१९८४ : भारत का अपराध-बोध

पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके अपने दो सिख अंगरक्षकों के द्वारा हत्या के उपरांत दिल्ली तथा देश के कुछ अन्य शहरों और कस्बों में सिख समुदाय पर जिस प्रकार के अत्याचार हुए, वह भारत के समकालीन इतिहास का एक काला पन्ना है। उसके विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। कुछ समय पहले २०१५ में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में पत्रकार रहे संजय सूरी की पुस्तक ‘१९८४ : द एंटी सिख वायलेंस ऐंड आफ्टर’ प्रकाशित हुई और इसकी चर्चा इस स्तंभ में भी की गई थी। सूरी ने जो देखा और सुना था, पुस्तक में उसका तथ्यात्मक वर्णन किया। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छोटे-छोटे मामलों और पुस्तकों के बारे में बड़ी-बड़ी चर्चाएँ होती हैं, पर वह पुस्तक अनदेखी ही रही। ऐसे मामलों में कह दिया जाता है कि गड़े मुरदों को उखाड़ने से क्या फायदा है। किसी हद तक यह सही भी है, किंतु कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जिनका प्रभाव राष्ट्रीय मन-मस्तिष्क पर इतना गहरा और गंभीर होता है कि उसकी प्रतिध्वनि समय-समय पर सुनाई देती है। हाल ही में कनाडा और अमरीका में भारत के प्रतिनिधियों पर कई गुरुद्वारों द्वारा रोक लगा दी गई, जो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। कुछ सिरफिरे सिख अतिवादियों ने समुदाय को गुमराह करने की कोशिश की, उनके दुष्कर्मों के कारण अन्य निर्दोष लोगों को तरह-तरह की यातनाएँ सहनी पड़ीं। उस वातावरण का निर्माण करने की जिम्मेदारी पूरी तरह ऐसे अवांछनीय तत्त्वों की है। दो गुमराह सिख मतावलंबियों के कारण निरीह और निर्दोष लोगों पर अत्याचार हों और उनको हर प्रकार की मुसीबत झेलनी पड़े, यह एक सभ्य समाज को कभी स्वीकार नहीं हो सकता।

हाँ, अपराधियों को दंड मिलना चाहिए, पर उसका खामियाजा निर्दोष महिलाओं, बालकों-बालिकाओं और सिख समुदाय के दूसरे लोगों को भुगतना पड़े, यह कहाँ तक उचित है। ऐसे कुछ भुक्तभोगी और मानव अधिकारों के प्रबल समर्थक कुछ लोग इतना समय बीत जाने पर भी न्याय की गुहार लगा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने १८६ मामलों की जाँच-पड़ताल के लिए नई स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एस.आई.टी.) उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित की है। उस दौरान सिखों पर जो अत्याचार हुए, उनको बहुतों ने नरसंहार की संज्ञा दी है। हम इससे सहमत नहीं हैं, क्योंकि जो कुछ हुआ, उसका भारतीय नागरिकों ने विरोध भी किया। वे सिख भाइयों के शौर्य और बलिदान केप्रशंसक हैं। सिख गुरु आदर केपात्र हैं। यह सबकुछ उन लोगों के षड्यंत्र के कारण हुआ, जिन्होंने उस समय के भावनात्मक वातावरण को भड़काया और भ्रमित किया, परिणामस्वरूप यह कलंक का टीका देश के माथे पर लगा।

रूपा पब्लिकेशंस द्वारा ‘१९८४ इंडिया’ज गिल्टी सीक्रेट’ पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसके लेखक एक पत्रकार पव सिंह हैं, जिनके पूर्वज पंजाब से इंग्लैंड चले गए थे। सन् २००४ में उन्होंने एक साल भारत में इस विषय पर शोध किया, बहुत से भुक्तभोगी परिवारों से मिले, उनकी दुःख की दास्तानें-कहानियाँ सुनीं, अपने पैतृक गाँव में गए, जहाँ उन्होंने अपने और परिवार के सदस्यों से भी उनके कटु अनुभवों की जानकारी ली। शोध पर आधारित यह पुस्तक एक आधिकारिक व ऐतिहासिक दस्तावेज है। लेखक पव सिंह ने पंजाब समस्या की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की, भिंडरावाला के उदय में कांग्रेस का समर्थन रहा, पर अंत में उसने अपनी स्वतंत्र अस्मिता बना ली। अकालियों से केंद्र सरकार की समझौते की बातचीत हुई, किंतु अंत में असफलता और आपसी अविश्वास का वातावरण उत्पन्न हुआ एवं अकाल तख्त और स्वर्ण मंदिर में सैनिक काररवाई तथा उससे उत्पन्न सिख समुदाय का विवाद आदि-आदि विषयों पर उन्होंने अपनी समझ के अनुसार कलम चलाई है, परंतु श्रीमती गांधी की हत्या के उपरांत कुछ गिरोहों जो ने कत्लेआम किया, पुस्तक में विस्तार से उसकी चर्चा है। इस पुस्तक में रोंगटे खड़े करनेवाली तसवीरें हैं। लेखक के अनुसार यह सब कांग्रेस के नेताओं की साजिश से हुआ। उन्होंने हरकृष्ण लाल भगत को इसका मुखिया बताया और टाइटलर, धर्मदास शास्त्री, ललित माकन, सज्जन कुमार आदि को सक्रिय रूप से सिख मोहल्लों-परिवारों आदि में मारपीट, हत्याएँ, आगजनी आदि के लिए जिम्मेदार ठहराया है तथा उनके खिलाफ सबूत पेश किए हैं। उनका आरोप है कि सिख महिलाओं का एक बड़े स्तर पर उत्पीड़न हुआ। यौन शोषण की शिकायतें हैं।

तत्कालीन गृहमंत्री नरसिंह राव प्रधानमंत्री कार्यालय के आदेश के कारण निष्क्रिय रहे, हालाँकि बहुत से नेताओं ने उन्हें इस विषय में आगाह किया। मार्शल ऑफ द इंडियन फोर्स अर्जन सिंह, जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, आई.के. गुजराल ने अपनी चिंताएँ व्यक्त करने के लिए प्रधानमंत्री राजीव गांधी से समय माँगा, किंतु दो घंटे इंतजार के बाद भी बैठक न हो सकी। बदले की भावना को बढ़ाने के कैसे-कैसे प्रयत्न हुए। दिल्ली पुलिस के सिख जवानों से हथियार रखवा लिये गए। गैर-सरकारी समितियों की रिपोर्टों से स्पष्ट है कि कैसे और क्यों सरकार अकर्मण्य रही। जो जाँच समितियाँ सरकार ने बैठाईं, उनके काम में रोड़े अटकाए गए या उन्हें भंग कर दिया गया। पुस्तक में अधिकारियों की मिलीभगत का जिक्र है। कई जगह कुछ प्रशंसनीय अपवादों को छोड़कर पुलिस की निष्क्रियता भी उजागर होती है। न केवल देश के मीडिया पर सही समाचार न देने के लिए दबाव डाला गया, बल्कि दूसरे देशों के पत्रकारों के समक्ष भी अपने दायित्वों को पूरा करने में तरह-तरह के अवरोध पैदा किए गए। जो आपराधिक मुकदमे दायर हुए, उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। पूरे कांड पर परदा डालने की बराबर कोशिश की गई। यहाँ तक आरोप है कि राजीव गांधी को इसकी जानकारी थी। विस्तार में जाना संभव नहीं है। इतना कहना पर्याप्त है कि लेखक ने भी तथ्यों की विवेचना के साथ-साथ सबूत भी पेश किए हैं।

पुस्तक में पुस्तकों और संदर्भ-स्रोतों की एक विशद सूची है, जिनसे लेखक ने जानकारी प्राप्त की है। सच्चाई क्या है, यह जानने के लिए लेखक ने किस प्रकार भुक्तभोगियों को न्याय मिले और कैसे भविष्य के लिए मेल-मिलाप बढे़, इस हेतु कमीशन बनाने तथा उसके कार्यक्रम के बारे में सुझाव दिए हैं। पव सिंह की पुस्तक में विस्फोटक सामग्री है, जिसके कारण यह आवश्यक है कि इस दुखद प्रकरण का पुनर्निरीक्षण हो, ताकि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं से बचा जा सके और विश्व में भारत के बारे में कोई भ्रांति न बने। इतिहास तो सदैव सच्चाई की माँग करता है। जॉर्ज आरवेल की प्रसिद्ध पुस्तक १९८४ की याद दिलाते हुए प्रतिष्ठित साहित्यकार अमिताभ घोष ने पव सिंह की शोध आधारित पुस्तक के बारे में लिखा है—‘‘No where else in the world did the year 1984 fulfil its opocalyptic portents as it did in India.’’

हिमाचल और गुजरात विधानसभाओं के चुनाव

गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के चुनावों की ओर पूरे देश का ध्यान था, खासतौर पर गुजरात के चुनाव की ओर सभी की आँखें लगी थीं। हिमाचल के चुनाव के नतीजों के बारे में कांग्रेस के दावों के बावजूद टिप्पणीकारों और राजनैतिक पर्यवेक्षकों का कहना था कि भाजपा की जीत निश्चित है। वैसे भी हिमाचल में अभी तक इतिहास रहा है कि हर चुनाव में सत्तापक्ष अपदस्थ होता है और विरोध पक्ष सत्ता में आता है। छोटे राज्यों में इस प्रकार की संभावना अधिक रहती है, जनता राजनैतिक दलों को मौका देकर उनके काम को तौलती है। हिमाचल में भी प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व और रैलियों का ही बोलबाला रहा। फिर भी भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री धूमल को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था, क्योंकि कांग्रेस ने पुनः वीरभद्र सिंह को ही अपना मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था। धूमल का कार्यकाल अच्छा रहा था। भाजपा के घोषित उम्मीदवार धूमल चुनाव हार गए। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी चुनाव हार गए। पाँच बार विधानसभा में चुने गए जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री नियुक्त हुए। यह सत्ता में पीढ़ी परिवर्तन का भी संकेत है। बदलते समय के साथ जनता नए चेहरे चाहती है। जनता अब मूक और बधिर नहीं रही। चुनावों ने नई राजनैतिक चेतना विकसित की है और वह निरंतर बढ़ रही है। वह नहीं चाहती है कि नए-नए स्वार्थ के गढ़ बन जाएँ। राजनीति में चेहरों की हेर-फेर चाहती है। यह भी लोकतंत्र की परिपक्वता की एक निशानी है। केवल चुनाव के समय ही नहीं, जनता चाहती है कि विधायक अपने क्षेत्र के निरंतर संपर्क में रहें। आज के माहौल में वैयक्तिक तथाकथित बड़प्पन अथवा अहंकार अब जनप्रतिनिधि का आभूषण नहीं बन सकता। जिन राज्यों में अभी भाजपा सत्तारूढ़ है और चुनाव समीप हैं, उनके लिए यह समय रहते सावधानी की घंटी है।

गुजरात के चुनाव में देशवासियों की ही नहीं, वरन् दूसरे देशों के राजनायकों की भी दिलचस्पी थी। दुविधा थी कि क्या भाजपा छठी बार सत्ता में आ सकेगी। क्या जनता ऊब नहीं गई है। एंटी इनकंवेंसी का सवाल सामने था। दूसरे यह कि मोदी के मुख्यमंत्री पद छोड़कर प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव था। दुर्भाग्य से मोदी के बाद दो बार मुख्यमंत्री बदले गए। संगठन में कुछ दरारें दिखाई पड़ने लगीं। जनता भी सशंकित होती मालूम हुई। मोदी ने मुख्यमंत्री के पद से प्रशासन को जो गतिशीलता और ध्येयनिष्ठा प्रदान की थी, वह लोप हो रही थी। इस बीच पाटीदार आंदोलन के रूप में हार्दिक पटेल उभरते दिखे और उन्होंने पाटीदारों के लिए आरक्षण की माँग बुलंद की, जिससे पटेल समुदाय, जो भाजपा का हमेशा से कट्टर समर्थक रहा, आकर्षित होने लगा। हार्दिक पटेल ने भाजपा को हराना ही अपना लक्ष्य बना लिया। उधर उना में दलितों के उत्पीड़न की घटना ने पूरे देश को व्यथित कर दिया। गुजरात की सरकार प्रशासनिक कुशलता और संगठन के चातुर्य के अभाव में इस स्थिति का मुकाबला नहीं कर सकी। मीडिया ने इस दुर्घटना को बहुत बढ़ावा दिया। दलित समुदाय भी भाजपा से दूरी बनाता दिखने लगा। उपेक्षित दलित समुदाय के रोष में उना की घटनाओं ने आग में घी का काम किया।

जिग्नेश मेवानी दलितों के युवा नेता के रूप में सामने आए; उन्होंने भाजपा विरोधी आंदोलन को और आक्रमक बनाने की कोशिश की। वे विधायक भी चुन लिये गए। साथ ही जाति आधारित आम फॉर्मूला को चुनाव में पुनर्जीवित करने के लिए कांग्रेस प्रयत्नशील थी, क्योंकि उसी आधार पर वह पहले बहुत दिन सत्ता पर आरूढ़ रही। अतएव उसने ओबीसी जातियों के गुट के युवा नेता अल्पेश ठाकुर पर डोरे डालने शुरू कर दिए और अंत में अल्पेश कांग्रेस में शामिल हो गए तथा विधानसभा के चुनाव में विजयी रहे। हार्दिक पटेल को कांग्रेस की ओर से सिब्बल ने यह पाठ पढ़ा दिया कि संविधान में परिवर्तन कर पाटीदारों को आरक्षण देना संभव है, और यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो तुरंत ऐसा करेगी। हार्दिक इस झाँसे में आ गए। उम्र एक साल कम होने के कारण वे चुनाव नहीं लड़ सके, पर उनके दल और अनुयायियों ने कांग्रेस को पूरा समर्थन देने का ऐलान कर दिया। कांग्रेस ने काफी पहले से राजस्थान के एक पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत को गुजरात में कांग्रेस के चुनाव अभियान के लिए उत्तरदायी बना रखा था। उन्होंने बड़ी सक्रियता और चतुरता से भाजपा विरोधी तत्त्वों से सान्निध्य बनाया। कांग्रेस के उपाध्यक्ष एवं शीघ्र की अध्यक्ष होनेवाले राहुल गांधी से हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकुर की मुलाकात करवाई एवं निकटता बढ़ाने की भरपूर कोशिश की और राहुल गांधी के साथ बहुत सी साझी जनसभाएँ व रेलियाँ आयोजित कीं। अब विरोध पक्ष की एकता ऐसी मजबूत है, इसलिए भाजपा की हार तो पक्की है, ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की गई। गुजरात मुख्यतः उद्योगपतियों और व्यापारियों का प्रदेश है, उनके काम-धंधों को नोटबंदी से धक्का लगा ही था। उसके बाद जी.एस.टी. लागू हुआ, वह एक नया कदम था और उसको समझने में समय लगता ही, उसके कार्यान्वयन में भी कुछ कमियाँ रहीं, इससे भी यह वर्ग रुष्ट था। सूरत तथा कुछ अन्य स्थानों पर कपड़े तथा हीरे-जवाहारात के व्यापारियों ने लंबे अरसे तक हड़ताल भी की थी। इस असंतोष के वातावरण का फायदा कांग्रेस और विरोध पक्ष को लेना ही था। राहुल गांधी ने हर तरह से केंद्र, खासकर नरेंद्र मोदी और राज्य सरकार को अपनी सभाओं में, ट्विटर या पत्रकारों से साक्षात्कारों में जमकर कोसा। देश और विदेश के पत्रकारों में गुजरात चुनाव को २०१९ में होनेवाले आम चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा था, अतएव गुजरात विधानसभा का चुनाव दिलचस्पी का विषय बना। यदि भाजपा गुजरात में सरकार नहीं बना पाती तो उसका मतलब होगा कि प्रधानमंत्री मोदी अपने राज्य में ही अपना वर्चस्व बनाए नहीं रख सके, अतएव २०१९ के आम चुनाव में भी ऐसा संभव हो सकता है।

विरोधी पक्ष इस चुनाव को इसी नजरिए से देख रहा था। गठबंधन की फुसफुसाहट फिर सुनाई पड़ने लगी। फिर भी अधिकतर टिप्पणीकार सहमत थे कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है और मोदी की अपनी छवि वैसी ही बनी हुई है। फिर भी गुजरात का चुनाव टक्कर का ही रहा। नतीजे के दिन स्थिति बार-बार बदलती रही। प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात चुनाव के दौरान अभूतपूर्व परिश्रम किया। सिब्बल की कुछ टिप्पणियों और मणिशंकर के प्रधानमंत्री को नीच कहने के कारण आखिरी दौर में चुनाव काफी भावनात्मक हो गया। यह गुजरात के गौरव और अस्मिता का प्रश्न भी बन गया। गुजरात एक धार्मिक प्रदेश भी है, अतएव कांग्रेस ने राहुल गांधी को अनेक धर्म-स्थलों और मंदिरों के चक्कर लगवाए। जनेऊ पहने सिर पर फूलों आदि की टोकरी लेकर राहुल गांधी को दर्शन के लिए सोमनाथ ले गए। उन्होंने अपने को शिवभक्त बताया। इसे राजनीति के पर्यवेक्षक ‘हिंदुत्व’ कहते हैं। कांग्रेस ने गुजरात के पिछले दंगों का कोई जिक्र नहीं किया, जिससे ऐसा न लगे कि कांग्रेस केवल मुसलमानों की हिमायती है। यह अवश्य है कि चुनाव के दिनों में राजनैतिक चर्चा और भाषा का स्तर बहुत गिर गया, जो स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।

चुनाव के दिनों में राहुल गांधी को लोगों ने एक नए रूप में अवश्य देखा। उनकी आत्मविश्वासी और आक्रामक भंगिमा देखने को मिली। नरेंद्र मोदी की कटु-से-कटु आलोचना ही उनका मुख्य लक्ष्य रहा। भाजपा और मोदी की आलोचना के लिए उनके निजी सहायकों ने नई सामग्री लाकर दी। देखना है कि राहुल अपने इस रूप को कब तक बनाए रख सकते हैं। मुख्य विरोधी दल के अध्यक्ष के नाते उनसे परिपक्वता अपेक्षित है। वैसे गुजरात में कांग्रेस खेमों में बँटी और निष्क्रिय थी, किंतु राहुल गांधी के कार्यक्रमों एवं तीन युवा नेताओं के समर्थन ने उसे संजीवनी प्रदान की। कहा नहीं जा सकता है कि चुनाव के नतीजों पर इनका कितना असर हुआ। इन युवा नेताओं में अपने नेतृत्व को स्थायित्व प्रदान करने की कितनी क्षमता है, यह भी भविष्य बताएगा। प्र.म. मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की कोशिशों से भाजपा गुजरात में सरकार बना सकी। १५० का लक्ष्य तो अमितशाह ने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए रखा था, पर आशा थी कि ११५/११६ सीटें भाजपा ले ही लेगी, किंतु वह केवल ९९ सीटों पर ही जीती। हालाँकि उसका वोट शेयर बढ़ा। गुजरात में भाजपा का जमीनी कार्यकर्ताओं का ढाँचा बहुत मजबूत है। कांग्रेस उसके कहीं आस-पास भी नहीं है, किंतु दवाब तो इस समय है ही। कांग्रेस की सफलता के कारण ही बहुत से विरोधी दलों के नेताओं ने कांग्रेस की सफलता को नैतिक विजय कहा है, पर राजनैतिक दृष्टि से उसका कोई महत्त्व नहीं है। फिर भी २०१९ के आम चुनाव के परिपे्रक्ष्य में गुजरात के चुनाव चेताने की घंटी हैं। कुछ दिनों बाद आठ राज्यों में चुनाव होने हैं, खासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, जहाँ भाजपा की सरकारें हैं; अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए विशेष ध्यान देना होगा। कर्नाटक, जहाँ भाजपा पुनः सत्ता हासिल करना चाहती है और संभावना भी है, वहाँ एक कल्पनाशील नीति निर्मित करनी होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सी ऐसी योजनाएँ बनाई हैं, नए कदम उठाए हैं, उनका जमीनी स्तर पर कितना प्रभाव हुआ है, यह आकलन करना जरूरी है। जो कमियाँ-खामियाँ दिखाई दें, उनका दृढता से निराकरण करना होगा। यह आवश्यक है कि व्यर्थ के विवादों में न पड़कर सांसद और विधानसभा सदस्य अपने क्षेत्रों में अपने दायित्वों का पालन करें। आखिर प्रधानमंत्री ऐसे सांसदों को अपने कंधे पर उठाकर जनता को कैसे आश्वस्त कर सकते हैं, जो महत्त्वपूर्ण सरकारी बिलों के संबंध में भी अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकते। गुजरात चुनाव ने दिखा दिया कि शहरी इलाकों में भाजपा का वर्चस्व कायम है, पर गाँवों में उसका प्रभाव घटा है। इसलिए खेतिहर मजदूरों, कृषि-संकट के समाधान को त्वरित गति से समझकर प्रयास करने हैं, ताकि यह आरोप झूठा साबित हो सके कि मोदी सरकार गरीबों और गाँवों की अनदेखी कर रही है, वह केवल उद्योगपतियों के लिए ही है। प्रशासन को देहात की समस्याओं को निपटाने की कोशिश समझबूझकर करनी होगी। गाँव के लोगों को होनेवाले लाभ देखने चाहिए और इसलिए इन कार्यक्रमों की निगरानी जरूरी है। दलितों का उभरनेवाला नेतृत्व अब शिक्षित और जानकार है, अतएव आक्रामक होता जा रहा है। इसलिए दलितों की समस्या का समाधान उनकी राय लेकर संवेदनात्मक ढंग से होना चाहिए। जिस योजना का जैसा लाभ होना चाहिए, यह देखना आवश्यक है कि वह हरेक को प्राप्त हो सके, ‘सबका साथ सबका विकास’ के धरातल पर सबको आश्वस्त करना चाहिए। विकास की जो रूपरेखा या ढाँचा प्रधानमंत्री ने प्रस्तुत किया है, वह दीर्घकालिक दृष्टि से है, पर उसको साधारण ग्रामीण नागरिक नहीं समझ पाते। इसलिए शॉर्ट टर्म और लॉन्गटर्म, अर्थात् निकट भविष्य और दीर्घकालीन विकास के बीच में एक समन्वय रहना चाहिए।

एक संदेहात्मक निर्णय

२जी स्पेक्ट्रम आवंटन के भ्रष्टाचार के मुकदमे में सी.बी.आई. जज ओ.पी. सैनी ने सभी १७ अभियुक्तों को आरोप से मुक्त कर दिया और कहा कि सी.बी.आई. के अभियोजनकर्ता, प्रॉसीक्यूटर अपने आरोपों को सिद्ध करने में असफल रहे हैं। फैसले ने देश को आश्चर्यचकित कर दिया। इस मामले में उस समय के टेलीकॉम मंत्री ए. राजा, राज्यसभा सदस्य कानिमोझी, कई अधिकारी और कुछ टेलीकॉम कंपनियों के उच्च अधिकारी भी आरोपी थे। सी.बी.आई. के एडवोकेट ग्रोवर ने जज सैनी के फैसले की खामियों को एक बयान द्वारा स्पष्ट किया है। बहुत से कानूनी जानकारों ने सैनी के फैसले और उनके दिए हुए तर्कों पर प्रश्न उठाए हैं। सी.बी.आई. अपील में जाने की तैयारी कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने मंत्रालय की काररवाई को मनमानी और अरजी देने की तारीख में बदल करने को गलत बताया, क्योंकि यह कुछ प्रत्याशियों को अनुचित लाभ पहुँचाने के लिए किया गया था, अतएव मंत्रालय के निर्णय को निरस्त कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने षड्यंत्र क्या है और फैसला करनेवालों का किस प्रकार का आपराधिक मंतव्य था, यह निर्णय सी.बी.आई. स्पेशल कोर्ट पर छोड़ दिया। सी.ए.जी. की रिपोर्ट के बाद यह मामला तूल पकड़ने लगा था। इसका राजनैतिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। सी.ए.जी. की रिपोर्ट ने सरकारी नुकसान का आकलन तीन प्रकार से किया और बताया कि संभावित कितना नुकसान सरकारी खजाने को हुआ है। पब्लिक एकाउंट्स कमेटी में भी सी.ए.जी. ने अपनी गवाही के दौरान समर्थन किया। रिपोर्ट में जो रकम नुकसान की बताई गई, वह कम-ज्यादा हो सकती है, पर यह कहना कि नुकसान हुआ ही नहीं, उचित मालूम नहीं होता है।

एक टिप्पणीकार के अनुसार २जी स्पेक्ट्रम का आवंटन एक उदाहरण है कि किस प्रकार कुछ बड़ी कंपनियाँ सरकारी नीतियों में परिवर्तन कराकर बड़े-बड़े लाभ उठाती हैं। न जनता के खजाने को कोई नुकसान हुआ है और न कोई भ्रष्टाचार ही हुआ, इस प्रकार की भावना पैदा करने का प्रयास केवल आत्मप्रवंचना ही होगी। सत्ताधारियों और बड़ी कंपनियों की साँठ-गाँठ इतनी मजबूत और गहरी होती है कि उसको आसानी से खोलना आसान नहीं होता है। नुकसान जनता के खजाने एवं सार्वजनिक क्षेत्र का होता है। तत्कालीन सी.ए.जी. विनोद राय के विरुद्ध कई कांग्रेसी नेताओं ने तरह-तरह के आरोप लगाए। यह उनकी अपनी खिजलाहट के कारण है। कहा जा रहा है कि सी.बी.आई. की चार्जशीट में जज सैनी ने भ्रष्टाचार का जो मामला भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत उठाया था, उसपर ध्यान नहीं दिया। वे अपने फैसले में कहते हैं कि पैसे का लेन-देन हुआ तो, किंतु उससे कोई आपराधिक षड्यंत्र या मंशा साबित नहीं होती। अभी इस विषय पर अधिक विवेचन उचित नहीं है। सी.ए.जी. की रिपोर्ट के पहले ही इस मामले को भ्रष्टाचार के आरोप के साथ सुब्रह्मण्यम स्वामी सर्वोच्च न्यायालय ले गए और उन्होंने सैनी के फैसले की गलतियों की ओर इशारा किया है। सर्वोच्च न्यायालय आगे इस मामले में क्या निर्णय करता है, अभी उसकी प्रतीक्षा करना ही उचित होगा। खबर है कि राजा ने अपनी सफाई में अपने दृष्टिकोण से एक पुस्तक लिखी है और उसमें अपने दो सहयोगी, वित्त मंत्रियों चिदंबरम और प्रणब मुकर्जी तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के ऊपर भी उँगली उठाई है। विवाद शायद बढ़ता ही जाएगा, इसलिए सत्य क्या है, उसकी तह में जाना ज्यादा जरूरी है।

सर्वोच्च न्यायालय में विद्रोह

१२ जनवरी को देश स्तब्ध रह गया, जब प्रधान न्यायाधीश के बाद के चार वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. चेमलेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसेफ और मदन लोकूर ने जस्टिस चेमलेश्वर के बँगले में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और दो महीने पहले प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र को लिखे अपने पत्र को सार्वजनिक कर दिया। उनका कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय का प्रशासन ठीक नहीं चल रहा है, अहम मामले वरिष्ठ न्यायाधीशों को न भेजकर जूनियर जजों की बेंचों को दे दिए जाते हैं। यद्यपि प्रधान न्यायाधीश को यह अधिकार रोस्टर के मास्टर के रूप में है किंतु उसका उपयोग चली आ रही परिपाटी के अनुसार होना चाहिए। वरिष्ठता का सम्मान होना चाहिए। कुछ और भी मुद्दे उठाए गए, जैसे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की नियुक्ति के विषय में मेमोरेंडम बनाने में देरी। किंतु वरिष्ठ जज हतप्रभ हैं कि महत्त्व और संवेदनशील मुकदमे जूनियर बेंचों को दिए जा रहे हैं। चीफ जस्टिस के पत्र में यह आरोप केवल उनपर ही नहीं था, बल्कि शब्द ‘प्रधान जस्टिसेज’ इस्तेमाल किया गया, यानी पहले भी यह हुआ है। उन्होंने प्रेस के सामने कहा कि कोई व्यक्तिगत बात नहीं है, न चीफ जस्टिस पर कोई व्यक्तिगत आक्षेप है।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिब्बल, चिदंबरम, खुर्शीद आलम आदि कांग्रेसी नेता, जो सर्वोच्च न्यायालय के सीनियर एडवोकेट भी हैं, मौजूद थे। चार वरिष्ठ जजों का कहना था कि उनके पत्र का कोई उत्तर नहीं मिला। वे प्रधान न्यायाधीश से मिले भी, पर अपनी बात नहीं मनवा पाए। अतः उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से देश को स्थिति की सूचना देना उचित समझा। इसी कारण पहली बार, जो कभी नहीं हुआ, ऐसे कदम उठाने पडे़। जस्टिस जे. चेमलेश्वर ने कहा कि यदि सर्वोच्च न्यायालय को संरक्षण न मिला तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने कहा, हम नहीं चाहते थे कि २० वर्ष के बाद अपनी आत्मा बेच देने का आरोप लगे। जस्टिस रंजन गोगाई, जो अगले चीफ जस्टिस होनेवाले हैं, कहा कि प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से स्थिति स्पष्ट कर हमने राष्ट्र के प्रति अपना ऋण उतारने की कोशिश है। उनके द्वारा सार्वजनिक किए गए पत्र से उनकी शिकायतें साफ हो जाती हैं। उन सबके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि मामला बिल्कुल ताजा है और समस्या का समाधान होना बाकी है। प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी बताया गया कि वे चारों लोग उस दिन प्रातः चीफ जस्टिस से मिले थे, किंतु उन्होंने उनका कहना नहीं माना। संवेदनशील मामलों में सी.बी.आई. जज लोया का जिक्र आया, जो मुंबई में सोहराबुद्दीन शेख के एनकाउंटर के समय का मुकदमा सुन रहे थे, नागपुर में एक शादी के दौरान उनकी आकस्मिक मृत्यु के विषय में जो पी.आई.एल. दाखिल हुए, वह एक प्रकार से उनके अप्रत्याशित कदम का प्रस्थान बिंदु था, जिसके कारण यह असाधारण कदम उठाया गया।

‘कारवाँ’ मैगजीन में इस संबंध में एक लेख आया था, उसमें लगाए गए आरोपों को वहाँ उपस्थित अन्य जजों ने नकार दिया था। समाचार-पत्रों, विशेषतया ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने इस मामले में जाँच-पड़ताल की और ‘कारवाँ’ की कहानी को सही नहीं माना। उनके पुत्र ने भी एक बयान में अपने पिता की मृत्यु को प्राकृतिक बताया। उसने कहा, प्रारंभ में कुछ संदेह था, पर अब नहीं है और इस मामले का राजनीतीकरण नहीं होना चाहिए। उनके परिवार को इस विषय में परेशान न किया जाए। अब निर्णय हो जाए कि यह सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार में है या नहीं। चारों वरिष्ठ जज बहुत विद्वान् और अनुभवी हैं और हम सब उनका आदर करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा को आँच नहीं आनी चाहिए। इसलिए इस अनहोनी और असाधारण घटना ने न केवल विधिवेत्ताओं को वरन् नागरिकों को भी झकझोर दिया। कई निवर्तमान जजों और प्रधान न्यायाधीशों ने भी इसे असाधारण माना है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय की साख को बट्टा लगा है। कुछ निवर्तमान जजों ने कहा कि चार वरिष्ठ जजों के सामने कोई और विकल्प नहीं रहा, तभी उन्होंने यह कदम उठाया। बार एसोसिएशन ने तुरंत कार्यकारिणी की बैठक बुलाई और अध्यक्ष विकास सिंह ने कहा कि यह सर्वोच्च न्यायालय का आंतरिक मामला है, वे स्वयं इसका हल निकाल लेंगे। केंद्र सरकार का भी यही रुख रहा। कांग्रेस का एक डेप्युटेशन प्रधान न्यायाधीश से मिला भी। अध्यक्ष राहुल गांधी ने अवश्य कहा कि वरिष्ठ जजों ने जो मुद्दे उठाए हैं, उनका निराकरण होना चाहिए। यह वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय के विवाद को राजनैतिक रूप दे सकता है। वैसे वरिष्ठ जजों ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के सामने कोई संकट नहीं है और सब ठीक हो जाएगा। साधारण नागरिक फिर भी समझ नहीं पाता है कि ऐसा क्यों हुआ? यदि कोई संकट नहीं है तो फिर प्रेस को बुलाने का यह नाटकीय कदम क्यों उठाया गया? क्यों नहीं इस पूरे विवाद को जजों की संपूर्ण बैठक में रखा गया, इस पर सवाल उठ रहे हैं। आगे भी अगर कुछ इस प्रकार का मामला आया तो क्या करना होगा।

यह भी थोड़ा समझ के बाहर है कि जो जज पहले सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त हुए, केवल वही लोकतंत्र की रक्षा कर सकते हैं। वे कुछ महीनों में सेवानिवृत्त होंगे तो सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था और संरक्षण तो उन्हीं न्यायधीशों के द्वारा होगा, जिन्हें जूनियर की संज्ञा दी जा रही है। जनता मानकर चलती है कि जो जज सर्वोच्च न्यायालय के योग्य समझा गया है, वह हर प्रकार से न्याय देने में सक्षम होगा तथा संस्था के मान और विश्वसनीयता की रक्षा कर सकेगा। अतएव वरिष्ठ और कनिष्ठ का भेद इस दृष्टि से व्यर्थ है। संस्था का दायित्व संविधान का संरक्षण है। इस तरह की बात करना एक प्रकार से अपने सहयोगियों के प्रति अविश्वास प्रकट करना है। सर्वोच्च न्यायालय सबके फैसले करता है और वे सर्वमान्य होते हैं। यह संवैधानिक सिद्धांत है। फिर यहाँ जनता की अदालत का प्रश्न क्यों उठा? कोई रेफरेंडम का प्रावधान संविधान में नहीं। हमारे संविधान निर्माताओं ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है। इस प्रकार का कदम कहीं न्यायिक अनुशासन की सीमा का तो अतिक्रमण नहीं करता। १९९८ या १९९९ में जजों ने अपने लिए स्वयं एक कोड ऑफ कंडक्ट यानी आचार संहिता बनाई थी, कहीं यह उसकी अवहेलना तो नहीं। कुछ विधिवेत्ताओं का यह भी कहना है कि नेशनल ज्यूडिशियल कमीशन का जो कानून संसद् ने एकमत से पारित किया था, यदि वह असंवैधानिक घोषित न किया जाता तो सर्वोच्च न्यायालय के कामों में भी पारदर्शिता आती और इस प्रकार की नौबत भी शायद न आती। पारदर्शिता की दृष्टि से कुछ टिप्पणीकार वरिष्ठ न्यायाधीशों के कदम को उचित बताते हैं। लेकिन प्रशांत भूषण और उनके पिता शांतिभूषण ने सर्वोच्च न्यायालय में काफी समय हुआ, एक सूची पेश की थी और सर्वोच्च न्यायालय के आठ प्रधान न्यायाधीशों की शुचिता के विषय में कुछ प्रश्न उठाए थे, उसका आगे क्या हुआ, कुछ पता नहीं है। पंजाब उच्च न्यायालय के जब जजों ने अपने चीफ जस्टिस द्वारा अपने गोल्फ क्लब की मेंबरशिप के बारे में पूछे जाने पर बॉयकाट किया, तो उस मामले की तह में न जाकर उसको भी रफा-दफा कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक मामलों में पारदर्शिता का अभाव बराबर रहा है, जो जनता को खलता है। सुचारू न्याय व्यवस्था चलाने के लिए पारदर्शिता और संस्थागत अनुशासन, दोनों का सामंजस्य आवश्यक है।

एक विचित्र बात यह भी हुई कि इस विषय में शुक्रवार के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ एडवोकेट दुष्यंत दवे का लेख प्रकाशित हुआ और उसके बाद देश ने प्रेस कॉन्फ्रेंस का परिदृश्य देखा। इसके अतिरिक्त पिछले कुछ समय में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और वरिष्ठ अधिवक्ताओं के बीच कई मामलों में नोकझोंक हुई। उससे भी लोग चिंतित थे। वरिष्ठ अधिवक्ताओं में सिब्बल, धवन, प्रशांत भूषण आदि रहे हैं। वरिष्ठ अधिवक्ताओं से भी शालीनता और आत्मनियंत्रण की अपेक्षा रहती है, तभी न्याय-प्रक्रिया ठीक से चल सकती है, क्योंकि वे इसके अभिन्न अंग हैं।

देश के प्रबुद्ध नागरिक तो यही मानते हैं कि जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ और आशा करते हैं कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। एटार्नी जनरल श्री वेणु गोपाल और बार एसोसिएशन के अध्यक्ष ने इस विवाद के बारे में कहा था कि यह मामला शीघ्र ही सुलझ जाएगा और सर्वोच्च न्यायालय सौहार्द, निष्पक्षता और न्यायप्रियता के वातावरण में कार्य करेगा। यही सबकी अपेक्षा और आशा है। किसी भी संस्था की छवि उसके शांतिपूर्ण चलन एवं उसके सदस्यों के आचरण पर निर्भर करती है। उससे संबंधित सब अंगों के आत्मनियंत्रण और सहयोग की आवश्यकता होती है। सर्वोच्च न्यायलय की गरिमा का संरक्षण करना सभी का दायित्व है, उसी में संविधान की रक्षा, लोकतंत्र की सार्थकता और गरिमा निहित है। हम सभी हाड़-मांस के पुतले हैं। किंतु सर्वोच्च न्यायालय के प्रति संस्थागत आस्था एवं विश्वसनीयता पर किसी भाँति आँच नहीं आनी चाहिए। संस्थाएँ बनी रहती हैं, व्यक्ति आते-जाते रहते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को राजनैतिक विवाद से दूर रखना ही दूरदर्शिता का सूचक है।

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

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