राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के कुछ पक्ष

गणतंत्र दिवस का आयोजन इस वर्ष अभूतपूर्व रहा। पहली बार दस देशों के राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री मुख्य अतिथियों के रूप में सम्मिलित हुए। पहले केवल किसी एक देश के प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्राध्यक्ष को आमंत्रित किया जाता था और शायद भविष्य में भी इसी परंपरा का अनुसरण होगा। इस वर्ष आमंत्रित किए गए अतिथि पूर्व एशिया के देशों से थे। वे ‘आसियान’ संगठन के सदस्य हैं। भारत के इन देशों से सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध रहे हैं। इस क्षेत्र को इतिहासकारों ने पहले ग्रेटर इंडिया यानी बृहत्तर भारत भी कहा। इससे कभी-कभी भ्रांति भी पैदा होती थी। कुछ आलोचक कहते थे कि यह भारत की अहंमन्यता, विस्तारवादी मानसिकता का परिचायक है। पर यह गलत धारणा है। यह केवल भारत की प्राचीन संस्कृति के प्रभाव का परिचायक है, जो अपनी निहित शक्ति के कारण अपने आप इन देशों में फैली, उसको सामरिक शक्ति या किसी प्रकार के बाहरी दबाव के द्वारा प्रसारित नहीं किया गया। इसमें पुरानी वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति एवं बौद्धधर्म का प्रभाव था। यही कारण है कि कंबोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि में रामायण और महाभारत का प्रभाव दिखाई पड़ता है। साथ ही साथ बौद्धधर्म भी तेजी से फैला और इस क्षेत्र के देशों, जैसे म्याँमार (बर्मा), थाईलैंड, कंबोडिया आदि में मुख्यतः बौद्ध धर्म का प्रभाव है।

सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध यहाँ अपना स्थायी प्रभाव छोड़ गए। अरब व्यापारियों के द्वारा इसलाम धर्म का प्रचार हुआ। मलेशिया, इंडोनेशिया मुख्यतः मुसलिम देश हैं, किंतु वहाँ रामलीला का आयोजन किया जाता है, रामायण का प्रचार-प्रसार है। एक बार बाली में एक कॉन्फ्रेंस के अवसर पर वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष से अनौपचारिक बातचीत में प्रश्न किया कि यहाँ रामलीला के आयोजन के लिए तरह-तरह के मुखौटे हैं, हालाँकि आप लोग इसलाम धर्म के अनुयायी हैं। इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि इसलाम हमारा धर्म है, परंतु रामलीला हमारी संस्कृति का अंग है, इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। काश! इस प्रकार की सोच हमारे यहाँ भी होती। फिलीपींस में ईसाइयत मुख्य धर्म है। आपस की समस्याओं को सुलझाने एवं आज की बदलती परिस्थितियों में सुरक्षा तथा व्यापारिक संबंधों को दृढ़ करने के लिए पूर्व के देशों ने मिलकर ‘आसियान’ संगठन बनाया। भारत आसियान का प्रारंभिक सदस्य नहीं है, केवल एक पर्यवेक्षक है।

भारत की ‘लुक ईस्ट’ व्यवस्था

आज की आवश्यकताओं को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के पुराने सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों की पृष्ठभूमि में ‘लुक ईस्ट’ यानी ‘पूर्वी देशों की ओर ध्यान दें’ की नीति का प्रतिपादन किया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि केवल लुक ईस्ट की नीति से काम नहीं चलेगा, आज के दौर में जरूरी है ‘एक्ट ईस्ट’ अथवा पूर्वी एशिया केदेशों से सक्रिय संबंध बनाए जाएँ। गणतंत्र दिवस केआयोजन में आमंत्रण के लिए विदेश मंत्री ने राष्ट्राध्यक्षों से संपर्क किया अथवा स्वयं जाकर उन्हें निमंत्रित किया। २६ जनवरी के पहले प्रधानमंत्री मोदी की सब अतिथियों से आपसी संबंधों के विषय में अलग-अलग बातचीत हुई। राष्ट्रपति भवन में सम्मेलन हुआ, जहाँ सब अतिथि ठहरे हुए थे। सब ने एकजुट होकर आतंकवाद का विरोध किया तथा इसका डटकर सामना करने की आम राय व्यक्त की। उनका यह भी कहना था कि भारत को पूर्वी एशिया क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। इन सभी देशों के समक्ष आर्थिक विकास और सुरक्षा की समस्याएँ हैं। इस तरह की पहल से प्रधानमंत्री ने २६ जनवरी के आयोजन को एक नई सार्थकता प्रदान की। भारत की विकास की गति और सामरिक शक्ति किस प्रकार की है और हमारे यहाँ क्या-क्या संभावनाएँ हैं, इस अवसर पर इसका एहसास भी अतिथियों को हुआ, विशेषतया परेड के द्वारा। उन्हें भारत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की झलक भी देखने को मिली। ये देश चीन की विस्तारवादी नीति से सशंकित हैं। इस अवसर पर उन सबको यह समझने का एक मौका मिला कि भारत की नीति विस्तारवादी नहीं है। ये देश न तो अमेरिका और न चीन के प्रभुत्व में आना चाहते हैं। वे शांति, सहयोग और बराबरी के संबंधों की अपेक्षा रखते हैं और उन्हें यह जानने का अवसर मिला कि विदेश नीति के क्षेत्र में भारत का यह मूल सिद्धांत है। भारत और पूर्वी एशिया के देशों के संबंध कैसे हों, जो सभी के लिए फायदेमंद हों, इस पर विचार करने के लिए नया परिवेश उभर आया है।

दाओस की बैठक

इसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की प्रतिवर्ष दाओस में होनेवाली बैठक में भाग लिया। यह पहला मौका था, जब भारत के प्रधानमंत्री ने इस सम्मेलन में पहले दिन अनेक देशों से आए उद्योगपतियों, बैंकरों, अर्थ-विशेषज्ञों और राज्यों के प्रतिनिधियों को संबोधित किया। गत वर्ष इस सम्मेलन में चीन के प्रधानमंत्री ने प्रारंभिक आयोजन को संबोधित किया था। चीन के बाद भारत ही एशिया में एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। जब देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे, वे भी दाओस गए थे, पर एक छुटभैया के रूप में। उस समय भारत की आर्थिक स्थिति कुछ और ही थी। वे प्रधानमंत्री भी दूसरों के सहारे से यकायक बने थे, स्वयं निर्णय लेने में असमर्थ थे। १९९१ के उदारीकरण के बाद भारत के आर्थिक विकास ने एक नई गति प्राप्त की। आर्थिक क्षमता की दृष्टि से भारत का आज दुनिया के देशों में सातवाँ स्थान है। आर्थिक शक्ति के विकास के क्षेत्र और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग की दृष्टि से हमारी संभावनाएँ महान् हैं। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में उद्योगपतियों, बैंकरों आदि को अवगत कराया कि भारत में पूँजी निवेश के लिए अनेक क्षेत्र हैं, उसका वे लाभ उठा सकते हैं और इससे भारत को भी लाभ होगा। देश में हर प्रकार की तकनीकी क्षमता का बड़ा भंडार है। इसका लाभ पूँजी निवेशकों को मिलेगा। इससे सस्ते माल का उत्पादन करना संभव है। प्रधानमंत्री की सरकार ने जो नए कार्यक्रम प्रारंभ किए हैं, उनका भविष्य में फल क्या होगा और जो नई नीतियाँ अपनाई हैं, उनके विषय में जानकारी दी। ये आम जनता की खुशहाली में सहायक होंगी और देश की सकल उत्पादन क्षमता में निरंतर  वृद्धि करेंगी।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ संविधान और कानून सर्वोपरि है। भारत में पूँजी निवेश के लिए उपलब्ध संसाधनों व सुविधाओं से भी सबको परिचित कराया। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि नरेंद्र मोदी एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में बोल रहे थे, जिसे जनता का समर्थन प्राप्त है, जो निर्णय ले सकता है। इससे पूँजी लगानेवालों का हौसला बढ़ता है। वे आश्वस्त होते हैं कि उनकी पूँजी सुरक्षित रहेगी। उभरती और बढ़ती हुई भारतीय आर्थिक क्षमता एवं राजनैतिक शक्ति के प्रवक्ता के रूप में मोदी दाओस में भारत का प्रतिनिधित्व करने गए। यह सबसे बड़ा फोरम है, जहाँ प्रतिवर्ष विशेषज्ञ, उद्योगपति, बैंकर, पूँजीपति और विश्व-व्यापार को बढ़ाने में जुटे प्रमुख लोग मिलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के इस फोरम में भाग लेने से देश को लाभ होने की पूरी संभावना है। नए भारत का मानचित्र क्या होगा, इसकी एक झलक विश्व को देखने को मिली। भारत का नेतृत्व विश्वसनीय है, यह प्रतीति वहाँ भाग लेनेवाले देशों को हुई। दाओस में उनके संबोधन का विश्वव्यापी प्रभाव हुआ। दाओस में की गई प्रधानमंत्री मोदी की भागीदारी २६ जनवरी के आयोजन में अतिथियों के लिए भी भारत की सही तसवीर प्रस्तुत करने में काफी हद तक सफल रही।

भारतीय विदेश नीति के अन्य पक्ष

प्रधानमंत्री मोदी न केवल पूर्वी एशिया के देशों से संबंध बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, साथ-ही-साथ पश्चिमी एशिया के देशों से संबंध अच्छे रखने के प्रयास भी जारी हैं। ये देश अधिकतर इसलाम धर्म के अनुयायी हैं, यद्यपि उनमें भी आपसी मतभेद हैं, जैसे ईरान और सऊदी अरब में शिया-सुन्नी का मामला है। इजराइल यहूदियों का देश है, जो सैकड़ों वर्षों के उत्पीड़न एवं द्वितीय युद्ध की समाप्ति के बाद अपना एक राज्य स्थापित कर सके। यह लंबी कहानी है। इसी समय फिलिस्तीन और इजराइल की नई समस्या का भी जन्म हुआ अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप के बयान से कि वे स्थायी रूप में अमरीकी दूतावास यरूशलम स्थानांतर करेंगे। इसने पश्चिमी एशिया के देशों में काफी बेचैनी उत्पन्न कर दी। वे अधिकतर इसलामी राज्य हैं। उनकी अपनी आंतरिक समस्याएँ हैं। भारत का प्रयास है कि आपसी हितों को ध्यान में रखकर हर देश से अलग-अलग संबंध स्थापित किया जाए। इराक में उसके पुनर्निर्माण की समस्या है। तथाकथित इसलामी खलीफा और उसके इसलामिक स्टेट का पतन हो गया है, पर वह कहाँ छिपा हुआ है, पता नहीं। किंतु एक विचारधारा के रूप में इसलामिक स्टेट का आतंकवादी कहर स्थान-स्थान पर जारी है। यह कहानी यानी सलाफी विचारधारा काफी पुरानी है। यह सऊदी अरब से अन्य देशों में फैली है। सऊदी अरब की तेल की आमदनी ने इसको विस्तार दिया। पिछले दिनों अरब में सत्ता-परिवर्तन हुआ है। नए बादशाह बिन सलमान ने वहाँ बहुत से आंतरिक बदलाव किए हैं। वे उसे आधुनिकता की ओर ले जाना चाहते हैं तथा उदारवादी इसलाम का समर्थन करते हैं। सऊदी अरब और ईरान दोनों ही इस क्षेत्र का नेतृत्व करना चाहते हैं। इस स्पर्धा से इन राष्ट्रों में कई समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। सीरिया और तुर्की की आपस में नहीं बन रही है। सीरिया के बारे में अमरीका और रूस की नीतियाँ अलग-अलग हैं। इजिप्ट और उत्तरी अफ्रीका के इसलामी राज्य भी इसी भँवर में फँसे हुए हैं। पेलेस्टीन सरकार का क्षेत्र भी अव्वास और हम्स में बँटा है। पुराने संबंध होने के अतिरिक्त आज भी हजारों लोग वहाँ नौकरी कर रहे हैं, व्यापार में लगे हैं। देश के सामने तेल की उपलब्धि व साथ-ही-साथ सुरक्षा का भी प्रश्न है। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी का प्रयास सबसे संतुलन और सामंजस्य बैठाने का है। यह दुरूह कार्य है।

प्रधानमंत्री मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जो इजराइल गए। वहाँ के प्रधानमंत्री नेतन्याहू भारत आए। यह सब हाल की घटनाएँ हैं। मोदी यरूशलम गए, पर अलग से। पहले पेलेस्टीन और इजरायल को एक साथ देखा जाता था। अब भारत सबके आपसी हितों को ध्यान में रखकर दोस्ती का रिश्ता कायम करना चाहता है। इंडोनेशिया के बाद मुसलिम आबादीवाला सबसे बड़ा देश भारत है। इन देशों में क्या होता है, उसकी ओर भारतीय मुसलमानों का भी ध्यान रहता है। पाकिस्तान हमेशा समस्याएँ पैदा करने की कोशिश करता है, चाहे अफगानिस्तान की शांति की बात हो अथवा किसी अन्य मुसलिम देश की। पड़ोसी मालदीव की ज्वलंत समस्या आज देश के सामने है। इस समय वहाँ के शासक ने वहाँ जो हालात पैदा किए हैं, आपातकाल घोषित कर चीफ जस्टिस तथा अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया है, भारत हस्तक्षेप करे या न करे और करे तो किस प्रकार? यह एक दुविधा है। चीन की निगाहें इस ओर हैं। हमारी सुरक्षा का सवाल भी है। ऐसे में फूँक-फूँककर कदम रखने की जरूरत है। वास्तव में पूर्वी एशिया एक कठिन पहेली है, भूलभुलैया है। इसकी समस्याओं की गंभीरता और कठिनाइयों की ओर इशारा किया गया है। इसके अधिक विवरण में जाना संभव नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि देश की विदेश-नीति देश की सुरक्षा से किस प्रकार जुड़ी है।

यही नहीं, नेपाल में ओली अगले प्रधानमंत्री बननेवाले हैं। उनका झुकाव चीन की ओर है। हमारी विदेश मंत्री उनको बधाई देने और आश्वस्त करने गई थीं कि भारत किसी प्रकार के आंतरिक हस्तक्षेप में रुचि नहीं रखता और केवल दोस्ती के संबंध तथा हर प्रकार की सहायता के लिये तत्पर है। बँगलादेश में आम चुनाव होनेवाले हैं। इस बार विरोधी दल की अध्यक्षा बेगम जिया भाग लेनेवाली थीं, पर एक ट्रस्ट के भ्रष्टाचार के मामले में उन्हें पाँच वर्ष की सजा मिली है। वे जेल में हैं। भारत को बँगलादेश की स्थिति पर भी नजर रखनी है। म्याँमार में रोहिंग्या मुसलमानों की वापसी और सुरक्षा के कदम उठाए जा रहे हैं। भारत की इस समस्या के निदान में दिलचस्पी है। हम जानते हैं कि उत्तरी-पूर्वी सीमा पर बहुत से सशस्त्र अलगावादी दल सक्रिय हैं और भारत को बहुत चौकसी रखनी पड़ती है। श्रीलंका में भी राष्ट्रपति श्रीसेन और प्रधानमंत्री विक्रम सिंह ने राजपक्षे की सरकार, जो अत्यंत तमिल विरोधी थी, को गठजोड़ बनाकर अपदस्थ कर दिया था। श्रीलंका की तमिल समस्या बनी हुई है, उनकी अनेक दिक्कतें हैं। आशा रही कि यह सरकार न्यायपूर्वक और मानवता के आधार पर कुछ रास्ता निकालेगी। इसी बीच राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की मिली-जुली सरकार में मतभेदों की खबरें आने लगीं। राजपक्षे के दल को स्थानीय चुनावों में बहुत बड़ी सफलता मिली। आज की सरकार का भविष्य खतरे में दिखने लगा था, पर अब कुछ समझौता हो गया है और मिली-जुली सरकार काम करती रहेगी। श्रीलंका की तमिल समस्या का भारत पर बहुत असर पड़ता है। इससे पता चलता है कि सुरक्षा की दृष्टि से देश की विदेश-नीति और आंतरिक नीतियाँ जुड़ जाती हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। ऐसे में पड़ोसियों की समस्याएँ हमारे लिए सिरदर्द बन जाती हैं।

बजट के कुछ मुद्दे

अब अपने देश की कुछ आंतरिक समस्याओं की बहुत संक्षेप में चर्चा आवश्यक है। सरकार ने संसद् में बजट पेश कर दिया है। उसके पहले आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया था, जिसमें देश की आर्थिक स्थिति और समानताओं का अच्छा आकलन है। संसद् स्थगित हो गई है, ताकि स्थायी समिति उसपर विचार कर अपने सुझाव दे। बजट पारित होने के बाद ही अधिकारपूर्वक कुछ कहना संभव होगा। लेकिन इस बजट को आमतौर पर चुनावी बजट कहा गया है। सरकार ने अपने कार्यकाल में कार्यक्रमों या नीतियों में जो कमियाँ महसूस कीं, उनको सुधारने की कोशिश स्वाभाविक है। अगले वर्ष २०१९ में अप्रैल-मई में आम चुनाव होने ही हैं। बजट में किसानों और गाँव-गँवई की समस्या पर विशेष ध्यान दिया गया है, प्रावधान किया गया है। कृषि-संकट और किसानों की समस्याओं को लेकर बजट में कई प्रस्ताव और प्रावधान हैं, यद्यपि कुछ देर से ही सही, पर प्रधानमंत्री मोदी ने एक अच्छा कदम उठाया है। उन्होंने दिल्ली में कृषि विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों और देश के अनेक कृषि-विशेषज्ञों का एक सम्मेलन बुलाया, यह जानने के लिए कि कृषि-संकट को दूर करने के लिए उनके क्या सुझाव हैं। २०२० तक किसान की आमदनी को दुगना करने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए। हम समझते हैं कि इससे सरकार को अपनी नीति और कार्यक्रम निर्धारित करने में लाभ होगा।

किसानों को अपने उत्पादन का उचित दाम मिले, बजट में इसका प्रावधान किया गया है। उसमें अगर कोई खामी है, तो उसको दूर करना चाहिए। एक और बहुत दूरगामी महत्त्व की योजना ‘आयुष्मान भारत’ है, जो प्रत्येक नागरिक के लिए पाँच लाख रुपए तक के स्वास्थ्य इंश्योरेंस कवर का प्रबंध करेगी। राज्य सरकार के सहयोग से इस योजना का कार्यान्वयन होना है। यह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी योजना है। इसकी पूरी रूपरेखा बननी है। कुछ टिप्पणीकारों ने अमरीका की ओबामा हेल्थ केयर योजना की तरह इसे मोदी हेल्थ केयर योजना की संज्ञा दी है। विरोधी दलों ने प्रश्न उठाया है कि इसके लिए पैसा कहाँ है? कॉपरेटिव फेडरलिज्म का तकाजा है कि राज्य सरकारें और केंद्र मिल-जुलकर तय करें कि इसका अनुपालन किस प्रकार हो। लेकिन खेद है, इस कल्याणकारी योजना को भी राजनीति के नजरिए से देखा जा रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने अभी से अपने राज्य को इससे अलग कर लिया है कि वे इसमें भाग नहीं लेंगी। उनकी अपनी व्यवस्था बेहतर है। हो सकता है कि कुछ अन्य राज्य जहाँ विरोधी पक्ष की सरकारें हों, २०१९ के आम चुनाव को देखते हुए खुद को इससे अलग कर लें। यहाँ एक बात स्पष्ट हो गई है कि सरकार को गंभीरता से अपने कार्यक्रमों का पुनर्निरीक्षण करना होगा कि वे कहाँ तक अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर रही है। सरकारी तंत्र और दलीय तंत्र यथावत् वाला रुख अख्तियार नहीं कर सकते हैं।

शीर्ष न्यायालय की छवि

१२ जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो प्रश्न उठाए थे, उनका निराकरण होना बाकी है। देश को पता नहीं है कि इस विषय में क्या हुआ। सरकार तथा कुछ अन्य लोगों ने कहा है कि शीर्ष न्यायालय स्वयं यह मसला हल कर लेगा। एक अनिश्चित सी स्थिति बनी हुई है। तरह-तरह की आशंकाएँ प्रकट की जा रही हैं। मामले का राजनीतीकरण हो रहा है, जो कि खतरनाक है। कुछ दलों ने शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग की भी चर्चा की है, पर यह आसान नहीं है। इससे सर्वोच्च न्यायालय की साख बढ़नेवाली नहीं है। देश के एक वरिष्ठ अधिवक्ता, जो विधिमंत्री भी रहे हैं, ने नोएडा की बेनेट यूनिवर्सिटी में भाषण के बाद विचार-विनिमय के दौरान कह दिया कि सरकार जजों को लड़वा रही है। यह बात न जजों के लिए शोभनीय है और न जेठमलाजी के लिए ही। एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन ने तो बहुत पहले ही कहा था कि न्यायालय को खतरा अपने अंदर से है। बार कौंसिल भी चुप है। सर्वोच्च न्यायालय देश की संस्थागत आस्था है, उसे धक्का नहीं लगना चाहिए, वैसे तो घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं। व्यक्ति से संस्था कहीं बड़ी है और उसे आँच नहीं आनी चाहिए। हम यही मानकर चलते हैं कि इस अध्याय का अब अंत हो गया है।

अयोध्या-विवाद

सर्वोच्च न्यायालय के सामने कुछ ऐसे मामले हैं, जिनमें पूरे देश की दिलचस्पी है। ऐसा ही एक मामला राम मंदिर-बाबरी मसजिद का भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि वह इसका निर्णय ‘किसका हक है’ इस आधार पर करेगा। शायद इसका तात्पर्य यह है कि इसे धार्मिक दृष्टि से नहीं देखा जाएगा। अच्छा है कि यह मामला अदालत में तय हो, पर जल्दी हो, क्योंकि देश को पहले ही काफी हानि हो चुकी है, मामले का निपटारा न होने पर व्यर्थ में मतभेद बढ़ते हैं। श्री रविशंकर ने फिर मध्यस्थता की पहल की है। उसमें सौदेबाजी के आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए हैं। विवाद में जाने की आवश्यकता नहीं है। उत्तर प्रदेश की सरकार ने भी मध्यस्थता के बारे में कोई रुचि नहीं दिखाई है। उत्तम यही है कि इस विवाद की समाप्ति शीर्ष न्यायालय के द्वारा ही हो, जो सबके लिए मान्य होगा।

क्या सांसद और अधिवक्ता भी?

एक जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है कि जो अधिवक्ता संसद् अथवा असेंबली के सदस्य हैं, उनको अदालतों में प्रैक्टिस की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। वे कानूनन ‘पब्लिक सरवेंट’ अथवा जनसेवक करार दिए गए हैं। उनको मासिक तनख्वाह मिलती है, पेंशन है, संसद् या असेंबली में उपस्थित रहने का दैनिक भत्ता मिलता है। उनके लिए निवास-स्थान का प्रावधान है। सफर या चिकित्सा जैसी अन्य सुविधाएँ हैं। ऐसे हालात में उन्हें वकालत करने देना असंवैधानिक है। ये लोग दोहरे फायदे उठा रहे हैं। संसद् या असेंबली की सदस्यता समाप्त होने पर ही उन्हें कानूनी प्रैक्टिस की इजाजत मिलनी चाहिए। यह बड़े-बड़े एडवोकेट का मामला है, पर याचिका में इसका औचित्य प्रतीत होता है। देखें ऊँट किस करवट बैठता है।

सांसदों की अप्रत्याशित धन-वृद्धि

एक जनहित याचिका के ही दौरान न्यायाधीश चेमलेश्वर और अब्दुल नजीर की पीठ ने महत्त्वपूर्ण निर्णय और सरकार को आदेश दिया है कि वह कानून और नियमों द्वारा यह जानने की शीघ्र व्यवस्था करे कि संसद् एवं असेंबली के सदस्य को अपनी और अपने नजदीकी लोगों की आय का स्रोत क्या है, यह जानकारी चुनाव लड़ने के पहले दें। न्यायालय ने कहा कि पिछले पचास वर्षों से इन लोगों के पास आमदनी से ज्यादा जायदाद दिखाई दे रही है, जो कि लोकतंत्र के लिए घातक है। सरकार को स्थायी रूप से व्यवस्था करनी पड़ेगी कि वह इस मामले में निगरानी रखे। ऐसे लोगों की सदस्यता निरस्त होनी चाहिए, जिनके पास उनकी आमदनी से अधिक संपत्ति है। मतदाता का अधिकार है कि वह चुनाव लड़नेवाले और उसके नजदीकियों की आय के बारे में जानकारी हासिल करे। न्यायालय ने कड़े शब्दों में कहा कि ऐसे कानून बनानेवाले, जिनके पास आमदनी से अधिक संपत्ति और जायदाद है, उनकी सदस्यता निरस्त हो, क्योंकि यह अपराध है और इससे कानून के शासन के स्थान पर माफिया के शासन का मार्ग प्रशस्त होता है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है।

पंजाब नेशनल बैंक का घोटाला

बैंकों के एन.पी.ए. होने यानी ऐसे कर्जे, जिनका भुगतान नहीं हो रहा, की समस्या काफी समय से है और अत्यंत चिंता का कारण है। इस समय एन.पी.ए. की मद में दस लाख करोड़ से अधिक राशि आँकी जा रही है। नीरव मोदी और पंजाब नैशनल बैंक के घोटाले से देश हतप्रभ है। विजय माल्या का मामला पहले से लटका हुआ है। यह बीमारी काफी पुरानी है। सत्ताधारी इसकी अनदेखी करते हैं। नीरव मोदी का घोटाला कैसे व क्यों हुआ और कौन दोषी है? इस पर समाचार-पत्रों और टी.वी. पर बहुत बहस चल रही है। जब तक तथ्य सामने न आ जाएँ, तब तक इस पर कोई टिप्पणी करना बेमानी है। स्पष्ट है कि बैंक अधिकारियों की साँठगाँठ से ही यह संभव है। इसमें राजनेताओं की क्या भूमिका है, इसका भी खुलासा होना चाहिए। कांग्रेस और अन्य विरोधी दल इस पर बहुत मुखर और आक्रामक हैं। उनका निशाना नरेंद्र मोदी हैं, जो व्यर्थ है। जनता में उनकी जो छवि बनी है, वह अभी भी वैसी ही है, जैसा कि सब ताजा आकलन बता रहे हैं। मोदी पर व्यक्तिगत रूप से जितना अधिक आक्रमण होगा, आरोप लगानेवालों का उतना ही नुकसान होगा। कांग्रेस हवा में उड़ रही है, राहुल गांधी अब अध्यक्ष हैं। गुजरात के चुनाव और राजस्थान में एक असेंबली और दोनों लोकसभा की सीटों पर विजयी होने के कारण कांग्रेस जमीनी सच्चाई से दूर होती दिखाई दे रही है। वे बीजेपी की संगठनात्मक शक्ति को भूल जाते हैं। भाजपा भी चुप बैठनेवाली नहीं है। पुराने मुरदे फिर उखाड़े जाएँगे। भाजपा का मुकाबला करने के लिए विरोधी दल आपस में यह भी नहीं तय कर पा रहे कि वे २०१९ के आम चुनाव में किसके नेतृत्व में उतरेंगे। शरद पवार, ममता और मायावती के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को नेता मानना मुश्किल है। प्रधानमंत्री और भाजपा को सख्ती से यह देखने की आवश्यकता है कि उसके बड़बोले, जो सस्ती वाहवाही के लिए छपास और दिखास की चाह में जो चाहे बोल देते हैं; उसका खामियाजा सरकार और पार्टी को होता है, के ऊपर अंकुश लगाना चाहिए, ताकि सर्वसाधारण और विदेश में सरकार के बारे में भ्रांतियाँ पैदा न हों। ऐसे लोग चाहे वे सांसद या मंत्री हों, सरकार के लिए आत्मघाती होंगे।

कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें

भारत के समसामयिक विषयों के संबंध में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली के द्वारा एक पुस्तक-शृंखला प्रकाशित हो रही है। इसमें एक दर्जन से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं, जो आधिकारिक विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं। हाल ही में सुहास पालशीकर द्वारा रचित ‘इंडियन डेमोक्रेसी’ यानी ‘भारतीय प्रजातंत्र’ एवं रेखा दिवाकर द्वारा ‘पार्टी सिस्टम इन इंडिया’ (भारतीय दलीय व्यवस्था) प्रकाशित हुई हैं। पहले अन्य विषयों, जैसे भारत की सिविल सेवाओं, सूचना का अधिकार, भारतीय नागरिकता, बॉलीवुड एवं भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में पुस्तकें आ चुकी हैं। हम केवल इस शृंखला को अपने पाठकों के संज्ञान में लाना चाहते हैं, पुस्तकों के विषय के विवेचन में जाना हमारा उद्देश्य नहीं है। प्रकाशक ने इस शृंखला की पुस्तकों को संक्षिप्त परिचयात्मक की संज्ञा दी है। लेखक का प्रयास है कि वह अपने चयनित विषय का तथ्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुतीकरण करे, ताकि पाठक को विषय की गूढ़ताओं और समस्याओं से परिचय हो सके। हर एक का अपना दृष्टिकोण होता है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी लेखक की मान्यता से सहमत हों, किंतु एकेडमिक प्रस्तुतीकरण विचार-विमर्श के लिए प्रेरित करता है। हर पुस्तक में अन्य संदर्भ पुस्तकों की एक सूची भी है, जिस माध्यम से विषय की अधिक गहनता की दृष्टि से आधार बनाया जा सकता है। ये पुस्तकें उपयोगी हैं, विशेषतया कॉलेज और विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए, किंतु वे राजनायकों, प्रशासकों और नागरिकों के लिए भी उतनी ही लाभदायक हो सकती हैं। सोचने और करने के लिए नए-नए मानसिक वातायन खुलते हैं। पुस्तकों का मूल्य आज के समय के हिसाब से वाजिब रखा गया है, फिर भी बेहतर होगा, यदि मूल्य २५० रुपए तक सीमित हो जाए, ताकि अधिकाधिक विद्यार्थी और अन्य लोग इस पुस्तकों को खरीद सकें। इससे प्रकाशन की खपत भी बढे़गी। इन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद होना चाहिए। इससे शायद अधिक उत्तम हो कि कोई उत्साही हिंदी प्रकाशक इसी प्रकार की पुस्तकों की शृंखला प्रारंभ करे। विषयों के चुनाव के बारे में एक परामर्शदाता समिति का गठन किया जा सकता है। आवश्यकता पहल करने के साहस की है।

एक मित्र पिछले दिनों हमारे पास गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी शिक्षा की छोटी-छोटी बातें’ पाँच पुस्तकें ले आए। हिंदी बालपोथी शृंखला की इन पुस्तकों की हमें कोई जानकारी नहीं थी। बालपोथी शृंखला में पाँच पुस्तकें हैं। मित्र ने कहा कि उनकी शिक्षा का प्रारंभ इन्हीं पुस्तकों से हुआ था। वे वय में हमसे करीब दस-पंद्रह वर्ष छोटे होंगे। पुस्तकों को काफी लोट-पोट करने और कुछ अध्यायों को पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि हिंदीभाषी प्रदेशों और अन्यत्र भी जहाँ हिंदी पढ़ाई जाती है, ऐसी पुस्तकों का उपयोग होना चाहिए। ये पोथियाँ न केवल सरल और सुरुचिपूर्ण हैं, देश की संस्कृति, प्रमुख स्थलों, त्योहारों और भारत की खेती, पेड़-पौधे की जानकारी देती हैं, जिनसे अधिकतर शहरी बच्चे अनजान ही रहते हैं। हमें ही नहीं पता था कि चंपा की कोई कटहलिया किस्म भी होती है। शुरू से ही चरित्र-निर्माण, अच्छे संस्कार बनें, स्वस्थ रहें, मिल-जुलकर रहना क्यों जरूरी है बातों को छोटी-छोटी कहानियों अथवा प्रसंगों द्वारा रेखांकित किया गया है। बच्चों के मस्तिष्क पर इसका अच्छा असर पड़ता है। क्या भगवान् हर जगह है, बच्चों में शुरू से ही सर्वधर्म समभाव की भावना पैदा करता है। किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं है। ईमानदारी, सहयोग-भावना, परिश्रम आदि गुणों की जागृति कैसे हो, इन महत्त्वपूर्ण गुणों के बारे में साधारण पाठों के द्वारा समझाया गया है। गीता प्रेस के नाम से किसी को चौंकने की जरूरत नहीं है। इन पुस्तकों में यदि ध्रुव की कथा है, तो एक पाठ सत्यवादी अब्दुल कादिर पर भी है। एक पाठ अरब और चीन के बारे में भी है। चीन के बारे में, ताकि पड़ोस के देशों के बारे में जानकारी मिले, बच्चों की उत्सुकता बढ़े। ऐसी कोई बात इन पोथियों में देखने में नहीं आती है, जिस पर तथाकथित सेकुलरवादी एतराज करें। हम समझते हैं कि कुछ परिवर्तन भी अपेक्षित हों तो उस विषय में प्रकाशक या संस्थान से बात की जा सकती है। कुछ नए विषयों, जैसे बाल-बच्चियों की समता, छुआछूत की समस्या या इसी प्रकार के अन्य विषयों पर, जो आज जरूरी है, कुछ पाठ और समाहित किए जा सकते हैं। इससे बचपन से ही अच्छा साहित्य पढ़ने की आदत पड़ने लगेगी। खेद है कि इस ओर न शिक्षा अधिकारियों और न राज्य सरकारों का ध्यान है। केंद्र के भी अपने कुछ विद्यालय हैं, पर मुख्यतया प्रारंभिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार का दायित्व राज्य सरकारों का है। भारत के शिक्षामंत्री अथवा मानव संसाधन मंत्री को राज्य सरकारों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहिए। हिंदीभाषी क्षेत्रों उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, हिमाचल आदि की सरकारों, खासकर मुख्यमंत्रियों और शिक्षा मंत्रियों को इस दिशा में क्रियाशील होना चाहिए। आदर्श जीवन-मूल्यों और नैतिक शिक्षा की ये पोथियाँ समर्थ साधन हैं। किसको एतराज होना चाहिए तुलसी के दोहो से—

तुलसी या संसार में भाँति-भाँति के लोग।

सबसे हिलमिल बोलिये नदी नाव संजोग॥

तुलसी या संसार में पाँच रतन हैं सार।

सत्य वजन अरु दीनता दया धर्म उपकार॥

क्या ये सर्वजन हिताय और समावेशी नहीं हैं?

विद्वान् लेखक  ललित शर्मा द्वारा रचित ‘झालावाड़ : इतिहास, संस्कृति और पर्यटन’ पुस्तक प्राप्त हुई। पुस्तक का प्रकाशन पर्यटन विकास समिति, झालावाड़ (राजस्थान) द्वारा हुआ है। पुस्तक जैसा प्रो. सत्यनाराण समदानी, यशस्वी संपादक मीरायन, चित्तौड़गढ़ ने भूमिका में कहा है, ‘‘पुस्तक वास्तव में अपनी (झालावाड़ की) विरासतों को समर्पित एक संपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है।’’ पिछले सात वर्षों में तीसरा संस्करण प्रकाशित होना इसकी लोकप्रियता का परिचायक है। शोध और परिश्रम के द्वारा तैयार की गई यह पुस्तक लेखक के बहुपाठी होने के साथ-साथ खोजी दृष्टि की परिचायक है। राजस्थान और मध्य प्रदेश मालवा की सीमा पर स्थित झालावाड़ राजस्थान की आखिरी रियासत थी और ईस्ट इंडिया कंपनी के समय इसका निर्माण हुआ, यह पता नहीं था। ललित शर्मा ने पुस्तक का प्रणयन बड़े परिश्रम और निष्ठा से किया है। उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की है, इनमें संत सेन और संत पीपाजी पर भी पुस्तकें हैं, जिनके कुछ भजन गुरुग्रंथ साहब में भी संगृहीत हैं। झालावाड़ के इतिहास, संस्कृति और पर्यटन पर उनकी पुस्तक अत्यंत पठनीय है। उनका प्रयास सराहनीय है और वे साधुवाद के पात्र हैं।

पर्यटन उद्योग

भारत सरकार की पर्यटन को बढ़ावा देने की नीति है। हर देश इसका प्रयत्न करता है, क्योंकि इससे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। दर्शनीय स्थलों पर न केवल विदेशी पर्यटक, बल्कि देश के अन्य भागों के निवासी भी जाना चाहते हैं। इससे अर्थव्यवस्था को बल मिलता है, रोजगार के नए-नए साधन उपलब्ध होते हैं। भारत तो इतना बड़ा और विविधताओं से भरा देश है कि एक जीवन में उसको जानना ही सहज नहीं है। दर्शनीय स्थान मुख्यतया धार्मिक, सांस्कृतिक, पुरातात्त्विक अथवा प्राकृतिक सौंदर्य के दृश्यों के लिए जाने जाते हैं। कहीं समुद्र, कहीं रेगिस्तान अथवा पहाड़ों की छवि और छटा का सौंदर्य बिखरा पड़ा है। आंतरिक और विदेशी, दोनों प्रकार के पर्यटकों की सुविधाओं पर ध्यान देना आवश्यक है। यही नहीं, पर्यटकों में दोनों श्रेणियों के लोग होते हैं, कुछेक रईस, पर अधिकतर सीमित साधनवाले। राष्ट्रीय एवं भावनात्मक एकता को मजबूत करने के लिए हमें भारत को जानने की अत्यंत आवश्यकता है। राज्य सरकारें और पर्यटन सुविधाओं की व्यवस्था करनेवाले व्यापारिक संगठन पर्यटकों की जानकारी के लिए तरह-तरह के ब्रोशर, पैंफलेट और पुस्तकें प्रकाशित करते हैं। राजस्थान काफी समय तक हमारी कर्मभूमि रहा है, फिर भी ऐसा महसूस होता है कि अरे, हम कुछ देख ही नहीं सके! राजस्थान का हर जिला और गाँव दर्शनीय स्थलों अथवा पर्यटकों को रुचिकर लगनेवाली वस्तुओं से भरा पड़ा है। यहाँ की प्रमुख विशेषताएँ हैं—ऐतिहासिक स्थल, स्थापत्य कला, मूर्तिकला और घरेलू तथा हाथ से बनी वस्तुएँ, कुछ दैनिक उपयोग में आनेवाली और कुछ ड्राइंगरूम को सजाने की आदि। यह बात हर राज्य के बारे में कही जा सकती है। ‘अपना भारत जानो’ एक बड़ा अभियान है। यदि भारत के प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव की जानकारी अधिकाधिक दे सकें, सुविधाएँ मुहैया करा सके तो बहुत से देशी पर्यटक शायद पहले उन्हें देखना पसंद करेंगे, अन्य देशों केदर्शनीय स्थलों को देखने केपहले। भारत के बारे में पहले ही विदेशियों में कुतूहल रहा, यह हम इतिहास के द्वारा जानते हैं, अब नए भारत को उदय होता देख रहे हैं—आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से।

भारत के प्रत्येक राज्य या प्रदेश की पर्यटन संभावनाओं का पूरा दोहन नहीं हो पा रहा है। यह तभी संभव होगा, जब दर्शनीय स्थलों के विषय में वहाँ के गाइड जानकार और कुशल हों। उनकेप्रशिक्षण की भी आवश्यकता है। फिर इन स्थानों पर पहुँचने के लिए क्या-क्या साधन उपलब्ध हैं—रेल, सड़क अथवा वायुयान, इसकी जानकारी होनी चाहिए। रुकना पड़े तो उनके ठहरने के लिए आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था होनी चाहिए। पर्यटकों की सुरक्षा आज की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बन गई है। प्रायः शिकायतें आती हैं, स्थानीय शोहदे देसी और विदेशी पर्यटकों को परेशान करते हैं, उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। ये लोग नहीं समझ पाते हैं कि ऐसे आचरण से वे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं। नुकसान स्थानीय आर्थिक व्यवस्था का ही होता है। स्थानीय लोगों को यह समझना चाहिए कि दुनिया विविधता से भरी है। विदेशी पर्यटकों का रहन-सहन, कपड़े, भोजन शैली आदि विभिन्न तरह के होते हैं। उनपर फब्तियाँ कसना, उनको तंग करना स्वीकार नहीं किया जा सकता। विदेशी पर्यटकों से छेड़छाड़ या मारपीट की घटनाएँ गंभीर रूप ले लेती हैं। हम उन राज्यों को, जहाँ ऐसी घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं, नामांकित नहीं करना चाहते, किंतु उन्हें इस समस्या की गंभीरता का एहसास होना चाहिए। उन्हें समझना होगा कि इससे देश की छवि धूमिल होती है और पर्यटकों की संख्या पर प्रभाव पड़ता है। सुरक्षा, खासकर महिला पर्यटकों की, एक चिंतनीय व गंभीर समस्या है। प्रशासन और पुलिस को इस विषय को हल्के में नहीं लेना चाहिए। इस समस्या के समाधान के लिए ‘पर्यटन पुलिस’ बनाने की बात हुई, पर पता नहीं फिर क्या हुआ। निजी और सरकारी पर्यटन व्यवस्था करनेवाले सभी संस्थाओं और विभागों को पर्यटन की समग्रता को समझना चाहिए। इस दिशा में सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। यह एक विभाग या मंत्रालय का विषय है, इस दूषित मानसिकता से सभी विभागों को ऊपर उठना है।

यह आवश्यक है कि केंद्र का पर्यटन मंत्रालय इन सब विषयों पर समग्रता से विचार करे, जो निजी पर्यटन व्यवस्था कर रहे हैं, उनके संगठनों से विचार-विमर्श करें। पहल और उसके बाद नीतियों का अनुपालन ठीक से हो रहा है, यह दायित्व तो केंद्रीय मंत्रालय का ही है। राज्य सरकारों का सहयोग प्राप्त करने की निरंतर कोशिश होनी चाहिए।

हमने पहले जिक्र किया है कि पर्यटकों के प्रति हमारा रुख ठीक नहीं है। अभी गोवा के एक मंत्री ने कहा कि वे केवल उच्च धनाढ्य पर्यटक ही गावा में चाहते हैं। उत्तर भारत से आनेवाले पर्यटकों को उन्होंने ‘स्कम ऑफ द अर्थ’ अथवा ‘जमीन के कूड़ा-करकट’ की संज्ञा दी है। उनकी राय में इन लोगों ने गोवा के पर्यटन के परिदृश्य को दूषित कर दिया है। इस प्रकार का बयान संकुचित मानसिकता का ही परिचायक है। हर भारतीय नागरिक को देश में कहीं भी जाने की छूट है। ठीक है, यदि पैसेवाले पर्यटक आते हैं, पर्यटन से अच्छी कमाई होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सत्ता में रहनेवाले उत्तर भारत में रहनेवाले लोगों की इस तरह अवमानना करें। इससे भेदभाव के बीज पड़ते हैं, जबकि देश राष्ट्रीय एकता की माँग करता है। शीला दीक्षित जब दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं तो उनकी भी इस प्रकार की टिप्पणी को लेकर बड़ी प्रतिक्रिया व विरोध हुआ था। सत्ता में बैठे व्यक्तियों को अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिए। पर्यटन बढ़ेगा सभी वर्गों के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराने पर, धनी वर्गों को आप और अधिक सुविधाएँ दें, आँखों पर बिठाएँ, यह तो मान्य है, किंतु कम आयवाले पर्यटकों की उपेक्षा और किसी क्षेत्र को इंगित करते हुए अपशब्द कहना पर्यटन की नैतिकता एवं मर्यादाओं का अपमान है। सरकार भी अपने मंत्री का बचाव करते हुए उसकी बातों को सही बताए, यह और भी विचित्र स्थिति है।

आपसी सौहार्द का पर्व होली एवं नव संवत्सर की पाठकों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

 

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

 

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