को कर्ता मानते हैं। सबके तर्क और दलीलें भी अलग-अलग हो सकती हैं। ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के कर्तृवाचक कृदंत के अनुसार निमंत्रण-पत्र, संदेश, लड़का और तीन गाडि़यों को कर्ता कह सकते हैं—

आनेवाला—निमंत्रण-पत्र

मिलनेवाला—संदेश

होनेवाला—लड़का

होनेवाली—तीन गाडि़याँ

एक बात और। राम को, मुझे, उसके और उनके को कर्ता माननेवाले निमंत्रण-पत्र, संदेश, लड़का और तीन गाडि़यों को कर्म भी मानते हैं। परंतु ऐसा सोचना ठीक नहीं है। ‘आना’, ‘मिलना’ और ‘होना’ क्रियाएँ अकर्मक हैं। इनके कर्म हो ही नहीं सकते।

(१५) गुरु ने शिष्य को बुलाया है।

(१६) राम ने रावण को मारा।

(१७) सोहन ने पुस्तक खरीदी थी।

(१८) मोहन ने मकान बेचा होगा।

यहाँ बुलाना, मारना, खरीदना और बेचना चारों मुख्य क्रियाएँ सकर्मक हैं। इसलिए तीनों परिभाषाओं द्वारा कर्ता और कर्म की पहचान हो जाती है। परंतु ‘प्रस्तावित’ परिभाषाएँ अधिक सहायक सिद्ध होती हैं—

कर्तृवाचक कृदंत                  कर्ता

बुलानेवाला                         —गुरु (ने)

मारनेवाला                          —राम (ने)

खरीदनेवाला                        —सोहन (ने)

बेचनेवाला                          —मोहन (ने)

कर्मवाचक कृदंत                  —कर्म

बुलाया जानेवाला                    —शिष्य (को)

मारा जानेवाला                      —रावण (को)

खरीदा जानेवाला/खरीदी जानेवाली    —पुस्तक

बेचा जानेवाला                      —मकान

(१९) लड़के को पत्र लिखना है।

(२०) लड़कों को परीक्षा देनी है।

(२१) कन्या को ही वर चुनना चाहिए था।

(२२) लोगों को पानी चाहिए होगा।

कर्तृवाचक कृदंत                कर्ता

लिखनेवाला                       —लड़का (लड़के को)

देनेवाला/देनेवाले                  —लड़के (लड़कों को)

चुननेवाला/चुननेवाली              —कन्या (कन्या को)

चाहनेवाला/चाहनेवाले             —लोग (लोगों को)

कर्मवाचक कृदंत                कर्म

लिखा जानेवाला                   —पत्र

दिया जानेवाला/दी जानेवाली       —परीक्षा

चुना जानेवाला                    —वर

चाहा जानेवाला                    —पानी

दो बातों पर ध्यान देना है। पहली यह कि वाक्य की मुख्य क्रिया से बने कर्तृवाचक कृदंत से कर्ता इंगित होता है तो वाक्य में कर्ता की प्रधानता मानते हैं और दूसरे जब कर्ता ‘ने’ अथवा ‘को’ परसर्ग से युक्त रहता है, तब भी कर्ता की प्रधानता में अंतर नहीं आता। ‘ने’ परसर्ग को तो पहले ही कर्ताकारक का चिह्न मान लिया गया है, अब ‘को’ को भी कर्ताकारक का चिह्न माना जा सकता है। वस्तुतः नामपद ही कर्ता होता है, परसर्ग कर्ता नहीं होता। परसर्ग तो कर्ता का सूचक चिह्नमात्र है। यह कर्तृप्रयोग का विषय है।

(२३) मैं दिल्ली में दो बरस रहा।

(२४) मुझे दिल्ली में तीन महीने लगे।

‘रहना’ और ‘लगना’ दोनों अकर्मक क्रियाएँ हैं, इसलिए उक्त वाक्यों में कर्म का प्रश्न नहीं उठता। ‘मैं दिल्ली में दो बरस रहा’ में ‘मैं’ कर्ता के संबंध में कोई कठिनाई नहीं। परंतु ‘मुझे दिल्ली में तीन महीने लगे’ में ‘मुझे’ को कर्ता माना जाए या न माना जाए, इस संबंध में विवाद तो है ही। ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के द्वारा उक्त वाक्यों के कर्ता की पहचान देखिए—

‘रहना’ क्रिया से कर्तृवाचक कृदंत बनेगा—रहनेवाला।

‘लगना’ क्रिया से कर्तृवाचक कृदंत बनेगा—लगनेवाला।

रहनेवाला—मैं (कर्ता)

लगनेवाला/लगनेवाले—तीन महीने (कर्ता)

अतः उक्त वाक्यों में क्रमशः ‘मैं’ और ‘तीन महीने’ कर्ता हुए। ‘मुझे’ को कर्ता मानना भूल है। वह संप्रदान कारक का रूप है।

(२५) यह काम सुशीला से ही होगा।

उक्त वाक्य ‘हिंदी शब्दानुशासन’ के पृष्ठ ४१२ से उद्धृत किया गया है। उक्त वाक्य में आचार्य वाजपेयी ने ‘सुशीला से’ को कर्ता बताया है और ‘काम’ को कर्म। यहाँ ‘होना’ क्रिया है, जो अकर्मक है। वाजपेयीजी का स्पष्ट अभिमत है कि अकर्मक क्रिया का कर्म नहीं होता। इसलिए आचार्य वाजपेयी के सिद्धांत से भी कर्म नहीं हो सकता। ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के अनुसार ‘होना’ क्रिया से कर्तृवाचक कृदंत बनेगा—होनेवाला।

कर्तृवाचक कृदंत     कर्ता

होनेवाला     —       काम

‘काम’ ही कर्ता है और ‘सुशीला से’ नामपद, जिसे वाजपेयीजी ने कर्ताकारक बताया है, वह करणकारक का रूप है। जरा निम्नलिखित वाक्यों का अवलोकन कीजिए—

यह काम हिम्मत से ही होगा।

यह काम कठिनाई से ही होगा।

यह काम प्रार्थना से होगा।

स्पष्ट है कि हिम्मत से, कठिनाई से, प्रार्थना से साधन के सूचक हैं, अतः करणकारक हैं।

(२६) चिट्ठी भेजी जाएगी।

उक्त वाक्य ‘हिंदी व्याकरण’ के पृष्ठ १८७ से लिया गया है, जिसमें आचार्य गुरु ने ‘चिट्ठी’ को कर्ता बताया है। वाजपेयीजी की परिभाषा के अनुसार ‘चिट्ठी’ भेजी जाने में स्वतंत्र नहीं है, इसलिए कर्ता नहीं हो सकती। ‘प्रस्तावित’ परिभाषा के अनुसार भी ‘चिट्ठी’ कर्म है। कर्तृवाचक कृदंत ‘भेजनेवाला’ का उत्तर नदारद है। कर्मवाचक कृदंत भेजा जानेवाला/भेजी जानेवाली ‘चिट्ठी’ कर्मकारक है।

कर्ता और कर्म की परिभाषाओं से अवगत होने के उपरांत अब हम कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य की परिभाषाओं पर विचार करेंगे।

कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य

‘वाच्य’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका शब्दार्थ है—जिसके संबंध में कुछ कहना हो या कहा जाए।

१. कर्तृवाच्य

१. कर्तृवाच्य क्रिया के उस रूपांतर को कहते हैं, जिससे जाना जाता है कि वाक्य का उद्देश्य क्रिया का कर्ता है।

—पं. कामताप्रसाद गुरु

२. जब कर्ता के अनुसार क्रिया रूप ग्रहण करती है तो कर्तृवाच्य कहलाता है।

—पं. किशोरीदास वाजपेयी

३. जब क्रिया कर्ता के संबंध में कहे तो कर्तृवाच्य।

—‘प्रस्तावित’

२. कर्मवाच्य

१. क्रिया के उस रूप को कर्मवाच्य कहते हैं, जिससे जाना जाता है कि वाक्य का उद्देश्य क्रिया का कर्म है।        —पं. कामताप्रसाद गुरु

२.  जब क्रिया कर्म का अनुगमन करती है तो कर्मवाच्य।

—पं. किशोरीदास वाजपेयी

३.  जब क्रिया कर्म के संबंध में कहे, तो कर्मवाच्य।

—‘प्रस्तावित’

३. भाववाच्य

१. क्रिया के जिस रूप से यह जाना जाता है कि वाच्य का उद्देश्य क्रिया का कर्ता या कर्म नहीं है, उस रूप को भाववाच्य कहते हैं।

—पं. कामताप्रसाद गुरु

२. कभी-कभी क्रिया न कर्ता के अनुसार चलती है और न कर्म के। वह स्वतंत्र पद्धति ग्रहण करती है, तब उसे भाववाच्य कहते हैं।

—पं. किशोरीदास वाजपेयी

३. जब क्रिया भाव (क्रियार्थ) के संबंध में कहे, तब भाववाच्य।

—‘प्रस्तावित’

जरा ध्यान दीजिए

(२७) मोहन ने घोड़ा खरीदा है।

(२८) सोहन ने गाय खरीदी है।

(२९) राम को घोड़े खरीदने हैं।

(३०) श्याम को गायें खरीदनी हैं।

आचार्य वाजपेयी के मत से चारों वाक्य कर्मवाच्य हैं, क्योंकि इनकी क्रिया कर्म का अनुगमन करती है। परंतु गुरुजी की परिभाषा के अनुसार कर्तृवाच्य हैं। गुरुजी का कथन है कि वाक्य का उद्देश्य क्रिया का कर्ता हो तो कर्तृवाच्य, जैसे नौकर ने दरवाजा खोला। अर्थात् खोलनेवाला—नौकर (कर्ता)। खरीदने की क्रिया कौन कर रहा है? मोहन, सोहन, राम और श्याम ही (क्रमशः) कर रहे हैं। इसलिए यहाँ कर्ता हुए। ‘प्रस्तावित’ पभिषा का स्पष्ट कथन है कि जो क्रिया कर्ता के संबंध में कहे, वह कर्तृवाच्य। उक्त चारों वाक्यों की मुख्य क्रिया है—खरीदना। ‘खरीदनेवाला’ क्रमशः मोहन, सोहन, राम और श्याम को इंगित करता है। अतः यही कर्ता है। वाक्य में इन्हीं की प्रधानता है। इनके बिना वाक्य अधूरे हैं।

दोनों आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथों में कर्मवाच्य के संबंध में जो उदाहरण दिए हैं, वे सब-के-सब सचमुच संतोषजनक, निर्णायक और दिशाबोधक हैं। आचार्य गुरु के दिए हुए चार उदाहरण निम्न हैं—

(i) कपड़ा सिया जाता है।

(ii) चिट्ठी भेजी गई।

(iii) मुझसे यह बोझ नहीं उठाया जाएगा।

(iv) उसे उतरवा लिया जाए।

अब आचार्य वाजपेयी के उदाहरण लीजिए—

(i) राम से रोटी खाई जाती है।

(ii) लड़की से चने चबाए जाते हैं।

(iii) दर्द आदि के कारण सोया नहीं जाता।

(iv) मुझसे उठा नहीं जाता।

उक्त सभी (आठों) उदाहरणों का विश्लेषण करने पर छह बातें ध्यान में आती हैं—

(i) कर्मवाच्य में संयुक्त क्रिया होती है।

(ii) कर्मवाच्य की संयुक्त क्रिया की मुख्य क्रिया सकर्मक आकृदंत (भूतकृदंत) होती है और संयोज्य क्रिया ‘जाना’ होती है।

(iii) यदि मुख्य क्रिया का आकृदंत (भूतकृदंत) अकर्मक है तो क्रिया भाववाच्य होगी। आचार्य वाजपेयी के अंतिम दो उदाहरणों में मुख्य क्रिया अकर्मक है, इसलिए क्रिया भाववाच्य है। शेष छह वाक्यों की क्रिया कर्मवाच्य है, क्योंकि उनकी मुख्य क्रिया सकर्मक है।

(iv) कर्मवाच्य और भाववाच्य में कर्ता की स्थिति गौण होती है। आवश्यक नहीं कि कर्ता वाक्य में रहे ही। यदि कर्ता को रखना आवश्यक समझा जाए तो उसे करणकारक में रखा जा सकता है।

(v) यदि मुख्य क्रिया का रूप आकृदंत (भूतकृदंत) से भिन्न होगा तो क्रिया कर्मवाच्य या भाववाच्य नहीं होगी—

(३१) मोहन पुस्तक पढ़ता जाता है।

कर्तृवाचक कृदंत—पढ़नेवाला=मोहन (कर्ता)

(३२) सोहन कुरसी पर बैठ जाएगा।

कर्तृवाचक कृदंत—बैठनेवाला=सोहन (कर्ता)

उक्त दोनों वाक्यों में संयुक्त क्रियाएँ क्रमशः ‘पढ़ता जाना’ और ‘बैठ जाना’ है। दोनों की मुख्य क्रिया आकृदंत (भूतकृदंत) नहीं है। संयोज्य क्रिया ‘जाना’ होने पर भी क्रिया कर्ता को इंगित करती है। इसलिए क्रिया कर्तृवाच्य है।

(६) यदि संयोज्य क्रिया ‘जाना’ से भिन्न होगी तो भी क्रिया कर्मवाच्य या भाववाच्य की नहीं होगी। जैसे—

(३३) किसान ने ऋण लौटा दिया।

उक्त वाक्य में मुख्य क्रिया तो आकृदंत है, परंतु संयोज्य क्रिया ‘जाना’ नहीं है। इसलिए क्रिया कर्मवाच्य नहीं, वरन् कर्तृवाच्य है।

कर्तृवाचक कृदंत-लौटानेवाला—किसान (कर्ता)

खैर, यह तो हुई वैचारिक निष्कर्ष की बात। अब दोनों आचार्यों के आठों उदाहरणों को ‘प्रस्तावित’ परिभाषाओं पर कसते हैं। वास्तविकता यह है कि कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य की ‘प्रस्तावित’ परिभाषाओं के अनुसार दोनों आचार्यों के उदाहरणों को सुगमतापूर्वक कसौटी पर कसना संभव भी है, बोधगम्य भी और परिणाम की दृष्टि से सुखद भी।

(i) कपड़ा सिया जाता है।

संयुक्त क्रिया—सिया जाना

मुख्य क्रिया—सीना (सकर्मक)

कर्तृवाचक कृदंत—सीनेवाला

सीनेवाला—×(कर्ता)

सिया जानेवाला—कपड़ा (कर्म)

संयुक्त क्रिया—कर्मवाच्य

(ii) चिट्ठी भेजी गई।

संयुक्त क्रिया—भेजा जाना।

मुख्य क्रिया—भेजना (सकर्मक)

कर्तृवाचक कृदंत—भेजनेवाला

भेजनेवाला—×(कर्ता)

कर्मवाचक कृदंत—भेजा जानेवाला

भेजी जानेवाली—चिट्ठी (कर्म)

संयुक्त क्रिया—कर्मवाच्य

(iii) मुझसे यह बोझ नहीं उठाया जाएगा।

संयुक्त क्रिया—उठाया जाना

मुख्य क्रिया—उठाना (सकर्मक)

कर्तृवाचक कृदंत—उठानेवाला कर्ता (मुझसे)

कर्ता—करण कारक में

कर्मवाचक कृदंत—उठाया जानेवाला—

उठाया जानेवाला—यह बोझ (कर्म)

क्रिया—कर्मवाच्य

(iv) उसे उतरवा लिया जाए।

संयुक्त क्रियाएँ—१. उतरवा लेना २. लिया जाना

मुख्य क्रिया—उतरवाना

कर्तृवाचक कृदंत—उतरवानेवाला-कर्ता×

कर्मवाचक कृदंत—उतरवाया जानेवाला-वह (उसे)

वह (उसे)—कर्म

संयुक्त क्रिया—कर्मवाच्य

आचार्य वाजपेयी के कर्मवाच्य के चारों उदाहरणों में कर्ता को जगह मिली है, परंतु सभी कर्ता करणकारक में हैं—राम से, लड़की से, दर्द आदि के कारण और मुझसे। इस प्रकार कर्ता की अवस्था गौण रहती है। चारों क्रियाएँ—खाया जाना, चबाया जाना, सोया जाना तथा उठा जाना—रूप के विचार कर्मवाच्य या भाववाच्य हैं। खाया जाना और चबाया जाना कर्मवाच्य हैं, क्योंकि मुख्य क्रियाएँ ‘खाना’ और ‘चबाना’ सकर्मक हैं और सोया जाना तथा उठा जाना भाववाच्य हैं, क्योंकि ‘सोना’ और ‘उठना’ क्रियाएँ अकर्मक हैं। भाववाच्य की क्रिया पुंलिंग-एकवचन रहती है।

कोई दस-ग्यारह वर्ष पहले ‘नवशती हिंदी व्याकरण’ में उद्घाटित किया गया था कि ‘जाना’ के अतिरिक्त एक अन्य संयोज्य क्रिया ‘बनना’ भी कर्मवाच्य क्रिया-रूप होती है, जब तिर्यक् ताकृदंत अथवा तिर्यक् आकृदंत मुख्य क्रिया के रूप में प्रयुक्त हो, जैसे—

१. मुझसे रोटी खाते नहीं बनती।

२. मुझसे रोटी खाए नहीं बनी।

३. उससे कुछ करते नहीं बनेगा।

४. उससे कुछ किए न बना।

५. तुमसे खेलते ही नहीं बनता।

६. तुमसे खेले भी न बना।

यहाँ इस विषय पर स्पष्टीकरण आवश्यक है कि कर्ता तथा कर्म के साथ परसर्गों का प्रयोग होने पर वाच्य निर्धारण में कठिनाई या उलझन होती है। यदि यह कहा जाए कि वाच्य का कर्ता या कर्म के परसर्गों से कोई संबंध नहीं, तो अनुचित न होगा। यह विषय प्रयोग का है और कर्तृप्रयोग और कर्मणिप्रयोग के अंतर्गत आता है। यह पूर्ण रूप से स्थिर तथा निश्चित है और क्रियाओं के रूप पर आधारित है। निम्नलिखित स्थितियों पर ध्यान दें—

(i) क्रियापद निम्नलिखित क्रिया-रूप में हो तो कर्ता के साथ कोई परसर्ग नहीं रहता।

धातु—आ, जा, पढ़, लिख...

ताकृदंत—आता, जाता, पढ़ता, लिखता...

आकृदंत (अकर्मक)—आया, गया...

नाकृदंत—आना, जाना, पढ़ना, लिखना...

एकृदंत—आए, जाए, पढ़े, लिखे...

एगाकृदंत—आएगा, जाएगा, पढ़ेगा, लिखेगा...

इएकृदंत—(चाहिए को छोड़कर)

आइए, जाइए, पढि़ए, लिखिए...

इएगा कृदंत—आइएगा, जाइएगा, पढि़एगा, लिखिएगा...

है

था

हो           मूल क्रियाएँ

होगा

(ii) क्रियापद निम्नलिखित क्रियारूप में हो तो कर्ता में ‘ने’ परसर्ग आता है।

आकृदंत (सकर्मक)—पढ़ा, लिखा, देखा, किया आदि

आकृदंत (सकर्मक)+मूल क्रिया—

पढ़ा है, लिखा है, देखा है, किया है...

पढ़ा था, लिखा था, देखा था, किया था...

पढ़ा हो, लिखा हो, देखा हो, किया हो...

पढ़ा होगा, लिखा होगा, देखा होगा, किया होगा...

(iii) क्रियापद निम्नलिखित क्रिया-रूप हो तो कर्ता में ‘को’ परसर्ग रहेगा—

नाकृदंत+मूल क्रिया—

आना है, जाना है, पढ़ना है, लिखना है

आना था, जाना था, पढ़ना था, लिखना था

आना हो, जाना हो, पढ़ना हो, लिखना हो

आना होगा, जाना होगा, पढ़ना होगा, लिखना होगा

चाहिए+मूल क्रिया—चाहिए है, चाहिए था, चाहिए हो, चाहिए होगा

(iv) कर्ता में ‘से’ परसर्ग रहता है। यदि संयुक्त क्रिया आकृदंत (भूतकृदंत)+जाना हो...

राम से उठा जाता है।

मोहन से आम खाया जाता है।

संयुक्त क्रियाओं की कुछ संयोज्य क्रियाएँ अपने विशिष्ट स्वभावानुसार कुछ परिवर्तन दरशाती हैं, जिनका वर्णन विस्तार से ‘हिंदी क्रियाओं की रूप-रचना’ में आपको मिलेगा। किन-किन नामपदों में किन-किन कारकों में कौन-कौन परसर्ग कब-कब आएगा, यह भी प्रायः निश्चित है।

मुझे आशा है कि प्रबुद्ध भाषाभाषी ‘प्रस्तावित’ परिभाषाओं पर मनन करेंगे और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराने की कृपा करेंगे। उनके सुझावों का सम्मान करूँगा और यदि कोई शंका हुई तो उसे दूर करने की चेष्टा करूँगा। भाषा के निखरे तथा उज्ज्वल रूप के उद्घाटन में सभी का सहयोग अपेक्षित है।

शब्दलोक, ४७, लाजपतनगर

वाराणसी-२२१००२ (उ.प्र.)

दूरभाष : ०९३०५२८८३२१

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