वास्तव में घर एक पाठशाला है...

वास्तव में घर एक पाठशाला है...

आकाशवाणी में, १८.०९.२०१४

कुछ दिन पहले श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी का फोन आया था, ‘‘मिश्रजी, बहुत दिन हो गए आपको आकाशवाणी आए हुए। कहिए, किस दिन गाड़ी भेज॒दूँ?’’

मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा, ‘‘मैं तो अब प्रायः घर ही रहता हूँ। आप लोगों को जब कभी सुविधा हो, सूचित कर दें। मैं आ जाऊँगा। हाँ, लेकिन अभी बहुत ठंड है। मौसम अच्छा हो जाए तब बुलाइएगा।’’

‘‘जी हाँ, तभी बुलाऊँगा।’’

और कल का दिन निश्चित किया गया था। यद्यपि मौसम में अभी भी शीत और ऊष्मा का ऊहापोह मचा हुआ है। कभी लगता है कि दिन कुछ प्रसन्न हो रहे हैं, लेकिन फिर ठंडक उन्हें उदासी से नहला देती है। संयोग से कल का दिन बहुत प्रीतिकर रहा। धूप खिलखिला रही थी। दिन के साथ मन में भी ऊष्मा की हँसी छाई हुई थी। पौने बारह बजे आकाशवाणी से गाड़ी आई। मेरे साथ बेटी स्मिता भी हो ली। दरअसल, आजकल मैं अकेले निकलता नहीं हूँ। निकलना चाहूँ भी तो सरस्वतीजी निकलने नहीं देतीं। या तो स्वयं साथ हो लेती हैं या किसी को साथ लगा देती हैं। मुझे कभी-कभी डगमगाहट होती है। उन्हें डर लगा होता है कि राह में मैं कहीं गिर न पड़ूँ।

काफी दिनों बाद घर से निकला था। बहुत अच्छा लग रहा था। रास्ते में कई स्थानों पर फूलों की पंक्तियाँ खिलखिला रही थीं। उनसे वसंतागम की हलकी-हलकी आहट प्रतीत हो रही थी। राष्ट्रपति भवन के पास से गुजरा तो लगा कि मुगलगार्डन में फूलों की बहार आई होगी। वे अदृश्य भाव से मेरे साथ हो लिये। उनकी प्रतीति से मन पुलकित हो रहा था।

आकाशवाणी पहुँचा तो अरुण कुमार पासवानजी ने स्वागत किया। उन्हें पहली बार देख रहा था। वे बहुत ही सौम्य और प्रीतिकर व्यक्ति लगे। उनसे ज्यों-ज्यों बात होती गई, उनकी प्रीतिकरता हम दोनों पर छाती गई। देखा, उनकी मेज पर मेरी आत्मकथा (सहचर है समय) रखी हुई है। मैंने पूछा, ‘‘आज का कार्यक्रम क्या है?’’ उन्होंने कहा, ‘‘आप से थोड़ी बातचीत करनी है।’’ मैंने अपना कविता-संग्रह (पचास कविताएँ) साथ रख लिया था, यह सोचकर कि शायद कविता-पाठ करना पड़े।

पासवानजी ने मेरे हाथ में कविता-संग्रह देखा तो कहा, ‘‘अच्छा हुआ, जो आपने कविता-संग्रह साथ रख लिया है। बातचीत के बीच कविता-पाठ का भी क्रम चलता रहेगा।’’

बत्तीस मिनट की बातचीत हुई। पासवानजी ने बहुत श्रम और विवेकपूर्ण ढंग से प्रश्न तैयार किए थे। सच बात तो यह है कि वे बने-बनाए प्रश्न थे ही नहीं। पासवानजी मेरी रचनाओं से गुजरते हुए रचनाओं के माध्यम से ही बात उठाते रहे। कभी आत्मकथा से गुजरे, कभी कविताओं से, कभी कथा-साहित्य से। प्रश्नों में बहुत रचनात्मक ढंग से साहित्य और जीवन की जुगलबंदी होती रही। जाहिर है, ऐसे प्रश्नों के सामने जो उत्तर होंगे, वे भी रचनात्मक ही होंगे। बड़ी कोफ्त होती है, जब कोई साक्षात्कारकर्ता कुछ बने-बनाए प्रश्नों को पेश कर देता है। तब उत्तर भी बने-बनाए और नीरस होते हैं और लगता है कि ये उत्तर तो कई बार दिए जा चुके हैं। लेकिन यहाँ रचनात्मक ढंग के प्रश्नों के सामने होने में बहुत नवता और ताजगी महसूस हो रही थी। बीच-बीच में कविता की उपस्थिति बातचीत को और भी सर्जनात्मक रूप दे रही थी। जब बातचीत संपन्न हुई तो लगा, जैसे मैंने एक लंबी कविता पढ़ी है। मैंने और स्मिता ने पासवानजी को ऐसे रचनात्मक संवाद के लिए धन्यवाद दिया और बधाई भी!

घर, १२.१२.२०१३

सरस्वतीजी कई दिनों से अस्वस्थ थीं। कई दिन तक चारपाई पर ही लेटी रहीं। वे और बेटी स्मिता एक कमरे में सोते हैं, दूसरे कमरे में मैं। तो आज पाँच बजे सुबह उठकर देखना चाहा कि उनका स्वास्थ्य कैसा है। देखा, रसोईघर की बत्ती जल रही है और सरस्वतीजी कोई कविता गुनगुनाती हुई अरतनों-बरतनों का संगीत रच रही हैं तथा गैस के चूल्हे की खिलखिलाहट के साथ अपनी हँसी की लय मिला रही हैं।

मैंने कहा, ‘‘अभी कुछ दिन और आराम कर लेतीं। इसकी जल्दी क्या थी?’’ उन्होंने हँसकर कहा, ‘‘अब ठीक हूँ। अरे, कब तक खाट पर पड़ी रहूँ अपाहिज बनकर?’’ मैं जानता हूँ कि मेरे कहने का उनपर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। वे अपने स्वस्थ होने का तर्क देकर कार्य में जुटी रहेंगी और घर की गति बनी रहेगी।

यदि सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो इस पंद्रह अगस्त को 90 वर्ष का हो जाऊँगा। सरस्वतीजी भी 82 की हो जाएँगी। मैं तो सरस्वतीजी के बिना शेष वृद्ध जीवन के योगक्षेम की कल्पना नहीं कर पाता। मैंने तो कब का अपने को घर के कामों से संन्यस्त कर लिया है।

अपनी सुविधा से सोता हूँ, जागता हूँ, उठता हूँ, बैठता हूँ, लिखता हूँ, पढ़ता हूँ; किंतु सरस्वतीजी के कारण ही मैं यह सुविधा भोग रहा हूँ। वे तो सुबह चार बजे से रात दस बजे तक इस घर की जागृति बनी रहती हैं। वे कोई-न-कोई कविता गुनगुनाती हुई इस या उस कार्य के साथ चलती रहती हैं। अकसर वे मेरे उन गीतों को गुनगुनाती हैं, जिन्हें मैं स्वयं भूल गया होता हूँ। स्वास्थ्य उनका भी बहुत अनुकूल नहीं है, कई-कई होम्योपैथिक दवाइयों का सेवन करना पड़ रहा है, किंतु वे निष्क्रिय तभी होती हैं, जब बीमारी उन्हें अशक्त कर देती है। अन्यथा वे सुबह से शाम तक मेरी ही नहीं, इस घर की गति बनी होती हैं। दरअसल, उनके नाते घर घर बना हुआ है और घर का महत्त्व वे ही समझते हैं, जिन्हें वास्तव में घर का घरत्व प्राप्त हुआ हो। मैं तो बचपन से घरेलू आदमी हूँ। गाँव में माता-पिता, भाइयों, भाभियों और बहन का प्यार मिला। सारे अभावों के बीच घर की महक एक मानसिक संपन्नता की अनुभूति कराती थी।

चाहे खेतों में काम के लिए निकले हों, चाहे पढ़ाई के लिए स्कूल गए हों या छोटे-मोटे किसी भी प्रकार के प्रवास पर निकले हों, घर लौटकर बड़ा सुकून मिलता था। माँ की ममता, पिता का स्नेह मुझे अपने से भीतर तक भर देता था। तो बचपन का वह संस्कार बाद में भी मुझमें जीवंत बना रहा। सोचता हूँ कि यदि गहता की गहरी चाह के बावजूद सरस्वतीजी जैसी संगिनी मुझे न मिली होतीं तो क्या होता? क्या घर उसी तरह अच्छा लगता, जैसा मुझे बचपन में अच्छा लगता रहा।

तब शायद मैं भी घर को विकास में एक बाधा मानता, जैसा कि हमारे हिंदी के कुछ स्वनामधन्य लेखक समझते हैं। इन लेखकों की दृष्टि में घर हमारी विकास-यात्रा को बाँधता है। वह बाहरी दुनिया में हमारी व्याप्ति का बाधक है। मुझे लगता है, वैसा वे ही लोग सोचते हैं, जिनका घर घर नहीं होता, जहाँ आपसी कलह का कोलाहल छाया रहता है या यह भी होता है कि पुरुष लेखक होने का अतिरिक्त दंभ पालकर घर की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेता है और घर की लय टूटने लगती है, असंतोष एवं कलह का बेसुरा राग बजने लगता है। तब लेखक घर की महत्ता को नकारकर बाहर भटकने लगता है। दोस्तों के साथ मदिरापान और लंबी-लंबी बहस का क्रम चलने लगता है। मुझे लगता है, अपना घर टूटने पर भी घर की प्यास कहीं बनी होती है। अतः वह दूसरे के घर में प्रवेश करने की चेष्टा करता है। अजब बात तो यह है कि वह अपनी तमाम असफलताओं को एक सैद्धांतिक जामा पहनाने लगता है। वह घर को प्यार करनेवालों पर व्यंग्य से हँसना चाहता है, उन्हें न जाने क्या-क्या नाम देना चाहता है!

यह सच है कि कई लोग घर छोड़कर यशस्वी बने, लेकिन घर में रहकर यशस्वी या महान् बने रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है और सच बात तो यह है कि गृहस्थ ही सारे मूल्यों, सारे धर्मों और बड़प्पन का आधार-स्तंभ है। किसान-मजदूर समाज के लिए इतना कुछ देते हैं। बड़प्पन के नारे के बिना देते हैं। वे काम-धाम करते हुए अपने घर में मगन रहते हैं। वे अपना घर छोड़े बिना समाज के लिए कितना कुछ उपजाते रहते हैं। तो उन्हें क्या कहिएगा? और क्या जरूरी है कि स्वयं को बड़ा बनाने के लिए उन तमाम लोगों को उपेक्षा के गर्त में डाल दिया जाए, जिनके योगक्षेम की जिम्मेवारी उन्हें सौंपी गई है। वे स्वयं तो बड़े बन गए, किंतु उनका क्या हुआ, जिनके साथ उन्हें चलना था।

वास्तव में घर एक पाठशाला है, जहाँ हम प्यार और त्याग का पहला पाठ पढ़ते हैं। अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी जीना है, यह शिक्षा हमें वहीं से प्राप्त होती है। यदि घर संस्कारी हो तो आदमी घर की दुनिया में जीता हुआ बहुत सहज भाव से उससे बाहर निकलना शुरू करता है और एक बृहत्तर समाज का अंग बनता चला जाता है। उसका घर व्यापक होता चला जाता है। क्रमशः घर से गाँव, गाँव से शहर, शहर से जिला, जिला से प्रदेश, प्रदेश से देश उसका घर कहलाने लगता है। किंतु बुनियादी घर तो वही घर होता है, जिसमें उसका अपना परिवार रहता है।

आज के समय में माँ-बाप, भाई-बहन तो धीरे-धीरे छूट जाते हैं, लेकिन साथ में पत्नी तो होती ही है, अपने बच्चे तो होते ही हैं। घर एक मकान में होता है, जहाँ हर शाम आदमी लौट-लौटकर आता है, जिसके किसी कमरे में उसके विचारों और भावों के स्वर गूँज रहे होते हैं, जिसकी दीवारों पर उसके सपनों की स्वर-लिपियाँ अंकित होती हैं। आँसू और हँसी की कितनी ही कथाएँ होती हैं। पत्नी और बच्चों के साथ बीते हुए खट्टे-मीठे संबंधों की घडि़याँ छिपकर देख रही होती हैं, और त्याग के कितने ही राग सोए से लगते हैं। तो इस घर में लौटकर आदमी न केवल बाहर की थकान भूलता है वरन् वह अपने को जिंदगी के उन तमाम मुखर-अमुखर स्वरों के बीच पाता है, जिनसे उसका अस्तित्व बोलता हुआ प्रतीत होता है।

जंगलों के बीहड़ विस्तार और मैदानों में भी पशु और पंछियों के घर होते हैं, जहाँ वे दिनभर की भटकन के बाद लौटते हैं और आश्वस्ति प्राप्त करते हैं। मुझे याद आ रहा है बचपन का एक दृश्य! माँ के साथ शाम को आँगन में खाट पर बैठा होता था। ऊपर आसमान में चिडि़याँ उड़ती हुई जाती रहती थीं। माँ कहती थी—ये अपने घर जा रही हैं, जहाँ इनके बाल-बच्चे इनकी राह देख रहे होंगे। याद आ गया जयशंकर प्रसाद के उपन्यास ‘तितली’ का अंत—‘मधुआ अपने घर लौट आया था। वह घर छोड़कर कहाँ-कहाँ भटका और उसकी अनुपस्थिति में तितली ने वह विकट जीवन-संघर्ष किया, जिसे मधुआ को करना चाहिए था। अंत में वह घर लौट आया। लगा कि वह सही जगह लौटा॒है।’

तो कितनी अच्छी बात है कि मुझे घर बहुत प्यारा लगता है, हर हाल में मेरा सहारा प्रतीत होता है। वह मुझे अपने से बाँधता नहीं है, वह बाहरी दुनिया की यात्रा करने में पग-बंधन नहीं बनता, वह मुझे बाहर की ओर खोलता रहता है, लेकिन मुझे बाहर भटकने नहीं देता। मेरे-उसके बीच एक ऐसी दृश्य-अदृश्य डोर है, जिससे खिंच-खिंचकर मैं बाहर से उसमें आता रहता हूँ और मेरा सारा अस्तित्व उसके आत्मीय रस से सराबोर होता रहता है। इसलिए मैं अनावश्यक रूप से बाहर-बाहर भटकता नहीं हूँ, घर के महत्त्व को नकारता नहीं हूँ, न उनकी गरिमा को कम आँकता हूँ, न अपना घर छोड़कर दूसरों के घरों में ताक-झाँक करता हूँ। इस गृह-प्रेम के लिए मेरा अपना स्वभाव और संस्कार तो उत्तरदायी हैं ही, सरस्वतीजी का होना उससे अधिक उत्तरदायी है। मेरे और पूरे परिवार के प्रति उनका प्यार, श्रम, त्याग और निष्ठा घर को वास्तव में घर बनाए हुए है। मेरे लिए तो वे कितना कुछ कर रही हैं। मैं इतना लिख-पढ़ सका तो इसलिए कि उन्होंने मुझे मुक्त भाव से इस काम में लगा दिया था। मेरे हर सुख को अपना सुख समझा और मेरे हर दुख को अपने ऊपर उठा लेने की कोशिश की। आज भी उनकी इस गति में शैथिल्य नहीं आया है। उनके बिना तो मैं अपने होने की कल्पना ही नहीं कर पाता हूँ और मेरे मन में भी उनके प्रति एक अत्यंत प्रसन्न सहयात्री भाव रहा है—भाव में भी और कर्म में भी।

गेट के बाहर, ८.२.२०१४

घर के गेट पर धूप में बैठा हुआ कुछ पढ़ रहा था। सहसा गेट के बाहर मेरी दृष्टि गई। देखा—गेट से थोड़ा हटकर जाली की पट्टी पर एक आदमी बैठा हुआ है। सोचा कि शराब पिए हुए होगा। कुछ पलों बाद वह वहाँ से थोड़ा हटकर लेट गया। फिर तो मुझे उठना ही पड़ा। उसे जगाना चाहा, लेकिन वह तो बेहोश था। सोचा, यह कोई नई बात नहीं है। पास के चौराहे के आसपास लोग भी पीकर लोटते ही रहते हैं। शराब पीनेवाले तो अनेक लोग हैं, लेकिन बड़े लोग (बड़े व्यवसायी, राजनेता, साहित्यकार, अफसर आदि) पीते हैं तो बदनाम नहीं होते। पीना ऊँची सोसाइटी की संस्कृति का एक अंग मान लिया जाता है और वे पी-पीकर लोटते भी हैं तो किसी सुरक्षित स्थान पर, लेकिन ये छोटे-छोटे श्रमजीवी यही कार्य करते हैं तो पियक्कड़ कहलाते हैं। वे पीकर किसी असुरक्षित स्थान पर लोट जाते हैं। उन्हें कोई भी वाहन कुचल सकता है। आते-जाते लोग उन पर हँसते ही नहीं बल्कि लात से ठेल भी देते हैं।

मुझे इन पर गुस्सा नहीं, दया आती है कि दिन भर काम करने के बाद मिलने वाला जो पैसा इनके परिवार का पेट भरने के लिए लगाना चाहिए, उसे ये शराब पीने में फूँक देते हैं। स्वयं सड़क पर असुरक्षित लोटकर अपनी जिंदगी खतरे में डालते हैं और परिवार को भूख के नरक में झोंकते रहते हैं। यही नहीं, कुछ समय बाद पत्नियों की कमाई भी छीनकर पीने लगते हैं और उनकी कर्मशीलता निकम्मेपन की ओर बढ़ने लगती है।

परिवार में कहा-सुनी और मारपीट का कोलाहल छाने लगता है। पुरुष का यह तर्क न्यायसंगत नहीं है कि वे काम की थकान मिटाने के लिए पीते हैं। काम तो उनकी औरतें भी करती हैं—घर से लेकर बाहर तक। फिर उन्हें अपनी थकान मिटाने के लिए पीने की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ती?

बहरहाल, मैं उसे छोड़कर अपनी कुरसी पर आ गया। लोग आते-जाते उसे ठेल-ठेलकर जगाते रहे। पूछते रहे, ‘‘कौन हो भाई? यहाँ क्यों लोट रहे हो?’’ लेकिन वह वैसे ही बेहोश पड़ा रहा। मैंने लोगों से कहना शुरू कर दिया, ‘‘उसे मत छेडि़ए, होश आने पर खुद जाग जाएगा।’’

कुछ देर बाद मैंने देखा कि वह जाग गया है और पहले जहाँ बैठा था, वहाँ आकर बैठ गया है। वैसे पीकर लोट जानेवाले आसपास के श्रमजीवियों को पहचानता हूँ, किंतु यह कहीं और से आया हुआ लग रहा है। मैं फिर उठकर उसके पास गया और कहा, ‘‘भाई, अपने घर जाओ।’’

उसने मुझे देखा। उसका चेहरा सुन्न था, लेकिन आँखों में आँसू झलमला रहे थे। मैंने फिर कहा, ‘‘भाई, अपने घर जाओ।’’ वह बजबजाती सी आवाज में कुछ बोला। मैंने ध्यान दिया। शायद कह रहा था, ‘‘घर? कहाँ है घर?’’

‘‘अरे भाई, तुम जहाँ से आए हो वह घर।’’ फिर तो वह रोने लगा और अस्पष्ट सी आवाज में भाई, भाभी आदि के नाम लेने लगा।

मैं समझ गया कि इसके साथ घर नहीं, घर का संकट है, जिसे या तो इसकी पीने की आदत ने पैदा किया है या जिसने इसे पीने की ओर ढकेला है। मैं फिर अपनी कुरसी पर आ गया। सोचा, जब यह जाना चाहेगा, चला जाएगा। सरस्वतीजी भी मेरे पास आकर बैठ गई थीं। कुछ देर बाद मैंने फिर उसकी ओर देखा। वह कुछ इशारा कर रहा था। उसके पास गया तो पूछा, ‘‘क्या?’’

‘रोटी’ शब्द उसके मुँह से निकला। सरस्वतीजी समझ गईं और झट किचन में जाकर चार पराँठे और सब्जी ले आईं। भूखा था, जल्दी-जल्दी पराँठे निगल गया। उसने फिर पानी के लिए इशारा किया। पानी पिलाया। मैंने पूछा, ‘‘चाय पियोगे?’’ ‘नहीं’ के रूप में सिर हिलाया और दोनों हाथ जोड़कर यह भाव दरशाता हुआ चला गया कि आपने मेरे लिए इतना बहुत किया।

जब-जब सड़क पर घूमते लावारिस से गंदे-गंदे बच्चों को देखता हूँ, तब-तब अपने आप से पूछता हूँ कि क्या ये भी इसी देश के नागरिक हैं, जिस देश के नागरिक हैं—सेठ-साहूकार, नेता, अफसर, धर्मों के मठाधीश आदि। आज ऐसे नेताओं की आवश्यकता है, जो सड़क पर या संसद् में कहीं भी बोलें तो लगे कि उनकी भाषा में जनता की भाषा का दर्द और आक्रोश है। उनकी वेशभूषा, रहन-सहन जताता है कि वे मुख्यमंत्री होकर भी वी.आई.पी. नहीं हैं। लोकसभा में शोर मचानेवाले चिकने-चुपड़े विशिष्ट महत्त्वपूर्ण नेताओं को केजरीवाल की भाषा मर्यादित नहीं लगती, क्योंकि यह भाषा उस बँधी हुई राह को तोड़ती है, जो नीचे जनता की ओर न जाकर ऊपर को चली जाती है।

हमारे संविधान में सामान्य जन के हित के लिए तमाम व्यवस्थाएँ दी गई हैं, किंतु क्या वे चरितार्थ हो पाती हैं? तो उनकी अचरितार्थता के विरुद्ध बोलना न तो अमर्यादित होना कहा जाएगा, न गैरकानूनी।

स्वातंत्र्योत्तर काल में इंडिया के लिए तो कितना कुछ हुआ, किंतु भारत के लिए? भारत के लिए क्या हुआ?

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