चंपारण-सत्याग्रह की लोकगीतों में अभिव्यंजना

चंपारण-सत्याग्रह की लोकगीतों में अभिव्यंजना

लोकगीत जनमानस के ऐसे भावाभिव्यंजक काव्यात्मक रूप होते हैं, जिनमें युगीन संदर्भों, प्रसंगों, घटनाओं और व्यक्तियों से जुड़ी आम जनमानस की प्रतिक्रियाएँ समाहित रहती हैं। भारतीय इतिहास-लेखन की परंपरा में लोक-साहित्य को पूर्व में कुछ खास महत्त्व नहीं मिल पा रहा था। तथ्य और प्रसंग, चाहे उपनिवेशवादी इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे हों या राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा, मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा विश्लेषित हो रहे हों या सबार्ल्टन शाखा के इतिहासकारों द्वारा, लोक-साहित्य और लोकगीतों पर इन इतिहासकारों की दृष्टि प्रायः कम ही जाती थी। किंतु इधर हाल में इतिहासकारों के एक वर्ग की यह धारणा बनी है कि लोक-गीतों, लोक-परंपराओं, लोक-कथाओं और लोक-संस्कृति के मौलिक अध्ययन के माध्यम से भारतीय इतिहास के अनेकशः भूले-बिसरे प्रसंगों और उनसे जुड़े विविध तथ्यों की समुचित प्रस्तुति संभव हो सकती है।

भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के विभिन्न प्रसंगों का सार्थक अध्ययन इसके बहुआयामी पक्षों को नए संदर्भों में विवेचित-विश्लेषित करने की दृष्टि से काफी समीचीन होगा। हिंदी समीक्षक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कथन है, ‘‘लोक की वेदना लोक की भाषा में ही ठीक-ठीक व्यक्त होती है। उसी में सुनाई पड़ती है जीवन की प्राकृत लय और उसकी भीतरी धड़कन। मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति का, उसके संपूर्ण रूप का अंतरंग साक्षात्कार लोक-भाषाओं में ही होता है।’’ डॉ. तिवारी का यह वक्तव्य इस सत्य को और अधिक प्रच्छन्न बनाता है कि लोक-साहित्य या लोक-गीत युग की धड़कनों के साथ-साथ, तत्कालीन मानवीय संघर्ष और वेदनाओं को भी समझने-बूझने और विचारने के बेहतर जरिया हो सकते हैं। दरअसल, लोक-गीतों के रचयिता किसी खास सामाजिक-राजनीतिक चेतना या संगठनों से जुड़े न होकर, मानव मात्र की वेदना का अविकल गान प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि लोकगीत संवेदना, सच्चाई, मार्मिकता और तथ्यपरकता के निकष पर अनगढ़ होते हुए भी प्राकृत सौंदर्य-चेतना से परिपूर्ण होते हैं। इसीलिए लोक गीतों में मनुष्य की संघर्षशीलता, उसकी जिजीविषा, अपनी मिट्टी और प्रकृति के साथ उसकी आत्मीयता तथा देश-दुर्दशा पर प्रकट हुई उसकी वेदना सबकुछ का समाहार देखने को मिलता है।

भारतीय स्वतंत्रता-आंदोलन में मोहनदास करमचंद गांधी का प्रवेश दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद जिस आंदोलन के जरिए होता है, उसे भारतीय इतिहास में ‘चंपारण सत्याग्रह’ के नाम से जाना जाता है। कांग्रेस पार्टी के लखनऊ राष्ट्रीय अधिवेशन में श्री राजकुमार शुक्ल के माध्यम से कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं एवं गांधीजी ने चंपारण के किसानों की व्यथा सुनी थी। ‘नील के धब्बों’ और ‘तीनकठिया’ प्रथा से पीडि़त चंपारण के किसानों की सुधि लेने के लिए गांधीजी अंततः चंपारण पहुँचे थे। राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को जो पत्र भेजा था, उसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं—

किस्सा सुनते हो रोज औरों के

आज मेरी भी दास्तान सुनो।

वस्तुतः उर्दू के इस शेर से गांधीजी निश्चय ही संवेदना के स्तर पर अत्यंत झंकृत हुए होंगे। अपनी बातों और व्यथाओं को चित्रित करने के लिए काव्यात्मक पंक्तियों की उपयोगिता तब भी कितनी ज्यादा महसूस की जाती थी, शुक्लजी की ‘पाती’ के इस शेर से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

गांधीजी १५ अप्रैल, १९१७ को मोतिहारी पहुँच सीधे अपने अभियान में लग गए थे। गांधी ने नीलहों के अत्याचार से चंपारण के किसानों को बचाने का जो बीड़ा उठाया, उसकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उन्होंने यहाँ सत्य और अहिंसा के अपने प्रयोग को अपनी नैतिकता के बल पर पूरी तरह सफल सिद्ध किया। इस आंदोलन का सबसे बड़ा नतीजा यह निकला कि चंपारण के किसान ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीयों के मन-मानस में निर्भयता समाहित हो गई। गांधीजी ने चंपारण में वर्षों से अन्याय से जूझ रही आम जनता को मुक्ति दिलाई।

गांधीजी के चंपारण-आंदोलन की यह सर्वग्राह्यता ही थी कि यह आंदोलन कांग्रेसी नेताओं की संलग्नता के बावजूद सिर्फ कांग्रेस का आंदोलन बनकर नहीं रह गया, बल्कि गांधी ने इसमें काफी संख्या में किसानों, जमींदारों, मजदूरों को जोड़ने में सफलता हासिल कर ली। यह आंदोलन चंपारण से शुरू हुआ और वहीं की स्थानीय समस्याओं से ही संदर्भित भी था, किंतु इसकी टंकार पूरे भारतवर्ष में गई। आंदोलन पूरी तरह गांधी के सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चला, चूँकि सत्याग्रह इसका प्राण-तत्त्व था। चंपारण-आंदोलन कई अर्थों में अन्यतम रहा। इसमें न तो लाठियाँ चमकीं, न गोलियाँ चलीं, न किसी को लंबी जेल-यातना झेलनी पड़ी, न अनशन, न हड़ताल, न उग्र आंदोलन, न चंदा हुआ, न कोई अपव्यय। गांधीजी ने चंपारण में दस महीने के आंदोलन का हिसाब कराया—खर्च हुए सिर्फ बाइस सौ रुपए। स्पष्ट है, चंपारण-आंदोलन कई रूपों में अद्भुत रहा। यह भारत के राष्ट्रीय आंदोलन और ब्रिटिश उपनिवेश की विदाई के प्रथम प्रयोग के रूप में ही याद नहीं किया जाएगा, बल्कि इस आंदोलन के माध्यम से गांधी एक सभ्यतागत विकल्प का भी संधान कर रहे थे। गांधी का चंपारण-आगमन एक युगांतकारी घटना थी, जो एक ओर गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग की विलक्षणता को उद्घाटित कर रही थी, तो दूसरी ओर एक जीवंत बिहारी समाज की प्रतिरोध-शक्ति के उभरने तथा गांधी की ईमानदारी, निष्ठा और समझदारी के प्रति आम जनमानस की पूरी आस्था और समर्पणशीलता को प्रतीकित कर रही थी। गांधी ने चंपारण में वर्षों से अन्याय से जूझ रही जनता को मुक्ति दिलाई। दरअसल यह पूरा आंदोलन जातिभेद, संप्रदाय, धर्म आदि सभी दीवारों को तोड़कर समाज के गरीब, निर्बल, मजदूर, मेहनतकश, किसान, शिक्षित, निरक्षर तबकों को साथ लेकर आगे बढ़ा।

चंपारण-आंदोलन की प्रतिच्छाया बिहार की सभी लोक-भाषाओं, यथा—भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका आदि के लोक-गीतों में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता के साथ देखने को मिलती है। १८५७ का स्वतंत्रता-महासंग्राम, जिसके महानायक मंगल पांडेय और वीर कुँवर सिंह थे, की वीरता का बखान तो भोजपुरी आदि लोकगीतों में प्रमुखता से हुआ ही है, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘चंपारण सत्याग्रह’, ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नमक सत्याग्रह’, ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ आदि की भी भोजपुरी आदि लोक-भाषाओं में बड़ी मार्मिक व्यंजना हुई है।

सन् १९१७ में ‘चंपारण-सत्याग्रह’ प्रारंभ हुआ। ग्राम-पकड़ी (चंपारण) के कवि शिवशरण पाठक ने तब एक बड़ा मार्मिक गीत लिखकर बेतिया राज के महाराज को सुनाया था, जो स्वयं एक सुकवि थे। इस गीत को सुनकर उन्हें नीलहों को खदेड़ने की प्रेरणा मिली थी। बेतिया महाराज अपने प्रयासों में यद्यपि सफल नहीं हो पाए थे, किंतु शिवशरणजी के गीत से नीलहों के विरुद्ध आंदोलन को जबरदस्त ताकत मिली थी। गीत की पंक्तियाँ हैं—

राम नाम भइल भोर गाँव लिलहा के भइले।

चँवर दहै सब धान गोंएडे लील बोअइले॥

भइ भैल आमील के राज प्रजा सब भइले दुःखी।

मिल-जुल लूटे गाँव गुमस्ता हो पटवारी सुखी॥

असामी नाँव पटवारी लिखे, गुमस्ता बतलावे।

सुजावलजी जपत करसु साहेब मारन धावे॥

थोरका जोते बहुत हेंगयावे तेपर ढेला थुरावे।

कातिक में तैयार करावे, फागुन में बोअवावे॥

जइसे लील दुपता होखे, वोइसे लगावे सोहनी।

मोरहन काटत थोर दुःख पावे, दोजी के दुःख दोबरी॥

एक उपद्रव रहले-रहल दोसर उपद्रव भारी।

सभे लोग से गाड़ी चलवावे सभे चलावे गाड़ी॥

ना बाचेला ढाठा पुअरा, ना बाचेला भूसे।

जेकरा से दुःख हाल कहीला से मारेला घूसे॥

होइ कोई जगत् में धरमी, लील के खेत छोड़ावे।

बड़ा दुःख बाम्हन के भइले दूनो साँझ कोडवावे॥

सभे लोग तो कहेला जे काहे ला दुःख सहऽ।

दोसरा के दुःख नाहीं छूटे, तऽ महाराज से कहऽ॥

महाराजजी परसन होइहें छनही में दुःख छूटी।

कालीजी जब किरपा करिहे, मुँह बयरी के टूटी॥

नाम बड़ाई गावत फिरब, रह जइहें अब कीरित।

कि गाँव लीलहा से छूटे, ना त मिले बीरित॥

‘चंपारण-आदोलन’ के दौरान किसानों पर ४६ प्रकार के टैक्स लगाए गए थे, जिनकी वजह से उनका जीना दूभर हो गया था। भोजपुरी के लोकगीत की इन पंक्तियों में जुल्मी टैक्स और कानूनों को रद्द करने हेतु लोकमानस की व्यग्रता पूरी तीव्रता में अभिव्यक्त हुई है—

स्वाधीनता हमनी के, नामो के रहल नाहीं।

अइसन कानून के बा जाल रे फिरंगिया॥

जुलुमी टिकस अउर कानूनवा के रद्द कइ दे।

भारत का दइ दे, सुराज रे फिरंगिया॥

मनोरंजन प्रसाद सिंह के एक गीत में बिहार में किसानों और आम जनता की दुःस्थिति का अत्यंत मार्मिक और यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है—

जहवां थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे

लाखो मन गल्ला और धान रे फिरंगिया!

उहें आज हाय रामा मथवा पर हाथ धरि

विलखि के रोवेला किसान रे फिरंगिया!

स्वतंत्रता-संग्राम में मोहनदास करमचंद गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र बाबू प्रभृति नेताओं के प्रवेश से भारतीय जनमानस उत्साहित हो गया था और जेल की यंत्रणा भी अब उसके लिए किसी कठिन चिंता का विषय नहीं रह गई थी। अपने इन नेताओं के पुरुषार्थ और मर्यादित नेतृत्व पर भारतीय जनता को अखंड विश्वास था। यह विश्वास एक भोजपुरी लोकगीत की इन पंक्तियों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर है—

गांधी के आइल जमाना हो, देवर जेलखाना अब गइले।

जब से तपे सरकार बहादुर, भारत मरे बिनु दाना,

हाथ हथकडि़या, गोड़वा में बेंडि़या, देसवा बनि हो गइल दिवाना

धरम राखि लेहु भारत भइया, चरखा चलावहु मस्ताना

गांधी जवाहर काम कइले मरदाना, देवर अब जेलखाना हो गइले॥

नीलहों के अत्याचार तथा ‘तीनकठिया’ प्रथा से मुक्ति के बाद गांधी ने और स्वावलंबन के सिद्धांतों को मूर्त रूप देते हुए चंपारण में कई शिक्षा-संस्थाएँ, लघु कुटीर उद्योग एवं खादी संस्थाएँ स्थापित कीं। ‘चरखा’ गांधीजी के स्वावलंबन के सिद्धांत का प्रतीक बन गया था। गांधीजी और उनके चरखे के प्रति लोकमानस में श्रद्धा का भाव शुरू से रहा है। लोकगीत की इन पंक्तियों में चरखे के चालू रहने में ही स्वराज का सपना फलीभूत होते दीखता है—

देखो टूटे न चरखा के तार, चरखवा चालू रहै।

गांधी महात्मा दूल्हा बने हैं, दुलहिन बनी सरकार,

सब रे वालंटियर बने बराती, नउवा बने थानेदार।

गांधी महात्मा नेग ला मचले, दहेजे में माँगैं सुराज,

ठाड़ी गवरमेंट बिनती सुनावै, जीजा गौने में देबै सुराज।

भोजपुरी कवि चंचरीक के एक ‘कजरी’ लोकगीत में भी गांधी का संदेश मानकर ‘चरखा’ के प्रति व्यक्त प्रतिबद्धता के स्वर सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुए हैं—

सावन भदऊवा बरसतवा के दिनवा रामा

हरि हरि बैठि के चरखवा कतबै रे हरि

अपने तऽ गांधी के हुकुमवा हम मनबै रे हरि

अपने नगरिया हम तऽ करबै हो सुरजवा राम

हरि हरि देसवा के अलखवा हम जगइबे रे हरि।

लोग गांधी की बात मानते हुए विदेशी कपड़े उतार फेंकने के लिए स्वतःस्फूर्त रूप से तैयार रहते थे। लोकगीत की इन पंक्तियों में लोकमानस की यह धारणा बखूबी चित्रित हुई है—

मानऽ गांधी के बचनवा दुखवा हो जइहें सपनवा

तन से उतार कपड़ा विदेसी, खद्दर के कइ ल धरनवा।

एक विवाह-गीत में गांधीजी एवं अन्य नेताओं की इंग्लैंड-यात्रा को ससुराल-यात्रा बताते हुए राष्ट्रीय भावना की अभिव्यंजना की गई है—

बान्हि के खद्दर के पगरिया, गांधी ससुररिया चलले ना

गांधी बाबा दुलहा बनले, नेहरू बनले सहबलिया,

भारतवासी बनले बराती, लंदन के नगरिया ना

गांधी ससुररिया चलले ना॥

एक चना बेचनेवाले के गीत में ‘सत्याग्रह-आंदोलन’ की मनोभावना को देखा-परखा जा सकता है—

चना जोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार चना जोर गरम।

चने को गांधीजी ने खाया

जा के डंडी नमक बनाया

सत्याग्रह संग्राम चलाया, चना जोर गरम।

‘सत्याग्रह-आंदोलन’ के क्रम में जेल गए एक सत्याग्रही के लिए उसकी धर्मपत्नी की चिंता इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है—

सत्याग्रह के लड़ाई, सईयाँ, जेहल गईले भाई,

रजऊ कइसे होईहें ना।

ओही जेहल के कोठरिया रजऊ कइसे होईहें ना।

गोड़वा में बेडि़या, हाथ पड़ली हथकडि़या

रजऊ कइसे चलिहें ना।

समासतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके ‘चंपारण-सत्याग्रह’ के संदेशों को आम जनमानस में उतारने में लोकगीतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इन लोकगीतों में तत्कालीन जनमानस की आकुलता, संघर्षशीलता, स्वतंत्रता की ललक और सुराज के लिए उत्साह इन सभी मनोभावनाओं की बड़ी मार्मिक व्यंजना हुई है। इन लोकगीतों के अध्ययन के जरिए ‘चंपारण-सत्याग्रह’ की पृष्ठभूमि, उसकी सफलता और संदेशों को समझने और मूल्यांकित करने में पर्याप्त मदद मिलती है।

जी-३, ऑफिसर्स फ्लैट, न्यू पुनाईचक

पटना-८०००२३

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