नर्तक

‘‘विशाल विपत्तियाँ मुझे ज्यादा नहीं सतातीं।’’ थोड़ा सनकी कहलाता वयोवृद्ध कुँवारा जॉन ब्रिदेल सुनाने लगा, ‘‘मैंने बहुत निकट से जंग देखी है; मैं पूरी निर्ममता से मृत देहों को लाँघ सका हूँ। दहशत या रोष की चीख-पुकारें, विकराल प्राकृतिक क्रूरताएँ हमारे हृदयों को इतना नहीं मसलतीं या घुटनों तक नहीं थरथरातीं, जितना कि जीवन की छोटी-छोटी अजीब घटनाएँ।

‘‘बेशक, किसी बच्चे के खो जाने से माँ का या माँ के खो जाने पर बच्चे का दुःख सर्वाधिक त्रासदीपूर्ण हादसा हो सकता है। वह हर हाल में प्रचंड और भयावह है; वह दिमाग फेर सकता है, हृदय चूर-चूर कर सकता है; तथापि लंबे-चौड़े, रक्तरंजित जख्मों समान ऐसी विपत्तियों को झेला जा सकता है। लेकिन कतिपय हादसे, ध्यानाकर्षित करती हुई कतिपय संदेहास्पद बातें, कतिपय गोपनीय दुःख, विश्वासघात इस तरह के होते हैं, जो हमारे भीतर दारुण खयालों के किसी संसार को खँगाल देते हैं, जो हमें सहसा नैतिक यंत्रणा के किसी ऐसे भेद भरे इलाके में ले जाते हैं, जो इतना अधिक जटिल, असाध्य, ज्यादा ही दुर्बोध इसलिए है, क्योंकि वह माननीय मालूम देता है। क्योंकि निर्बंध होने की वजह से चुभता हुआ होता है, क्योंकि कृत्रिम होने की वजह से ज्यादा ही दुराग्रही होता है। ये सब चेतना के ऊपर मायूसी की लहर-पर-लहर, अफसोस की कोई भावना, मोहभंग का कोई एहसास भरते हैं, जिनसे हम स्वयं को छुड़ा लेने के लिए तरसते हैं।

‘‘मेरी नजरों के सामने दो या तीन चीजें पहले से ही बसी हैं, जो संभवतया दूसरों के ध्यान में नहीं आ पाईं, लेकिन जो मेरी हमदर्दी में गहरे, असाध्य घावों के समान आ घुसी हैं।

‘‘आप शायद उस जज्बे को नहीं समझ पाएँगे, जिसने अल्प समय में उभरे इन प्रभावों से मुझे निजात दिलवाई। मैं केवल एक का जिक्र करूँगा। हादसा पुराना है, लेकिन मेरे साथ ऐसा बँधा है, मानो कल ही घटा हो; मात्र कल्पना ही शायद उसे स्मृति में ताजा बनाए रखती है।

‘‘इस वक्त मैं पचास का हूँ। अपनी किशोरवय में स्वभाववश ही बड़ा अध्ययनशील रहा हूँ। थोड़ा मायूस, कुछ स्वप्निल, विषादमय दर्शन में निमग्न मैं जगमगाते कॉफी हाउसों, शोर मचाते कामरेडों, जड़मति लड़कियों से हमेशा दूर रहता। सुबह जल्दी उठता और अपनी आदत के वश तन्हा घूमने निकल जाता; प्रायः आठ बजे लग्जम्बर्ग की नर्सरी में जा पहुँचता।

‘‘तुम शायद इस नर्सरी को नहीं जानते हो। यह जाने किस सदी के विस्मृत बागान, किसी सुंदर वाटिका समान, किसी वयोवृद्ध व्यक्ति की मुसकान के समान थी। खूबसूरती से कटे-छँटे बेलबूटों की दो दीवारों के दरम्यान सीधा, नियमित, प्रशांत मार्ग बीच में, बड़ी सफाई से कटी-सँवरी झाडि़यों से विभाजित था। टहनियों की बेतरतीब निकली डंडियों को बागवान की विशाल कैंची निर्ममता से काट रही थी। जबकि यहाँ-वहाँ फूटते रास्ते फूलों और छोटे पेड़ों के झुंडों-से सैर कर रहे छात्रों समान भव्य गुलाबों के गुच्छों और फलदार पेड़ों की कतारों से घिरे थे।

‘‘पेड़ों के इस छोटे से मनोहर पुंज का एक पूरा कोना मधुमक्खियों से भरा था। तख्तों पर बड़ी निपुणता से विन्यस्त उनके पर्ण-छत्ते अपने असंख्य दरवाजे किसी छल्ले के विवर समान सूरज की ओर खुल रहे थे। और पूरी राह भर सुनहरी मक्खियाँ इस शांत जगह की सच्ची रमणीय, यों कहें कि इन रास्तों एवं गलियारों की आदर्श रहवासियाँ भिनभिनाती रहतीं।

‘‘मैं वहाँ प्रायः हर सुबह जाता। किसी बेंच पर बैठकर पढ़ता रहता। यदाकदा पुस्तक घुटनों पर गिर जाती, जबकि स्वयं सपने देखता और अपने इर्द-गिर्द बसे जीवंत पेरिस को सुनता, अनेक पुरातन ओक वृक्षों की शृंखलाओं के विराट् मौन का आनंद लेता।

‘‘सहसा लगा, अहाते की किसी दरार में से निकलकर अकसर इस जगह आनेवाला एकमात्र मैं ही नहीं हूँ। यदाकदा घनी झाडि़यों के कोने में किसी वृद्ध आदमी से मेरा सामना होता। वह रजत बकसुए लगे जूते, पट्टे से कसी पेंट, भूरे रंग का कोट, गुलबंद की एवज में फीता, रोएँ तथा किनारे फटी जाने कौन सी हैट पहने था, जिससे किसी महाप्रलय का खयाल जेहन में उतरता।

‘‘दुबला क्या बेहद पतला वह इकहरा, विकृत मुँह बना मुसकाती छवि बिखेर रहा था। पुतलियों की अनवरत हलचल से उत्तेजित उसकी उज्ज्वल आँखें टिमटिमातीं; सुनहरी मूठ लगी कोई आलीशान बेंत सदैव उसके पास रहती, जो बेशक कोई सामान्य नहीं, बल्कि भव्य यादगार होगी।

‘‘इस भले आदमी को देखते ही मैं चकित हुआ, फिर उसके प्रति बेहद दिलचस्पी जगी। तब मैंने पर्णावली की दीवार के पीछे से झाँककर दूर तक उसपर नजर रखी; मैं झाडि़यों के पीछे अनदेखा दुबका रहा।

‘‘स्वयं को नितांत तन्हा मान किसी सुबह उसने कई अनोखी गतिविधियाँ उभारीं; आरंभ में कतिपय चौकडि़याँ भरीं, धनुषाकार झुका; अपने पतले-पतले पैरों से उछालें लगाईं, फिर बड़ी निपुणता से मानो किसी धुरी पर विदूषकी अंदाज में लहराते और झुकते हुए, यों मुसकराते हुए जैसे कि दर्शक सामने हों, भुजाएँ फैला नाना भाव-भंगिमाएँ बिखेरते हुए अपनी जर्जर देह को किसी उछलते गुलाम की मानिंद मरोड़ते हुए, खुली हवा को ही नाजुक, विद्रूप आदाब फरमाते हुए घूमा। वह नाच रहा था।

‘‘विस्मय से आँखें फाड़ पथराया मैं स्वयं ही से पूछने लगा, हम दोनों में से कौन पागल है। लेकिन वह एकाएक रुक गया, मंच पर एक्टरों की गतिविधि के मुताबिक सिर नवा कुछ कदम पीछे हट, अपने काँपते हाथ से किसी विदूषक की रमणीय मुसकानें और पुचकारें कटे-तराशे पेड़ों की दो कतारों को संबोधित करते हुए बिखेरता गया।

‘‘तत्पश्चात् संजीदा हो, पुनः चल पड़ा।

‘‘इस दिन बीते मैं बगैर चूके उसे देखता रहा। हर सुबह उसने अपनी अनोखी रियाज दोहराई।

‘‘किसी मूढ़ इच्छा के प्रवाह में हिम्मत बाँध, सिर नवाकर मैंने उससे पूछ लिया—‘मौसम बड़ा सुहावना है आज, सर!’

उसने भी सिर नवा कहा, ‘जी जनाब, अरसा बीते किसी वक्त के मौसम समान है यह।’

‘‘सप्ताह भर बाद हम घेरे परिचित हो गए, तब मैंने उसका इतिहास जाना। वह लुई पंद्रहवें  के समय से ऑपेरा में डांसिंग मास्टर था। उसकी खूबसूरत बेंत काउंट डे क्लेयरमाउंट की दी हुई भेंट है। नृत्य चर्चा शुरू हुई कि फिर क्या बंद हो।

‘‘एक दिन उसने मुझे अंतरंग बात बताई। ‘मैंने ला केस्त्रिस से ब्याह रचाया। अगर आप चाहेंगे तो मैं उसे आपको दिखा सकता हूँ, लेकिन वह इतनी सुबह यहाँ कदापि नहीं आती। यह वाटिका, जनाब, हमारे लिए आनंदप्रदायक ही नहीं, हमारा समूचा जीवन है। यह ही बीते समय का सारा कुछ स्मृतिशेष है। ऐसा लगता है कि यह हमें नहीं मिलती तो हम नहीं बचते। यह पुरातन और विशिष्ट, है न? यहाँ मेरी साँसों में ऐसी हवा बहती है, जो किशोरावस्था से अभी तक नहीं बदली। मेरी पत्नी और मैं हर अपराह्न यहाँ से गुजरते हैं। लेकिन मैं हर सुबह यहाँ फिर आता हूँ, क्योंकि अलफजर नींद खुल जाती है।

‘‘लंच के बाद मैं पुनः लग्जम्बर्ग चला आया, जहाँ पल बीते अपने मित्र को चीन्ह लिया, जो पूरे शिष्टाचार के साथ स्याह परिधान पहनी किसी नाटी वयोवृद्ध स्त्री के कंधे पर हाथ रख उसे आगे लिये चल रहा था, जिससे मेरा परिचय कराया गया। वह ला केस्त्रिस थी, महान् नर्तकी, राजकुमारों की चहेती, बादशाह की मनपसंद, उस बहादुर शताब्दी की चहेती कि जो संसार में प्रेम की महक फैला गई।

‘‘हम लोग किसी बेंच पर जा बैठे। वह मई का महीना था। सारे साफ-सुथरे रास्तों में फूलों की महक फैली हुई थी; पत्तियों के बीच से निकल दिलखुश धूप हमारे ऊपर प्रकाश के बड़े-बड़े चकत्ते बिछा केस्त्रिस की समूची स्याह पोशाक को जगमग झलका रही थी।

‘‘पूरी बगिया सूनी थी। दूर से आ रही गाडि़यों की गड़गड़ाहट कानों में पड़ रही थी।

‘‘जरा मुझे समझाएँगे, मैंने वयोवृद्ध डांसिंग मास्टर से पूछा, ‘मिन्यूएत (तीन ताल में मंद शालीन नृत्य) किसे कहते हैं?’’

‘‘वह चकरा गया। जनाब, मिन्यूएत नृत्यों की रानी है या कहें कि रानियों का नृत्य है, समझे?अब चूँकि राजा नहीं रहे, अतः मिन्यूएत भी नहीं है।’’

‘‘उसने बड़ी शानदार शैली में लंबी सी आवेश भरी प्रशस्ति आरंभ की, जिसका लेशमात्र मेरे जेहन में नहीं उतरा। मैंने चाहा, वह मुझे सारी गतिविधियाँ, सारे ठवन, थाप आदि बताए। वह अपनी बची-खुची ताकत के साथ सक्रिय हुआ। पहले उत्तेजित हुआ, फिर व्याकुल, तत्पश्चात् विकल और फिर क्लांत। पल बीते, सहसा अपनी उमरया़फ्ता धीर-गंभीर बनी हुई संगिनी की जानिब घूमकर बोला, ‘एलिस, क्या तुम, मैं पूछ रहा हूँ, क्या तुम मेहरबानी कर इन जनाब को बतला सकती हो, वास्तव में मेन्यूएत क्या है?’

‘‘उसने अपनी अशांत आँखें चहुँदिश घुमाईं। फिर खड़ी हो निर्वाक् साथी के सामने स्वयं को जमाया।

‘‘अब मैंने जो देखा, उसे कदापि नहीं भूल सकता।

‘‘वे बच्चों सी मूढ़ता के साथ आगे-पीछे होते हुए मुसकरा-मुसकरा सिर नवा ऐसी दो प्राचीन कठपुतलियों समान संतुलन रख उछले, जैसी किसी निपुण कारीगर द्वारा अपने दिनों प्रचलित रिवाज का अनुकरण करते हुए अरसा पहले किसी घिसी-पिटी पुरातन यांत्रिकी के जरिए नाचने हेतु बनी हुई होगी।

‘‘मैं उन्हें फटी आँखों से देखता गया, मेरा हृदय असाधारण संवेदनाओं के साथ धड़कने लगा। मेरी चेतना किसी अनिर्वचनीय विषाद से सिहर उठी। नजरों के आगे कोई शोचनीय कॉमिक दिव्यदर्शन, बीती सदी की झलकती फिर मिटती कोई छवि उभरी। हँसने की इच्छा हुई, जबकि मैं रोने लगा।

‘‘फिर थमकर उन्होंने नृत्य की भंगिमा उतार फेंकी। कतिपय क्षण एक-दूसरे के समक्ष खींसें निकालते अत्यंत चकित ढंग से खड़े रहे; फिर सिसकते हुए परस्पर आलिंगनबद्ध हुए।

‘‘मैं तीन दिन बाद नगर से बाहर देहात में चला गया। मैंने फिर उन्हें दोबारा कभी नहीं देखा। दो वर्ष उपरांत पेरिस लौटने पर क्या देखता हूँ कि वाटिका नष्ट कर दी गई थी। भूल-भुलैयाओं से भरे, पुरातन वक्त की महक उभारते और आलीशान चिराबेलों से आच्छादित प्यारी वाटिका के बगैर वयोवृद्ध युगल का क्या हुआ होगा? क्या वे मर गए? क्या वे आधुनिक गलियों में आशाविहीन निष्कासितों के समान भटक रहे हैं? क्या वे कहीं-न-कहीं अपने अद्भुत नजारे, यानी अनोखे मेन्यूएत कब्रिस्तान के सरू वृक्षों के बीच या समाधियों के पीछे बनी पगडंडियों में चाँदनी के प्रकाश में पेश कर रहे हैं?

‘‘स्मृति मेरे दिमाग में मँडराती हुई मुझे सताती, तार-तार करती है। वह किसी जख्म की मानिंद मुझसे चिपक गई है। क्यों?नहीं मालूम।

आपको शायद यह हास्यास्पद लगता होगा।’’

२८२, रोहित नगर (प्रथम)

गुलमोहर, भोपाल-४६२०३९

दूरभाष : ०९९८१०१४१५७

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