रूहें कुपोषण की शिकार क्यों

सजी-धजी, रंग-बिंरगी डिजाइनर

दीवारों से घिरी हुई

बड़े-बड़े अद्भुत से, शानो-शौकत का दम भरते हुए

परदों के बीच,

मखमली रेशम की बिछी हुई चादरों पे बैठकर

हमारी रूहें इतनी बेचैन-सी क्यों हैं?

तन के पोषण के मिल रहे हैं सभी आवश्यक तत्त्व,

फिर हमारी रूहें कुपोषण का शिकार क्यों हैं?

क्योंकि रूहें पवित्र विचारों की खुराक माँगती हैं,

ये लोगों की भीड़ नहीं,

रिश्तों में प्रेम का एहसास माँगती हैं।

हर काम के लिए रखे हैं

हमने कितने ही वर्कर,

जब लगे थकान लेट जाते हैं

आलीशान बिस्तर पर,

एरोबिक्स, जिम, योगा का भी

बनाया हुआ है हमने रुटीन,

कोई रोग न छू पाए हमें

खाते हैं इतने सारे विटामिन्स

फिर भी मन में इतनी झुँझलाहट सी क्यों है?

कुछ और पा लेने की जद्दोजहद

हर क्षण आहट-सी क्यों है?

क्योंकि रूह को परचिंतन नहीं,

आत्मचिंतन का फनकार चाहिए

इच्छा मात्र अविद्या की पल-पल पुकार चाहिए

बेशुमार उमड़ती नित नई इच्छाओं पर लगाम लगती नहीं

जितना खा लें, जितना पी लें

भूख-प्यास ये कभी मिटती नहीं,

चाहे सोते रहें पूरा दिन हम कमरे में बंद होकर

फिर क्या है कि हमारी थकान मिटती नहीं,

जिसे पाना था, उसे पाकर

जो चाहिए था, उसे समेटकर

कोई दिन नहीं जाता जब नई ख्वाईशात की

घंटी कानों में हमारे बजती नहीं

उस अजनबी, अनदेखे दूरस्थ को

पा लेने को मन बेकरार क्यों है?

क्योंकि जिस्म के साथ हमारी रूहों को भी व्यायाम चाहिए,

जिस पर है नहीं कंट्रोल ऐसी परिस्थितियों पे

सोचने को विराम चाहिए,

जानते तो हम हैं इतना पर,

अमल करने को भी तो कोई तैयार होना चाहिए।

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