अग्निसंभवा

अग्निसंभवा

द्रौपदी यज्ञ-अग्नि से जनमी थी, धृष्टद्युम्न भी यज्ञ-अग्नि से ही जनमा था। आग से लपट भी जनमती है और धुआँ भी। दोनों ही बलखाते हुए ऊर्ध्वोन्मुखी होते हैं। धुआँ एक क्षण के लिए आँखों में कड़वाहट छोड़कर हवा के झोंकों से तार-तार हो जाता है, बिला जाता है। लपट बुझ जाने के बाद भी अपनी तेजस्विता, उसकी आँच की आहट, एक अंदाज परिवेश में छोड़ जाती है। मरे हुए द्रोण को मारने के अतिरिक्त धृष्टद्युम्न की कोई उल्लेख्य भूमिका नहीं मिलती। द्रौपदी की आद्योपांत विशिष्ट भूमिका है। अस्तु द्रौपदी का यह पुनीत स्मरण।

राजा कुशध्वज और महारानी मालवती की कन्या थी वेदवती। संतान के लिए तपस्यारत कुशध्वज की रानी को लक्ष्मी ही अवतरित हुई। जनमते ही उसने वेदपाठ शुरू कर दिया था। इस कारण वह वेदवती हुई! वह भी द्वैपायन व्यास पुत्र शुकदेव की भाँति जनमते ही तपस्या करने चली जाती है।

तपस्यारत वेदवती के रूप-सौंदर्य पर आकाशमार्ग से जाता रावण आसक्त हो गया। उसने वेदवती से बलात्कार करने की चेष्टा की, वेदवती ने अपनी तपस्या के बल पर उसे स्तंभित कर दिया। जड़ हो जाने के बाद रावण गिड़गिड़ाने लगा। वेदवती ने दयार्द्र होकर उसे मुक्त कर दिया। ‘‘तुझे सपरिवार समाप्त करने के लिए मुझे पुनः जनमना होगा, तेरे स्पर्श से अपवित्र हुआ यह शरीर अब धारण करने योग्य नहीं रहा।’’ इतना कहकर वेदवती ने शरीर को यज्ञ-अग्नि के हवाले कर दिया।

स्वर्ण-मृग प्रकरण के पूर्व राम ने सीता से कहा, ‘‘अब तुम निशिचर-कुल-संहार तक पावक में प्रवेश करो और अपनी छाया छोड़ दो। मैं नरलीला करूँगा।’’ सीता अग्नि-प्रवेश कर जाती हैं और छाया सीता को छोड़ जाती है। यह छाया-सीता ही वेदवती बनी। रावण ने वस्तुतः छाया-सीता का ही अपहरण किया था और वह परिवार सहित उसके विनाश की हेतु थी। रावणवध के उपरांत सीता की अग्नि-परीक्षा हुई। अग्नि में छाया-सीता ने ही प्रवेश किया था और वास्तविक सीता अग्नि से बाहर आई थीं। राम ने छाया-सीता को आश्वासन दिया था, ‘‘तुम अनंत में प्रतीक्षा करो। कृष्णावतार में तुमसे भेंट होगी।’’ यही अग्नि-समर्पिता छाया-सीता पुनः यज्ञ-अग्नि से कृष्णावतार में द्रौपदी के रूप में जनमी। छाया-सीता निशिचर-कुल-संहार की हेतु बनी और द्रौपदी क्षत्रियों अर्थात् शक्ति-मद में चूर मदांध शासक अथवा यह कहें कि राजन्यवर्ग के विनाश का कारण बनी। काश! गत इकतीस (अब अड़तालीस) वर्षों से देश की छाती पर सवार शक्ति-मद-चूर मदांध राजन्य वर्ग के विनाश हेतु कोई परशुराम जनमता। कोई छाया-सीता अथवा द्रौपदी जनमती।

द्रोणाचार्य के हाथों अपमानित और अर्जुन द्वारा पराजित प्रतिकार-प्रेरित द्रुपद ने ऐसा यज्ञ करना चाहा, जिससे उनके अपमान एवं पराजय का समुचित प्रतिकार हो सके। उन्होंने ऋषि उपयाज से निवेदन किया कि वे उनका यज्ञ संपन्न करा दें। ‘‘राजन, तुम्हारे यज्ञ का उद्देश्य प्रतिहिंसा-प्रतिकार अथवा प्रतिशोध प्रेरित है, पूत उद्देश्य के अभाव में मैं इस यज्ञ को संपन्न कराने में आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। हाँ, मेरे अग्रज, जिनको मैंने एक बार धरती पर पड़ा फल उठाकर खाते देखा था, उनकी दृष्टि में पवित्र-अपवित्र का कोई परहेज नहीं है। इस विवेक के अभाव में और धन के लोभ में वे अकरणीय भी कर सकते हैं।’’ साध्य एवं साधन की पवित्रता अन्योन्याश्रित है। अपवित्र साध्य का साधन पवित्र हो ही नहीं सकता और अपवित्र साधन से किसी पूत-साध्य की परिकल्पना भी संभव नहीं॒है।

प्रतिहिंसा से सुलगते हुए द्रुपद उपयाज के पास गए, यज्ञ संपन्न हुआ। यज्ञ से कृष्णवर्णा कृष्णा जनमी। उसी यज्ञ से धनुष, बाण एवं कृपाण से सज्जित धृष्टद्युम्न भी जनमा।

डॉ. राम मनोहर लोहिया इस परिकल्पना मात्र से आनंदविभोर हो जाते हैं कि एक साँवली लड़की को इतना सुंदर माना गया कि उसके स्वयंवर में सुर-नर-मुनि, गंधर्वों ने उसको पाने की ललक से शिरकत॒की।

द्रौपदी ने कर्ण को महज इसलिए मना किया कि वह सूत-पुत्र था, ऊँच-नीच की वर्ण-व्यवस्था की अस्वस्थ मानसिकता से आक्रांत पांचाली की यह एक भयंकर भूल थी। द्रौपदी को, जो कुछ भुगतना पड़ा, वह वस्तुतः उसका प्रायश्चित्त था। राजसूय यज्ञ में दुर्योधन का उपहास और ऐसा उपहास कि जिसमें बात धृतराष्ट्र तक पहुँचती थी, जो उसके श्वसुर थे, मर्यादा के विपरीत था, जिसका खामियाजा द्रौपदी को देना पड़ा।

द्रौपदी के स्वप्नपुरुष सव्यसाचिन अर्जुन ने मत्स्यवेध किया। अर्जुन का प्रकीर्ण पौरुष-मंडित व्यक्तित्व ही कृष्ण का प्राप्तव्य था, उसका कल्पनापुरुष ही उसे मिला था। परंतु नियति को शायद यह स्वीकार्य नहीं था। पाँचों भाई घर पहुँचे, माँ कुंती भीतर थी, उन्होंने आवाज दी, ‘‘माँ, देख आज हम एक नई भिक्षा ले आए हैं।’’ ‘‘आपस में बाँट लो।’’ बिना देखे माँ ने अनर्थकारी आदेश दिया। तथाकथित मातृभक्त बेटों ने जायदाद की तरह द्रौपदी को बाँट लिया। रीढ़हीन युधिष्ठिर, वृकोदर भीम, व्यक्तित्वहीन नकुल और सहदेव द्रौपदी पर थोप दिए गए। उन्होंने द्रौपदी की देह को झँझोड़ा होगा, क्या कभी वे द्रौपदी के मन को भी पा सके होंगे? कैसे थे वे बेटे? कैसी थी वह माँ? कैसी थी वह द्रौपदी? और कैसा था वह अर्जुन? वह तो अर्जुन के पराक्रम का अर्जन थी और अन्य पांडव केवल उस अर्जन का टुकड़ा तोड़ रहे थे। सूर्य, धर्म, इंद्र और वायु के बीच जायदाद की भाँति बँटी, रुग्ण पांडु की पत्नी ने क्या स्वयं पर थोपी गई नियति का प्रतिशोध लिया था? क्या द्रौपदी भिक्षा थी? नारी के प्रति किए गए अन्याय ग्रंथ में हमारी संस्कृति का यह सर्वाधिक काला पन्ना है। काठ की हाँड़ी बार-बार आग पर चढ़ाई गई। आश्चर्य है कि नारी पर किए गए इस अन्याय का माध्यम भी एक नारी ही बनी। यह उस देश में संभव हुआ, जो गौरव से ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ घोषित करता है। भोजपुरी के महाकवि पं. चंद्रशेखर मिश्र के शब्दों में कहें तो द्रौपदी स्वयं कहती है, ‘‘ई मछरी मारे गए रहें, पाय गए मेहरारू तो मेहरारू की कदर का जानें?’’

राजसूय यज्ञ में अपमानित दुर्योधन ने द्यूत में धर्मराज को आमंत्रित किया, छल से शकुनि के द्वारा उसने पांडवों का सबकुछ अपहरण कर लिया। दुर्बुद्धि-ग्रस्त धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदी को भी दाँव पर लगाकर॒हार॒गए।

भरी सभा में द्रौपदी को विवस्त्र करने का आदेश दिया गया। दुःशासन एकवस्त्र रजस्वला कृष्णा को राजसूय यज्ञ में अवभृथ-स्नान से पवित्र केशों से पकड़कर घसीटता हुआ सभा में ले आया। द्रौपदी की, स्वयंवर सभा में उसके द्वारा अपमानित प्रतिशोध की आग में झुलसते कर्ण ने दुःशासन को खूब बढ़ावा दिया। उसने दुर्योधन के इस क्रूरकर्म का समर्थन किया। द्रौपदी के अकाट्य तर्कों का धृतराष्ट्र, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य समेत संपूर्ण सभा में किसी के पास कोई उत्तर न था। द्रौपदी के वैदुष्य की पैनी धार, उसकी तेजस्विता में, प्रखरता में देखने को मिलती है। द्रौपदी के व्यक्तित्व के इस पक्ष को डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने खूब सराहा है, जिसकी लाठी उसकी भैंस।

उसके तर्क को अनसुना कर दिया गया। महापराक्रमी पांडव क्लीव की भाँति पत्नी की दुर्दशा देखते रहे। सभी निरुपाय-असहाय दर्शक बने रहे, यहाँ तक कि धनुर्धर अर्जुन भी। द्रौपदी को कैसा लगा होगा, इसका अनुमान करना भी अत्यंत त्रासद है। भीम ने धर्मराज युधिष्ठिर के हाथ जला देने की बात कही, उन्हें अर्जुन ने मना किया। प्रतिहिंसा और अपमान से धधकती हुई पांचाली ने प्रतिज्ञा की, ‘‘यह खुली हुई वेणी दुःशासन के रक्त से अभिसिंचित होने के उपरांत ही संयमित होगी।’’ इस प्रण का स्मरण आते ही महान् राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ चाणक्य स्मृति-पटल पर तिर आते हैं, जिनकी शिखा पकड़कर महापद्मनंद की राज्यसभा में घसीटा गया था। अपमान से तिलमिलाते चाणक्य ने प्रण किया था, ‘‘जब तक महापद्मनंद का साम्राज्य ध्वस्त नहीं कर दूँगा, यह शिखा खुली ही रहेगी, इसमें गाँठ नहीं लगेगी।’’ एक नपुंसक आक्रोश-अमर्ष से दहकते वृकोदर भीम ने प्रतिज्ञा की, ‘‘मैं दुःशासन के उत्तम लहू से पांचाली की वेणी का अभिसिंचन करूँगा। जिस जाँघ को उघारकर पांचाली को दिखलाते हुए दुर्योधन ने अश्लील संकेत दिए थे, मैं उस जाँघ को तोड़ दूँगा।’’ ये प्रतिज्ञाएँ ऐसे चेक थे, जिनका कहीं तुरंत भुगतान नहीं हो सकता था, उनसे पांचाली को तात्कालिक किसी भी अपेक्षा की पूर्ति संभव न थी। अंततः कृष्णा के सखा कृष्ण ही काम आए। उनका वस्त्रावतरण हुआ। दुःशासन हारकर, थककर बैठ गया।

सौराष्ट्र का लोक-कथाकार द्रौपदी को गोपियों के मध्य ब्रज में एक नन्ही गोप बिटिया के रूप में खेलती देखता है। लोक-रचनाकार के समक्ष किसी तर्क की वर्जना अथवा निषेध नहीं है। वह तो रस का कायल है। जैसे रस बने, उसका रसाग्रही मन अपने अनुकूल घटनाओं को देखता अथवा गढ़ता है। मुरली को कृष्ण प्राथमिकता देते हैं। राधा मुरली से जली-भुनी जा रही है, वह कृष्ण से पूछती है, ‘‘क्या यह बाँसुरी तुम्हें मुझसे अधिक प्रिय है?’’ कृष्ण राधा को चिढ़ाने की मंशा से कहते हैं, ‘‘हाँ, है तो क्यों?’’ बस, राधा बिगड़ गई, बाँसुरी छीन ली, वही बाँसुरी कृष्ण पर दे मारी। कृष्ण की दाहिनी कलाई पर खरोंच आ गई, खून चुचुआ आया, द्रौपदी ने तुरंत अपनी नई ओढ़नी चीरकर कृष्ण की कलाई पर पट्टी बाँध दी... ‘अरे! यह क्या? तुमने अपनी नई ओढ़नी चीर दी?’ ‘यह ओढ़नी तुमसे बढ़कर तो नहीं है।’ कृष्णा का स्नेह स्निग्ध उत्तर, ‘तो यही पट्टी मुझ पर कर्ज रही।’ कृष्ण ने आश्वासन दिया। उस समय आश्वासन का कोई अर्थ द्रौपदी की समझ में नहीं आया होगा। वस्त्रावतरण के अवसर पर वस्तुतः कृष्ण ने उसी ऋण की अदायगी की थी।

पाय अनुशासन, दुशासन कै कोपि धाए,
द्रुपद सुता की गहे चीर, भीर भारी है।
भीष्म करण द्रोण बैठे तहँ धनुधारी,
कामिनी की ओर काहू नेकु ना निहारी है॥
सुनत पुकार धाए द्वारिका. ते यदुराई,
बढ़त दुकूल खैंचे भुजबल हारी है।
नारी बिच सारी है कि सारी बिच नारी है,
नारी ही की सारी है कि सारी ही की नारी है॥
सुंदर, सफेद, सब्ज, बैंजनी, हरेरी, पेरी,
टेरी, बहुतेरी कछु गनवे में न आए हैं।
खाकी, मुलतानी औ’ पियाजी, जाफरानी बहु,
धानी, आसमानी, आसमान लगि छाए हैं॥
लाल, गुलेबासी, गलेनारी औ’ गुलाबी पट,
फालसाही काही औ’ बादामी दरसाए हैं।
द्रौपदी के काज ब्रजराज ह्वै बजाज मानो,
लाद के जहाज पै द्वारिका ते लाए हैं॥

द्रौपदी और कृष्ण नारी और पुरुष के परस्पर संबंधों में रस का एक नया धरातल स्थापित करते हैं। यह रिश्ता पति-पत्नी का नहीं है, यह रिश्ता प्रणयी और प्रणयिनी का नहीं है। यह रिश्ता साली और जीजा का नहीं है, यह रिश्ता देवर और भावज का नहीं है। यह रिश्ता तथाकथित मित्रता ‘टा-टा’ और ‘बाई-बाई’ का नहीं है, यह रिश्ता सखा और सखी का है, जिसमें ये सारे रिश्ते समाहित हैं और जो इन सब से परे भी है। द्रौपदी अर्जुन से भी वह नहीं कह पाती, जो वह निस्संकोच कृष्ण से कह लेती है।

द्यूत में अंतिम बाजी हारने के बाद, पांडव द्रौपदी सहित बारह वर्ष तक वनवास में रहे थे। एक वर्ष तक उन लोगों ने गुप्तवास किया। वन में कृष्ण पांडवों से मिलने आए। द्रौपदी ने उन्हें अपनी दुखगाथा सुनाई। कृष्ण ने सखी द्रौपदी को सांत्वना दी। वे सुभद्रा और अभिमन्यु को लेकर द्वारिका चले गए। धृष्टद्युम्न द्रौपदी के बेटों को पांचाल ले गया। सुभद्रा ने भले ही वनवास में साथ छोड़ दिया हो, परंतु द्रौपदी बराबर पति के साथ रहकर अपने पे्रम का बडे़-से-बड़ा मूल्य देती रही।

वनवास के दिनों में सिंधुनरेश वृहद्रथ का पुत्र जयद्रथ शाल्व देश जा रहा था। उसकी दृष्टि कृष्णा पर पड़ी, वह उस पर आसक्त हो गया। उसने द्रौपदी का बलात् अपहरण कर लिया। संयोग से, समय रहते पांडव आखेट से लौट आए, भीम ने ललकारकर जयद्रथ को पकड़ लिया, वे निश्चय ही उसका वध कर देते। यहाँ द्रौपदी का सर्वथा एक नया स्वरूप दीख पड़ा। वह अत्यंत क्षमामयी है। दुर्योधन की बहन दुःशला जयद्रथ को ब्याही है। इस कारण वह दयार्द्र होकर जयद्रथ को क्षमा कर देती है। जिस दुर्योधन ने उसे भरी सभा में अपमानित किया था, जिस दुःशासन ने उसे सरेआम विवस्त्र कर देने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी, उनकी बहन विधवा न हो जाए, इसलिए वह जयद्रथ को क्षमा कर देती है। सामान्यतः उसे दुःशासन से क्यों सहानुभूति हो, तथापि...

गुप्तवास के दिनों में वह विराट के राजमहल में उसकी रानी सुदेष्णा की दासी सखी सौरंध्री के रूप में कालयापन कर रही थी। उस पर विराट के सेनापति और सुदेष्णा के भाई कीचक की लुब्धक दृष्टि पड़ी। उसने भी पांचाली के साथ बलात्कार करना चाहा, पूर्णकाम न होने पर विराट की राजसभा में सरेआम कीचक ने द्रौपदी का केश पकड़कर पटक दिया। यही नहीं, उसने पद-प्रहार भी किया। भले ही भीम ने कालांतर में कीचक, दुःशासन और दुर्योधन का वध करके द्रौपदी के अपमान का प्रतिकार किया, परंतु ‘क्या वर्षा जब कृषी सुखानी।’ उस समय तो नितांत निरुपाय और असहाय स्थिति में अकेली ही उस अबला को वह अपमान झेलना पड़ा। विराट की सभा में भी पांचाली का वैदुष्य देखने लायक है। उसकी तेजस्विता, उसकी प्रखरता तनिक भी मलिन नहीं होती।

वनवास की अवधि-समाप्ति पर शांति-संधि का प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास जाते शांतिदूत कृष्ण को वह फिर अपने बिखरे केश दिखलाती है। वह अभी अपना अपमान भूल नहीं पाई है। उसे आश्वस्त करने के बाद ही कृष्ण कौरवों के यहाँ जा पाते हैं।

भीष्म पितामह ने पाँचों पांडवों समेत पांडव पक्ष के समस्त सैनिकों के वध की भीषण प्रतिज्ञा कर ली। बड़ी टेढ़ी खीर थी। पांडवों के हाथ-पाँव फूल गए। वे कृष्ण के पास गए। उन्हें कृष्ण ने टका सा उत्तर दे दिया। मगर जब द्रौपदी कृष्ण तक गई, वे उसे जवाब नहीं दे पाए। कृष्ण के सुझाव पर ही द्रौपदी भीष्म तक जाती है और सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद प्राप्त करती है। दुर्योधन की पत्नी के धोखे में भीष्म उसे आशीर्वाद दे बैठते हैं। वे कृष्ण से उनकी प्रतिज्ञा तुड़वाने का वचन लेते हैं कि कल रणक्षेत्र में वे अपनी प्रतिज्ञा के प्रतिकूल अस्त्र उठा लेंगे। इसके एवज में भीष्म की प्रतिज्ञा भी शिथिल होती है, यही नहीं, वे अपनी मृत्यु का उपाय भी बतलाते हैं। अद्भुत है प्रेम की गति। यह सब कुछ अत्यंत गोपनीय ढंग से होना था। द्रौपदी पंचनदीय जूती पहने हुए थी, जिसके कारण वह दूर से पहचानी जा सकती थी। कृष्ण ने जूतियाँ भी उतरवा ली थीं, उन्हें उत्तरीय में लपेटकर कृष्ण ने अपनी बगल में दबा लिया और इसी प्रकार वे द्रौपदी को लेकर भीष्म तक गए थे।

दुर्योधन की जाँघ तोड़कर दुःशासन के हृदय का उत्तप्त रुधिर पान कर, उससे कृष्णा-वेणी का सिंचन कर भीम ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन और कृष्णा के अपमान का प्रतिकार किया। गुरु दोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने रात में पांडव शिविर में आग लगा दी, द्रौपदी के सोते हुए पाँचों बेटों के सर काट लिये। कृष्णा निपूती हो गई। अर्जुन अश्वत्थामा को बंदी बनाकर पांचाली के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। द्रौपदी के भीतर की क्षमामयी करवट लेकर उठ बैठती है। द्रौपदी पाँचों बेटों के हत्यारे गुरुपुत्र अश्वत्थामा को इसलिए क्षमा कर देती है कि उसके मारे जाने से गुरुपत्नी देवी कृपी भी उसी की भाँति निपूती होकर रोएगी। उसने कहा भी ‘इनके मार दिए जाने से भी मेरे पुत्र तो वापस आएँगे नहीं!’

पांचाली दुःशासन के गरम लहू से अपनी खुली वेणी के अभिसिंचन की भयंकर प्रतिज्ञा करनेवाली चरम सीमा की प्रतिहिंसामयी; पांचाली, जयद्रथ और अश्वत्थामा को क्षमा कर देनेवाली चरम सीमा की क्षमामयी।

युद्ध की उपलब्धियों से कुंठित, वनवास को उद्यत धर्मराज महाराज युधिष्ठिर को वह अपने उद्बोधन से पुनः कर्तव्यरत करती है। वह सुभद्रा, उलूपी, चित्रांगदा जैसी सहपत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक मान्यता देती है, क्योंकि वह परंतप पार्थ को चाहती है। अंत में जब वह पांडवों के साथ हिमालय जाती है तो सर्वप्रथम गलकर गिरती है, क्योंकि वह तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर को नहीं चाह सकी, क्योंकि वह स्थूलकाय वृकोदर भीम को भी नहीं चाह पाई, क्योंकि वह केंचुए व्यक्तित्व वाले नकुल और सहदेव को भी नहीं चाह पाई, क्योंकि उसने महापराक्रमी सव्यसाची को प्राणपण से, हृदय से, अतल तल से चाहा। इस कारण भले ही उसे पाप की भागिनी बतलाया गया हो, भले ही उसे सबसे पहले गलकर गिरना पड़ा हो, लेकिन इसीलिए वह मेरे लिए पूज्या है, प्रिय है। माता की आज्ञा के तहत भले ही अन्य चार पांडव उसका तन पा गए हों, मगर वे उसके मन में कहीं जगह नहीं बना सके। वह अहल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती और मंदोदरी प्रातः स्मरणीय पंचकन्याओं में सर्वाधिक जीवंत, प्राणवान और वरेण्य है।

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