क्रिसमस का पेड़

क्रिसमस का पेड़

यह चमत्कार कैसे हुआ, मैं नहीं जानता। सुबह जब मैं यहाँ आया था तब तो यहाँ नहीं था। धवल हिम की चादर को चीरकर यह शानदार पेड़ यहाँ कैसे उग आया? दूर से तो यह किसी विशाल कैनवास पर बना एक तैलचित्र सा लगता था, लेकिन पास जाकर पता चला कि यह एक वास्तविक पेड़ है, एकदम प्राकृतिक और सजीव। लेकिन यह आया कहाँ से? इस क्षेत्र में मैदानी चीड़ तो होते हैं, लेकिन वे इतने ऊँचे और सुडौल नहीं होते। लगता है, यह तो जैसे सीधे हिमालय से ही लाया गया हो। हिमालय से तो नहीं आ सकता था, लेकिन कहीं दूर से तो लाए होंगे ये लोग। त्योहार मनाने के इनके उत्साह और पराक्रम को देखकर मैं दंग रह गया।

आज जब आँख खुली तो देखा कि बाहर बालकनी में रखे गमलों में श्वेत गुलाब खिले हुए हैं। लेकिन श्वेत फूल तो इनमें कभी नहीं खिलते थे और फिर गुलाब खिलने का मौसम तो कब का निकल चुका था। मैं चौंका और कंबल फेंककर बिस्तर से नीचे आया। खिड़की के पास गया तो बाहर सारा वातावरण धवल हो चुका था। सबकुछ सफेद चादर में लिपटा हुआ था, सामनेवाला मैदान, दीवारें और झाडि़याँ। गमलों में लगे पौधों पर हिम ने अपने ही फूल उगा दिए थे, जिन्हें मैं गुलाब समझ रहा था। कमरे की गरमी के कारण शीशों को पसीना आ गया था और नन्हीं बूँदों के बीच से बाहर का दृश्य ऐसा दिखता था, जैसे काँच के प्रिज्मों के बीच दिखता है। इससे सारा वातावरण जादुई सा लगता था। मन किया कि बाहर जाकर घूम लिया जाए।

स्वेटर, डबल जैकेट, मफलर और दस्तानों से लैस मैंने दरवाजा खोला तो ठंडी हवा के झोंके ने मेरा स्वागत किया। तभी मुझे महसूस हुआ कि घूमने का मतलब टहलकदमी करना नहीं है। चारों ओर बर्फ का साम्राज्य स्थापित हो चुका था, इसमें सहज रूप से टहलना तो संभव ही नहीं था। अपने अपार्टमेंट हाउस पर नजर डाली तो कोई भी खिड़की खुली नहीं थी, इस समय किसी के घर से बाहर आने का सवाल ही नहीं उठता था। यहाँ जाड़ों में नौ बजे से पहले तो सुबह होती ही नहीं, अभी तो आठ भी नहीं बजे हैं, फिर मौसम सैर करने का तो था नहीं। सामनेवाली बस्ती में कुछ चहल-पहल थी। सोचा, वहीं जाकर कुछ बतिया लिया जाए। इस बस्ती और हमारी कॉलोनी के बीच एक सड़क ही सीमा-रेखा थी। इस सड़क पर नगर पालिका की बस आठ बजे से चलती है, इसलिए पालिका ने सड़क से बर्फ साफ कर दी थी। लगा कि सड़क तक सौ मीटर का अंतर ही तो है, पार करना कौन सी बड़ी बात है। बर्फ ही तो गिरी है, बाढ़ तो नहीं आई है।

कुल तीन पाये उतरने थे। हिचकिचाते हुए एक कदम पहले पाये पर रखा तो पाँव टखने तक बर्फ में धँसकर ठोस सतह पर टिक गया। कुछ हिम्मत आई और दूसरा कदम दूसरे पाये पर रखा ही था कि लगा किसी कुएँ में गिर रहा हूँ। घबराहट में पाँव वापस खींच लिया और संतुलन खो बैठा और धड़ाम से औंधे मुँह बर्फ में गिर पड़ा। उठा और जल्दी-जल्दी कपड़ों से बर्फ झाड़कर इधर-उधर देखने लगा कि कोई पड़ोसी देख तो नहीं रहा है। राहत की साँस ली, कोई बाहर था ही नहीं। लेकिन बस्तीवालों ने दूर से देख लिया था। दो लड़के दौड़कर सड़क पर आए और चिल्लाकर पूछा कि मदद तो नहीं चाहिए। मैंने इशारे से कहा कि नहीं और वापस अपने फ्लैट में घुस गया। अपने बरामदे से नीचे उतरते समय मैं नहीं सोच पाया था कि दूसरे पाये के ऊपर कोई छज्जा न होने के कारण बर्फ की गहराई अधिक होगी। इसीलिए यह फजीहत हो गई। दुबारा मैंने बाहर जाने का साहस तब किया जब दोपहर हो चुकी थी और मोहल्लेवालों ने सड़क तक बर्फ के बीच से एक सँकरी पगडंडी काट ली थी। पिछले महीने जब मैं इस बस्ती में पहली बार आया था तो यह मुझे एक श्मशान भूमि दिखाई दी थी, जहाँ भूले-बिसरे ही कोई मुरदा आ जाता हो। टूटे हुए टिन के शेड, जिनकी जंग खाई चद्दरों में इतने बड़े-बड़े सूराख थे, जिनके बीच से धूप और पानी तो क्या बर्फ को भी अंदर आने में कोई दिक्कत नहीं होती होगी। सामने कूड़े के ढेर और उन्हीं के पास एक बदसूरत बुढि़या किसी हिप्पीनुमा बच्चे का पीछा करती हुई दिखाई दी थी। किसी कोने में किसी बूढ़े के खाँसने की आवाज भी सुनाई दे रही थी। इस बस्ती की यही तसवीर मैंने मन में बना ली थी। लेकिन यह कोई श्मशान नहीं था। बाकायदा एक मानव बस्ती थी, जिसमें कुछ सैकड़ा इनसान रहते थे। सुबह-शाम कुछ हलचल रहती थी, लेकिन दिन चढ़ते ही लोग काम के लिए या काम की तलाश में निकल जाते थे, बाकी रहते थे कुछ बूढ़े, बीमार और बच्चे। इस का नाम ‘रेंडियर पार्क’ था, यानी रेंडियरों का बगीचा। सुनकर हँसी आई थी। देव वाहन रेंडियर का इस वीराने के साथ क्या रिश्ता हो सकता था? रेंडियर का ईसाई परंपरा में बहुत महत्त्व है, लाल मुँह वाले रेंडियर ही तो सांता क्लाज की गाड़ी हाँकते हैं। रेंडियर शायद ध्रुवीय पशु है, लेकिन यह इलाका तो ध्रुव प्रदेश नहीं है और न यूरोपीय है, जहाँ की कथाओं में रेंडियर अमर हो गया है। लेकिन अब सांताक्लाज की तरह रेंडियर भी सार्वभौमिक हो गया है।

सड़क के इस पार जहाँ मैं रहता हूँ, एक अलग दुनिया है। यहाँ सबकुछ है, जो एक आधुनिक नगर में होना चाहिए। चौड़ी और साफ-सुथरी सड़कें, मध्यवर्गीय लोगों के पंक्तियों में बने घरों से लेकर आलीशान ब्नगले और बहुमंजिले भवन। कई शानदार चर्चों और मॉल के अतिरिक्त यहाँ एक झील भी है, जिसके कारण यह छोटा सा नगर ‘विलो रो’ पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी बन गया है। लोग धर्मभीरु भी हैं, सप्ताह में एक बार चर्च अवश्य जाते हैं। लेकिन सन डे ईसाई होने के अतिरिक्त यहाँ के लोग धार्मिक त्योहार बड़े चाव से मनाते हैं। इस नगर के लोगों को अपनी कुलीनता का भी बड़ा मान है। वे गँवारों की बस्ती के साथ कोई नाता नहीं रखना चाहते। विशेष रूप से अपने बच्चों को वहाँ जाने से रोकते हैं। इन उचक्कों का क्या भरोसा? ये तो इस बस्ती को ‘रेंडियर पार्क’ भी नहीं कहते, ‘डेविल्ल यार्ड’ यानी ‘शैतान का बाड़ा’ ही पुकारते॒हैं।

इस शानदार नगर की बगल में इतने सारे कंगाल कहाँ से आए? तरह-तरह की कहानियाँ सुनाई जाती हैं। कहते हैं कि ये आधुनिकता के मारे हैं। पिछली सदी में यहाँ एक औद्योगिक बस्ती थी। फिर शायद १९३० के आसपास असाधारण मंदी का दौर आया और कल-कारखाने उजड़ गए। मालिक तो कहीं ओर बस गए और अधिकतर मजदूरभी जहाँ सींग समाए, चले गए। जिन्हें कोई ठौर-ठिकाना नहीं मिला, वे यहीं रह गए। इन पुराने टिन शेडों में दोनों की जमाने के लिए कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। प्रतीक्षा है बस एक दुर्घटना की, जब कोई शेड गिर जाएगा और कुछ लोग उसके नीचे मर जाएँगे तथा बाकी को पुलिस यहाँ से खदेड़ देगी। एक कहानी और है। आधुनिकता के साथ-साथ नए तौर-तरीके आ गए, नए नगर, नए व्यवसाय और नई संस्कृति। इस बदलाव को जो नहीं सह पाए, वे बेकार और बेकाम लोग यहाँ आकर बस गए। इनमें से कौन सी बात सही है—पता नहीं, लेकिन मुझे तो लगता है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

लेकिन जब से आया हूँ, इस बस्ती में मुझे विशेष आकर्षण महसूस होने लगा है। दिल्ली की झोंपड़-पट्टियों, पुलों के नीचे की झुग्गी-बस्तियों, हर महानगर की रेल पटरियों के साथ-साथ कपड़े, कैनवास और जंग खाई टिन की चद्दरों से बने-बसे समांतर नगरों की याद आती है मुझे। लंबे सफर के बाद जब गाड़ी की खिड़की से बाहर झाँकता हूँ तो उनको देखकर अपने घर के आँगन का आभास होने लगता है। लेकिन अपने देश के उजड्डों और इनमें एक मौलिक अंतर भी है। अपने देश के ऐसे लोग बड़े जुगाड़ू होते हैं, अपनी मेहनत और कल्पना से हर उपलब्ध वस्तु का उपयोग करके अपना घर बसा ही लेते हैं और उसमें कई प्रकार की सुविधाएँ भी जुटा लेते हैं। लेकिन ये लोग तो दशकों से इन्हीं बूसीदा शेडों में ऐसे ही पड़े हैं, जिनकी छतें कभी इन्हीं पर गिर सकती हैं। मेरे देश के उजड्डों का कोई कबीला, कोई खाँप, कोई जाति, कोई नाम लेवा तो होता ही है। जिसे नाम के लिए ही सही, वे अपना कह सकते हैं। लेकिन इनका अतीत तो समय की गहराइयों में खो सा गया है, जिसे कोई याद भी नहीं करना चाहता।

आज बर्फ के गिरने के बाद जब मैं दुबारा बाहर आया तो दिन के बारह बज चुके थे। बस्ती के वही दो लड़के सामने आए, जिन्होंने मुझे गिरते देखा था।

‘‘चोट तो नहीं लगी?’’

‘‘नहीं बर्फ में ही तो गिरा था।’’ मैंने उत्तर दिया।

‘‘आप लोग इतनी जल्दी उठते नहीं, कहीं जाना था?’’

‘‘तुम लोगों से मिलने।’’

‘‘हममें क्या है, हम तो कचरा हैं कचरा।’’ पीछे से किसी की आवाज आई। मुड़कर देखा तो एक बूढ़ा था, जिसके चेहरे पर जमाने भर का भूगोल और इतिहास खुदा हुआ था। थोड़ी देर के लिए कोई उत्तर नहीं सूझा। फिर पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘कचरे से ही तो ऐसा शानदार पेड़ उग आया है।’’

‘‘ये? इसी बहाने ईश्वर को याद दिलाने का मौका मिलता है, शायद याद आ ही जाए कि हमें भी उसी ने रचा है।’’

बूढ़े के व्यंग्य की पीड़ा सारे माहौल पर छा गई।  तनाव को कम करने के लिए ही मैंने विषयांतर किया। ‘‘आज शाम को क्या होगा?’’

मेरे प्रश्न का असर हुआ। ‘‘बहुत कुछ, खाना-पीना, गाना-बजाना और सांताक्लाज।’’ फिर कई लड़के सांता के बारे में बताने लगे। कायदे से तो सांता को रात में आना चाहिए, लेकिन इन मुफलिसों में कौन सी शास्त्रीय रीति-नीति चलती है। कौन से मकान हैं, जिनकी चिमनी से सांता उतरकर आएगा और चुपचाप बच्चों के लिए खिलौने छोड़कर चला जाएगा? माहौल हलका हो गया था। यहाँ से चलने से पहले मैंने उनसे वायदा किया था कि मैं उनका सांता देखने अवश्य आऊँगा।

मेरे बेडरूम के सामने के फ्लैट में मिस्टर ड्रमर रहते हैं। वे यहाँ के पुराने निवासियों में से हैं। वे तब आए थे जब विलो रो एक छोटा कस्बा था। अस्सी पार कर चुके हैं और अकसर घर पर ही रहते हैं। घर में एक बेटा हेनरी साथ रहता है। एक महिला सुबह-शाम खाना बनाने आती है, वही चौका-बरतन भी करती है। हेनरी टूरिस्ट व्यापार करता है। उसकी कंपनी छोटी ही है लेकिन वह अपने आपको नगर के बड़े लोगों में शुमार करता है। हेनरी ने कभी शादी की थी कि नहीं, बीवी मरी कि भाग गई, ये व्यक्तिगत प्रश्न मैंने कभी पूछे नहीं और उसने कभी कोई जानकारी दी नहीं। वह इस समाज में रच-बस गया है। लेकिन पिता जूलियस अतीत को कभी भूल नहीं पाए, कभी-कभी पुरानी बातें दोहराते रहते हैं। हेनरी को यह अच्छा नहीं लगता। हेनरी नहीं चाहता कि उसका पिता बेकार की बातों से लोगों को परेशान करे। दरअसल-जूलियस का पुश्तैनी गाँव मैक्सिको में था। अफवाह है कि कंगालों की बस्ती में कुछ लोग उसी इलाके से आए हैं। हेनरी नहीं चाहता कि बात फैल जाए कि कंगालों के साथ हेनरी का कोई जातीय रिश्ता है। लेकिन इस प्रतिबंध को वह मुझ पर लागू नहीं कर सका। उसका घर मेरे घर के ठीक सामने है। स्वयं वह रात को देर से आता है। इसलिए चौकीदारी तो कर नहीं सकता और अशिष्ट वह बनना नहीं चाहता था। इसलिए उसने इस मजबूरी को शिष्टाचार में बदल दिया। बोला, ‘‘आपकी बात अलग है, आप तो घर के ही हैं।’’ लेकिन मैं जानता था कि हेनरी को मुझसे खतरा लगता था। एक तो मैं किराएदार, दूसरा परदेसी। किसी भी दिन यहाँ से चला जाऊँगा।

खैर, बूढ़े ड्रमर को मेरे साथ बातें करने में मजा आता था। मुझे भी एक अकेले बूढ़े के मन का बोझ हलका करना बुरा नहीं लगता था। उस दिन जूलियस मूड में थे, वह उस दिन की घटना सुनाने लगे, जब वे पहली बार इस देश में आए थे। उन दिनों यहाँ विदेशी आगंतुकों को संदेह की नजर से देखा जाता था और कुछ लोगों ने तो उनके विरुद्ध आंदोलन तक छेड़ रखा था। इन विदेशियों में एशियाई, मैक्सीकन और यहूदी खासतौर पर संदिग्ध माने जाते थे। इसलिए आप्रवास अधिकारी बंदरगाह या हवाई अड्डे पर आनेवालों को यहाँ के लिए स्वाभाविक बनाने का प्रयास करते थे। सरकारी कानून तो नहीं था, लेकिन अनौपचारिक तौर पर जिस तरह लोगों को देशानुकूल बनने का आग्रह किया जाता था, उसमें एक प्रकार की मजबूरी तो थी ही। जूलियस को भी एक इमिग्रेशन अधिकारी ने बताया कि उसके देसी नाम का उच्चारण यहाँ के लिए बिलकुल कठिन है, जिसके कारण उसे अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने में कठिनाई आएगी।

‘‘लेकिन मैं अपनी शक्ल-सूरत तो नहीं बदल सकता।’’ जूलियस ने प्रतिवाद किया।

‘‘नहीं-नहीं, हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है, यहाँ ऐसा कोई भेदभाव नहीं है। कठिनाई तो आपके नाम की है। वैसे आपके नाम का अर्थ क्या होता है?

‘‘ढोल बजाने वालों का मुखिया।’’ जूलियस ने उत्तर दिया।

‘‘वाह! मिल गया, ड्रमर बहुत ही उपयुक्त नाम है। जब आप अपना व्यक्तिगत नाम बता रहे थे तो मुझे लगा कि आप जूलियस कह रहे हैं। तो आप आज से जूलियस ड्रमर हो गए। है ना ठीक?’’ इससे पहले कि जूलियस कोई प्रतिवाद करता, अधिकारी आगे निकल गया।

‘‘तब से मैं जूलियस ड्रमर हूँ। कभी-कभी मैं भूल ही जाता हूँ कि मेरे बाप ने मेरा नाम क्या रखा था।’’

यह कहकर उसने एक लंबी साँस ली और हँस दिया। उसकी हँसी में मुझे एक चीत्कार सुनाई दी। उसे मालूम था कि उसके मैक्सिकी मूल और हेनरी के बीच वह एक अवांछित कड़ी है, जिसे अब टूट जाना॒चाहिए।

?

चर्च समिति का निमंत्रण आया था तो जाना ही चाहिए, विशेषकर क्रिसमस के अवसर पर। एक गैर-ईसाई को मान दिया गया है तो इस भावना का आदर तो करना ही होगा। आरंभ में मुझे झिझक हो रही थी कि कहीं कोई बुरा न माने। लेकिन जब चर्च समिति के अध्यक्ष मिस्टर कोलमन स्वयं स्वागत के लिए आगे आए तो यह झिझक जाती रही। यहाँ क्रिसमस कई दिन पहले से मनाया जाता है। चर्च के आँगन को लोग फूलों और बत्तियों से सजा रहे थे। माहौल का असर ऐसा था कि मैं भी इस काम में शामिल हो गया और कार्यकर्ताओं को सुझाव देने लगा। किसी ने बुरा नहीं माना, शायद इसलिए कि मैं मिस्टर कोलमन का मित्र था। कोलमन से मेरी मुलाकात उन्हीं के स्टोर में हुई थी। मैं वहाँ लटकी एक पेंटिंग को देख रहा था तो उन्होंने पूछा कि क्या आप कला के बारे जानते हैं। मैंने कहा कि मैं एक शौकिया चित्रकार हूँ तो कुछ देर तक हम बातें करते रहे। फिर तो जब भी मैं स्टोर में जाता तो थोड़ी देर गपशप हो ही जाती। इसके बावजूदमैं इस बात का ध्यान रखता था कि किसी को मेरी उपस्थिति पर आपत्ति करने का मौका न मिले। चर्च के अंदर पादरी के प्रवचन के समय मैं सबसे पीछे वाली पंक्ति में बैठ जाता।

क्रिसमस से ठीक एक दिन पहले भी सायं के समय मैं चर्च गया था। पादरी ईसा की दया और करुणा के बारे में बता रहे थे। अचानक मुझे याद आया कि मैंने बस्ती वाले लड़कों से वायदा किया था कि मैं उनका समारोह देखने आऊँगा। मैं चुपचाप वहाँ से खिसक गया और बस्ती में जा पहुँचा। हालाँकि पुरानी परंपरा के अनुसार सांताक्लाज को रात के अँधेरे में आना था, लेकिन सांता के आने और बच्चों के लिए तोहफे देने की रस्म जमाने के साथ बदलती रही है और अपने देशकाल अनुसार सबने अपने-अपने संशोधन कर लिये हैं। इस बस्ती में तो सांता खुलेआम बच्चों के बीच घूम-घूमकर खिलौने और टॉफियाँ बाँट रहा था और बच्चे भी उसके साथ ऐसे चिपके थे जैसे दादा-नाना हो। इस सांता में कोई तड़क-भड़क नहीं थी, उसका लाल चोगा कई साल पुराना था, दाढ़ी भी कई मौसम झेलकर अपना स्वाभाविक रंग खो रही थी। उसके कंधे पर जो थैला था, वह हमारे यहाँ के कबाडि़यों जैसा था। फिर भी इस सांता में मुझे कोई देसी साधु संत दिखाई दे रहा था। फकीरों जैसा लिबास और मलंगों जैसी चाल!

अभी मैं सांता और बच्चों के बीच की लीला देख ही रहा था कि पीछे से कुछ शोर सुनाई दिया। नगर के बहुत से लोग उत्तेजित अवस्था में आ रहे थे। उनका नेतृत्व मेरे मित्र जेम्स कोलमन कर रहे थे। बस्ती के लोगों में अफरा-तफरी मच गई। सबसे अजीब हालत तो सांता की हो रही थी। वह न हिला और न भागा, वहीं मूर्तिवत् खड़ा रहा, जैसे साँप सूँघ गया हो। कोलमन ने उसका थैला छीना और जमीन पर उलट दिया,  ‘‘देखो, मेरे स्टोर का माल है कि नहीं?’’

‘‘इस हरामखोर को मारो!’’ भीड़ में से कोई चिल्लाया।

लेकिन इस बीच बस्ती के कुछ लड़के भी लाठियाँ ले आए थे, ‘‘आओ सालो, हम भी देखते हैं कौन किसे मारता है!’’

दोनों ओर से एक-दूसरे को मारने-पीटने की धमकियाँ दी जाने लगीं। गनीमत थी कि किसी ने मारने की पहल नहीं की।

‘‘पुलिस दारोगा को फोन करो।’’ भीड़ से किसी की आवाज आई।

अब तक मैं सारा माजरा समझ चुका था। बस्ती के सांता के पास अपने खाने के लिए नहीं था, बच्चों को उपहार कहाँ से दे पाता। इस त्योहार में अपनी भूमिका निभाने के लिए उतावला वह कुछ तरकीब सोचने लगा। जब लोग चर्च में त्योहार की तैयारियाँ कर रहे थे, उसने कोलमन के स्टोर से कुछ खिलौने और टॉफियाँ उठा ली थीं। मामला गंभीर था, अगर पुलिस आई तो बेचारा सांता तो मारा जाएगा।

‘‘मिस्टर कोलमन पुलिस को मत बुलाओ।’’ मैंने बीच-बचाव करने के लिए कहा।

‘‘क्यों?’’

‘‘सोचो, इसने चोरी किसके लिए की, अपने लिए तो नहीं, इन बच्चों को थोड़ी सी खुशी बाँटने के लिए ही न।’’   

‘‘तो क्या, इसके लिए चोरी को उचित ठहराया जाए?’’

‘‘नहीं, लेकिन अगर आज ईसा इस धरती पर होते तो क्या करते?’’

‘‘तुम बताओ, तुम तो ज्ञानी बने फिर रहे हो।’’ किसी ने मेरे हस्तक्षेप से चिढ़कर व्यंग्य किया।

‘‘नहीं भाई, मैं ज्ञानी नहीं हूँ, मैं तो वही कह रहा हूँ जो मैंने आज चर्च में सुना। आप लोगों ने भी सुना होगा।’’

‘‘क्या मतलब?’’ अब कोलमन ने पूछा।

 ‘‘मैं ठीक वही शब्द तो नहीं दोहरा सकता, लेकिन कोशिश करूँगा कि पाठ के निकट ही रहूँ। प्रभु ईशु ने अपने दाएँ ओर बैठे लोगों से कहा—आओ परम पिता ने तुम्हें आशीर्वाद दिया है कि हम इस धरती को भोगें, क्योंकि जब मैं भूखा था तो तुमने मुझे खाना खिलाया, जब प्यासा था तो पानी पिलाया। जब मेरे पास कपडे़ नहीं थे, तुमने मुझे कपड़े पहनाए। जब मैं बेचारा, अजनबी और बेसहारा था तो तुमने मुझे अपने घर में शरण दी।

एक व्यक्ति ने पूछा—प्रभु! आप कब भूखे-प्यासे या नंगे थे। हमने आपकी कब सेवा की, हमें तो पता ही नहीं।

प्रभु ने कहा, ‘‘जब तुम किसी भूखे को खाना खिला रहे थे, किसी प्यासे को पानी पिला रहे थे या किसी बीमार का इलाज कर रहे थे तो तुम मेरी ही तो सेवा कर रहे थे।’’

सारी भीड़ में मौन छा गया।

‘‘मिस्टर कोलमन,’’ मैंने कहा, ‘‘कल क्रिसमस है, आज ईसा के जन्म की पवित्र रात! आज अगर आप इसे क्षमा करोगे तो ईसाई होने का अपना कर्तव्य निभाओगे। एक अजनबी होने के नाते इससे अधिक कहने का मैं अधिकारी नहीं हूँ।’’

कोलमन कुछ देर तक मुझे देखता रहा, जैसे मेरे शब्दों को तौल रहा हो। फिर मुसकराया और चुपचाप लौट पड़ा। उसे देखकर बाकी सब लोग भी लौट गए।

अपने इस छोटे से भाषण से मैं थक सा गया था। मैं जानता था कि बस्ती के लोग मुझे अपना रक्षक मानने लगे होंगे और अगर मैं यहाँ थोड़ी देर भी रुका रहा तो मेरी प्रशंसा के पुल बाँधे जाएँगे। मुझे ढेर सारे प्रश्नों के उत्तर देने होंगे। लेकिन मैं किसी से बात नहीं करना चाहता था। जल्दी से वहाँ से निकल पड़ा। कुछ दूर जाकर मुझे लगा कि कोई मेरे पीछे आ रहा है।

मुड़कर देखा तो सांता था। उसने टोपी और दाढ़ी उतार ली थी और पहली बार मैंने देखा कि वह सचमुच एक बूढ़ा आदमी है।

‘‘कोई काम है?’’ मैंने पूछा।

‘‘आप कौन हैं?’’

‘‘मैं एक इंडियन हूँ।’’ फिर सोचा कि कहीं यह मुझे अमेरिकी आदिवासी न समझ ले, मैंने जोड़ दिया, ‘‘इंडिया देश का निवासी हूँ।’’

‘‘गैंडी, गैंडी।’’ वह बोला।

‘‘हाँ-हाँ, गांधी के देश का।’’

‘‘मैंने सुना है कि वह भी एक कंगाल था मेरी तरह।’’ उसके इस कथन से मैं चौंक पड़ा और मेरे कदम अचानक रुक गए।

‘‘कंगाल? हाँ, वह कोई धनवान रईस नहीं था,’’ मैंने समझाया।

‘‘एक अधनंगे, मुफलिस को लोग कैसे पूजते थे?’’

इस प्रश्न का उत्तर मैं क्या देता? मुझे नहीं लगता था कि उसे यह बात समझ में आएगी कि गांधी ने गरीबी का स्वयं वरण किया था। मैं गांधी को चमत्कारी बाबा भी नहीं बनाना चाहता था। इसलिए उसे टालने के ही उद्देश्य से कह दिया, ‘‘वह तो पुरानी बात है, तेरे बचपन की।’’

‘‘बचपन की भूली-बिसरी परी कथा की तरह।’’ यह प्रश्न नहीं, टिप्पणी थी।

उसके इस व्यंग्य से मैं तिलमिला उठा। मेरे मुँह से कोई उत्तर नहीं निकल सका। बूढ़े ने ठहाका मारा और दोहराने लगा, ‘‘ए फार्गाटन टेल ऑफ चाइल्ड हुड, हा-हा-हा!’’ कई बार इसी वाक्य को दोहरते हुए वह अचानक पलटकर चल पड़ा।

मुझे लगा, जैसे किसी ने मेरे मुँह पर तमाचा मारा हो। कुछ देर तक तो मेरे कदम उठे ही नहीं। मैं सोचने लगा कि कितनी जल्दी हम अपने इतिहास को परी-कथाओं में बदल देते हैं। ईसा की दुहाई देते-देते मैंने गांधी को ही काल्पनिक बना डाला था।

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