भारतीय लोक-संस्कृति का महापर्व : होली

भारतीय लोक-संस्कृति का महापर्व : होली

भारतीय पुरातन संस्कृति और यहाँ की धार्मिक आस्थाओं से जुडे़ लोकपर्वों का हमारे जीवन में अत्यंत महत्त्व रहा है। ये पर्व जहाँ एक-दूसरे के मन में प्रेम और उल्लास भरते हैं, वहीं अपने मूलभूत लक्ष्यों के कारणों को भी उद्घाटित करते हैं तथा भाईचारा एवं समत्वभाव भी दरशाते हैं। इतना ही नहीं, ये पर्व पुरातन लोक रीति-रिवाजों से भी जन-जन का मन सम्मोहित कर उन्हें आनंदानुभूति कराते हैं, साथ ही प्रेरणा के स्रोत भी बन जाते हैं। अतः हमें देश की पुरातन संस्कृति से अवगत करानेवाले इन लोकपर्वों को कभी नहीं भुलाना चाहिए। इनका अनुपालन, अनुसरण करने से हमारा पथ भी प्रशस्त होता है, मार्गदर्शन होता है, परंतु इन पर्वों का महत्त्व हमें इनसे जुड़ने पर ही ज्ञात होता है। चाहे वे किसी भी धर्म के माननेवाले हों, सभी अपनी सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन पर्वों को बल देते हैं, जिनमें कुछ प्रमुख महापर्व हैं—होली, दीपावली और रक्षाबंधन।

आस्थाओं से जुडे़ ये पर्व भारत में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी उत्साहपूर्वक धूमधाम से मनाए जाते हैं। इनकी स्मृति आते ही मानस-पटल पर ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं के चित्र स्वयं ही उमड़ पड़ते हैं। महापर्वों में होली ऐसा मस्ती भरा पर्व है, जिसके आनंद के रंग में रँगे लोग बेसुध होकर मस्ती की अनुभूति करते हैं।

ब्रज क्षेत्र में होली को ‘होरी’ कहते हैं तथा खड़ी बोली में होली का अर्थ गुजर गई, बीत गई या व्यतीत हुई घटना से है। इस पर्व का संबंध पौराणिक कथा के अनुसार भक्त प्रह्लाद की बुआ होलिका के जल जाने से उद्घाटित हुआ है, जिसे होली कहा जाता है। ब्रजक्षेत्र में होली पर्व आते ही ब्रज के महानायक लीलाधारी श्रीकृष्ण और उनकी प्रिया सुकुमारी श्रीराधा ब्रजेश्वरी सहित युगल लालित्य लीलाएँ स्वतः ही नेत्रों के समक्ष प्रदर्शित होने लगती हैं, जो व्यक्ति को भक्तिरस में सराबोर कर देती हैं। श्रीकृष्ण का यमुनातट पर श्रीराधा, गोपी एवं ग्वाल-बाल सखाओं के साथ होली खेलते हुए ठिठोली करना, पिचकारी से रंग मारना तथा कौतुक भरी क्रीड़ाएँ करना सभी को आनंदित करता है, जिसका संक्षिप्त भाव वर्णन ब्रजभाषा के मेरे इन दो सुंदरी सवैयों में देखिए—

जमुना तट भीर जुरी हरि के संग

खेलत ऐं वृषभानु किसोरी,

हँसिकै नंदलाल गुलाल उड़ावतु

पीत, हरे बहुरंग बहोरी,

मन माहिं उमंग भरी सबकै

करिएँ मिली आपसु में बरजोरी,

पिचकारिन सों रँग देते सबै

नहिं जाति भनी मुख ‘भूषन’ होरी।

× × ×

संग रास रचैं वृषभानुलली

अरु नंद के नंदन वेणु बजावें,

सब ग्वाल-सखा कलहास करें

कबहूं घनस्याम गुलाल उड़ावें

ससि आनन की छबि को बरनें

ब्रजराज सजे सिसु केलि दिखावें

कथि ‘भूषण’ रंग रँगे ब्रजभूषन

आलिन्ह कूँ लख सैन चलावें।

इतना ही नहीं, होली के आने के कई दिनों पूर्व मंदिरों, चौपालों और घरों में संगीत-वाद्यों के साथ गायकों द्वारा अपनी सुमधुर ध्वनि एवं रागों में लोकगीत भी होली के ही गाए जाने लगते हैं—

होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया

आजु बिरज में होरी रे रसिया!

कौन गाँव के कुँवर कन्हैया?

कौन गाँव की गोरी रे रसिया

आजु बिरज में होरी रे रसिया!

 

नंद गाँव के कुँवर कन्हैया

बरसाने की राधा गोरी रे रसिया

आजु बिरज में होरी रे रसिया!

 

कै मन तौ यामें रंग घुरवायौ

कै मन केसर घोरी रे रसिया!

आजु बिरज में होरी रे रसिया।

सौ मन तौ यामें रंग घुरवायौ,

सौ मन केसर घोरी रे रसिया

आजु बिरज में होरी रे रसिया!

ऐसे अनेक लोकगीत मन को झकझोर देते हैं, होली का यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णमासी की रात्रि को होलिका-दहन के रूप में मनाया जाता है। सभी शहर, गाँव व देहातों में बसंत पंचमी के दिन वहाँ के बच्चे, युवक चौराहे पर होली सूचक दाड़ा (वृक्ष की डाली) या एक छड़ी भक्त प्रह्लाद के रूप में गाड़ देते हैं और उसे चारों ओर से लकड़ी व उपलों से ऊँचा ढेर बनाकर ढक देते हैं। सुहागिनें व्रत रखकर पति की दीर्घायु की कामना करते हुए होली के दिन प्रातः पूजन हेतु होलिका स्थल पर पहुँचती हैं तथा भक्त प्रह्लाद की तरह भगवान् से अपना सुहाग (पति) अमर रहने की मनुहार करती हुई पूजन करती हैं। रात्रि को शुभ मुहूर्त में पंडित से पूजा कराने के उपरांत होलिका-दहन किया जाता है। इस असवर पर भक्त, युवक और सभी एकत्र लोग होली और भक्त प्रह्लाद के जयकारे लगाते हैं। तदुपरांत अपने घर पर होली जलाते हैं।

दूसरे दिन, अर्थात् चैत्र के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा प्रथम तिथि को धुलेंडी, अर्थात् रंग-गुलाल लगाने का मस्ती भरा दिन होता है। इस दिन हर कहीं मस्ती भरे झूमते-गाते हुए युवक दीख पड़ते हैं, जिनके चेहरे और वस्त्र रंग-बिरंगे अटपटे रूपों में दिखाई देते हैं, जो कि काले-पीले रंगों में सजे होने से पहचान में भी नहीं आते। किंतु संभ्रांत लोग एक-दूसरे से गले मिलते, उन्हें गुलाल लगाते भी दिखाई पड़ते हैं।

होली खेलने की पुरातन परंपरा में नंदगाँव और बरसाना की लठमार होली विश्वप्रसिद्ध है। इसे देखने प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों देशी-विदेशी पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं तथा देखकर रोमांचित और चकित हो जाते हैं।

बरसाना की होली

अपनी अनूठी परंपरा को सँजोए यहाँ की यह लठमार होली विशेष महत्त्व रखती है। ब्रजेश्वरी राधा, अर्थात् श्रीजी की जन्मस्थली कहा जानेवाला यह गाँव उनके पिता वृषभानु द्वारा लगभग सवा पाँच हजार वर्ष पूर्व बसाया गया था। यहाँ आज भी श्रीजी का प्राचीन मंदिर अवस्थित है, यहाँ की ‘रंगीली गली’ से शुरू होनेवाली होली गुलाब, टेसू आदि के सुगंधित फूलों के रंगों से खेली जाती है। इन्हें ‘हुरियारे’ (होली खेलनेवाले युवक) आगंतुक दर्शकों पर छोड़ते हुए हास-परिहास करते हैं तथा बम (नगाड़ों) की थाप पर नाचते-गाते हैं।

होली का यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को लठमार होली के रूप में बस्ती के लोगों द्वारा आयोजित किया जाता है। इस दिन बरसाने की हुरियारिनें (युवतियाँ) विभिन्न पारंपरिक परिधानों में सजी एवं लाठियाँ लिये होती हैं। नंदगाँव के हुरियारे बरसाना की हुरियारिनों पर गीतों के माध्यम से जब व्यंग्य भरी फब्तियाँ कसते हैं तो हुरियारिनों की लाठियों के प्रहार शुरू हो जाते हैं। वे इनसे बचने के लिए ढालों की आड़ लेते हैं। यह दृश्य अत्यंत भयानक और अद्भुत होता है। शाम होते ही ये सभी हुरियारिनें उन हुरियारों में से एक युवक को पकड़ लेती हैं तथा कुआँ-पूजन की रस्म कराने केउपरांत छोड़ देती हैं। इसके उपरांत नंदगाँव की हुरियारिनें बरसाना के हुरियारों को इसी तरह होली खेलने के लिए अपने नंदगाँव में आमंत्रित करती हैं।

नंदगाँव की होली

श्रीकृष्ण के धर्मपिता नंद के द्वारा बसाया यह गाँव भी बहुत पुराना है। इसमें मोती कुंड, पान सरोवर, विहार कुंड, अक्रूरजी की बैठक, महारास चबूतरा, ललित बिहारी मंदिर आदि जग-प्रसिद्ध हैं। यहाँ बरसाना की लठमार होली के दूसरे दिन फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को लठमार होली खेली जाती है। इसमें नंदगाँव की हुरियारिनें बरसाना के हुरियारों को देखकर उनपर (बरसाना होली की तरह) लाठी प्रहार करती हैं और हुरियारे ढालों से स्वयं को बचाते हैं। यहाँ भी व्यंग्य भरे लोकगीत गाए जाते हैं तथा केसर, गुलाल, अबीर आदि द्रव्यों को मिलाकर उनपर रंग डालते हैं। इस दौरान राधा-कृष्ण की भव्य झाँकियाँ तथा लोक कलाकारों को कौतुक भरी कलाएँ चकित कर देती हैं। दर्शकों पर श्री बालरूप में राधा-कृष्ण रंगभरी पिचकारी छोड़ते हैं तो कुछ सखियाँ नाचती-गाती हुई सुनी जाती हैं—

होरी खेलन आयौ श्याम, आज याहि रंग में बोरौ री!

रंग में बोरौ री, करौ करि सों गोरौ री-होरी

मिलिकै सिगरी सखी, अबहि तुम केसर घोरौ री,

गालन मली गुलाल, करौ करि सों गोरौ री...होरी!

इस तरह चैत्र मास में भी होली के लोकगीतों की गूँज तथा फूलडोल (हुरंगा) जैसे कार्यक्रमों की धूम हर किसी का मनोरंजन कर आत्मविभोर कर देती है; परंतु द्वेष और प्रतिशोध की भावना में होली का वर्तमान रूप विकृत होता जा रहा है। असभ्य लोग इस पुनीत पर्व को दूषित कर रहे हैं। आज मानवता की होली (इतिश्री) की जा रही है, आवश्यकता है शिक्षा, भाईचारा और पुनर्नव जागृति की।

श्याम ज्वैलर्स, निकट गोल मार्केट

प्रताप विहार, किराड़ी दिल्ली-११००८६

दूरभाष : ९२११६२५५६१

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