फगुनवा में होली है

फगुनवा में होली है

फागुन बौरा और मस्ती में इठला रहा है। यह शोख-बदमाश जो कर दिखाए, वह कम है। पलाश वनों में आग लगा दी है इस मरदुए ने। हवा चलती है तो नश्तर सा चुभो देती है। वन-उपवन एक मादक गंध से भरे हुए हैं। वह चाँदी की धारवाली नदी इतराती भाग रही है और कोयल की मीठी बोली आम्रकुंजों में गूँज रही है। यह फागुन ही तो है, जिसने मानव-मन में नया उल्लास और उमंग भर दिया है। पपीहा का राग प्रेम का प्रतीक बनकर गोरी के होंठों पर हलकी हँसी बिखेर देता है। फागुन उसके गालों पर ऐसी चिकोटी काट जाता है कि दोनों गालों पर हँसी के मारे गड्ढे पड़ जाते हैं। सरसों तो पूरी-की-पूरी पीत रंग से रँग गई है और खेत-खलिहानों में सनसनाता है अठखेलियाँ करता फागुनी राग। मनुहार की वेला को साथ लाया है मधुमास। कहीं दूर कोई अलगोजे पर गा रहा है फागुनी गीत और आसमान से उतर रहा है इस बेईमान मौसम का मादक संगीत।

कौन सा फूल या कली है, जो इसको छूकर खिल न गई हो! सुगंध से सराबोर हो गए हैं गाँव-के-गाँव और उफ की थाप ने नया रंग चौपालों को दिया है। इसी का कमाल है कि माधवी और मोगरे की जुगलबंदी देखते ही बनती है। यह मौलश्री झर रही है अपने आप ही। अचेतन पहाड़ी में भर उठा है नया उच्छ्वास। आम बगरा रहा है और नए पत्तों की पाँत जरा सी हवा से भी हिल-डुल जाती है। प्रेम का पहाड़ा याद करने की उम्र ने लहलहाते खेतों के द्वार दस्तक दी है। फागुन कहाँ नहीं है, कोई कह नहीं सकता। गोचर-अगोचर को भर लिया है इस मनोहरी फागुन ने अपने पाश में और कोंपलों में फूटा है नया लावण्य। खुशबुओं के मेले लग गए हैं गाँव के गलियारों में, क्योंकि जो हवा यहाँ आई है, वह सीधी ही फूलों के रस से नहाकर चली आई है। एक मदहोशी सी छा गई है यहाँ-वहाँ, मन करता है, सारी उमंगें भर जाएँ मन के भीतर तक।

कठफोड़वा आम के पेड़ में अपनी कारीगरी से बना रहा है अपना कोटर और हरियल तोतों की बरात पहले ही आ बैठी है बागों में। बहार ने अपना डेरा जमा लिया है गुलाब की क्यारी में। पपीहा बहक रहा है और पीहू-पीहू की रट लगाए मदमाती ऋतु को दे रहा है प्यार की पहचान। वनिता बिहँसती हुई टेसू के रंग तैयार कर रही है, उसे पता है फगुनवा में होली है। जंगल में मंगल और उत्सव के राग। कुछ समझ में ही नहीं आता कि यह कैसा मौसम है, जिसमें गमक के साथ बहक-बहक जाता है मयूरी मन। मोर ने नाचने की बदहवासी में सबकुछ भुला दिया है। पहाड़ों की बर्फ पिघल गई है और झरने का मधुर संगीत कर्णप्रिय बनकर नैनों में साकार है। कहीं दूर किसी बैरागी ने अपने मन की आवाज को सुनकर प्रेम का नया तराना छेड़ा है। बाबा हो गए हैं गोरी के देवर और गुलाबी रंगों से भरी पिचकारी से रँग रही है हर किसी को। कौन गाता है रोज-रोज प्रेम से पगे ये गीत और कौन भरता है नए से नया रंग गमलों की पाँतों में।

अभी तो बाकी है होली के रंगों का धमाल। फागुन का समापन होली के रंगों की धूमधाम से होता है। होली और फागुन का रंग एक सा है। फागुन में होली है, रोज गाता है खलिहान। फागुन को पता है, उसका साथी चैत भी लग जाएगा उसके साथ ही। होली रंग-बिरंगी है। ऐसे गहरे प्यारे रंग, जो जम जाते हैं दिलों पर। छुड़ाए नहीं छूटते रंगों के निशान। होली के रंग न्यारे और नवीन हैं। मन न तो थकता है और न ऊबता, वह तो पगलाया-बौराया सा तलाशता है साथी को। भंग की तरंग है और मीठे स्वाद से भरी होली की पदचाप फागुन के लगते ही पहचान लेता है हर कोई मन। गाने दो मन को कोई प्रेमगीत और आने दो फगुनौटी को घर के द्वारे। सज गए हैं घर-बार बंदनवारों से। होली के रंग से कौन बचा है। सब कोई भीग रहा है और उतर आया है ठिठोली के बीच। मन को पढ़ लेने की उम्र है उस नवयौवना की, इसीलिए तो वह खिलखिलाती गुलाल उड़ाती है। गुलाल लाल-पीले, हरे-गुलाबी कई रंगों में और चेहरे पुत गए हैं इन्हीं रंगों में। साँसों में घुल गया है मौसम का शरबत और प्यार का खुमार टूटे नहीं टूटता। अंधा है होलीवाला रंग। बिना किसी भेदभाव के रंग डालता है छोटे-बड़े और हमउम्र पर।

फागुन का रंग है होली और उसकी पहचान है होली। रंगों की मार और पारदर्शी वस्त्रों में झाँकता है होली का सतरंगी स्वरूप। नैतिकता धरी है ताक पर और मन माने नहीं मानता, खेलता है मनभावन रंगीली होली। फगुनवा में होली है, नहीं भूलता चेतन मन! मनुहार की इस वेला में प्रेम की होली खेलते हैं सब। रात को चाँदनी के गीत गाता है रूपहला चितेरा बहुरूपिया फागुन। यही फागुनवाला राग आलापा है फूलों के दल पर भँवरों ने। प्रकृति और मानव-मन का अटूट बंधन है फागुन और होली। वसंत यहाँ तक चला आया है अपना मदनोत्सव रूप लेकर। फाग और होली गाते हुए थकता नहीं है फागुन का सुहाना मौसम। दूरियाँ मिट गई हैं और सब एक-दूसरे के आस-पास महसूस कर रहे हैं अपनापन। मन यही तो गाएगा—फगुनवा में होली है।

१२४/६१-६२, अग्रवाल फार्म

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