ताश का त्योहार

ताश का त्योहार

उसे कौन नहीं जानता है? वह शहर में ‘किराना किंग’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह उसका पुश्तैनी धंधा रहा है। ‘भगत राम भंडार’ से प्रारंभ कर अब पूरे महानगर में ‘बाबू स्टोर’ की भीड़ है। दरअसल भारत के सामाजिक ‘शासकीय’ जीवन में ‘बाबू’ का बड़ा महत्त्व है। इसी को रेखांकित करके उसके माँ-बाप ने उसका नामकरण ही बाबूराम किया था। कौन जाने, नाम के प्रभाव से ही यह बालक लिखाई-पढ़ाई कर सरकार में बाबू बन जाए और अग्रवाल परिवार का नाम रोशन करे? पर अकसर देखने में आया है कि आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ और है। अग्रवाल खानदान का यह चिराग भी नकल की महिमा से किसी प्रकार हाईस्कूल की वैतरणी पार कर दुकान पर आ जमा।

पैसा कमाने की उसमें जन्मजात प्रतिभा है। किराने की दुकान के अलावा उसने बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एजेंसी हथियाई। आस-पास के गाँवों में सस्ती जमीन खरीदी। गोदाम बनवाए। सूद पर पैसा उधार देने जैसे क्या-क्या करम नहीं किए। सरकारी बस्तियों में ‘बाबू स्टोर’ की स्थापना उसके दिमाग की कमाऊ उपज थी। कर्मचारियों को लगता कि सरकार ने उनके कल्याण के लिए यह किराने केंद्र खोले हैं। इनके रेट दूसरी दुकानों से कम होंगे। बाबूराम ने शुरुआत भी कुछ ऐसे ही की। कम मुनाफे की भरपाई अधिक बिक्री से हो जाती है। उसने दुकानों का प्रबंध भी सेवा-निवृत्त सरकारी मुलाजिमों को ही सौंपा। दुकानें चल निकलीं और उसका नाम भी। मिलावट के बावजूद वह शुद्धता और गुणवत्ता का मानक बन गया।

इतना ही नहीं, बड़े अफसरों के घरों में भी उसकी पहुँच होने लगी। वह ऐसों के घर में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति फ्री में करता। उसने सरकारी बाशिंदों की कमजोर नस पकड़ ली थी। फ्री में कोई जूते भी मारे तो उन्हें मंजूर है। बस शर्त इतनी है कि जूते उनके नाप तथा जाने-माने ब्रांड के होने चाहिए। यों जूते खाना सरकारी कर्मियों का प्रिय शगल है। बिना चाँदी का जूता खाए किसी का भी वैधानिक-से-वैधानिक काम करने से उन्हें सख्त परहेज है।

ऐसा नहीं है कि बाबाराम ने इन संपर्कों का लाभ नहीं उठाया। इनके ही कारण और कृपा से वह राजधानी के एक विख्यात क्लब का मेंबर बन बैठा, जबकि उसे बताया गया था कि वहाँ सदस्यता की प्रतीक्षा-सूची सत्तर-अस्सी साल की है। उसके लिए क्लब केवल अपनों के बीच साख और महत्त्वपूर्ण शासकीय सूत्रों तक पहुँच का साधन था। न उसे टेनिस खेलने में रुचि थी, न रुक्वैश में। उसे अंदर ही अंदर आशंका थी कि यदि भाग-दौड़ की तो उसके थुलथुल शरीर का साँस का सफर थम न जाए? यों भी जब वह तेज चलता तो उसका दम फूलता। बिना किसी मेडिकल जाँच-पड़ताल के उसने मान लिया था कि उसका दिल तेज रफ्तार का अभ्यस्त नहीं है। हर विकल्प को ठुकराने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसके लिए केवल ताश का खेल मुफीद है।

क्लब में उसके जैसे अन्य कई पैसेवाले थे, जो वहाँ चोरी-छिपे शराब पीने और सामाजिक तथा शासकीय संपर्क बढ़ाने आते। वहाँ ज्यादातर अधिकारी ब्रिज की टेबल पर जमे रहते। बाबूराम की कोशिश के वाबजूद ब्रिज के नियम उसके पल्ले नहीं पड़े। उसे आभास हुआ कि बुद्धि का यह अनुचित उपयोग है। दिमाग का इस्तेमाल सिर्फ धनार्जन के लिए होना चाहिए। उसने ऐसे अफसर खोजे, जो समान रुचि के हों। वह उनके साथ एक टेबल घेरकर बैठता और जान-बूझकर हारने का प्रयास करता। एकाध हजार नकदी की हार उसकी भविष्य की जीत की नींव रखेगी, ऐसा उसे भरोसा था। ईमानदार सरकारी कर्मी को घूस से परहेज है, पर ऐसी ताश की जीत से उसे क्या ऐतराज होगा? वक्त का वक्त कटा और पैसे-के-पैसे बने।

इस उदार व्यवहार के विपरीत वह जब अपने धंधेवालों के बीच होता तो अकसर हारने की कसर पूरी कर लेता। उसने तीन पत्ती खेलते-खेलते ऐसी विशेषज्ञता हासिल कर ली है कि वह चेहरे का भाव पढ़कर विरोधी के पत्तों का अनुमान लगाने में समर्थ है।

दीवाली उसका प्रिय त्योहार है। इस दौरान वह ईमानदार से ईमानदार अफसर को कीमती भेंट देकर भ्रष्ट करने में सफल है। अंग्रेजों के समय से चली आ रही ‘डाली’ की परंपरा आज भी ऐसे ही दानवीरों के कारण जीवित ही नहीं, फल-फूल भी रही है। सबको इंतजार रहता है दीपावली के आगमन का। अफसरों की बस्तियों में महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के घरों में गिफ्ट की ऐसी बाढ़ आती है कि एक-दो वर्ष के लिए शादी-ब्याह में भेंट देने का प्रबंध हो जाता है। कोई भेंट दे और उसका फायदा न उठाए, यह कैसे संभव है? बाबूराम ने हर सरकारी नियम के अपवाद का लाभ उठाया है। उसकी दौड़ सिर्फ अफसर तक न होकर मंत्रियों तक भी है। उसकी निष्ठा कोई दल या उसूल न होकर केवल मुनाफे तक सीमित है। उसकी नेकनीयती के सब कायल हैं।

त्योहार मनाने के सबके अपने-अपने अंदाज हैं। निर्धन पूरे वर्ष उधार लेकर एक दिन के आनंद की सजा भोगते हैं। त्योहार उनके लिए उधार का पर्याय है, फिर भी सामाजिक प्रतिष्ठा का सवाल है। त्योहार तो धूमधाम से मनाना ही मनाना है। क्या पता, लक्ष्मी मैया कृपालु होकर उनकी झोंपड़ी में छप्पर फाड़कर धन की वर्षा कर दें। इस प्रतीक्षा में श्रद्धा-लगन से वह सरकारी बिजली की चोरी कर रोशनी से झोंपड़ी को नहलाते हैं। कुछ सुबह से रात तक ठर्रे में नहाते हैं। उनके लिए सुध-बुध गँवाना, कभी-कभी मिलावटी दारू से प्राणों से हाथ धोना ही उत्सव का अर्थ है। भारत में दवा से लेकर दारू तक में मिलावट का प्रचलन है। माँग बढ़ने से असली नकली का मिश्रण प्राण-हरण की सीमा तक बढ़ना स्वाभाविक है। कमाई से कोई क्यों चूके?

मिलावट माँग के अनुरूप है, इसे पूरा करनेवाले के दारू के ठेके हैं। जरूरी नहीं है कि वह अच्छे नागरिक न हों, वह पूजा-पाठी हैं। रोज मंदिर जाते हैं। समाज में उनकी प्रतिष्ठा है। उनकी मान्यता है कि वे लक्ष्मी मैया के सच्चे आराधक हैं। पैसा कमाना ही मैया की सच्ची आराधना है। वह इससे उज्र क्यों करें? मैया को जब शराब के ठेके से आपत्ति नहीं है तो मिलावट से क्यों हो? क्या मैया का कोई निर्देश है कि यह धंधा मत करो, यह वर्जित है। वह स्वयं को नैतिकता की तराजू पर तौलते हैं और खुद ही संतुष्ट भी हो जाते हैं। हमें यकीन है कि चोर-हत्यारे भी इसी किस्म के मापदंड अपनाते होंगे। यों दोहरे मापदंड भारत में खास लोकप्रिय हैं। मिलावटी शराब का कारीगर खाने-मसाले में मिलावट को अक्षम्य अपराध मानता है, ‘‘किसी भी इनसान को अपने लाभ के लिए दूसरे की जान लेने का क्या हक है?’’ उसे यह ध्यान भी नहीं आता है कि वह भी ऐसी ही हरकत में लिप्त है।

बाबूराम ऐसों से एक कदम आगे है। उसने पूजा-पाठ से पाप मिटाने के लिए घर में ही मंदिर स्थापित किया है। एक ब्राह्मण पुजारी वहाँ घंटी बजाने और आरती उतारने को दिन भर उपलब्ध है। वह भगवान् को सुलाकर ही घर जाता है। कौन कहे कि दुःखी प्राणियों की हर पल गुहार सुननेवाले भगवान् सो भी पाते हैं कि नहीं? पुजारी ने प्रभु को अपनी ही छवि में ढाल लिया है। वह निजी सुविधा से भगवान् को सुलाकर घर-बार के कर्तव्य में जुटता है। मुख्य मंदिर के पास ही बाबूराम ने लक्ष्मी मैया की मूरत भी सजाई है। क्लब की सदस्यता पाकर  उसे तीन पत्ती की लत लग गई है। जब तक वह पत्ते न फेंटे, उसे चैन नहीं पड़ता है। आजकल यही उसका रोजमर्रा का शगल है।

दीगर है कि पत्नी उसे अकसर चेताती है, बुरी आदतों से दूर रहने को। कह इसे धंधे की मजबूरी बताता है कि आठ-दस अधिकारियों से संपर्क रखना एक विवशता है। नहीं तो कभी बिक्रीकर जान खाएगा, कभी माप-तौल, तो कभी मिलावट विभाग। यहाँ ऊपरवाले को साध लो तो नीचेवाले दस्तूरी से संतुष्ट है। नई-नई फरमाइशों से जान बचती है वरना यही चैन के ही नहीं, धंधे के भी दुश्मन हैं। कभी मिलावट की झूठी खबरें फैलाते हैं, कभी अनियमितताओं की।

फिर भी वह पत्नी की सलाह का सम्मान करता है। वह पढ़ी-लिखी है! उसका परिवार किराना किंग से कहीं अधिक समृद्ध है। पत्नी का भाई राजनीति से जुड़ा है। वह पास के सूबे में मंत्री है। मन-ही-मन वह डरता भी है। कहीं पत्नी ने शिकायत कर दी तो सब संपर्क धरे रह जाएँगे। कानून स्त्रियों का पक्षधर है। पहले पुलिस गिरफ्तार करती है, फिर जाँच। कोई कुछ भी कहे, दहेज भारतीय समाज की कू्रर सच्चाई है। अंदर-ही-अंदर वह अपराध-बोध से भी ग्रस्त है। करोड़ों के दहेज में वह बिका है। कोई बराबरी का सौदा तो है नहीं उसकी शादी। यों उसके लिए मुनाफे की ‘डील’ रही है। वह हीन-भाव से भी ग्रस्त है। अब वह क्लब में शराब चखता भर है, पीता नहीं है। लौट भी जल्द आता है।

पर रोशनी का उत्सव उसके लिए ताश का त्योहार है। पत्नी को भी पता है, उनके परिवार की भी यही परंपरा है। यदि लक्ष्मी की कृपा होती है, तभी तो कोई जीतता है। चाहे तीन पत्ती हो या ब्रिज। दशहरे के बाद से ताश के लततियों का लक्ष्मी-पूजन प्रारंभ हो जाता है। उनकी दीवाली की शुरुआत और अंत ताश के पत्तों से ही होता है। बाबूराम को इस दौरान पत्नी की इजाजत है, देर-सबेर करने की। वह ताश की गड्डी को लक्ष्मीजी के सामने रखकर ‘पवित्र’ करता है, वंदना में सिर झुकाता है और ‘पूजा’ को निकल पड़ता है। व्यापारियों के घर उसकी पूजा के मंदिर हैं। कभी उसका घर भी इस पावन कर्म के लिए प्रयुक्त होता है। पैसा कमाना जिनकी इकलौती साधना है, उनके घर का लक्ष्मी का मंदिर बनना गौरव का विषय है। वह इसके प्रति सजग है। साधकों के लिए महँगी विदेशी शराब और विविध व्यंजन, नमकीन आदि का प्रबंध होता है। साल में एकाध बार ऐसा मौका आ ही जाता है। इस दौरान उसको क्लब गमन पर जैसे स्वैच्छिक रोक भी लगती है। ऐसा नहीं है कि शासकीय साधक लक्ष्मी पूजन नहीं करते हैं, पर इसके लिए उन्हें अपनी बिरादरी का साथ ही पसंद है। ऐसे भी उनकी पूजा की राशि सीमित है, बहुत हुई तो हजारों तक।

बाबूराम का तीन पत्ती पूजन लाखों में होता है। दो-तीन लाख हारना, वह भी एक रात्रि पूजन के दौरान, ऐसों के लिए सामान्य दुर्घटना है। कौन सा उनकी जेब से जा रहा है? जिनसे डंडी मार के हासिल किया है, उन्हीं से और कर लेंगे। फिर भी पूजा में आशा से अधिक चढ़ावा उन्हें कचोटता है। पैसेवालों का स्वभाव है, पैसे को दाँत से पकड़ना। नहीं तो चंचल लक्ष्मी रुकती कैसे? बाबूराम कोई अपवाद नहीं है। उसकी प्रवृत्ति भी यही है।

इस बार वह दुःखी है। उसे लगता है कि लक्ष्मी मैया कुछ रूठ गई हैं। नहीं तो दस-पंद्रह दिनों में पचास-साठ लाख की हार मुमकिन ही कैसे है? वह घर के मंदिर के पुजारी से सलाह लेता है। उसकी राय है कि कोई विशेष अनुष्ठान, यज्ञ-हवन आवश्यक है, नाराज मैया को मनाने के लिए, नहीं तो पूरे साल का सवाल है। लक्ष्मीजी नाराजगी चलती रही तो धंधे के चौपट होने का खतरा है। पंडितों की एक पूरी टीम विधि-विधान से लक्ष्मी मैया की पूजा-अर्चना में लगा दी गई है, उनको प्रसन्न करने के वास्ते। बाबूराम भी जानता है, उसकी सामाजिक साख, दौलत तीन पत्ती की इमारत पर टिकी है। कहीं दैवी शक्ति का आघात लगता रहा तो यह बिना नींव की बिल्डिंग कभी भी ढह सकती है। मेहनत भी नियति पर निर्भर है, जिसके लिए लक्ष्मी मैया का कृपालु होना अनिवार्य है।

पत्नी को उसकी परेशानी का पता है। उनके मतानुसार तीन पत्ती क्रिकेट की तरह चांस का खेल है। उनके परिवार में ब्रिज लोकप्रिय है। योग्यता और चांस दोनों जरूरी हैं ब्रिज में जीत की खातिर। वह ब्रिज क्यों नहीं सीख लेता? अफसरों से संपर्क का यह बेहतर साधन है। नई स्किल सीखेगा तो व्यापार के नए गुरु भी हाथ लगेंगे। यदि बुद्धि का इस्तेमाल न हो तो वह कुंद हो जाती है। उसका प्रयोग जरूरी है, धार तेज रखने को। समृद्धि का ताश का महल बचाने को इधर वह ब्रिज का अभ्यास कर रहा है। क्या पता, कोई नया गुर हाथ लगे धंधा बढ़ाने को। उसके लिए लक्ष्मी मैया को मनाना ताश के माध्यम से ही मुमकिन है, पुजारी तो अपने प्रयत्न कर ही रहा है। वह भी अपना योगदान क्यों न दे ब्रिज सीखकर। दीवाली उसके लिए केवल ताश की महारत है।

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